वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षपाहुड - गाथा 102
From जैनकोष
गुणगणविहूसियंगो हेयोपादेयणिच्छिदो साहू ।
झाणक्षयणे सुरदो सो तो पावइ उत्तम हाणं ꠰꠰102꠰।
विरक्त साधु की उत्तमस्थानप्राप्ति की पात्रता―कैसा साधु मोक्ष पा सकता है, इसका वर्णन इस गाथा में है। जो साधु वैराग्य में तत्पर है; संसार, शरीर, भोग से जिसे वैराग्य हुआ है; संसार, शरीर, भोग से वैराग्य उन्हीं को हो सकता है जिन्होंने रागरहित ज्ञानमात्र अपना स्वरूप समझा । जब उसे ये राग की सब बातें बेहूदी अनुभव होने लगें तब ही राग छूटेगा । जबरदस्ती राग नहीं छूटता । यद्यपि चरणानुयोग के अनुसार बाह्य चीजों का त्याग कर दे तो उसमें भी संभव है कि बहुत दिन तक जब विषय के साधन सामने न रहें तो उसके भाव भी ठीक हो जायें, किंतु यह नियम नहीं हैं कि बाहर चीज का त्याग कर दे तो उसके भाव सही हो ही जायें । सही भाव होने का कारण तो अविकार ज्ञानस्वरूप का परिचय होना है । मैं अकेला हूँ, अपने ही स्वरूपास्तित्व से रचा हुआ हूँ, इसमें यह ही मात्र मैं हूँ, इसका किसी बाह्य से संबंध नहीं है, यह स्वयं एक ज्ञातादृष्टा है, विकार तो बाह्य कर्म के संबंध से होता है । जैसे दर्पण का स्वभाव प्रतिबिंब नहीं है ऐसे ही मुझ आत्मा का स्वभाव विकार नहीं है, जैसे दर्पण का निज-स्वरूप निजी-झलक है ऐसा ही मेरा स्वरूपमात्र झलक है, और ऐसी दृष्टि करके कुछ अनुभव भी बना हो कि यह मैं सबसे निराला केवल ज्ञानज्योतिमात्र हूँ, इस पर जिसने अभ्यास भी किया हो उसके राग छूटेगा । तो जो तत्त्वज्ञानी साधु है उसे संसार, शरीर, भोगों से वैराग्य होता है ।
ज्ञानी जीव की संसार, शरीर व भोगों से विरक्ति की घटना―संसार से वैराग्य तो यों हुआ कि संसार में जीवस्थान की दृष्टि से कौन कहां कैसे जीव हैं, कैसा यह लोक है, कहां क्या रचना है, कहां कैसे जीव रहते हैं, यह जब उन्हें सही मालूम हुआ तो असारता भी ज्ञात हुई । कहां तो यह जीव अपने शुद्ध चैतन्यमात्र है और कहां अपने स्वरूप को भूलकर ये जीव ऐसी बेढंगी दशाओं में उत्पन्न हो रहे हैं । यह अज्ञान असार है, यह संसार असार है, मायारूप है, यह परमार्थ नहीं है, ऐसा परिचय पाने वाले को संसार से राग नहीं रहता । देह जो भी उत्पन्न हुए हैं ये सब असमान जातीय द्रव्यपर्याय हैं । जीव, कर्म और देह इन तीनों का मिलकर जो एक रूपक बना है वह है देह अथवा जीवपर्याय । कितने प्रकार के जीव के देह हैं, कैसे-कैसे विचित्र आकार हैं, कहां किस रूप इन जीवों का भव में अवस्थान है वे सब कर्म और मायाकृत बातें हैं । एक अजायबघर में जाकर देखते हैं पशुपक्षी कैसे बेढंगे मुख वाले अनेक आकार के किस-किस देश में कैसे-कैसे प्राणी हैं, तो ये तो थोड़े से ही हैं, कितनी तरह के देह हैं, उनकी गिनती होना अशक्य है, असंख्याते तरह के देह हैं और उतने प्रकार के इस जीव के नामकर्म हैं जिनके उदय से ऐसे देह हुए हैं । इन कर्मों को किसने रचा? इस जीव के भावों ने रचा । यह जीव जैसी भावना करता है उसका निमित्त पाकर उस तरह के कर्मों का बंध होता है और उनके उदय में उस प्रकार के शरीर मिलते हैं । तो ज्ञानी जानता है कि यह देह भी असार चीज है, देह से राग नहीं होता ज्ञानी को, भोगों से भी राग नहीं, भोग क्या? बाह्य पदार्थ अथवा उनके संबंध में होने वाले विकार । ज्ञानी जानता है कि ये विकार तो कर्म की छाया है, मेरे स्वरूप में नहीं हैं । कितनी ही तरह की कल्पनायें उठती हैं, परवस्तुओं के बारे में, कितने ही प्रकार के चिंतन चलते हैं, सब कर्मकृत जाल है । आत्मा तो सिद्ध प्रभु की तरह केवल चैतन्य स्वभावमात्र है । तो समस्त विकार इसे जाल प्रतीत हो रहे हैं तो यह विकार में राग कहां करेगा? तो ज्ञानी साधु यों भोगों से भी विरक्त होता है । ऐसा ही पुरुष मोक्षमार्ग में लगता है, जिसको संसार से प्रेम है, इस लोक में नामवरी से प्रेम है, अपनी पर्याय से प्रेम है वह पुरुष मोक्षमार्ग में नहीं लग सकता । वह तो संसार का कीड़ा ही बना रहेगा । उसको शांति का रास्ता नहीं मिलता । जहाँ शांति है उसका ही जिसे पता नही वह शांति पायगा कहां से? शांति है अपने आपके सहज स्वरूप में, एक कल्पना ही तो करता है यह जीव, आज मनुष्यभव में है और मनुष्यभव के योग्य कोई चीज सामने है तो उससे यह रागद्वेष मोह नहीं छोड़ पाता है, पर यह आज मनुष्यभव में न होता, किसी अन्य पर्याय में होता तो उसके लिए यह न कुछ था और जब पर्याय छोड़कर आगे कहीं जायेगा तो उसके लिए यह न कुछ है । हर पर्याय में थोड़े समय को मिले हुए विषयसाधनों में यह जीव राग कर रहा, फल उसका यह हो रहा कि यह जन्ममरण कर रहा । तो जो संसार, शरीर, भोगों की असारता से परिचित है वह विरक्त रहा करता है ।
परद्रव्यपराङ᳭मुख साधु की उत्तमस्थानप्राप्ति की पात्रता―जो साधु परद्रव्यों से पराङ᳭मुख हैं वे ही उत्तम स्थान को प्राप्त करते हैं । परद्रव्यों में क्या-क्या आया? बाहरी क्षेत्र में रहनेवाले पदार्थ वे सब परद्रव्य हैं । देह भी परद्रव्य है, ये कर्म परद्रव्य हैं, कर्म के उदय से जो विकार आते हैं वे भी परद्रव्य माने गए हैं । जो स्वभाव से उत्पन्न होने वाली वृत्ति है उसका तो स्वयं संबंध देखा जाता है और जो किसी परद्रव्य का निमित्त पाकर होने वाली वृत्ति है उस वृत्ति का नाता परद्रव्य के साथ देखा जाता है । भले ही विकारपरिणति जीव में है, किंतु जिसके होनेपर विकार हो, जिसके न रहने पर विकार न हो, विकार का संबंध तो उससे माना जाता है, तो विकार भी परद्रव्य है, इन सबसे जो विमुख है, निराला रहता है वह जीव उत्तम सुख को व उत्तम स्थान को प्राप्त करता है । इस संसारी जीव पर अनादि काल से यह ही विपत्ति छायी है कि इसने परद्रव्यों से ममत्व किया, परद्रव्यों में इसका उपयोग फंसा और उसी संकल्प-विकल्प में रहा और यह आदत भव-भव में करता रहा । फल यह है कि संसार में रुलता चला आया, जब केवल यह जीव यह साहस बनायेगा कि मेरा तो मात्र मैं हूँ, एक परमाणुमात्र भी मेरा किसी पर से नाता नहीं, सबका स्वरूपास्तित्व भिन्न-भिन्न है, किसी के स्वरूप में कोई मिला नहीं, मैं अपने ही स्वरूप में हूँ, अन्य कुछ भी मेरा नहीं, ऐसा जानकर जो परद्रव्य से पराङ᳭मुख रहेगा वही साधु उत्तम स्थान को पायेगा ।
संसारसुख से विरक्त साधु की उत्तम स्थानप्राप्ति की पात्रता―साधु संसारसुख से विरक्त है, संसार का सुख कोई सुख नहीं कहलाता, वह सब वस्तुत: दुःखरूप है । जिसमें आकुलता हो, क्षोभ हो, विह्वलता हो, वह सुख नहीं कहलाता, यह सब क्लेश है, पर इस जीव को अपने वास्तविक आनंद के धाम का पता नहीं तो यह बाह्य पदार्थों में सुख-बुद्धि करता है, और बाहरी पदार्थों से सुख होता, ऐसी जब मान्यता बनाता तो इसका आकर्षण बाहरी पदार्थों से होता है । वहाँ दुःख कुछ कम हुआ तो यह सुख मानने लगा । जैसे किसी को 105 डिग्री ज्वर है और वह उतरकर 101 डिग्री रह जाये तो उसमें यह सुख मानता है और कहता है कि मैं तो अब ठीक हूँ । वस्तुत: देखा जाये तो वह ठीक नहीं है, बुखार अब भी है, किंतु वह बड़ा तेज बुखार अब नहीं रहा, उसके कारण वह दुःख में भी सुख मानता है । उस बुखार की हालत में भी वह अपने को अच्छी स्थिति में समझता है, ऐसे ही संसार में ये सब कष्ट बहुत अधिक हैं, उन कष्टों की कौन गिनती कर सकता? जब कभी यह विषयों के प्रसंग में आता है, किसी भी इंद्रिय के भोग में आता है तो उस समय यह कष्ट में है, क्योंकि आकुलता बिना भोग नहीं होता । क्षोभ वहाँ है मगर उस क्षोभ में भी चूंकि इसको बड़ी आकुलता वाला कष्ट नहीं मालूम हो रहा सो उसे सुख समझ लेता है, वास्तव में संसार में कहीं भी सुख नहीं है । इसके अगर संतान न हो तो ऐसा सोचता कि संतान हो तो सुख है, किसी के अधिक संतान हो गए तो वह ऐसा अनुभव कर रहा कि अब तो हम बड़े कष्ट में आ गए । पहले ही ठीक थे, यह संसार में कुछ निर्णय ही नहीं कर पाता कि किस बात में सुख है, क्योंकि इसकी दृष्टि बाह्य पर लगी गई है । और उनकी सब निश्चिततायें हैं तो यह संसार के सुखों में कुछ अनुभव करता कि मैं कुछ आनंद पा रहा हूँ, मगर सारे सुख कष्ट ही हैं, पर साधुपुरुष, ज्ञानीजन संसारसुख से विरक्त रहते हैं । काहे का सुख? अब भी कितने ही लोग ऐसे पाये जाते हैं कि कोई तो बहुत आसक्त होते हैं, कोई कम आसक्त रहते हैं, और जिनका जैसा परिणाम होता है उस परिणाम के अनुसार बाहरी पदार्थ दिखा करते हैं । जिसके राग नहीं, मोह नहीं, विषयों से प्रीति नहीं उसको ये सब देह, बड़े-बड़े रूप रंग सब फीके लगते हैं और जानता है कि ‘‘दिपे चाम चादर मढ़ी हाड़ पींजरा देह ।’’ क्या है? रीढ़ है, उसके ऊपर थोड़ा मांस लगा है और चमड़ी से ढंका हुआ है । वहाँ कौन-सी खासियत है? और जिसको ज्ञान नहीं, जो विषयों से प्रीति रखता है वह कैसे ही देह में रम जाता है । तो जितनी भी जो कुछ वृत्तियां हैं या सुख-दुःख मानने की बात है वह सब अपने ज्ञान के आश्रय से चलती है । जीव का जो कुछ भी होता है वह ज्ञान के माध्यम से होता है, तो ज्ञान यदि खोटा न रहे और जैसा वस्तु का स्वभाव है वैसा ही ज्ञान रहे तो इसको फिर कहीं कष्ट नहीं है । तो मोही जीव संसार के सुखों को सुख मानते हैं, पर ज्ञानी जीव इसमें आनंद मानते हैं कि मेरा ज्ञान, मेरा उपयोग मेरे में सही शुद्ध ज्ञानस्वरूप में रहे, मैं अपने उस ज्ञानस्वरूप का ही अनुभव करता रहूं, इसमें उनकी लालसा रहती है और इसी में वे आनंद मानते हैं । जो साधु संसार के सुखों से विरक्त हैं वे ही निर्वाण का सुख प्राप्त कर सकते हैं ।
स्वात्मीयानंदरत साधु की उत्तम स्थानप्राप्ति की पात्रता―जो साधु अपने शुद्ध सुख में अनुरक्त हैं वे मोक्षसुख पाते हैं । जिनको इस ज्ञानमात्र आत्मतत्त्व में अनुभव जगा, भीतर ही दृष्टि देकर अपने को ज्ञानस्वरूप अनुभवा, उसमें जो एक शुद्ध आनंद आया उस आनंद के अनुरागी होते हैं साधुजन । मुझे तो यही स्वाधीन सुगम आत्मीय आनंद चाहिए, अन्य की ओर उनका कोई ख्याल नहीं, तो जो अपने आत्मीय सुख में अनुरागी हैं ऐसे साधु पुरुष उत्तम स्थान को प्राप्त होते हैं । जीव का कल्याण अपने स्वरूप का ज्ञान किए बिना कभी हो नहीं सकता । धर्म भी वहीं है जहाँ अपने स्वस्वरूप का बोध है । जिसे अपने आत्मा के सहज ज्ञानस्वरूप का परिचय नहीं है वह पुरुष धर्म के नाम पर कितनी ही क्रियायें करे, पर उसे मोक्षमार्ग का लाभ नहीं होता । कषायें भी शांत नही होती, कोई विपरीत प्रतिकूल कारण मिल जाये तो उसके कषायें उमड़ जाती हैं, पर जो सही ढंग से धर्म करता हो, आत्मा का जिसे सही परिचय हो, उसके प्रतिकूल घटनाओं में भी कषायें नहीं उमड़ती । तो जो पुरुष अपने स्वरूप का परिचय पाये हुए है वही अपने आनंद में अनुरागी होता है ।
गुणगुणविभूषित साधु की उत्तम स्थान प्राप्तिपात्रता―जो साधु गुणसमूह से विभूषित हो, जिसको धैर्य है, जो प्रशंसा और निंदा में समान बुद्धि रखता है ऐसा ही साधु मोक्ष के मार्ग को प्राप्त करता है । जिसको पर्याय में बुद्धि लगी है―मैं मुनि हूँ, मेरा नाम चाहिये, मेरे नाम में कोई बाधा न डाले, मैं सबसे ऊ̐चा कहलाऊं, अथवा मैं ये क्रियाकांड कर रहा हूँ, मैं साधु हूँ, ऐसी केवल पर्याय पर ही जिसकी दृष्टि है, उसमें और साधारण मुनि में मोक्षमार्ग की दृष्टि से कोई अंतर नहीं । भले ही अनेक लोग ऐसा कह बैठते हैं कि जो साधु है वह चाहे कितना ही गिरा हो, पर हम से तो अच्छा है, पर उनकी यह बात ठीक नहीं । हम जिस पद में हैं, श्रावक जिस पद में है वह अपने श्रावक के योग्य सब कुछ चारित्र पाल रहा है और हरेक परमेष्ठी की पदवी धारण कर ले और एकदम गिरी चर्या में आ जाये तो वह गृहस्थ से अच्छा कभी नहीं कहला सकता । जो साधु है वह साधु के योग्य गुणों से सहित होता है । वह अपने आत्मा से सर्व बाह्यपदार्थों को भिन्न समझ चुका है इसलिए सबका वह ज्ञाताद्रष्टा रहता है । कितनी भी प्रतिकूल घटनायें आयें, उपसर्ग आयें तो भी वह उनसे विचलित नही होता, क्योंकि उसे अपने आत्मा का प्रकाश मिला है और यहीं ठहर कर, रमकर अपने आत्मा का आनंद पाना चाहा है । तो जो अनेक गुणों से विभूषित हो ऐसा ही साधु उत्तम स्थान को प्राप्त कर सकता है । उसे शिक्षा की बात सिखानी नहीं पड़ती, वह अधिक बोलने की आदत नहीं रखता । बोलना क्या? अपने आचरण से रहना, ज्ञान में रहना, कोई प्रसंग आये, धर्मात्माजन सामने हों तो कुछ बात बोल लें, पर बोलते रहने की आदत साधुजनों के नहीं होती । उनकी प्रकृति तो आत्मतत्त्व की उपासना करने की होती है और, इसी कारण जो गुण चाहिए वे सब साधु पुरुषों में स्वयमेव आ जाते हैं । वह किसी का बुरा नहीं चाहता, अपने को सबसे ऊ̐चा नही समझता, दूसरों को अपने से नीचा नहीं समझता, किसी भी प्रतिकूल घटना में दूसरे प्राणियों को क्षमा कर देना, अपने ही स्वरूप के समान सर्वजीवों के स्वरूप को निहारना आदिक जो-जो भी गुण चाहिए वे सब गुण एक आत्मज्ञानी के स्वयमेव आ जाया करते हैं । तो जो गुण समूह से विभूषित हो ऐसा ही साधु उत्तम स्थान को प्राप्त करता है ।
हेयउपादेय के निर्णायक साधु की उत्तम स्थान की पात्रता―जिसको हेय और उपादेय का निर्णय है वही साधु मोक्षमार्ग पाता है । हेय क्या, छोड़ने योग्य क्या, उपादेय क्या, ग्रहण करने योग्य क्या? उपादेय केवल अपने आत्मा का स्वरूप, मैं ज्ञानमात्र सबसे निराला, उसकी आराधना करना, जो जीव जन्मा है, जो मनुष्य पैदा हुआ है वह मरेगा अवश्य । अब सभी जानते हैं कि मरने पर जीव के साथ एक तिनका भी नहीं जाता, धागा भी नहीं जाता, केवल अकेला ही अपने कर्मों के साथ जाता है । तो जब कुछ ही वर्ष बाद यह हालत आनी है कि शरीर को छोड़कर जाना ही पड़ेगा तो फिर थोड़े वर्षों को मिले हुए परिग्रह में अधिक ममता, आसक्ति करके क्यों पाप लादा जा रहा है? हां, गुजारे का साधन जानकर उसकी रक्षा करना तो विवेक है मगर यह धन वैभव मेरा है, इसका दूसरा कौन अधिकारी है, ऐसा ममत्व बिछाकर उसमें रम जाना, यह जीव के लिए बड़े खतरे की बात है । आखिर कितने दिन ऐसे गुजार लेंगे? मरण अवश्य आयेगा और सब कुछ छोड़कर इसे जाना ही पड़ेगा । तो जिन साधु पुरुषों को हेय उपादेय का निर्णय है वे ही शांति का मार्ग पा सकते हैं । उपादेय क्या? केवल अपने आत्मा का स्वरूप, क्योंकि वह मेरे में सहज है, सदा है । हेय क्या? अपने में चैतन्यस्वरूप के सिवाय जितना भी जो कुछ है वह सब मेरे लिए है, ये विकार, कर्म-शरीर, बाहरी पदार्थ ये सब हेय हैं । उपादेय तो केवल मेरे आत्मा का सहज स्वरूप है, ऐसा जिन्होंने निश्चय किया है वे पुरुष मोक्षमार्ग को प्राप्त करते हैं ।
ध्यानाध्यनसुरत साधु की उत्तम स्थानप्राप्ति की पात्रता―साधुजन ध्यान और अध्ययन में रत रहते हैं । साधु पुरुष अध्ययन करेंगे, कुछ लिखते हों तो लेखन कार्य करेंगे, नहीं तो ध्यान करेंगे । ध्यान में कोई थकता नहीं है, किंतु उसमें परम विश्राम मिलता है । जब चित्त तो हो बाहरी प्रसंगों में और चाहता हो या इस बातपर कुछ प्रवृत्ति करना चाहता हो कि मैं अपने आत्मा में लीन होऊ̐ तो उसे यह कष्ट मालूम होता है, और जिसने सब वस्तु का सही स्वरूप जाना उसका मन ही करेगा कि मैं निरंतर शुद्ध आत्मा को ही ध्यान में रखूं । कोई भी पदार्थ मेरे ध्यान के लायक नहीं है, कहां ध्यान लगाऊ̐? समस्त पदार्थ भिन्न हैं, विनाशीक हैं, बाह्य हैं, उनसे मेरा नाता नहीं, ऐसे पदार्थों में ध्यान लगाना योग्य नहीं । साधु पुरुष था तो अध्ययन करेंगे या ध्यान में रहेंगे, ध्यान किसका रहेगा? एक अपने परमात्मस्वरूप का, अपने आत्मस्वरूप का । जिसमें सार समझा है उसी में ही ध्यान जायेगा, असार में ध्यान न जायेगा । तो जो साधु ध्यान और अध्ययन में लीन है वह ही पुण्य उत्तम स्थान को प्राप्त कर सकता है । यह तो साधुवों की बात चल रही है, पर गृहस्थ को भी कुछ समय सत्संग, अध्ययन और ध्यान के लिए रखना चाहिए । सारा समय ही चिंता में, परिग्रह में, व्यापार में या अन्य प्रकार के बाह्य चिंतन में गुजरे तो समय तो जाना ही है, आयु जा ही रही है, वह आयु व्यर्थ गई । दो-चार घंटे जिसको जितना कुछ बन सके, यदि ध्यान-अध्ययन में, आत्म-स्वाध्याय में समय गुजरता है तो उसका वह सब समय सफल है । ध्यान और अध्ययन में निरंतर रत रहने वाले साधु मोक्षमार्ग को प्राप्त करते हैं । साधु तो बहुत निकट हैं मोक्षमार्ग के । मोक्ष के लिये गृहस्थ का भी मोक्षमार्ग की ओर मुख बाह्य रहना चाहिए, क्योंकि बाहर सब कुछ धोखा है । जिनको बाह्य समागम मिले हैं, उनका ध्यान कष्ट का ही कारण है । और, सदा रहने वाले नहीं हैं समागम सो उनके पीछे वे कष्ट ही पायेंगे जो बाह्य पदार्थों में आसक्त रहते हैं । तो जो साधु पुरुष बाह्य द्रव्यों से विमुख हैं और अपने आपके स्वरूप के चिंतन ध्यान में रत रहा करते हैं वे पुरुष मोक्ष को प्राप्त करते हैं ।