वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षशास्त्र - गाथा 10-7
From जैनकोष
आविद्धकुलालचक्रवद् व्यपगतलेपालाबुवदेरंडबीजवदग्निशिखावच्च ।। 10-7 ।।
कर्ममुक्त होते ही ऊर्ध्वगमन का सोदाहरण प्रथम कारण―कर्मों का क्षय हो जाने पर यह जीव ऊपर ही क्यों जाता है? और क्यों जाना ही पड़ता है, इस संबंध में दृष्टांत देकर हेतु देकर निर्णय किया गया है । मुक्तजीव कर्म से छुटकारा पाते ही यह जीव एकदम सिद्ध हो जाता है । और ऊपर ही जाता है । इसका पहला हेतु है पूर्व प्रयोग । मोक्ष की प्राप्ति के लिये इस भव्य जीव ने पहले बहुत-बहुत मनन किया । सिद्ध भगवंतों को प्रणाम करने के लिए उनके गुणानुवाद के लिए लोक के अंत में इसका ध्यान रहा, इस कारण पूर्व प्रयोग के वश अब कर्मो का क्षय होने पर यद्यपि वह प्रयोग न रहा तो भी वह ऊपर ही जाता है जहाँ कि यह ध्यान बनाये रहता है । जैसे कुम्हार चाक को घुमाता है, डंडे को खूब घुमाने के बाद वह डंडे को छोड़ देता है, चके से हट भी जाता है तो भी वह चक्र चलता रहता है क्योंकि उसमें बहुत संस्कार बनाता है घूमने का, इसी तरह यहाँ भी समझिये कि मुनिराज का पहले संस्कार बना रहता था लोक के शिखर में ध्यान करने का, उपयोग सिद्ध भगवंतों में रहा करता था और भावना उस ही सिद्ध लोक के पाने की रहती थी, तो उस प्रयोग के कारण यद्यपि अब वह प्रयोग नहीं है कर्म का नाश होने पर तो भी उस पूर्व प्रयोग से वह ऊर्द्धगमन करके लोक के शिखर पर जाकर विराजमान होते हैं । तो इस प्रकार यह जीव पहले अनेक भावनाओं से और सिद्ध लोक के ध्यान से सिद्ध प्रभु के स्मरण के संस्कार बनाये रहने से कर्म का क्षय होने पर भी यह ऊर्द्ध गमन करके वहाँ ही पहुंचता है ।
सर्वकर्म मुक्त होते ही ऊर्ध्वगमन का सोदाहरण द्वितीय कारण―मुक्तात्मा के ऊर्द्ध गमन का दूसरा कारण बतलाया है असंग होने को । जैसे कि मिट्टी के लेप से भरी हुई तूमी पानी में नीचे पहुंच जाती है, पर पानी में फूलते रहने के कारण मिट्टी तूमी से वह बहकर अलग होती जाती है और वह तूमी हल्की हो जाने से पानी के ऊपर आ जाती है इसी प्रकार कर्म के भार से दबा हुआ यह जीव उस कर्म की गुरुता के कारण यह संसार में पड़ा रहता है और जब कर्म का संग छूट जाता है तो यह लघु होते ही अकेला होते ही ऊपर को ही जाया करता है । यहाँ एक शंका हो सकती है कि अन्य द्रव्य के मिलने पर तो वह नीचे पड़ा है, पर संयोग छूट जाने पर उसकी नियत गति नहीं होती । फिर तो कैसे ही गमन कर जाये? फिर यह किस तरह सिद्ध भगवान के कर्म से मुक्त होने पर उनकी गति जैसी चाहे हो जानी चाहिए । ठीक सही ऊपर ही क्यों हो जाती है । तो इस शंका के समाधान में वह समझें कि इस जीव को ऊपर जाने का स्वभाव ही है अर्थात तिरछा-तिरछा जाने की इसमें प्रकृति नहीं है इस कारण वह ऊपर ही जाता है । कहीं फिर यह शंका न करना कि ऊपर जाने का स्वभाव ही है तो जब ऊपर जाने का काम न रहेगा तो स्वभाव मिट जाने से और सिद्ध भगवान के जीव का भी अभाव हो जायेगा । जैसे अग्नि का स्वभाव कर्म है, गर्मी मिट जाए तो अग्नि नहीं रहती । तो यह शंका यों न करना कि पहली बात तो यह है कि ऊर्द्धगति का स्वभाव है बराबर बना हुआ है, पर जो ऊर्द्धगमन का परिणमन है वह तो धर्मास्तिकाय का निमित्त पाकर होता है । सो धर्मास्तिकाय के अभाव में गमन नहीं है । दूसरी बात यह है कि ऊर्द्धगमन स्वभाव है, इसके कहने का भाव यह है तिरछा, टेढ़ा, नीचा चलने का इसमें स्वभाव नहीं है । तो अन्य प्रकार की गति का स्वभाव नहीं है यह बताने के लिए ऊर्द्धगति स्वभाव कहा जाता है ।
कुत्सस्नकर्म विप्रमुक्त होते ही ऊर्ध्वगमन होने का सोदाहरण तृतीय कारण―ऊर्द्धगमन में तीसरा हेतु दिया गया है बंधच्छेद । जैसे कि एरंड का बीच एक मोटे छिलके में बंधा हुआ रहता है, जब उसका छिलका फूटता है तो बह बीज ऊपर जाता है यह बात दूसरी है कि वह ऊपर कहाँ जायेगा ? सो थोड़ा उचक कर, ऊपर जाकर नीचे गिर जाता है किंतु यह केवल उस चिटकने का, उस छिलका के बंधन के फूटने का क्या प्रभाव है यह बात बतलाना है तो बंध का छेद होने से वह बीज ऊपर को जाता है इसी प्रकार मनुष्यादिक भवों में रुलाने वाले गति जाति आदिक नामकर्म के उदय थे, उनका संबंध था, तो जब समस्त कर्मों का बंधन मिट जाता है तो मुक्त जीवों की गति ऊपर को ही होती है । जब तक बंधन था उस बंधन के समय इसका एक जगह रहना, यहाँ-वहाँ डोलना ये सब बातें चलती थीं, पर बंध का विनाश होते ही एकदम अपने एकत्व स्वरूप में यह जीव आ गया । अब यहाँ यह अपने वास्तविक अमूर्त स्वभाव को पाकर, विकास पाकर यह जीव ऊपर ही गमन करता है ।
सर्वकर्ममुक्त होते ही जीव का ऊर्द्धगमन होने का सोदाहरण चतुर्थ कारण―ऊर्द्धगमन के संबंध में चौथा हेतु है―तथागती परिणाम अर्थात जीव का ऊर्ध्वगमन करने का स्वभाव ही है । जैसे कि अग्नि की शिखा । अगर अग्नि में से ज्वाला निकलेगी तो वह ऊपर ही उठती है । क्योंकि उसका ऐसा ही स्वभाव है । भले ही जब कभी हवा का जोर हो तो हवा की प्रेरणा से वह शिखा तिरछी भी हो जाती है । किंतु जहाँ कोई प्रेरणा नहीं है, कोई संबंध नहीं है वायु का तो अग्नि की शिखा स्वभावत: ऊपर ही उठती है, ऐसे ही यह मुक्त आत्मा भी ऊर्द्ध गति स्वभाव के कारण ऊपर ही जाता है । हाँ यह नाना प्रकार की गति विकार बनने के कारणभूत कर्म के संबंध से तिरछे नीचे भी जीव जाता था पर जब उन प्रेरक कर्मों का विच्छेद हो गया तब तिरछे नीचे जाने का कोई कारण ही न रहा, सो ऊर्ध्वगमन स्वभाव के कारण यह मुक्त आत्मा ऊपर ही जाता है । इस प्रकार यह जो ऊर्ध्वगमन स्वभाव से कर्ममुक्त होते ही एक समय में लोक के अंत तक पहुंच जाता है और यह बड़ी शोभा ही दे रहा है कि भगवान हम सबके ऊपर विराजमान हैं और लोगों की ऐसी आदत भी है कि यदि भगवान को कभी नमस्कार करेंगे तो ऊपर सिर उठाकर नमस्कार करते । कोई नीचे निरखकर नमस्कार नहीं करता । इससे भी जाहिर होता है कि सिद्ध भगवान लोक के शिखर पर विराजमान हैं ।
असंगत्व व बंधच्छेद हेतु में दिये गये संग और बंध शब्द की अर्थांतरता―यहाँ एक शंकाकार कहता है कि यहाँ जो 5 हेतु दिये गये हैं बीच के दूसरे और तीसरे । दूसरा हेतु है संगरहित होने से ऊर्ध्वगमन होता है । तीसरा हेतु है बंध का वियोग होने से ऊर्ध्वगमन होता है तो ये तो दोनों ही एक बात रही । संग न रहा, बंध न रहा । इन दोनों में क्या अंतर है ? वियोग की बात तो दोनों में ही आ गई । फिर इसे दुबारा न कहना चाहिये था । 3 ही हेतु बतलाते हैं । इस शंका के उत्तर में कहते हैं कि इन दोनों का अर्थ एक नहीं है । संगरहित होना इसका अभिप्राय दूसरा है और बंध का विच्छेद होना इसका अभिप्राय दूसरा है । यद्यपि बंध धातु अतिसंग में भी आती है । याने दृढ़ संग बनना तो भी इसका अभिप्राय दूसरा है । इसका क्या अर्थ है सो सुनो―बंध का अर्थ है एक में दूसरे का प्रवेश होने पर बिना विभाग के ठहर जाना । इसका नाम बंध है । जैसे कि कर्म जीव प्रदेशों में प्रवेश कर अविभाग रूप से ठहर गये अर्थात बंध होने पर विभाग नहीं बन पाता कि यहाँ ये दो चीजें हैं । जैसे अनेक परमाणुओं का बंध होने पर स्कंध बन गया तो अब स्कंध में विभाग नहीं डाल सकते कि यह परमाणु यह है । यह यहाँ है । यह तो कहलाया बंध और संग कहलाया एक दूसरे के निकट प्राप्त हो जाना । तो इस प्रकार संग में और बंध में अर्थभेद है । सो जब संग छूटा तो इस हेतु से अर्थगमन सिद्ध किया और जब वह बंध का क्षय हुआ तो इस हेतु से ऊर्ध्वगमन सिद्ध किया । जब अन्य प्रकार की गति का कारण न रहा अर्थात पुण्य पाप कर्म न रहे तो पुण्य पाप के हट जाने पर मुक्त जीव की अब और प्रकार की गति नहीं होती । वह मात्र ऊर्ध्वगमन स्वभाव से ऊपर ही जाकर लोक पर्यंत पहुंचता है ।
असंगत्व हेतु की समीचीनता में शंकाकार द्वारा आरोपित आरेका का समाधान करके जीव के ऊर्द्धगमन का उपसंहार―अब यहाँ शंकाकार कहता है कि दूसरे हेतु के दृष्टांत में तूमी का उदाहरण पेश किया है कि जैसे तूमी में मिट्टी का लेप लगा रहे तो पानी में नीचे पड़ी रहती है और ज्यों ही मिट्टी का लेप हटता है त्यों ही तूमी पानी के उपर आ जाती है । तो यह उदाहरण ठीक नहीं बैठता क्योंकि वह तूमी जो ऊपर आयी है वह हवा की प्रेरणा से ऊपर आयी है । तब उसमें संगरहितपने का हेतु तो नहीं आया । इस शंका के उत्तर में कहते हैं कि तूमी जो पानी में ऊपर आयी है सो वह यदि हवा के ही कारण आई होती तो वह तिरछी-तिरछी कैसी भी डोलती । वह सीधे ऊपर ही कैसे आयी? जैसे कि तूमी या पत्ते आदिक जो हल्की चीजें यहाँ पड़ी हैं, हवा के कारण उनकी गति होती है तो अटपट होती है । वह ऊपर ही सीधे जाये ऐसी नहीं होती । दिशा विदिशा नीचे ऊपर जैसे चाहे पत्ते उड़ते हैं ये हवा के कारण ही, इस दृष्टांत में यदि तूमी की गति मानी गई होती तो यह तिरछी भी जावे । पर लेपरहित तूमी तिरछी जाती हुई नहीं पाई गई । वह सीधी ही गमन करती । इस कारण यह दृष्टांत युक्त है और इसी प्रकार यह सिद्ध किया गया है कि जब तक अष्टकर्मों का लेप इस जीव के साथ चल रहा है तब तक यह ऊपर नीचे अनेक गतियों में गमन करता रहता है और नरकादिक भवों को धारण करता रहता है । और जैसे ही उन समस्त कर्मों का संग दूर हुआ और इसी कारण शरीर का भी संग दूर हुआ तो ऐसा अत्यंत निसंग होने से यह मुक्त आत्मा एक समय में ही ऊर्ध्वगमन करके लोक के अंत में विराजमान हो जाता है । अब यह बतला रहे हैं कि लोक के ऊपर मुक्त जीव क्यों नहीं गमन करते ।