वर्णीजी-प्रवचन:पुरुषार्थसिद्धिउपाय - श्लोक 78
From जैनकोष
अमृतत्त्वहेतुभूतं परममहिंसारसायनं लब्ध्वा ।
अवलोक्य वालिशानामसमंजसमाकुलैर्न भवितव्यम् ꠰꠰78꠰।
अज्ञानियों के मौजी असंगत बर्ताव को देखकर आकुल न होने का उपदेश―धर्मसाधना के प्रसंग में कितनी ही बातें ऐसी देखने में आती हैं कि जिनमें चित श्रद्धा से डांवाडोल हो सकता है । एक मोटी बात यह है कि दिखता है कि जो लोग हिंसा करते हैं, अटपट ढंग से रहते हैं, संयम का नाम नहीं है, श्रद्धा भी नहीं है और मौज उड़ाते हैं, खूब धनिकों बनते हैं और नाना तरह की उन्हें सरकार की राज्य की पदवियां प्राप्त हैं और उनका आचरण हिंसापूर्ण रहता है । जो लोग मांसभक्षण कर रहे हैं इससे बढ़कर और अन्याय की बात क्या कही जाये? लेकिन ऐसे लोग भी बड़े धनी तथा बड़े-बड़े ओहदों पर देखे जाते हैं । तो ऐसी बातें देख करके कुछ श्रद्धा डांवाडोल न होनी चाहिए । ऐसे प्रसंगों में भी ज्ञानी पुरुष तो श्रद्धा से च्युत नहीं होता । प्रथम तो यह समझिये कि बाहर में परिग्रह में जितना फंसाव है, जितना उनमें रमन है, ढंग है वह सब एक विपत्ति है, विडंबना है, आकुलता है, दुर्गति का हेतुभूत है, अतएव उन अज्ञानी परिग्रही धनिकों को देखकर, बड़े नामवरी वाले, राज्य के बड़े पदों वाले पुरुषों को देखकर उन्हें दयापात्र समझना चाहिये । वे ईर्ष्या करने योग्य नहीं हें कि हमें भी उतना बड़ा बनना है क्योंकि वे स्वयं अशांत बन रहे हे, ऐसे लोग तो दया के पात्र हैं, न कि ईर्ष्या के पात्र हैं । उसी बात को इस गाथा में कह रहे हैं कि मोक्ष के कारणभूत उत्कृष्ट अहिंसारूप रसास्वादन को प्राप्त करके अब अज्ञानी जीवो के अयोग्य बर्ताव को देखकर व्याकुल न होना चाहिये, अपना धर्म न छोड़ देना चाहिये, चाहे ऐसे लोग भी दिख रहे हों कि जो धर्म की ओर जरा भी दृष्टि नहीं देते और अधर्म, हिंसा में बड़ा प्रेम रखते हैं और फल फूल रहे हैं सांसारिक दृष्टि से तो ऐसे मूर्खों को देख करके अपने चित्त में व्याकुलता न करनी चाहिये कि देखो यह क्या है, हम तो धर्म के लिये बड़े-बड़े उपवास आदिक कर रहे हैं, सब कुछ करते हुए भी यहाँ तो यही हालत है, साधारण परिस्थिति है और वहाँ देखो क्या हो रहा है ऐसा अपने में आश्चर्य न करें और न धर्म से च्युत हों । अरे पूर्वजन्म में इनका भाव अच्छा था, उनसे पुण्य का बंध किया था, उसके उदयकाल में इतना मौज मान रहे हैं, पर यह मौज उनकी दुर्गति का कारण है । उसको देखकर व्याकुल न होना चाहिये और ऐसी परिणति बनाना चाहिये कि जिससे आत्मधर्म के पालन का क्षण प्रतिक्षण उत्साह बड़े । सारांश यह है कि मिथ्यादृष्टि जन यदि हिंसा धर्म में ठहर रहे हैं और लौकिक सुखों से सुखी हो रहे हैं तो उनको यों देखकर अपने चित में व्याकुलता न लायें ।
अहिंसापालन के लिए अपना निर्णय और आचरण―भैया ! अपना यह निर्णय रखें कि शांति का मार्ग तो एक आत्मस्वरूप का जानना और उसमें रमण करना है, दूसरा कोई मार्ग नहीं । दूसरे किसी भी मार्ग में कुमार्ग पर चलते हुए जो जीव मौज पा रहे हैं उनका वह मौज करना झूठ है, उससे उनका हित नहीं है, ऐसा समझकर अपने निश्चित किये हुये अहिंसा धर्म में दृढ़ता से रहें और इसी निर्णय के साथ चलें कि हम अपने आपको कितना जान रहे हैं, कितना अपनी और रहते हैं कितनी कषायें त्यागी हैं, कितना विवाद दूर किया है, कैसा उस चैतन्यस्वरूप में हमारा प्रेम है? ये सब बातें निरख कर बड़े यत्नपूर्वक अपने कार्य में लगना चाहिये, दूसरे संपन्न पुरुषों को देखकर आश्चर्य न करना चाहिये । जो अहिंसाव्रत के पालने के इच्छुक हैं वे अंतरंग में निर्विकार चैतन्यस्वरूप के अवलोकन में उत्सुक हैं । और व्यवहार में जो जिस पद में हैं उनके अनुसार अपनी अहिंसा को बनाये हुए हैं । उसका बाहरीरूप क्या बनता है, सो वर्णन चल रहा है कि त्रस हिंसा का तो श्रावक पूर्ण परित्याग करता है और स्थावर हिंसा में भी अप्रयोजनीभूत स्थावरों की हिंसा का परित्याग करता है और साथ ही इस लोक में बड़े मौज में रहते हुए अज्ञानियों को, मांसभक्षियों को, शिकारियों को निरखकर अपने चित्त को डांवाडोल नहीं करता कि यह क्या मामला है हम तो धर्म करते हुए भी उतने के उतने ही पाये जा रहे हैं, यहाँ तो बड़ी रूखी स्थिति है और वहाँ वे अधर्मी देखो कितना मौज में अपना जीवन व्यतीत करे रहे हैं, ऐसा खेद ज्ञानी पुरुष नहीं करता । वह तो यह सब मायामयी समझता है, असत्य समझता है, उन जीवों की बरबादी का कारण समझता है, ऐसी प्रवृति होती है ज्ञानी पुरुष में और वह अंतरंग में और बहिरंग में अपने पद के अनुसार अहिंसाधर्म का पालन करता है । इसी में यद्यपि सब कर्त्तव्य बसे हैं कि उन्हें क्या करना चाहिये और किस रूप में अपनी परिणति बनाना चाहिये? एक अहिंसा ही धर्म है और हिंसा ही अधर्म है, यह बात अपने-अपने पदों में घटाना चाहिये और अहिंसा के पद पर चलना चाहिये और जैसे रागद्वेष मोह हटे वैसा ज्ञान करना चाहिये । वह ज्ञान है वस्तु के स्वरूप में मग्नता का भान कराने वाला । उस तत्त्व से प्रेम करें और अपने अंतः सहज चैतन्यस्वरूपमात्र मैं हूँ, ऐसी अपनी प्रतीति रहे ।