वर्णीजी-प्रवचन:भावपाहुड - गाथा 145
From जैनकोष
इय णाउं गुणदोसं दंसणरयणं धरेह भावेण ꠰
सारं गुणरयणाणं सोवाणं पढम मोक्खस्स ꠰꠰145꠰꠰
(548) गुण व दोष का स्वरूप जानकर सम्यक्त्वरमण का आदेश―आत्मा का गुण और आत्मा का दोष दोनों को ही जानना आवश्यक है ꠰ दोष न जाने तो उससे छूटने का उमंग कैसे बने ? गुण न जाने तो उसमें लगने का उमंग कैसे बने ? दोष क्या है ? मिथ्यात्व और कषाय ꠰ संक्षेप में कहा जाये तो इन दो बातों को कह लीजिए ꠰ अविरत भी कषाय का रूप है और केवल योग तो आस्रव का हेतु है, बंध का कारण नहीं ꠰ तो देखिये―बात दो हैं दोष की, मिथ्यात्व और कषाय ꠰ मिथ्यात्व नाम है उसका जो अपना स्वरूप नहीं उसे अपना स्वरूप समझे ꠰ जो अपना वास्तविक सहजस्वरूप है उसका बोध न होना यह बहुत बड़ा दोष है ꠰ सब पापों का राजा है मिथ्यात्व और कषाय क्रोध, मान, माया, लोभ, ये तो होते हैं दोष ꠰ सो इन दोषों की भी उत्पत्ति कैसे है सो भी समझना ꠰ ये स्वभाव से दोष नहीं होते किंतु कर्मों का उदय होने पर ये आत्मा में दोष बनते हैं, दोष नैमित्तिक हैं, औपाधिक हैं ꠰ आत्मा के स्वभाव नहीं हैं इस वजह से हम दोषों से हठ सकते हैं ꠰ यदि मेरे स्वभाव से ही दोष होते त तो दोषों से छुटकारा न हो सकता था ꠰ अब गुण क्या है―सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक᳭चारित्र ये पर्यायरूप गुण हैं, शुद्ध पर्याय है, ये स्वभाव से होते हैं ꠰ जैसे कहते ना कि सम्यग्दर्शन 7 प्रकृतियों के नाश से होता है ꠰ तो नाश के मायने क्या है ? अभाव ꠰ तो उसका अर्थ यों लगेगा कि 7 प्रकृतियों के होने से मिथ्यात्व होता है ꠰ जब 7 प्रकृतियां नष्ट हो गई तो मिथ्यात्व न हो सकेगा ? मिथ्यात्व न हो सकेगा तो अपने आप सम्यक्त्व हुआ ꠰ सम्यग्ज्ञान―आत्मा का स्वरूप जानने का है, जैसा है वैसा जानने का है ꠰ उल्टा जानने का स्वरूप आत्मा का नहीं है ꠰ उल्टा जानना किसी उपाधि के कारण होता है, पर स्वभाव नहीं है ऐसा कि यह उल्टा जानता फिरे ꠰ जो यथार्थ है सो ही ज्ञान में आया ꠰ यह है आत्मा का गुण ꠰ और सम्यक᳭चारित्र―अपने स्वभाव में रमण करना ꠰ यह तो आत्मा का सत्तासिद्ध अधिकार है कि वह अपने आपमें रमे, मगर कर्मविपाक के आक्रमण में यह अधिकार होते हुए भी प्राप्त नहीं हुआ ꠰ जैसे-जैसे आत्मा के स्वरूप की दृष्टि प्रबल होती जाती है, बाह्य विषयों में विमुखता होती जाती है वैसे ही वैसे अपने आपमें इसका रमण होता है ꠰ अपने आपके स्वरूप में रम जाना, समा जाना यह है स्वभाव ꠰ तो गुण और दोष दोनों को जानकर हे मुने, हे भव्य जीव गुण को तो धारण कर और दोषों से मुक्त हो ꠰
(549) सम्यक्त्व की गुणप्रधानता―गुणों में सर्वप्रथम गुण है सम्यक्त्व ꠰ सम्यक्त्व है तो समस्त गुणों के विकास होते जायेंगे और सम्यक्त्व नहीं है तो गुणविकास न हो सकेगा, जैसे नीचे यदि सीधी पतेली रख दी जाये तो ऊपर सब सीधी पतेली होती जायेंगी और नीचे ही उल्टी पतेली रखे तो ऊपर की लाइन उल्टी ही चलेगी ꠰ जिसके भीतर में यह प्रकाश जगा है कि में आत्मा समस्त पदार्थों से परभावों से निराला केवल ज्ञानस्वरूप आनंदमय हूं, इसमें किसी अन्य का प्रवेश नहीं ꠰ इसमें से कुछ बाहर जाता नहीं ꠰ तो ऐसे अव्याबाध मौलिक इस आत्मस्वरूप को जिसने जाना और उसमें ही रुचि जगी है उनको अब संसार के संकट नहीं रहे, क्योंकि संकट मायने बाह्यवस्तु में कुछ बनना बिगड़ना ꠰ अब बाह्य को बाह्य जानें उससे कुछ लगाव न रखें तो संकट कैसे आ सकते ꠰ यह सम्यक्त्व गुण समस्त गुणों में प्रधान गुण है और मिथ्यात्व दोष समस्त पापों में प्रधान पाप है, सो इस मोहबुद्धि को छोड़कर आत्मा में विशुद्ध स्वरूप के अनुभव का प्रयास करें ꠰ जो आज बड़े हैं उनका बड़प्पन इसी में है कि वे आत्महित का कार्य बना लें ꠰ जो अनंत काल में अब तक नहीं बन पाया ऐसा अपूर्व अपना पौरुष बना लें इसी में बड़प्पन है ꠰ बाकी धन वैभव से, लौकिक इज्जत प्रतिष्ठा आदिक से जो बड़प्पन है उसका कुछ मूल्य नहीं ꠰ इस लोक में भी नष्ट हो सकता है और मरण होने पर तो आगे जीव के साथ रहने का नहीं, पर आत्मा के निज सहज ज्ञानस्वभाव का अनुभव बना, स्पर्श हुआ उसके एक अनुभवन का स्वाद आया, शांति यहाँ ही है ꠰ ऐसी अनुभूति बने तो उसके संकट दूर हुए ꠰ मोक्ष महल की प्रथम सीढ़ी ꠰ यह सम्यग्दर्शन मोक्ष रूपी महल की पहली सीढ़ी है ꠰ जो पहली सीढ़ी में न पहुंचे वह आगे की सीढ़ी पर कैसे जायेगा ? तो सम्यग्दर्शन को धारण करें ꠰
(550) निमित्तनैमित्तिक योग के कुछ उदाहरण―ट्रेन चल रही है, मान लो 12 डिब्बे उसमें लगे हैं ꠰ अब पूछते हैं कि बताओ इस गाड़ी को कौन चला रहा ? तो किसी का उत्तर है कि इन्जन चला रहा, किसी का उत्तर है गार्ड चला रहा, किसी का उत्तर है कंट्रोलर चला रहा ꠰ यों कितने ही उत्तर आते हैं उसके ꠰ और वस्तुत: देखा जाये तो प्रत्येक पुर्जे में उस ही में काम हो रहा ꠰ कोई पुर्जा अपने से बाहर कोई क्रिया नहीं कर रहा ꠰ अब निमित्त नैमित्तिक योग से देखो तो जो सबसे पीछे का 12वां डिब्बा है उसका निमित्त 11वां डिब्बा है, 11वें का 10वां, यों क्रम से चलते जाइये, सभी डिब्बे के निमित्त से चल रहे ꠰ इन्जन के निमित्त से सभी डिब्बे नहीं चल रहे ꠰ उस 12वें डिब्बे सीधे निमित्त की बात यहाँ कह रहे, फिर निमित्तनैमित्तिक बताकर मूल निमित्त बतायेंगे ꠰ हां तो बताया कि 12वें डिब्बे के चलने का निमित्त 11वां है इस तरह क्रम-क्रम से चलते जाइये―दूसरे डिब्बे का निमित्त पहला डिब्बा है और वह पहला डिब्बा उस चलते हुए इन्जन का निमित्त पाकर चला ꠰ और इन्जन चलने का निमित्त तो जो उनके पेंच पुर्जों के जानकार लोग होंगे वे उसका भली भांति विशेषण करके बता सकेंगे ꠰ स्टीम चली, उसका निमित्त पाकर, उसमें लगा हुआ सीधा डंडा चला, फिर उसके निमित्त से चक्र को प्रेरणा मिली ꠰ यों ही अब लगाते जावो ऊपर तक ꠰ आखिर सभी पेंच पुर्जों के चलने का एक मूल निमित्त मिलेगा कोई एक छोटा पुर्जा ꠰ अब उस पुर्जे को चलाया ड्राइवर ने, सो यहाँ भी देखो ड्राइवर के हाथ के चलने का निमित्त क्या रहा ? शरीर की वायु का स्फुरण होना, और शरीर की वायु के स्फुरण का निमित्त क्या रहा ? जीव के योग का परिस्पंद ꠰ और उसका कारण क्या रहा ? उसकी इच्छा, एक ड्राइवर की इच्छा ꠰ समर्थ ड्राइवर का जो भाव है वह सबका मूल निमित्त रहा ꠰ एक सड़क पर खड़ा होकर दोपहर में कोई बच्चा ऐना (दर्पण) को इस तरह करे कि इस मंदिर के अंदर भी सूर्य की धूप आ जाये, सो मंदिर में जो ज्यादह प्रकाश आया तो बताओ उसका निमित्त कौन रहा ? सूर्य नहीं रहा वह दर्पण ꠰ और, इस तरह का चमकदार दर्पण बन जाये इसका निमित्त रहा वह सूर्य ꠰ तो यहाँ के उजेले का मूल निमित्त सूर्य है इसलिए सीधा ही यहाँ कह देते कि इस उजेले का निमित्त सूर्य है ꠰
(551) कर्मास्रव के होने वाले निमित्तनैमित्तिक योग का परिचयन―अ जरा यही बात कर्मों में घटाओ ꠰ जो नये कर्म आते हैं, बंधते हैं ꠰ कर्म क्या कहलाते हैं ? इस जीव के साथ बहुत सूक्ष्म पुद᳭गल लगे हैं संग में ꠰ वे आंखों से नहीं दिखते ꠰ अत्यंत सूक्ष्म हैं वे कार्माण वर्गणायें ꠰ तो जीव के जब खोटा भाव होता है तो ऐसा ही निमित्तनैमित्तिक योग है कि वे सूक्ष्म कार्माणवर्गणायें कर्मरूप बन जाती हैं ꠰ कर्म क्या हैं ? इसका उत्तर जैनशासन में स्पष्ट है कार्माणवर्गणायें बहुत सूक्ष्म पौद᳭गलिक मैटर हैं, वे आंखों नहीं दिखती ꠰ अनेक बातें ऐसी होती है कि जिनका आप कोई उत्तर ठीक-ठीक नहीं दे सकते ꠰ यह ही कह देंगे कि ऐसा ही प्राकृतिक योग है ꠰ जैसे नीम कड़वी क्यों होती ? तो कह देते कि ऐसी ही प्रकृति चल रही है जीव के साथ कि जो कार्माणवर्गणायें कर्मरूप बंध गई वे भी जीव के साथ चल रही, और जो कार्माण वर्गणायें कर्म न बनी, कभी कर्म बन गया वह भी जीव के साथ मरण होने पर जाता है ꠰ तो जीव है सारे शरीर में और उतनी ही जगह कार्माण वर्गणायें भरी खूब भरी पड़ी हुई हैं वे कर्मरूप बंध गई ꠰ तो जो कर्म बंधे हैं उनका निमित्त क्या है ? तो झट कह देते हैं ना रागद्वेष, मगर सीधा निमित्त नहीं है रागद्वेष ꠰ यहाँ दर्पण और सूर्य की तरह की बात मिलेगी ꠰ जो नये कर्म बंधे हैं उनका निमित्त है उदय में आने वाले कर्म ꠰ याने जो कर्म पहले से बंधे पड़े हैं वे कर्म जब निकलते हैं फल देने के लिए, अपना फल खिलाकर जो कर्म दूर होते हैं उसे कहते हैं उदय ꠰ तो ऐसा जो उदय है मायने उदय में आने वाले जो कर्म है, निकलते हुए जो कर्म हैं वे है नवीन कर्मों के आश्रव के निमित्तभूत कारण ꠰ जैसे―कोई ट्रेन में बैठा हुआ व्यक्ति स्टेशन पर आते ही अपने खुद के उतरते समय याने उस ट्रेन को छोड़ते समय किसी दूसरे भाई को सीट देकर उतर जाता है ऐसे ही समझो कि जो कर्म निकल रहा उसका निमित्त पाकर दूसरे कर्म आ गए तो नवीन कर्म आने का निमित्त है उदय में आये हुए कर्म ꠰ मगर एक बात और है खास कि उदय में आये हुए कर्म में ऐसा निमित्तपना आ जाये कि नवीन कर्म का निमित्त बन जाये उसका निमित्त है रागद्वेष ꠰ इसलिए ठोस कारण हुआ रागद्वेष ꠰ जैसे इस कमरे के अंदर सूर्य का प्रकाश आने का ठोस निमित्त हुआ सूर्य, न सूर्य होता दर्पण के सामने तो यहां कमरे में उजाला कैसे हो सकता था ? और भी एक दृष्टांत लो ꠰ कोई आदमी किसी अपने ही कुत्ते के साथ कहीं जा रहा था तो रास्ते में किसी आदमी को देखकर उसने छू भर कह दिया बस उस कुत्ते ने उस दूसरे पुरुष पर आक्रमण कर दिया ꠰ काट लिया ꠰ अब बताओ कचहरी में मुकदमा किस पर चलेगा ? उस आदमी पर, न कि कुत्ते पर ꠰ तो मूल तो मालिक रहा ꠰ ऐसे ही नवीन कर्मों के आस्रव का निमित्त तो मूल में रागद्वेष रहा ꠰ तो ये रागद्वेष भाव कर्मों के मूल कारण है ꠰