वर्णीजी-प्रवचन:भावपाहुड - गाथा 16
From जैनकोष
चउविहविकहासत्ती मयमत्तों असुहभावपयडत्थो ।
होऊण कुदेवत्तं पत्तोसि अणेयवाराओ ।।16।।
(26) बाह्य परिग्रह के त्याग का लक्ष्य―हे मुने, जहाँ बाह्य परिग्रह का त्याग किया है । अनेक प्रकार के सुलभ आरामों को छोड़ दिया है तो अब अपने विशुद्ध भावों की भावना में निरंतर बढ़ते रहने का उद्यम कर । अन्यथा तू खोटे देवों में उत्पन्न होकर अनेक मानसिक दुःख पायेगा और अब तक ऐसी खोटी भावनाओं के ही कारण द्रव्यलिंग धारण करके भी हीन देवों में उत्पन्न होकर अनेक दुःख प्राप्त करता रहा । चार प्रकार की विकथाओं में आसक्त होकर यह जीव अनेक बार द्रव्यलिंग में होने बाले कुछ व्रत के प्रताप से देव तो हुआ मगर कुदेव हुआ । इन विकथाओं के कहने में या तो कोई राग का प्रयोजन है या द्वेष का प्रयोजन है या अपने आपकी महिमा जताने का प्रयोजन है । सो ये तीनों ही प्रयोजन इस जीव के विकट अशुभ भाव हैं सो ऐसी स्त्रीकथा, भोजनकथा, देशकथा, राजकथा, इन चार कथाओं के कहने में आसक्त परिणाम वाले हुए और जाति आदिक आठ मदों कर उन्मत्त हुए क्योंकि उस भेष में अनेक भक्तों के द्वारा विनय प्राप्त हुई, पूजा प्राप्त हुई, तो यह मद से उद्धत हो गया और विकल्पों का भाव आने में जातिकुल आदिक आश्रयभूत बन गए । पूजा हुई तो उसका तो अभिमान हुआ ही मगर साथ ही अपने आपका यह भी ख्याल किया कि मैं ऊंची जाति में उत्पन्न हुआ, ऊंचे कुल में उत्पन्न हुआ ऐसा अपना मूलभाव रखकर वहाँ अभिमान का भाव करता है । इसी प्रकाररूप, ज्ञान, पूजा, शारीरिक बल ऋद्धि तपश्चरण आदिक के ख्याल कर करके अपने विकल्पों को पोषता है तो ऐसे शुभ भाव रखकर यह जीव अनेक बार नीच देवपने को प्राप्त हुआ इस कारण हे भव्य निर्ग्रंथ भेष धारण कर भीतर में निर्ग्रंथता प्राप्त कर । यह आत्मस्वरूप समस्त बाह्य पदार्थों से रहित है । समस्त परभावों से विविक्त है । मात्र अपने बारे में अपने आपके स्वरूप का अनुभवने वाला जीव समस्त संकटों को दूर करता है और स्वभाव भावना से रहित परभावों के लगाव में आये हुए सारे संकटों को सहता है । इस तरह मन, वचन, काय को संभाल कर अपने आपके स्वरूप की भावना में अपना उपयोग कर ।