वर्णीजी-प्रवचन:भावपाहुड - गाथा 146
From जैनकोष
कत्ता भोइ अमुत्तो सरीरमित्तो अणाइणिहणो य ꠰
दंसणणाणुवओगो णिद्दिटठो जिणबरिंदेहिं ꠰꠰146꠰꠰
(552) निमित्त नैमित्तिक योग के परिचय से प्राप्त जीव के कर्तृत्व का निर्देश―जो ज्ञानी रागद्वेष भावों को स्वत्व से अलग समझ रहा है, ये मेरे स्वभाव नहीं हैं, ये औपाधिक भाव है ꠰ मेरा स्वरूप तो ज्ञान और आनंद है ꠰ तो उसके वे रागद्वेष भी हीन हो जाते हैं, क्षीण हो जाते हैं ꠰ बंध में भी अंतर हो जाता है ꠰ तो यह कार्य होता है सम्यक्त्वगुण के प्रताप से ꠰ ज यह ज्ञान जगा कि मेरा आत्मा ऐसा सहज अविकार स्वरूप है बस इसी ही में ज्ञान रखो तो मोक्षमार्ग में बेखटके चल रहा ꠰ सो हे कल्याणार्थी पुरुष तू जीव को इस-इस स्वरूप से समझ ꠰ यह जीव कर्ता है निश्चय से अपने ज्ञान परिणमन का ꠰ व्यवहार से कर्ता है अपने पुण्य पापभाव का और निमित्त से कर्ता है कर्मबंध का ꠰ सब ध्यान में लाओ वस्तुस्वातंत्र्य और निमित्तनैमित्तिकयोग ꠰ इन दोनों का स्वरूप जानें और दोनों के परिचय का प्रभाव भी जानें और दोनों का परिचय होने पर विभाव से हटकर स्वभाव में आना है ꠰ इसमें कोई एकांत कर ले कि जीव में तो जीव की योग्यता से अपने आप अपने समय पर रागद्वेष हुआ ꠰ अब उस रागद्वेष से अलग हटने का कोई उपाय नहीं रहा ꠰ उसमें उसके स्वभाव से हुआ ꠰ यदि कोई यह कहे कि हटने का उपाय कैसे न बनेगा ? यह जानेगा कि ये रागद्वेष मेरे स्वरूप नहीं हैं, हट जायेगा तो कैसे जानेगा कि रागद्वेष मेरे स्वरूप नहीं हैं ? उसका उपाय है निमित्तनैमित्तिक योग का परिचय ꠰ चूंकि ये रागद्वेष कर्मउपाधि का सन्निधान पाने पर हुए हैं इस कारण मेरे स्वरूप नहीं है ꠰ विकार मेरे स्वरूप नहीं है, इसे कौन समझायेगा ? चाहे किसी भी बात से समझो अंत में जब तक यह बात चित्त में न आयेगी कि ये उपाधि का सन्निधान पाकर हुए तब तक ठीक समझ में न आयेगा कि ये विकार मरे स्वरूप नहीं ꠰ तो जीव निश्चय से कर्ता है अपने आपके परिणमन का और निमित्त से कर्ता है कर्मबंध का कर्मास्रव का दोनों ही बातों की समझ हमको स्वभाव की ओर ले जाती है ꠰
(553) जीव के भोक्तृत्व अमूर्तत्व का निर्देश―जीव भोक्ता है अपने आपके भावों का ꠰ सुख दु:ख आकुलता, विचार आदि जो कुछ भी यहां परिणमन चल रहे हैं, जीव भोक्ता है अपने भावों का ꠰ और चूंकि ये सुख दु:ख आदिक भाव स्वभाव से नहीं हुए क्योंकि जीव का स्वभाव सुख दु:ख आदिक भोगने का नहीं है, सुख दु:खादिक हुए हैं कर्म उपाधि का निमित्त पाकर तो ये भाव भी नैमित्तिक हैं, औपाधिक हैं ꠰ इस कारण मेरे स्वरूप नहीं हैं, यह बात समझ में आयेगी ꠰ तो यह जीव निश्चय से भोक्ता है अपने भावों का, व्यवहार से भोक्ता है अपने सुख दु:ख आदिक कर्मों का ꠰ यह जीव अमूर्त है और अमूर्त होने के कारण यह अपने ही भावों का कर्ता भोक्ता बन जाता है ꠰ पर एक प्रश्न हो जाता कि ज यह जीव अमूर्त है तो यह शरीर में ही बंध कर क्यों रह गया ? यह इससे हटकर जाता क्यों नहीं है ꠰ तो इसे ही कहते हैं निमित्तनैमित्तिक योगवश परतंत्रता या मूर्तपना ꠰ कर्मों से आच्छादित होने के कारण यह जीव मूर्त बन गया है ꠰ यह अन्य प्रकार से मूर्त बना है, कहीं रूप, रस, गंध, स्पर्श आया हो जीव के स्वरूप में, उस ढंग से मूर्त बना हो सो नहीं है, किंतु परतंत्रता रूप से मूर्त बना है यह ꠰ इस समय आप कितना ही चाहें कि शरीर तो वही धरा रहने दो जहां आपका शरीर है और यह आत्मा जरा दो चार हाथ इधर आ जाये तो नहीं आ पाता, तो सिद्ध होता है कि मूर्त पदार्थ से यह रुक गया ꠰ सो यह मानो मूर्त बन गया, पर स्वरूप मूर्त नहीं है ꠰ स्वरूप अमूर्त है और संसार दशा में भी स्वरूप अमूर्त है और मुक्त होने पर तो अमूर्त बेदाग (निष्कलंक) प्रकट हो गया ꠰
(554) जीव का शरीरमात्रपना अनादिनिधनता दर्शनज्ञानोपयोगमयपना―आधार के पारतंत्र्य के कारण यह जीव शरीर प्रमाण है, शरीर से बाहर नहीं, शरीर से कम नहीं ꠰ कभी कोई पुरुष शंका करते कि लकवा मार गया तो इस हाथ में अब जीव नहीं रहा, पर ऐसा नहीं है ꠰ जीव सर्वत्र रहा शरीर में, पर कोई अंग बिगड़ जाये तो अब यह जीव उस अंग के निमित्त से कुछ ज्ञान नहीं कर सकता ꠰ आँख बिगड़ जाये तो आँख ज्ञान द्वारा नहीं कर सकता, हाथ बिगड़ जाये तो हाथ के द्वारा ज्ञान नहीं कर सकता ꠰ रह रहा है शरीर प्रमाण, पर इंद्रिय का कोई अंग बिगड़ने से अब वह ज्ञान नहीं कर सकता ꠰ यह जीव कितना बड़ा है, स्वतंत्र कुछ नहीं बता सकते ꠰ अनादि से शरीर प्रमाण है और मोक्ष होगा तो जिस शरीर से मोक्ष होगा उस शरीर के प्रमाण है ꠰ तो जीव स्वयं अपने आप किसी आकार में नहीं रहा, इसी कारण इसको निराकार कहते हैं ꠰ ऐसा अनादि अनंत है यह जीव, जिसका न आदि है न अंत है ꠰ ज्ञान और दर्शन उपयोग से सदा उपयुक्त चलता है ꠰ जानना देखना यह क्रिया जहां बनी रहती है ऐसे इस आत्मस्वरूप को जानो और समझिये कि यह ही मेरा निजी स्वभाव है, इतनी ही मेरी सारी दुनिया है ꠰ इससे आगे मेरा कहीं कुछ नहीं है ꠰ यों इस आत्मतत्त्व पर दृष्टि जगने से सम्यक्त्व गुण प्रकट होता है ꠰