वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षशास्त्र - सूत्र 5-4
From जैनकोष
नित्यावस्थितान्यरूपाणि ।। 5-4 ।।
द्रव्यों की नित्यता―ये सब द्रव्य नित्य अवस्थित हैं और अरूपी हैं । इनके तीन विशेषण भी किये जा सकते हैं । उक्त सब द्रव्य नित्य हैं, अवस्थित हैं और अरूपी हैं । यहाँ नित्य शब्द ध्रौव्य का बाची है? दिने धातु से ध्रुव अर्थ में न्य प्रत्यय हो जाता है । उससे नित्य बनता है । नित्य मायने शाश्वत, सदैव रहने वाला । किस प्रकार से सदैव रहने वाला? ऐसी जिज्ञासा होने पर एक सूत्र आगे कहा जायेगा―तद् भावाव्ययं नित्यं । उसके आधार से समझायेंगे । द्रव्य जिस स्वरूप से उपलक्षित है याने उसका जो असाधारण गुण है उस स्वरूप से उस भाव का विनाश न होना नित्यपना कहलाता है । जैसे धर्म द्रव्य, गतिहेतुत्व लक्षण वाला है, अधर्म द्रव्य गतिहेतुत्व लक्षण वाला है, आकाश अवगाहनहेतुत्व लक्षण वाला है, पुद्गल रूपादिक गत्व लक्षण वाला है और जीव चैतन्यस्वरूप बताया गया है । तो द्रव्यार्थिकनय की दृष्टि से इस स्वभाव से और अस्तित्वादिक गुणों से कभी भी व्यय को प्राप्त नहीं होते अर्थात् नष्ट नहीं होते । इस कारण ये सब द्रव्य नित्य हैं ।
द्रव्यों की अवस्थितता―अवस्थित शब्द का क्या अर्थ है? धर्मादिक 6 द्रव्य हैं, कभी भी 6 संख्या का व्याघात नहीं है । उतना ही है । यह बताने के लिये अवस्थित शब्द कहा है । पदार्थ जितने हैं उतने ही अवस्थित हैं । जाति अपेक्षा भी और व्यक्ति अपेक्षा भी । सत् कभी असत् नहीं होता । असत् कभी सत् नहीं होता । अथवा प्रदेश की अपेक्षा देखें तो जिसके जितने प्रदेश कहे गये हैं उतने ही होते हैं, उनका भी विनाश नहीं होता । जैसे धर्म द्रव्य, अधर्म द्रव्य, लोकाकाश एक जीव इनके समान असंख्यात प्रदेश हैं । अलोकाकाश के अनंत प्रदेश हैं आकाश दोनों ही एक ही हैं पर संबंध भेद से भेद किया है । पुद्गल में परमाणु की अपेक्षा एक ही प्रदेश है पर उपचार से शक्ति अपेक्षा स्कंध अपेक्षा अनंत प्रदेशीपना है । तो इन प्रदेशों का भी उल्लंघन न होने से अवस्थित कहा है । यहाँ शंकाकार कहता है कि अवस्थित का जो कुछ भी भाव होता है वह तो नित्य शब्द के कहने से ही जान लिया गया है । फिर अवस्थित शब्द यहाँ न कहना चाहिये, क्योंकि नित्यपने का उल्लंघन करके अवस्थितपना नहीं होता । अतएव नित्य शब्द कह देने पर अवस्थित शब्द की आवश्यकता नहीं रहती । इसका उत्तर यह है कि अवस्थित शब्द का भाव है कि द्रव्य में अनेक परिणाम होने पर भी उनके असाधारण स्वभाव का परिणाम किसी अन्य के रूप से नहीं हो जाता । यह भी अवस्थित शब्द का भाव लेना है । जैसे―धर्म, अधर्म आकाश काल इनके कितने ही परिणमन होते रहते हैं, पर यह मूर्तिमान बन जाये या उपयोग स्वभाव का बन जाए यह नहीं हो पाता । जीव के भी कितने ही परिणाम होते हैं, पर वह अधर्म बन जाए या रूपादिमान बन जाए, यह भी कभी नहीं होता । पुद्गल के नाना परिणमन होते हैं, पर इन परिणमनों के कारण कभी मूर्तपना भी बदल जाये और अमूर्तपना आ जाये यह भी कभी नहीं होता । यह बात प्रसिद्ध करने के लिये अवस्थित कहना आवश्यक है ।
परिणमन होते रहने पर भी वस्तु के नित्य अवस्थित रहने का वस्तु स्वरूप―शंकाकार कहता है कि इसमें परिणाम अनेक होते रहें और अवस्थित भी कहलाये, ये दो बातें एक साथ कैसे हो सकती हैं? जिनके परिणाम अनेक होते हैं वे अवस्थित कैसे? तो उत्तर इसका यह है कि द्रव्यार्थिकनय की दृष्टि से तो उनकी स्थिति है और पर्यायार्थिकनय की दृष्टि से उनका उत्पाद विनाश है, तो चूंकि समस्त पदार्थ द्रव्य पर्यायात्मक हैं इस कारण नय विवक्षा में दोनों ही बातें एक साथ हैं, परिणमन अनेक होते रहते हैं फिर भी ये ज्यों के त्यों अवस्थित रहते हैं । अथवा यों मानो कि अवस्थित का विशेषण है नित्य मायने ये सभी पदार्थ नित्य अवस्थित हैं, कुछ काल के लिये अवस्थित हो सो नहीं याने स्व पर प्रत्ययक उत्पादक विनाश होते रहने पर भी जिन-जिन पदार्थों का जो-जो स्वरूप है वे पदार्थ अपने उस स्वरूप को कभी भी नहीं छोड़ते । इस कारण ये समस्त द्रव्य नित्य अवस्थित हैं, यह अर्थ लेना चाहिये ।
सूत्रोक्त अरूपशब्द का विवरण और प्रकरण प्रोक्त द्रव्य संख्या का लक्ष्य―प्रकृत सूत्र में जो अवस्थित शब्द दिया है वह क़ियावानपने की निवृत्ति के लिये है । ऐसी शंका होने पर उत्तर दिया जा रहा है कि अवस्थित वचन निष्क्रिय बताने के लिये नहीं है । भले सूत्र निर्दिष्ट ये द्रव्य निष्क्रिय हैं, पर आगे सूत्र आयेगा―निष्क्रियाणि च । उस सूत्र से सिद्ध होगा कि ये पदार्थ निष्क्रिय हैं । सूत्र में जो अरूप शब्द का ग्रहण है वह द्रव्य के स्वतत्त्व के बताने के लिए है याने यह द्रव्य अरूपी है । इसका स्वरूप अरूप है । और, रूप नहीं है इसके स्वरूप में, ऐसा कहने से रस, गंध, स्पर्श भी ग्रहण में आता कि ये भी नही हैं । तो अरूप का अर्थ रूप रहित यह अर्थ न रहा किंतु अमूर्त है मायने रूप, रस, गंध स्पर्श इन चारों से रहित है । इस सूत्र तक 5 द्रव्यों का वर्णन चला । इससे यह न समझना कि जो 6 द्रव्य बताये गए हैं वह बताना गलत है, क्योंकि यहाँ मतलब है अस्तिकायों का । 5 अस्तिकाय हैं, उनका प्रकरण चल रहा है । एक द्रव्य जो शेष रह गया उसको बताने के लिये आगे स्वयं कालश्च ऐसा सूत्र कहा जायेगा । सो उसे न देखकर केवल अब तक कहे हुए द्रव्य पर ही दृष्टि देकर जानना कि यहाँ तक 5 कहे गए हैं । सो यहाँ से इन 5 अस्तिकायों के वर्णन में और 6 द्रव्यों के बताने में किसी भी प्रकार का विरोध नहीं है।
पुद्गल द्रव्य के अरूपित्व के प्रतिषेध के लिये पृथक सूत्र की वक्ष्यमाणता―अब यहाँ एक जिज्ञासा होती है कि प्रकृत सूत्र में सभी द्रव्यों को नित्य अवस्थित बताया गया है । वह तो सही है, पर साथ ही इन सबको अरूपी बताया गया है याने अब तक जिन-जिन पदार्थों का वर्णन हुआ धर्म, द्रव्य, अधर्म द्रव्य, आकाश द्रव्य, पुद्गल द्रव्य और जीव, सो इन पांचों की ही बात इस सूत्र में कही गई है । तो अरूपी भी कहा गया है तो क्या पुद्गल भी अरूपी है? उसका समाधान यों करना कि यह अभी सामान्य कथन है । उसका अपवादरूप सूत्र आगे आयेगा । सूत्र रचना पद्धति में लाघव आदि की दृष्टि से इस प्रकार वर्णन चलता है कि कोई बात पहले बोल दी और उसमें कोई अपवाद है, तो आगे सूत्र स्वयं कह दिया करते हैं । तो उस अपवाद के लिए सूत्र कहा है ।