वर्णीजी-प्रवचन:भावपाहुड - गाथा 10
From जैनकोष
खणणुत्तावणवालणवेयणविच्छेयणाणिरोहं च ।
पत्तोसि भावरहिओ तिरियगईए चिरं कालं ।।10।।
(19) तिर्यंचगति के छहों काय में नाना प्रकार के दुःख―भावरहित मुनि दुर्गति को प्राप्त होता है । इस प्रकरण में नरकगति के दुःखों का वर्णन किया गया था । अब इस गाथा में तिर्यंच गति के दुःखों का वर्णन कर रहे हैं । तिर्यंचगति के जीव छहों काय में मिलते हैं । पृथ्वीकाय, जलकाय, अग्निकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय । त्रसकाय में विकलत्रय अर्थात् दोइंद्रिय तीनइंद्रिय चारइंद्रिय और पशु पक्षी, ये सब तिर्यंच कहलाते हैं । तो इसमें जब यह जीव पृथ्वीकायिक हुआ तो उसका खोदना, नीचे पत्थरों में सुरंग लगाना, फोड़ना आदि ये सब दुःख सहे गए हैं, एकेंद्रिय जीव है, उसके रसना आदिक नहीं हैं । वह किसी तरह अपना दुःख किसी के सामने प्रकट नहीं कर सकता । चेतना वहाँ भी है, स्पर्शन इंद्रिय केवल है, तो स्पर्शनइंद्रिय के होते संते जैसी संज्ञा होती है उस संज्ञा के माफिक उनको कष्ट का अनुभव चलता है, तो जब पृथ्वीकायिक हुआ तो कुदाल आदिक से खोदने का दुःख इसने पाया । जब यह जीव जलकायिक हुआ तो अग्नि को तपाना, ज्यादह पानी ढोलना, किसी शीशी आदिक में पानी को बंद कर देना आदिक नाना प्रकार के दुःख उस जलकाय के जीवों को है । अग्निकाय हुए तब यह जीव उस अग्नि को फूंकना, जलाना, बुझाना, बंद कर देना, आदिक दुःख उस अग्निकायिक जीव ने सहे । जब यह वायुकायिक हुआ तो पंखे से चलना, बिजली के पंखों से चलना, हवा को फाड़ देना, रबड़ आदिक में रोक देना, नाना प्रकार के कष्ट वायुकायिक जीव ने सहे । जब यह जीव वनस्पतिकायिक हुआ तो फूल पत्ता, फल आदिक को विदारना, करना, फाड़ देना फोड़ देना, रांधना, साग भाजी के ढंग से काटना आदिक दुःख वनस्पतिकायिक जीव ने सहे, जब यह जीव विकलत्रय में आया । दोइंद्रिय, तीनइंद्रिय, चारइंद्रिय जीव हुआ तो किसी को गर्मी में पानी में छोड़ देना, मार देना, जला देना आदि कितने ही कष्ट सहे । कितने ही हिंसक लोग तो मछली पकड़ने के लिए वंशी के डोर के कोने पर केचुवा बांध देते हैं, जल में डाल देते हैं इसलिए कि मच्छी आये और उन केचुओं को खाये । कैसी वेदना में वे कीड़े रहते हैं । तो नाना प्रकार में कष्ट इस जीव ने सहे । कुछ लोग तो इन जीवों को रोध कर मार करके इन्जेक्शन बनाते या अन्य प्रयोग करते हैं तो अनेक प्रकार से इन विकलत्रयों की हिंसा होती है । कभी यह जीव पशु पक्षी जलचर हुआ तो वहाँ पर दुःख तो परस्पर के घात का है । एक दूसरे को मार डालते हैं । छिपकली कितने ही कीड़ों को खा जाती । और वे जीव एक दूसरे को मार डालते । तो ऐसे इन पंचेंद्रिय तिर्यंचों में एक तो परस्पर घात करने का दुःख है, दूसरे-मनुष्यादिक इनको वेदना पहुंचाते हैं । भूखा रखें, प्यासा रखें, बांध दें, रोक दें, बहुत बोझा लाद दें, कितनी ही तरह के दुःख पहुंचाये जाते हैं, शिकारी लोग अपना मन बहलाने के लिए या मांस खाने के लिए शिकार करते हैं । निरपराध जीवों की निर्मम हत्यायें करते हैं । तो कितने कठिन दुःख तिर्यंचगति में होते हैं । तो ऐसे नाना प्रकार के दुःख इस जीव ने तिर्यंचगति में जन्म ले करके पाये सो यह सब किसका परिणाम है ? भावरहित होकर प्रवृत्ति करने का परिणाम है । इस भावपाहुड़ में मुख्यतया मुनियों को समझाया गया है कि अविकार सहज ज्ञानस्वभाव का बोध, अनुभव हुए बिना द्रव्यलिंग से पार नहीं हो सकते । बल्कि जब अपने आपके स्वरूप में यह मैं हूँ ऐसी भावना नहीं बनती तो इसकी तो प्रकृति है कि किसी न किसी में मैं का अनुभव करके रहेगा । जब निज स्वभाव में मैं का अनुभव नहीं बनता तो कर्मोदयज विभावों में मैं का अनुभव चलेगा और उस ही को व्यक्त करने के लिए देह में मैं का अनुभव चलेगा । तो जहाँ देहात्मबुद्धि है और धर्म की मुद्रा रखकर निर्ग्रंथ दिगंबर मुद्रा धारण करके उसमें अहंकार करे, उसमें मैं का अनुभव करे तो वह तो घोर मिथ्यात्व का अनुभव करता । ऐसे जीव खोटी गतियों में दुःख पाते हैं, सो हे भव्य जीव एक अपने भाव को विशुद्ध करो और फिर जिस तरह उसमें प्रगति हो, अभ्यास बने, संयम बने उस तरह आगे आचरण पालन करें ।