वर्णीजी-प्रवचन:भावपाहुड - गाथा 15
From जैनकोष
देवाण गुण विहूई इड्ढो माहप्प बहुविहं दट᳭ठुं ।
होऊण हीणदेवो पत्तो बहुमाणसं दुक्खं ।।15।।
(25) द्रव्यलिंग धारण कर हीन देवों में उत्पत्ति―हे आत्मन् ! तूने अनेक बार द्रव्यलिंग धारण किया, किंतु परमार्थ जो ज्ञानभाव है, जो आत्मा का सहज स्वरूप है उसकी दृष्टि के बिना कुछ तपश्चरण व्रत आदि के प्रताप से अकाम निर्जरा के प्रभाव से तू इन देवों में उत्पन्न हुआ तो ऐसे हीन देवों में उत्पन्न हुआ कि जहाँ यह अहिर्निश कष्ट ही कष्ट मानता रहता है । अपने से महान ऋद्धिधारक देवों की विभूति देखकर, उनके ऋद्धि ऐश्वर्य को देखकर यह मन में जलता ही रहा । तो ऐसे हीन देव बनकर अनेक मानसिक कष्टों को सहता रहा । सो हे आत्मन् ! तू आत्मस्वभाव का आदर कर जिस भाव के प्रताप से उत्तम वस्तु की प्राप्ति होती है, अन्यथा भावरहित द्रव्यलिंग के प्रभाव से स्वर्ग में हीन देव होगा और वहाँ देखेगा दूसरे देवों की ऋद्धियां कि इसमें अणिमा महिमा आदि अनेक ऋद्धियां हैं । इसके आज्ञाकारिणी देवांगनाओं का बहुत बड़ा परिवार है । इसकी आज्ञा अन्य देवों पर चलती हैं । इसका ऐश्वर्य महान है मैं पुण्यरहित हूँ, यह बड़ा पुण्यवान है, मेरी तो बड़ी तुच्छता है, ऐसा निरखकर तू मानसिक दु:खों से संतप्त रहेगा ।