वर्णीजी-प्रवचन:भावपाहुड - गाथा 46
From जैनकोष
अण्णं च वसिट्ठमुणि पत्तो दुक्खं नियाणदोसेण ।
सो णत्थि वासठाणो जत्थ ण ढुरुढुल्लिओ जीवो ꠰꠰46꠰।
(76) परमार्थभाव बिना वशिष्ट मुनि की अवगतिमूलक प्रगति―आत्मा का अविकार सहज ज्ञानस्वरूप ही इस जीव का सारभूत तत्त्व है, जिसके आश्रय से कर्मों का विध्वंस होता है, मुक्ति प्राप्त होती है । इस अविकार सहज ज्ञानस्वभाव की दृष्टि पाये बिना यह जीव मुनिव्रत धारण करके मुनिमुद्रा द्रव्यलिंग अंगीकार करके कितने ही तपश्चरण कर ले, किंतु परमार्थ भाव के बिना मोक्षमार्ग नहीं बनता । इसके लिए एक यह उदाहरण दिया गया है वशिष्ठ मुनि का । वशिष्ठ मुनि ने निदान बांधकर दुःख ही पाया सो ऐसा एक ही क्या अनेकों उदाहरण है जिससे यह सिद्ध है कि इस जीव ने भावलिंग पाये बिना इस संसार में सर्व प्रदेशों पर अनंत बार जन्म मरण किया । वशिष्ठ मुनि की कथा इस प्रकार है कि गंगा और गंधवती इन दो नदियों का जिस जगह संगम है वहाँ एक जठर कौशिक नाम का तपस्वी रहता था । उसके सुध में एक वशिष्ट नाम का भी तापसी था । वह पंचाग्नि तप तप रहा था । वहाँ गुणभद्र और वीरभद्र ऐसे दो चारणमुनि आये । उन चारण मुनियों ने वशिष्ठ तापस से कहा कि तू अज्ञान से कुतप तप रहा है, इससे कोई सिद्धि नहीं हैं, इसमें जीवों की प्रत्यक्ष हिंसा है । तब तापसी ने प्रत्यक्ष हिंसा देखकर विरक्त होकर जैनीदीक्षा अंगीकार की और उस वशिष्ट तापसी ने एक माह का उपवास लेकर आतापन योग अंगीकार किया, जिसके माहात्म्य से 7 व्यंतर देव आये और बोले कि हम तुम्हारी तपस्या से तुम पर बहुत प्रसन्न है और जो आज्ञा हो सो तुम कहो । तब वशिष्ट मुनि ने कहा कि इस समय तो हमें कुछ प्रयोजन नहीं है, पर किसी जन्म में यदि मैं तुमको याद करूं तो वहाँ हमारी सहायता करना ।
(77) परमार्थज्ञान के अभाव में वशिष्ट मुनि का निदानबंध―कुछ सिद्धिलाभ के बाद वशिष्ट मुनि मथुरापुरी आये और एक माह का उपवास लेकर आतापन योग धारण किया । उसे मथुरापुरी के राजा उग्रसेन ने देखा, उसकी बड़ी भक्ति उमड़ी और यह सोचा कि, मैं इनको आहार कराऊंगा, सो अपने आहार कराने की दृष्टि से उस उग्रसेन राजा ने नगर में ऐसी घोषणा करायी कि इस मुनिराज को दूसरा कोई आहार न देवे । और खुद राजा आहार की विधि लगा लेता था ताकि कहीं रुकावट न हो और मेरे यहाँ ही आहार हो जाये । सो मासोपवास जब पूर्ण हुआ तो पारणा के दिन वह वशिष्ट मुनि नगर में आये तो वहाँ एक दिन अग्नि का उपद्रव देखा । कहीं अग्नि लगी हुई थी । उसे देखकर अंतराय मानकर वह उल्टा फिर गया । इसके बाद फिर मासोपवास धारण किया ꠰ फिर पारणा में आये सो नगर में जैसे ही आये तो वहाँ हाथी का क्षोभ देखा । हाथी मस्त लड़ रहे थे, प्रजा में कुछ क्षोभ उत्पन्न हुआ तो अंतराय जानकर लौट गए । इसके बाद फिर मासोपवास किया, फिर पारणा के दिन नगर में आये तो वहाँ राजा जरासंध का एक पत्र आया था जिसमें कोई कड़ी बात लिखी थी । उसे पढ़कर राजा व्यग्र चित्त था सो राजा मुनि को पड़गाह न सका सो वह अंतराय हो गई ꠰ ऐसे तीन बार मासोपवास किया, बीच में पाड़ना के दिन आये सो प्रजा को मना कर दिया था कि कोई चौका न लगाये, और राजा के यहाँ आहार हो न सका, इसलिए तीन माह तक आहार न हो सका । अंतराय जानकर उल्टा वन में जा रहे थे कि लोग यह कह रहे थे कि यह राजा कैसा है कि खुद मुनि महाराज को आहार देता भी नहीं और दूसरों को आहार देने के लिए मना कर देता । ऐसे जब लोगों के मुख से वचन सुने तो वशिष्ठ मुनि को राजा पर क्रोध उमड़ा और निदान किया कि मैं यहाँ से मरकर इसी राजा का पुत्र होकर इस राजा का विनाश करूं ओर मैं राज्य करूँ, मेरी तपस्या का यह फल प्राप्त होवे ।
(78) वशिष्ठ मुनि की कसभव में क्रूरदृष्टिता―वह वशिष्ठ मुनि निदान से मरकर राजा उग्रसैन की रानी पद्मावती के गर्भ में आया और जन्म लिया । उग्रसैन का यह बालक बड़ा क्रूर प्रकृति का था । पहले भव में तो मुनि था और मासोपवास का बड़ा घोर तप कर रहा था और उग्रसैन को मारने के लिए क्रोध में आकर यह निदान बांधा था, सो वह भाव कहां जाता? जैसे ही वह बालक कुछ सयाना हुआ तो उसकी दृष्टि बड़ी क्रूर थी । तो उस राजा ने इसकी क्रूर दृष्टि को देखकर कांसी की मंजूषा में रखकर और इसका वृत्तांत लेख लिखकर इसे यमुना नदी में बहा दिया था । अब यमुना नदी में बहती-बहती वह मंजूषा कौशांबीपुर में एक मंदोदरी नाम की कलालिनी को प्राप्त हुई । उस कलालिनी ने उस पुत्र को अपना पुत्र मानकर पाला पोषा और उसका नाम कंस रखा । जब वह कंस बड़ा हुआ तो जिसमें जैसी प्रकृति है वह कहां जायेगी ? पूर्व भव का वह मुनि था, राजा उग्रसैन का ध्वंस करने के लिए निदान बांधा था सो क्रूरता उसमें प्राकृतिक थी । जब वह बालक बड़ा हुआ और अन्य बालकों के साथ खेला करे तो सभी बालकों को वह कहीं पीटता, कहीं झकझोरता, कहीं घसीटता । तो उस मंदोदरी के पास बड़े उलाहने आने लगे कि हमारे बालक को तुम्हारा बालक पीटता है । बहुत उलाहने सुन सुनकर मंदोदरी हैरान हो गई और उस कंस बालक को अपने घर से बाहर निकाल दिया ।
(79) वशिष्ठ मुनि का कंसभव में अतिरोद्रपना और आत्मविघात―यह कंस शौर्यपुर पहुंचा और वहाँ वसुदेव राजा के यहाँ पयादा बनकर रहने लगा, एक मुख्य चपरासी बनकर रहने लगा । यह वसुदेव कृष्ण के पिता थे । कुछ दिन बाद जरासंघ प्रति नारायण हुए । उसका पत्र आया कि पोदनपुर का राजा सिंहरत्न उद्दंड हो गया उसको जो बांधकर लायेगा उसको आधा राज्य दिया जायेगा और पुत्री भी पारिणा दी जायेगी । यह पत्र वसुदेव के पास आया तो वसुदेव कंस सहित वहाँ युद्ध में गया और सिंहरथ को बांधकर जरासंघ को सौंप दिया जरासंघ ने अपनी पुत्री जीवयशा और आधा राज्य वसुदेव को देना चाहा, किंतु वसुदेव ने यह बताकर कि यह सब करामात इस कस पयादे की है, सो जरासंघ ने उस कंस के कुल की थोड़ी जानकारी करके अपनी जीवयशा पुत्री को कंस से ब्याहा और कंस को आधा राज्य दिया । अब तो कंस की खूब बन बैठी । अपने राज्य का विस्तार भी बढ़ाया । तो यह कंस मथुरा का राज्य लेकर एक समर्थ राजा बना और अपने पिता उग्रसैन को व पद्यावती माता को बंदी खाने में डाल दिया । इसके बाद फिर बहुत वृत्तांत है । कृष्ण पैदा हुए, उनके द्वारा यह कंस मृत्यु को प्राप्त हुआ । तो यह कंस वशिष्टमुनि का ही तो जीव था, जिसने बड़े उपद्रव किये और अंत में बुरी मौत मारा गया । तो यह सब ज्ञानस्वरूप आत्मीय भावों के पाये बिना व्रत, तप आदिक में बढ़ने का और सामर्थ्य मिलने का यह परिणाम है । तो वशिष्ट मुनि ने निदान बंध करके आत्मा की कोई सिद्धि नहीं पायी । इससे यह जानें कि भावलिंग से सिद्धि होती है ।
(80) भावलिंग बिना द्रव्यलिंग की अप्रयोजकता―भावलिंग का अर्थ है आत्मा के ज्ञानस्वभाव की आराधना । जहाँ किसी भी प्रकार का अंतरंग परिग्रह नहीं है और उपयोग में यह ज्ञानस्वरूप ही समाया है । ऐसी आराधना को भावलिंग की साधना कहते हैं । और द्रव्यलिंग है शरीर की साधनारूप । किसी भी प्रकार का परिग्रह शरीर पर नहीं है । न शस्त्र है, न वस्त्र है और न किसी प्रकार का शृंगार है, न भस्म है न कोई शंख आदिक आडंबर हैं । केवल शरीरमात्र है । शरीर कहां छोड़ा जा सकता था? जो-जो कुछ छोड़ा जा सकता था वह सब कुछ छोड़ दिया गया । केवल शरीर ही रह गया । सो अब शरीर को रखना भी आवश्यक हो गया । सो जीवन रहे, परिणाम ढंग से रहे तो यह रत्नत्रय की साधना भी बन सकेगी, तो जीवनरक्षा के लिए आहार करना भी आवश्यक हो गया । सो आहार एषणा समिति से किया जाता है । जब शरीर साथ है तो एक जगह रहकर भी अनेक पदार्थों से राग होना संभव है इसलिए साधक को किसी भी जगह बहुत समय न रहना चाहिए । तो विहार करने के लिए ईर्यासमिति की साधना बनी । जब यह शरीर है तो बोलचाल करना भी आवश्यक हो गया । तो जो कुछ बोला जायेगा वह भाषासमिति से बोला जायेगा । जब शरीर साथ लिए हुए हैं, अन्य-अन्य साधनायें करना आवश्यक है तो वहाँ स्वाध्याय करना भी आवश्यक हैं । तो स्वाध्याय करने के प्रसंग में बिहार करने के प्रसंग में कमंडल उठाना, शास्त्र उठाना धरना यह भी आवश्यक है । सो पीछी से यत्न पूर्वक शोधकर स्वाध्याय आदिक करना होता है । उसमें आदान निक्षेपण समिति बनती है । जब आहार किया तो शरीर में मलमूत्र भी होते हैं तो उनका फेंकना भी आवश्यक है तो उनका प्रतिष्ठापन निक्षेपण किसी निर्जंतु भूमि पर करना चाहिए । उसके लिए प्रतिष्ठापना समिति का पालन होता है । तो द्रव्यलिंग में इस निर्ग्रंथ मुद्रा में 5 महाव्रत, 5 समितियों का पालन, आवश्यक कार्यों का पालन और शरीर का शृंगार रहित रखना, स्नान का भी त्याग, दंतमंजन का भी त्याग, एक बार आहार लेने का ही प्रयोजन, वह भी खड़े-खड़े और थोड़ा सा ही भोजन, भूमि पर सोना, केश लोच करना आदिक क्रियावों से आसन्न रहते हैं । तो ये सब द्रव्यलिंग से संबंधित बातें हैं । कोई पुरुष द्रव्यलिंग की साधना से तो बड़ा संतोष बनाये और उसमें अहंभाव होने से कोई गल्ती न होने दे, ऐसा अपना खूब परिश्रम बनाये और आत्मा के सहज ज्ञानस्वरूप की कोई सुध ही न हो, उस ओर दृष्टि ही न जाये, उसका अनुभव ही न बने तो ऐसे भावलिंग रहित द्रव्यलिंग में तेज गमन करने वाले पुरुषों को कुछ भी सिद्धि नहीं होती । इस भावपाहुड़ ग्रंथ में आत्मा के सहज, ज्ञानभाव की उपासना का महत्व बताया जा रहा है । उसके बिना व्रत तप आदिक धारण पालन सभी निरर्थक होते हैं ।