वर्णीजी-प्रवचन:भावपाहुड - गाथा 47
From जैनकोष
सो णत्थि तं पएसो चउरासीलक्खजोणिवासम्मि ।
भावविरओ वि सवणो जत्थ ण ढुरुढुल्लिओ जीवो ।।47।।
(81) पदार्थपरिणमनविधि―इस लोक में जो कुछ भी विशिष्ट-विशिष्ट परिणमन होते हैं वहाँ निमित्तनैमित्तिक भाव अवश्य है । जो परिणमन पहले न था वह परिणमन अब हुआ है तो इसमें कोई निमित्त अवश्य है । हाँं समान परिणमन चलता रहे तो उसमें निमित्त नहीं होता । जैसे धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाशद्रव्य, कालद्रव्य शुद्ध जीव और शुद्ध परमाणु, इनमें समान-समान परिणमन चलते हैं, उसमें कोई विषम परिणमन नहीं है, पर विषम परिणमन हुआ, मायने पहले और भांति है अब और भांति परिणमा है तो वहाँ कोई निमित्त अवश्य होता है । यही पद्धति जगत के सब पदार्थों में घटित कर लीजिए । ऐसे ही आत्मा के संबंध में बात है, आत्मा की जो सृष्टि चल रही है, जो रचना बन रही है, कभी नारकी हुए, कभी पशु बने, पक्षी बने, मनुष्य बने, देव बने, ये जो नाना प्रकार के परिणमन चल रहे हैं और भावों में क्रोध मान माया लोभ शांति अशांति जो भी परिणमन चल रहे सो ये परिणमन कोई बाह्य निमित्त पाकर हो रहे हैं, जिसमें बाह्य निमित्त का अभाव होने पर जो परिणमन है वह तो स्वभाव परिणमन है और दूसरे निमित्त के सद्भाव होने पर जो परिणमन है वह विभाव परिणमन है । तो इस जीव ने अब तक क्रोध मान, माया लोभ मोह, अज्ञान इन भावों को ही किया जिसका फल यह है कि यह संसार में डोलता रहा । यदि यह अपने उपयोग में परमार्थ ज्ञान स्वरूप को ग्रहण कर लेता कि मैं यह हूँ तो इसका सब कुछ बदल जाता, मुक्ति की सम्मुखता होती, शांत जीवन रहता, और शांत होने का एक यह ही उपाय है । अपने आप में आपको समझ लें कि वास्तव में अपनी सत्ता से अपने आप में यह हूँ ज्ञानज्योति मात्र । बाकी जो हो रहा है सो निमित्तनैमित्तिक भाव से हो रहा है ।
(82) निज व अन्य सभी पदार्थों के परिणमन की सबकी समान रीति व उसके जानने से शिक्षा की उपलभ्यता―जो बात हम बाहर के पदार्थों में निरखते हैं वही विधि तो हमारी दृष्टि में है । बाहर सर्वत्र निमित्तनैमित्तिक योग देख रहे हैं, दीपक जल रहा है । बाती वहाँ निमित्त है, तेल वहाँं निमित्त है या तेल की बूंद ही उपादान है, वही दीपक रूप बन रहा । दीपक उसका आधार है बाहर में, और निरखते जाइये महिला का जैसा हस्तादिक का व्यापार होता वैसी ही रोटी बनती, लड्डू की शक्ल बनती । अग्नि का संबंध पाकर कड़ाही गर्म हो गई । उस गरम कड़ाही का संबंध पाकर तेल गरम हुआ । उसका निमित्त पाकर पूड़ी सिकी । यह सब निमित्तनैमित्तिक भाव दिख रहा । यह ही बात तो अपने में है । हम जैसा परिणाम करते हैं उस प्रकार का कर्मबंध होता है और उस कर्म में जैसी आदत बन गई उसका उदय होने पर मुझमें वैसा विकार छा जाता है । अब यह जीव अज्ञानी है । उसने विकार को अपना स्वरूप मान लिया । अब वह अपनी सुध छोड़कर विकार रूप अपने को अनुभवता, और यह ही कारण है कि इसके रागादिक होते रहते हैं । किसी ने दुर्वचन बोल दिया तो यह अपने में यह बात लाता कि इसने मुझे बोल दिया, अब तो मैं गया । अरे ज्ञानमात्र अमूर्त मैं हूँ सो उसे तो दूसरे ने पहिचाना ही नहीं, इसे बोलेगा कैसे? जो जिसको जानता नहीं वह उसको कहेगा क्या? ये जगत के लोग इस अमूर्त ज्ञानमात्र मुझ को जानते ही नहीं हैं तो मुझको ये खोटे बोल बोल ही कैसे सकते हैं, और जिसको देखकर यह खोटा खरा बोला है वह मैं हूँ नहीं, तो मुझे बोला ही क्या है? मैं हूँ सहज ज्ञानज्योति मात्र । यदि इसका दृढ़ता से अभ्यास बन जाये तो आनंद के लिए फिर किसी की पूछना नहीं । आनंद हो ही गया ।
(83) सहज आनंद को जगाते हुए ही परमार्थज्ञान का उद᳭भव―समयसार में बताया है―एदम्हि रदो णिच्चं संतट्ठो होहि णिच्चमेदम्हि, एदेण होहु तित्तो होहिदि तुह उत्तम सोक्खं ।। एक ज्ञानमात्र तू है, इसके अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं हैं, तू इस ज्ञानमात्र आत्मा में ही रत हो जा । यह ज्ञानमात्र आत्मा ही आशीष है । इसमें ही तू शांत हो जा, इसमें ही तू लीन हो जा । फिर तुझको अलौकिक आनंद तुरंत ही मिलेगा । फिर किसी से पूछने की जरूरत नहीं कि मैंने धर्म तो किया पर आनंद नहीं मिल रहा । न जाने कब मिलेगा? जो लोग धर्म के काम करते हुए भी दुःखी रहते हैं और शंका करते हैं कि मुझको धर्म करते इतने वर्ष हो गए पर दुःख ही मुझ पर आ रहे हैं तो उन्होंने दोनों ही बातें नहीं समझी । एक तो धर्म क्या चीज है इसे समझा ही नहीं ओर दूसरे दुःख क्या चीज कहलाती यह भी उन्होंने नहीं समझा । जो लोग यह शंका रखते हैं कि 10 वर्ष मंदिर आते रहे, पूजा करते रहे, हमने खूब धर्म किया, मगर न तो कोई विशेष संतान हुई न धनिक बने, न हम राजा बन सके और कोई परिवार में गुजर गया, दरिद्र भी हो गए तो कहने लगते कि यह कैसा धर्म है । धर्म करने से तो कष्ट होता है ऐसी शंका रखते हैं, पर उन्होंने न धर्म को समझा न दुःख को समझा । धर्म क्या है? आत्मा का जो सहज अविकार ज्ञानस्वरूप है उस मात्र अपने को अनुभवना यह है धर्म । ऐसा धर्म किया क्या उन्होंने, जो यह शंका रखते? अगर किसी क्षण अपने को अविकार ज्ञानमात्र ही निरखते कि मैं यह ही हूँ, इतना ही हूँ और इसकी जो सहज वृत्ति चलती है वही मेरा काम है इस तरह से अगर कोई अनुभवे तो उसे तत्काल शांति है ।
(84) सहजात्मस्वरूप के अनुभवी को तत्काल सहज आनंद का लाभ―सहजात्मरूप के अनुभवी को क्यों तत्काल शांति है ? अशांति का कारण है परपदार्थ का लगाव, वह उस क्षण में है नहीं, तो शांति कैसे न आयेगी? यह सहज शांत स्वरूप है, ज्ञानानंदमय है, परमार्थ धर्मस्वरूप है, तो जिन्होंने धर्म का स्वरूप समझा है उनको कभी अशांति नहीं हो सकती । अच्छा उन धर्म का श्रम करने वालों ने आत्मा का स्वरूप भी नहीं समझा । दुःख क्या है? यह उपयोग अपने ज्ञानस्वरूप से हटकर बाह्यपदार्थों में लगे यह हैं दुःख । यह उन्होंने समझा क्या ? उन्होंने तो यह समझा कि रोज अच्छी आमदनी नहीं होती इसका बड़ा दुःख है, या अमुक बीमार है यह बड़ा दुःख है । यों बाहर की बातों में उन्होंने दुःख समझा । परंतु दुःख है वह जो कि अपने स्वरूप से चिगकर बाह्य पदार्थों की ओर उपयोग लगा है । धर्म करने वाले को यह दुःख नहीं है । उसका तो अपने स्वरूप में ही रमण है । उसको आनंद तत्काल है । ज्ञान आनंद को जगाता हुआ ही उत्पन्न होता है । ज्ञान सही बने और आनंद न आये ऐसा हो नहीं सकता । जहाँ झूठा ज्ञान चलता है वहाँ कष्ट हुआ करता है । सत्य आनंद में कष्ट का नाम नहीं । गुरूजी सुनाते थे कि वेदांत की जागदीशी टीका में एक कथा आयी है कि किसी नई बहू के गर्भ रह गया । उसके बच्चा होना था, तो वह अपनी सास से बोली―मां जी मेरे जब बच्चा पैदा हो तो मुझे जगा देना, कहीं ऐसा न हो कि हमारे सोते हुए में ही बच्चा पैदा हो जाये तो वहाँ मां ने उत्तर दिया कि बेटी तू घबड़ा मत, बच्चा जब भी पैदा होगा तो तुझे जगाता हुआ ही पैदा होगा सोते हुए में बच्चा न होगा । तो इस दृष्टांत को यहाँ घटाया था कि तू किसी से आनंद के लिए पूछ मत, ज्ञान तू सही किए जा, तो वह ज्ञान आनंद को जगाता हुआ ही पैदा होगा । ऐसा नहीं हो सकता कि ज्ञान तो हो गया और आनंद जगे ही नहीं ।
(85) संकटों से मुक्ति पाने के लिये सहजात्मस्वरूप का ज्ञान करने का कर्तव्य―यदि अपने जीवन को पवित्र, आनंदमय बनाना है तो एक आत्मा के सहज स्वरूप का ज्ञान करो । सैकड़ों प्रकार के व्यापारादिक, धन कमाने के तरीके ये सब झंझट हैं । ये तो जीवन चलाने के लिए करने पड़ते हैं, मगर इनसे आत्मा का पूरा तो न पड़ेगा । कुछ समय को भला हो गया लौकिक दृष्टि से तो उससे आत्मा का पूरा न पड़ेगा । आत्मा का पूरा पड़ेगा अपने सहजस्वरूप में अपने को अनुभवने से इसके अतिरिक्त कोई अन्य चेष्टायें धर्म नहीं है, जो कि धर्म के रूपक अनेक रख लिये गये हैं । हालांकि वे सब क्रियायें हैं पूजा आदि और वे हमारे इस धर्ममार्ग में सहायक हैं, मगर सीधा धर्म, जिसके होते ही तुरंत शांति हो वह धर्म है अपने को सहज ज्ञानस्वरूप में अनुभवने में । यह कार्य कीजिए, इसका उद्यम बनाइये । इसकी ओर उद्यम उसका बन सकता है जिसको यह श्रद्धा है कि इसके अतिरिक्त अन्य जो भी समागम ही वे तृणवत् असार हैं । दो बातें एक साथ नहीं हो सकती कि धन वैभव का लोभ भी बनाये रहें, इन बाहरी पौद्गलिक ढेरों को सारभूत मानते रहें और यहाँ धर्म का स्वाद भी मिले । ये दो बातें एक साथ नहीं हो सकतीं । श्रद्धान सही होना चाहिए ।
(86) परमार्थभाव के परिचय बिना चौराती लक्षयोनियों में जन्ममरण करते रहने का कष्ट―मेरे आत्मा के अतिरिक्त अन्य कुछ भी मेरे को सारभूत नहीं है, ऐसा अनुभूत भाव जिसके नहीं हुआ वह जीव चाहे दिगंबर मुद्रा धारण करके बहुत कठिन तपश्चरण भी करले तो भी उसका जन्म मरण कटता नहीं है । भावरहित होकर नाना भेषों में रहकर इस जीव ने सर्वत्र जन्म लिया है । इस संसार में 84 लाख योनियों के निवास में ऐसा कोई पद नहीं रहा, कोई योनि नहीं रही, कोई स्थान नहीं रहा जिसमें किसी जीव ने द्रव्यलिंगी मुनि बनकर भावरहित होकर जन्म मरण न किया हो । योनियां कहते किसे हैं? उत्पत्ति के स्थान को योनि कहते हैं । जैसे गेहूं पैदा हुआ तो वहाँ की खाद जगह जमीन वह उसका योनिभूत है और मुख्य तो गेहूं का दाना यह उसका योनिभूत है । अब वह सचित है, अचित्त है, पका है, अधपका है, शीत है, गर्म है आदिक जो विशेषतायें होंगी, इन-इन विशेषताओं की अनेक डिग्रियां बन गई तो वे सब मिलकर केवल वनस्पति की ही नहीं, सब जीवों को मिलकर 84 लाख योनियां होती हैं । उनमें यह जीव अनंत बार जन्मा और मरा । पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, नित्यनिगोद, इतर निगोद, इनकी तो 7-7 लाख योनियां हैं । वनस्पतिकाय की 10 लाख, दोइंद्रिय, तीन इंद्रिय, चारइंद्रिय इन जीवों की दो-दो लाख, पंचेंद्रिय तिर्यंच पशु पक्षी इनकी 4 लाख, देवगति के जीवों की 4लाख, नारकी जीवों की 4 लाख, और मनुष्यों की 14 लाख, ये सब मिलकर 84 लाख योनियां हैं । बहुत से लोग इस बात को बोला करते हैं कि यह जीव अज्ञान से 84 लाखयोनियों में भ्रमण कर रहा, अपना स्वरूप नहीं तक रहा । अपनी ही सत्ता से मैं स्वयं सहज क्या हूँ यह अनुभव नहीं हो पाया उसका फल है संसार की इन योनियों में भ्रमण करना ।