वर्णीजी-प्रवचन:भावपाहुड - गाथा 35
From जैनकोष
पडिदेससमयपुग्गलआउगपरिणामणामकालट्ठं ।
गहिउज्जियाइ बहुसो अणंतभवसायरे जीवो ।।35।।
(61) भावलिंग की प्राप्ति के बिना अनंतभवसागर में अनंत पुद्गलढेरों का अनंतेवार गृहीतौज्झितना―इस जीव ने इस अपार संसार समुद्रविषे अनंतकाल अनंतानंत परमाणुओं को अनंत बार ग्रहण कर-करके छोड़ा है, याने भावलिंग पाये बिना जितने जगत में पुद᳭गल स्कंध हैं उन सबको अनंत बार ग्रहण किया और छोड़ा । कितने ही श्रम कर डाले तो भी दुःखों से मुक्ति प्राप्त न हुई । कितने हैं ये पुद्गलस्कंध, जिनका कोई परिमाण नहीं । लोकाकाश के जितने प्रदेश हैं उन प्रत्येक प्रदेशों पर और पर्यायों के आयु प्रमाण व काल के सब समयों में परिवर्तन से जैसा योग और कषाय के परिणमन का परिणाम मिला वैसी ही गति जाति आदिक में नामकर्म के उदय से इसने अवस्था पायी और ऐसा भ्रमण करते-करते अनंत अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी काल व्यतीत हुआ । इतने समय में परमाणुस्कंधों को अनंतबार ग्रहण किया और छोड़ा, लेकिन अब तक भी इसको मुक्ति प्राप्त न हो सकी । इसका कारण यह है कि अपना अविकार जों सहज ज्ञानस्वरूप है उस पर इसकी दृष्टि नहीं हुई । उसको अपने रूप में अपनाया नहीं ।