वर्णीजी-प्रवचन:भावपाहुड - गाथा 33
From जैनकोष
सो णत्थि दव्वसवणो परमाणुपमाणमेत्तओ णिलओ ꠰
जत्थ ण जाओ ण मओ तियलोयपमाणिओ सव्वो ꠰꠰33।।
(59) भावलिंग की प्राप्ति के बिना त्रिलोक में सर्वत्तर अनंते जन्ममरणों का क्लेश―जैसे कि लोकभावना में कहते हैं कि ज्ञान बिना यह जीव लोक के सर्वप्रदेशों में जन्ममरण कर चुका, वही बात यहाँं दर्शाते हैं कि जिसने परमार्थ भाव नहीं पाया, अपने अविकार सहज ज्ञानस्वभाव का परिचय जिसको नहीं मिला, ऐसा जीव व्रत तप आदिक भी बहुत कठिन कर ले, लेकिन शरीर और वचन की क्रिया का निरोध नहीं होता, किंतु ज्ञानस्वरूप से ज्ञान में ही बस जाये, ऐसी स्थिति को परमार्थभाव कहते हैं । तो परमार्थ भाव के बिना द्रव्यलिंग को धारण करके मुनिपना अपना प्रकट करते रहने पर भी वह तीनों लोक के सर्वस्थानों में जन्ममरण करता है । 343 घनराजू प्रमाण लोक में कोई ऐसा प्रदेश नहीं बचा जहाँ इस जीव ने अनंत बार जन्ममरण न किया हो । सो यहाँं यह बात दर्शायी गई है कि कोई जीव द्रव्यलिंग को भी धारण कर ले और भावलिंग नहीं है अर्थात् अविकार ज्ञानस्वभाव में आत्मतत्त्व की स्वीकारता नहीं, है, परपदार्थ और परभाव में ही जिसको आत्मत्व जच रहा है वह पुरुष द्रव्यलिंग को, मुनिभेष को धारण करके भी भावलिंग न होने के कारण द्रव्यलिंग से भी मुक्ति को प्राप्त न कर सका । सो यहाँ यह अपने में प्रयोग करना और समझना है कि चाहे धर्म के नाम पर कितने ही पूजन, विधान उत्सव कर लिए जायें, पर यदि भावलिंग प्राप्त नहीं हुआ है ? अर्थात् अपने अविकार सहजस्वरूप में आत्मत्व का परिचय नहीं बना है तो लोक में सर्वस्थानों पर इसका जैसा जन्म मरण चलता रहा, वैसा ही भविष्य में भी चलता रहेगा । खुद-खुद को न समझ सके तो वहाँ बड़ी विपत्तियों का साधन जुट जाता है । तो हे आत्मकल्याण के इच्छुक जनों, अपने आपके स्वरूप की समझ अवश्य ही बना लेना चाहिए, जिसके प्रताप से जो भी व्रत तप आदिक आचरण में आये तो वे सरल रीति से सुगम विधानतया पालन किए जा सकें ।