वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षशास्त्र - सूत्र 5-3
From जैनकोष
जीवाश्च ।। 5-3 ।।
जीव पदार्थ की स्वसंवेद्यता―और जीव भी द्रव्य है । जीव को द्रव्य मानने और गिन लेने पर अब तक 5 द्रव्यों का वर्णन हुआ । इसके अतिरिक्त काल भी द्रव्य है किंतु अस्तिकाय न होने से इस काल को यहाँ न कह कर आगे किसी अवसर में कहा जायेगा । जो चैतन्य प्राण से जीवे उसे जीव कहते हैं और व्यवहारत: दस प्राणों से जीवे उसे जीव कहते हैं । जीव पदार्थ सभी पदार्थों की भांति अनादि अनंत है । कहीं पृथ्वी जल आदिक के संयोग से जीव बना हो ऐसा नहीं है । जीव पदार्थ अमूर्त ज्ञानस्वरूप है, किंतु इस पर मोह राग द्वेष का आवरण होने से यह अपने आपको नहीं जान पाता है और इंद्रिय के द्वार से बाह्य पदार्थों को जानता है और इसी कारण अपना बोध न होने से अनेक पुरुषों को जीवतत्त्व की सत्ता के विषय में संदेह रहता है, पर बाह्य पदार्थों का लक्ष्य छोड़कर जो जान रहा है, जो जानना हो रहा है उस ही का स्वरूप जानूँ, ऐसे आग्रह से जो अपने स्वरूप में समाधिस्थ होता है वह अपने ही ज्ञान द्वारा अपने को समझ लेता है ।
जीवत्व के संबंध से जीव मानने की कल्पना की असंगतता―यहाँ एक शंकाकार कहता है कि जीव तो वह है जिसमें जीवत्व का संबंध हो । यह शंकाकार वह ही है जो द्रव्यत्व के संबंध से द्रव्य मान रहा था । यहाँ विशेष पदार्थ की बात चल रही है । तो जीव को भी जीवत्व के समवाय से जीव मान रहे हैं, किंतु उनका यह कथन सही नहीं है । जैसा द्रव्य और द्रव्यत्व के संबंध में इससे पहले वर्णन किया है उस तरह जानकर यहाँ भी उसका प्रतिषेध समझ लेना चाहिये । शंकाकार कहता है कि इसमें जीव है ऐसे ज्ञान का कारण तो जीवत्व का संयोग ही है । यदि जीवत्व का संबंध न होता तो इसे जीव कैसे कहा जा सकता है? तो वह शंकाकर यहाँ यह पूछने योग्य है कि जो प्रत्यय होता है, ज्ञान होता वह किसी अन्य के संबंध से होता है । यही तो कहा जा रहा है कि जीवत्व के संबंध से जीव का ज्ञान होता है, तो यह बतलाओ कि जीवत्व के ज्ञान के लिये फिर किसका संबंध करना चाहिये? क्या जीवत्वत्व का संबंध जोड़ा जाये? अगर ऐसा मानोगे तो उसमें भी किसका संबंध होवे? फिर त्व मानते जायें, इस तरह तो अनवस्था दोष होगा, और यदि यह कहा जाये कि जीवत्व का प्रत्यय ज्ञान स्वयं हो जाता है तब यह बात तो न रही कि अन्य के संयोग से ज्ञान हुआ करता है । और यदि जीवत्व का बोध स्वयं अपने आप हो गया तो ऐसे ही जीव का भी बोध सीधा क्यों न मान लिया जाये? जीव नामक पदार्थ है और उसको समझने के लिये इसमें स्वभाव है, शक्ति है, पर्याय है, जीवत्व है आदिक विवेचन चलता है ।
अनादिसिद्ध पारिमाणिक जीव से स्वरूप को भिन्न पदार्थ मान कर बात बनाने का जोग जुगाड़ करने की व्यामूढ़ता―शंकाकार कहता है कि जीव में तो जीवत्व के संयोग से ज्ञान होता है, किंतु जीवत्व का परिचय दीपक की तरह स्वत: ही हो जाता है । सो उत्तर यह है कि जैसे जीवत्व में स्वत प्रत्यय माना प्रदीप की तरह । इसी तरह जीव में भी स्वत: प्रत्यय मानने में कोई बाधा नहीं होती । शंकाकार यदि ऐसा तर्क करे कि जीव और जीवत्व ये दोनों भिन्न पदार्थ हैं इस कारण उनमें यह समानता नहीं लायी जा सकती कि जैसे जीवत्व में स्वत: प्रत्यय होता है ऐसे ही जीव में भी हो जायेगा । यह तर्क यों ठीक नहीं कि जीव और जीवत्व भिन्न पदार्थ नहीं है जो दर्शन ज्ञानमय है, चैतन्य स्वरूप है वह जीव है और उसके स्वभाव को जीवत्व कहते हैं और फिर शंकाकार के मत से तो दूसरे पदार्थ का धर्म दूसरे पदार्थ में आ जाता है क्योंकि इन एकांतवादियों ने ऐसा कहा है कि सत्ता लक्षण यह है जो द्रव्य गुण पर्याय में सत् प्रत्यय का कारण रूप बनता है उसका नाम सत्ता है । सो यह भी एक कल्पना ही है । यदि सत्ता का संबंध होने पर भी सत् प्रत्यय हेतुता द्रव्य, गुण में नहीं किंतु सत्ता में होती है तब द्रव्य गुण असत् ही कहलाये तो जीवत्व के संबंध से जीव कहलाता है । वह बात किसी तरह नहीं कही जा सकती । जीव स्वयं सत् है और उसके परिचय के लिये जीवत्व शक्ति पर्याय यह सब विदित की जाती है । वास्तविकता यह है कि जीवन क्रियाओं से परिणत जो एक द्रव्य है वह जीव है और वह अनादि से है, स्वभावभूत है, सत् है ।
द्रव्यों की इयत्ता का नियम―एक शंकाकार यहाँ प्रश्न करता है कि द्रव्य का अस्तित्त्व तो द्रव्य लक्षण के संबंध से है, क्योंकि खुद ही ग्रंथकार आगे सूत्र कहेंगे―‘उत्पाद व्ययध्रौव्ययुक्तंसत्’ तो यह तो हुआ सत् का लक्षण । और उस लक्षण का संबंध होने से यह कहलाया द्रव्य । फिर उस लक्षण के योग से ही धर्मादिक में द्रव्यपना सिद्ध होता है, फिर इस प्रकृत सूत्र के बनाने से क्या लाभ है? उत्तर में कहते हैं कि यह सूत्र एक नियम बताने के लिये प्रतिपादित हुआ है । क्या नियम? कि धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल, जीव और आगे कहा जायेगा काल उस समेत ये सब 6 ही द्रव्य हैं । कम या अधिक नहीं हैं । 6 द्रव्यों का मतलब है कि 6 प्रकार के द्रव्य हैं । द्रव्य तो अनंतानंत हैं किंतु सभी द्रव्य असाधारण गुण की दृष्टि से 6 प्रकारों में आते हैं । सो द्रव्य 6 ही हैं, अन्य एकांतवादियों के द्वारा माने गये दिशा आदिक अलग से द्रव्य नहीं हैं ।
पृथ्वी जल, अग्नि, वायु व द्रव्यमन को एक पुद्गल द्रव्यरूपता व भावमन की आत्मपर्यायरूपता―वैशेषिकों ने 9 द्रव्य माने―(1) पृथ्वी (2) जल (3) अग्नि (4) वायु (5) मन (6) आत्मा (7) दिशा (8) आकाश और (9) काल । इसमें पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु ये तो पुद्गल द्रव्य ही हैं क्योंकि रूप, रस, गंध, स्पर्श वाला होने से । पुद्गल का लक्षण यह ही है कि जिसमें स्पर्श, रस, गंध, वर्ण पाये जायें वह पुद्गल है । सो इन चारों में ये चारों ही बातें पाई जाती हैं । भले ही किसी में कोई गुण व्यक्त है, कोई नहीं है, पर हैं सभी में । जैसे वायु में रूप गुण किसी को नहीं मालूम होता, पर वहाँ रूप है, क्योंकि स्पर्श वाला है ये चारों गुण एक साथ ही रहा करते हैं । इन 4 में कोई एक गुण समझ में आये तो समझना चाहिये कि यहाँ चारों ही गुण हैं । भले ही कोई गुण व्यक्त हो, कोई गुण अव्यक्त हो । कोई ऐसा सोचे कि चक्षु इंद्रिय से ग्रहण में नहीं आता, इसलिये रूप नहीं है तो परमाणु भी तो चक्षु इंद्रिय से ग्रहण में नहीं आता, लेकिन परमाणु यदि रूपरहित होता तो परमाणुओं के समूह रूप स्कंध भी कभी रूप वाला न हो सकता था । सो ये चार तो पुद्गल ही हैं । मन दो प्रकार का होता है―(1) द्रव्य मन और, (2) भाव मन । तो भाव मन तो ज्ञानरूप है सो वह जीव का गुण है । उसका आत्म द्रव्य में अंतर्भाव है, और द्रव्य मन, पुद्गल द्रव्य का विकार है, भले ही वह आँख आदिक से न दिखे, पर चक्षु से न दिखने से वह पुद्गल नहीं है, ऐसा नहीं कह सकते, परमाणु भी तो नहीं दिखता । पुद्गल है और अनुमान से सिद्ध होता, मन रूपादिक वाला है क्योंकि यह ज्ञानोपयोग का करण होने से चक्षु इंद्रिय की तरह, जैसे चक्षु इंद्रिय के द्वारा ज्ञान चलता है तो चक्षु इंद्रिय रूपादिमान है ऐसे ही मन के द्वारा भी ज्ञानोपयोग चलता है तो वह मन भी रूपादिमान है ।
यहाँ शंकाकार कहता है कि जो यह अनुमान बनाया कि मन रूपादिक वाला है ज्ञानोपयोग का करणपना होने से, सो इस देह में व्यभिचार दोष आता है । क्योंकि ज्ञानोपयोग का करणपना नामक हेतु अमूर्त शब्द में भी देखा जाता है, इस कारण व्यभिचारी है । उत्तर देते हैं कि यहाँ हेतु व्यभिचारी नहीं है, क्योंकि शब्द भी पौद्गलिक होने से मूर्तमान ही हैं । जैसे शब्द किसी मोटी भींट से छिड़ जाता है । कांच बीच में पड़ा हो तो शब्द उससे भी छिड़ जाते हैं । टेप में रिकार्ड में शब्द भर लिये जाते हैं, इन सब बातों से सिद्ध है कि शब्द मूर्तिमान है और बोलते समय मुख के आगे हाथ लगाया तो उसका आघात भी मालूम होता है । अब शंकाकार कहता है कि परमाणु आदिक में अतींद्रिय होने पर भी रूपादिक वाले कार्य देखे जाते हैं, इस कारण परमाणु आदिक में रूपादिक वाला पन तो अनुमान में आता है, पर वायु और मन इनके रूपादिक वाला कार्य पाया जाता है, फिर मन को और वायु को रूपादिक वाला कैसे सिद्ध कर सकते हैं? तो उत्तर यह है कि सभी परमाणुओं में रूपादिक वाला कार्य पाने की योग्यता है, सो चाहे कोई सूक्ष्म स्कंध हो जिससे उसका रूपादिमान कार्य न पाया जाये, दृष्टि में नहीं आया और परमाणु का तो रूपादिकपना दृष्टि में आता ही नहीं, पर हैं ये सब पुद्गल परमाणु और उनमें रूपादिमानपना है । यदि ये रूपी न होते तो इनके विशेष स्कंध बनने पर भी रूप प्रकट नहीं होता । चूंकि स्कंधों का रूप प्रकट है, उससे यह सिद्ध है कि परमाणु सब रूपादिमान है ।
सर्व प्रकार के पुद्गलों की पुद्गलैक जातिपना―यहां यह बात जानना चाहिये कि पुद्गल के नाते से जितने भी पुद्गल स्कंध है वे सब एक जाति के हैं अर्थात् पुद्गल है, यद्यपि यहाँ पृथ्वी, जल आदिक विशेष-विशेष मालूम पड़ रहे हैं पर ये सब एक ही द्रव्य हैं, परमाणु ही हैं, और इनकी अदल-बदल भी देखी जाती है । चंद्रकांतमणि जल बन जाता है । जो आदिक पदार्थ वायु बन जाते हैं, तो इनका परिवर्तन भी देखा जाता है, जिससे सिद्ध है कि ये सब एक पुद्गल आदिक जाति के ही द्रव्य हैं । प्रकरण यहाँ यह चल रहा है कि द्रव्य 6 प्रकार के हैं । अन्य वादियों के द्वारा मानी गई संख्या कुछ ठीक नहीं है । जैसे किन्हीं ने 9 द्रव्य माने तो उनमें से अनेक द्रव्यों का अंतर्भाव पुद्गल में हुआ है और धर्म-अधर्म पुण्य-पाप भाव का अंतर्भाव आत्मा में हुआ है । मन का भी जो एक भेदभाव मन हैं उसका भी अंतर्भाव आत्मा में है ।
दिशा की आकाश भागरूपता व द्रव्यों की इयत्ता का उपसंहार―दिशा का अंतर्भाव आकाश में किया जाता है । दिशा कोई अलग पदार्थ नहीं है, किंतु सूर्य के उदय आदिक की अपेक्षा आकाश प्रदेश पंक्तियों में यहाँ यह दिशा है ऐसा व्यवहार बनाया जाता है । जैसे सूर्य उदय, जैसे आकाश प्रदेश पंक्तियों से होता है उस ओर मुख करके खड़े हो जाये तो जिस ओर मुख है वह पूर्व है, जिस ओर पीठ है वह पश्चिम है, जिस ओर दाहिना हाथ है वह दक्षिण है और जिस ओर बायां हाथ है वह उत्तर है । तो सूर्य के उदय आदिक की अपेक्षा ये सब दिशाओं के व्यवहार चलते हैं । इस तरह 9 द्रव्यों में अनेक द्रव्य जीव और पुद्गल में ही अंतर्भाव हो गये और धर्मद्रव्य अधर्मद्रव्य की उसमें चर्चा ही नहीं है । तो द्रव्य 6 ही हैं, कम या अधिक जाति के द्रव्य नहीं हैं ।
बहुवचनांत प्रयोग से जीवों की अनंतता का समर्थन―जीवाश्च, इस सूत्र में जीवा: जो वह बहुवचन प्रयोग है वह जीवों की विविधता बताने के लिये है । जीव गणना में भी अनंतानंत हैं और जाति की अपेक्षा भी नाना प्रकार के हैं, जैसे जीव संसार भी है और दिखता भी है । संसारी जीव, गति, इंद्रिय, काय, योग, वेद कषाय आदिक मार्गणाओं की अपेक्षा भिन्न-भिन्न प्रकारों में पाये जाते हैं । जैसे कोई नारकी है, कोई तिर्यंच है, मनुष्य है, देव है, कोई एकेंद्रिय है, कोई दो इंद्रिय आदिक है किसी के कैसा ही योग है, किसी के कैसी ही कषाय है आदिक अनेक भेद मिथ्यात्व आदिक गुणस्थानों की अपेक्षा भी संसार नाना प्रकार के हैं, सूक्ष्म वादर एकेंद्रिय आदिक 14 जीव समासों की अपेक्षा भी अनेक प्रकार के हैं । मुक्त जीवों में भी किन्हीं अपेक्षाओं से भेद पड़ जाता है । जैसे एक ही समय में गुण सिद्ध हुये । दो समय में दो समय के अंतर से गुण सिद्ध हुये । ऐसे काल की अपेक्षा भेद किये जा सकते कि अमुक सिद्ध इस जगह से हुये हैं । या मुक्ति से पहले जो शरीर था उस शरीर के आकार उनका प्रमाण अब भी है । उस अवगाहना के भेद से भी इनमें भेद परखा जाता है । तात्पर्य यह है कि जीव नाना प्रकार के हैं, यह बताने के लिये जीव:, ऐसे बहुवचन का प्रयोग किया है ।
अनंत पूर्वोक्त व प्रकृत सूत्र को मिलकर एक सूत्र न बनाने का प्रयोजन―यहाँ शंकाकार कहता है कि इस सूत्र से पहले द्रव्याणि सूत्र आया था । वहाँ ही जैसे जीवा: यह प्रयोग और कर देते तो अलग सूत्र न बनाना पड़ता द्रव्याणि जीवा: यह सूत्र बन जाता, लघुता भी हो जाती । उत्तर इसका यह है कि यदि इन दोनों को मिलाकर ऐसा ही एक सूत्र कर दिया जाता तो यह अर्थ होता कि जीव द्रव्य है, पर अन्य भी द्रव्य हैं, यह सिद्ध न होता । शायद यह कहो कि द्रव्याणि बहुवचन है इस कारण धर्मादिक द्रव्य भी ग्रहण में आ जाते । तो यह भी कहना यों ठीक नहीं कि बहुवचन होने पर भी चूंकि जीवा: यह भी तो बहुवचन है, सो द्रव्याणि बहुवचन माना जाता, फिर भी यह ही अर्थ होता कि समस्त जीव द्रव्य हैं । यदि यह कहा जाये कि अधिकार तो धर्मादिक द्रव्यों का चल रहा है । सर्वप्रथम सूत्र में बताया ही गया था तो दोनों का एक सूत्र बनाने पर भी अधिकार के कारण जीवों का भी ग्रहण होता, और जीव उसके साथ हैं ही । यों सभी ग्रहण में आ जाते । उत्तर इसका यह है कि द्रव्याणि शब्द जीव से बंध गया एक सूत्र बनाने से । सो जीव की ही द्रव्य संज्ञा बनती । अधिकार की बात नहीं मानी जा सकती । इस प्रकार यहाँ तक धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल और जीव इन पंच अस्तिकायों का इस अध्याय में निर्देश किया गया है । अब इन द्रव्यों की विशेषता बताने के लिये सूत्र कहते हैं ।