वर्णीजी-प्रवचन:भावपाहुड - गाथा 34
From जैनकोष
कालमणंतं जीवो जम्मजरामरणपीडिओ दुक्खं ।
जिणलिंगेण वि पत्तो परंपराभावरहिएण ।।34।।
(60) भावलिंग की प्राप्ति बिना जन्मजरामरणपीडावों में अनंतकालयापन―इस संसार में इस जीव के परंपरया भावलिंग न रहा अर्थात् जैसे अनेक निकट भव्य जीव इस परमार्थ ज्ञानस्वभाव को पाकर सिद्ध हुए उस ज्ञानस्वभाव की दृष्टि नहीं हुई, इसे अनंत काल पर्यंत जन्म जरा मरण से पीड़ित होता हुआ दुःखी ही अब तक चला आया है । द्रव्यलिंग तो धारण किया, पर वहाँ भावलिंग की प्राप्ति न हुई, इस कारण द्रव्यलिंग धारण करने का, व्रत तप आदिक क्लेशों का श्रम करने का व्यर्थ ही समय गया । यद्यपि द्रव्यलिंग भावलिंग का साधन है याने निर्ग्रंथ निष्परिग्रह दशा में ही आत्मा में ज्ञानमात्र भाव की दृष्टि और अनुभूति बनती है तो भावलिंग का साधन है द्रव्यलिंग । तो भी काललब्धि पाये बिना, आत्मा के विशुद्ध परिणामों की लब्धि हुए बिना भावलिंग की प्राप्ति नहीं हुई तो द्रव्यलिंग निष्फल ही तो रहा । इससे यह समझना चाहिए कि मोक्षमार्ग तो भावलिंग ही हैं, कभी ऐसा नहीं हुआ कि द्रव्यलिंग रखकर भावलिंग के बिना कोई कुछ भी मोक्षमार्ग में कदम रख सका हो । तो होता यही है, द्रव्यलिंग पहले धारण हो वहाँ भावलिंग आता है । कोई प्रश्न कर सकता कि द्रव्यलिंग पहले किस कारण धारण किया जाता उसका उत्तर यह है कि द्रव्यलिंग धारण न हो तो व्यवहार का लोप होगा । और द्रव्यलिंग से ही सिद्धि नहीं है यह भी समझना जरूरी है इसलिए भावलिंग को प्रधान मानकर उस प्रधानभाव की ओर ही दृष्टि रखकर द्रव्यलिंग को सफल करने का संदेश दिया गया है । अनेक मुनिजन द्रव्यलिंग धारण कर भी अज्ञानी हैं, पर किसी समय उनके ज्ञानदृष्टि जगे तो भावलिंग बन जाता है । कितने ही बहुत से सम्यग्दृष्टि ज्ञानी पुरुष हैं ऐसे जिनके वैराग्य जगा और उस भावलिंग के बाद जो कुछ वैराग्य आदि के वेग के कारण गुरु के पास जाना, उनसे निवेदन करना, इस प्रकार की जो वृत्ति जगी वह हो रही है और गुरुमहाराज भी कृपा करके उसे दीक्षा दे रहे हैं तो जहाँ वस्त्र उतारे, केशलोंच किया उस क्रिया के अंदर ही वहाँ भावलिंग हो जाता है अर्थात् 7वें गुणस्थान के परिणाम हो जाते हैं । तो इस प्रकार द्रव्यलिंग वीतरागता का स्थान है और भावलिंग प्रधान मोक्षमार्ग का अमोघ स्थान है, इससे द्रव्यलिंग की भी आवश्यकता है और भावलिंग की तो अनिवार्य आवश्यकता है ही ।