वर्णीजी-प्रवचन:पुरुषार्थसिद्धिउपाय - श्लोक 161
From जैनकोष
भोगोपभोगमूला विरताविरतस्य नान्यतो हिंसा ।
अधिगम्य वस्तुतत्त्वं स्वशक्तिमपि तावपि त्याज्यौ ।।161।।
भोगोपभोगपरिमाणव्रतनामक छठवें शील का वर्णन―अब यहाँ भोगोपभोग प्रमाण व्रत का वर्णन करते हैं, भोग और उपभोग के निमित्त से हिंसा होती है इस कारण से इस श्रावक को अपनी शक्ति के अनुसार भोग और उपभोग के साधनों को और भोगोपभोग की प्रवृत्तियों को छोड़ देना चाहिये । यहाँं शक्ति के अनुसार बताया है क्योंकि घर में रहने वाला श्रावक भोग और उपभोग की चीज का सर्वथा त्याग नहीं कर सकता, क्योंकि घर में रह रहा है स्वयं भोजन का प्रबंध करता, उसके लिये कुछ कमाई भी करता और भोजन का आरंभ भी बनाता बनवाता ये सब उस गृहस्थ में संभव हैं, इस कारण से उसके भोग और उपभोग का सर्वथा त्याग तो हो नहीं सकता इसलिये बताया है कि अपनी शक्ति के अनुसार भोग और उपभोग के साधन का त्याग कर दे । अब इसमें जो हरी का नियम रखते हैं कि मैं जिंदगी पर्यंत केवल इतनी हरी खाऊंगा तो यह भोगोपभोग व्रत में आ गया । जो अचित्त वस्तुयें हैं गेहूं, दाल, चावल आदिक उनको भी भोग में शामिल समझिये लेकिन सचित्त वस्तुवों के त्याग पर ज्यादा दृष्टि डालिए । जैसे कोई नियम ले लिया कि हम 25 हरी से अधिक जीवन पर्यंत न खायेंगे तो उसका यह संकल्प तो हो गया कि मेरा इन 25 हरी के सिवाय बाकी सब वनस्पतियों का त्याग है । मन से उसका विकल्प हट गया इसलिये उसके अहिंसाव्रत लगा । तो गृहस्थ के भोग और उपभोग पदार्थों के निमित्त से स्थावर जीवों की हिंसा का बंध होता है उसको टालने के लिये ऐसा परीक्षण करना चाहिये कि किस वस्तु में अधिक पाप है । अब देखिये भोग का साधन अन्न भी है और भोग का साधन हरी भी है पर
उसमें विवेक तो करना चाहिये कि अन्न के सेवन में अधिक पाप है या हरी के सेवन में । हरी तो साक्षात् स्थावर जीव है उसका तो त्याग करना चाहिये फिर ऐसा विवेक करके जिसमें पाप अधिक जंचे उसका त्याग कर देना चाहिये । तो भोगों के त्याग में अहिंसाव्रत चलता है इसी प्रकार जो उपभोग के पदार्थ हैं जैसे वस्त्र, पलंग सवारी जो बार-बार भोगने में आये उसे उपभोग कहते हैं । तो उपभोग की चीज का भी नियम रहे, हम इतने वस्त्र, इतनी सवारी आदि रखेंगे ऐसा नियम कर लेने में भी अहिंसाव्रत चलता है क्योंकि उसमें आरंभ कम हो जायेगा । आरंभ कम होने से अहिंसाव्रत की सिद्धि हैं, इस कारण भोग और उपभोग का अपनी । शक्ति माफिक श्रावक को परित्याग कर देना चाहिये । इसमें भी अहिंसाव्रत चलता है । किसे अहिंसाव्रत बोलते हैं उसे कहते हैं―