वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षशास्त्र - सूत्र 7-12
From जैनकोष
जगत्कायस्वभावौ वा संवेगवैराग्यार्थम् ।।7-12।।
(139) संवेग व वैराग्य की वृद्धि के लिये जगत और काय के स्वभाव का चिंतन―संवेग और वैराग्य की वृद्धि के लिए संसार और शरीर के स्वभाव का चिंतन करना चाहिए । जगत के मायने यह सर्व दृश्यमान वैभव संचेतन अथवा अचेतन । शरीर-शरीर को ही कहते हैं । इसका स्वभाव अर्थात् इसकी जो तारीफ है जिस रूप से । जगत और शरीर बर्तते हैं, वह उनका स्वभाव है । सो संसार और संसार का स्वभाव संवेग और वैराग्य के लिए चिंतन करना चाहिए । संवेग का अर्थ है संसार से भय रखना । भय का अर्थ क्या? कि संसार दुःखमय है इस कारण संसार में लगना योग्य नहीं है, उससे हटना ही श्रेयस्कर है, ऐसे भाव सहित संसार से अलग होने का यत्न करना यही संवेग कहलाता है । विराग कहते हैं विषयों से विरक्त होने को । चारित्रमोह का उदय न हो, चाहे चारित्रमोह का उपशम हो, क्षय हो या क्षयोपशम हो, किसी भी स्थिति में चारित्रमोह का विपाक न हो तो उस समय जो स्पर्श, रस, गंध, वर्ण शब्द से राग हटता है उसको विराग कहते हैं । विराग के भाव को वैराग्य कहते हैं । किस प्रकार जगत काय का स्वभाव विचारा जाता है? 1-संसार का स्वभाव―यह लोक इस परिणमते हुए द्रव्यों का समुदाय है । जो सभी द्रव्य अनादि काल से अवस्था बदलते जा रहे हैं इस कारण आदि वाले हैं और इनकी सत्ता किसी ने नहीं बनायी है । ऐसा यह अनादि है । यों नित्यानित्यात्मक द्रव्य का समुदाय यह लोक है । इस लोक में जीव चारों गतियों में नाना तरह के दुःखों को भोग-भोगकर परिभ्रमण कर रहे हैं । इस लोक में कुछ भी वस्तु नियत नहीं है । यह जीवन जल के बुदबुदे के समान क्षणभंगुर है । यह भोग समुदाय बिजली की तरह क्षणस्थायी है या मेघ आदिक का जो आकार प्रकार बनता है उसकी तरह अत्यंत चंचल है । इस शरीर में लगाव रखने से आत्मा का हित नहीं है, ऐसा ध्यान करना सो सम्वेग की वृद्धि का कारण है । शरीर के स्वभाव का यों चिंतन करना कि यह शरीर अनित्य है, यह नियम से बिखरेगा, नष्ट होगा और यह शरीर ही दुःख का हेतु है, क्योंकि वेदनायें, इष्ट कल्पनायें, शारीरिक मानसिक सभी प्रकार के कष्ट इस शरीर के संबंध से होते हैं । यह शरीर सारहीन है, अपवित्र है, ऐसी शरीर के प्रति, भावना करने से वैराग्य जगता है और जहाँ संवेग और वैराग्य भाव जगता है वही धर्म में बहुत आदर होता है । धार्मिक पुरुषों की संगति रुचती है, मन में विशुद्ध प्रसन्नता रहती है, आरंभ परिग्रह में दोष देखने के कारण विरति परिणाम रहते हैं । उत्तरोत्तर आगे गुणों का विकास होता है । गुणविकास में मोक्षमार्ग में श्रद्धा बढ़ती है, ऐसी इन भावनाओं से जिसका चित्त भरा हुआ है वह पुरुष व्रतों के पालन करने में दृढ़ होता है ।
(140) स्याद्वादशासन में भावनाओं की सफलता का सयुक्तिक कथन―यहाँ एक बात यह जानना कि व्रतों की पुष्टि के लिए जितनी भावनायें कही गई हैं वे भावनायें तब ही बन सकती हैं जब कि सर्व पदार्थ नित्यानित्यात्मक हों । सो ऐसा है ही । यदि पदार्थ सर्वथा नित्य हो तो वहाँ कोई परिणति ही नहीं संभव है । फिर भावनायें कैसे बनेंगी? भावनायें करने वाले जीव को कोई सर्वथा नित्य अपरिणामी, जिसका कुछ बदल परिणमन हो ही नहीं सकता है कूटस्थ ध्रुव माने तो वहां कुछ परिणति ही न बनेगी तो भावना कैसे जगेगी? और यदि आत्मा में विक्रिया मानते हैं अर्थात् परिणमन, बदल भाव होना मानते हैं तो वह आत्मा एकांतत: नित्य तो न रहा, इसी प्रकार यदि आत्मा को सर्वथा अनित्य माना जाये तो अब यह आत्मा अनेक समयों में तो रहा नहीं । क्षणिक का अर्थ है―एक क्षण को सत्ता है, आगे सत्ता नहीं है । तो जब अनेक क्षणों में न रह सका कोई वस्तु यह आत्मा तो अनेक पदार्थों के विषय में एक ज्ञान होना तो संभव नहीं है । जब क्षण-क्षण में नये-नये ज्ञान अथवा आत्मा बन रहे तो कोई भी आत्मा पहले के समयों के पदार्थों का स्मरण नहीं कर सकता, और जब कुछ स्मरण नहीं हो सकता आगे पीछे का तो वहाँ भावना भी नहीं बन सकती । सो सर्वथा नित्यवादियों के यहाँ भावना साधना नहीं बन सकती ऐसे ही सर्वथा अनित्यवादियों के यहाँ साधना नहीं बन सकती, किंतु स्याद्वाद शासन मानने वाले के साधना भावना सब बनती है । स्याद्वाद शासन में द्रव्यार्थिकनय की दृष्टि से पदार्थ नित्य है तब अंतरंग बहिरंग कारण के वश से उसमें उत्पादव्यय भी निरंतर होता रहता है इस कारण अनित्य है । तो उत्पादव्ययध्रौव्य से युक्त आत्मा में स्मरण बन सकता है और परिणति बन सकती है और इस प्रकार भावना, साधना किया जाना सिद्ध होता हैं । इस संबंध में अपने आपके प्रति ऐसा निरखना चाहिए कि यह मैं आत्मा अनादि से अनंत काल तक रहने वाला एक चैतन्य पदार्थ हूँ । चूंकि जो भी सत् है, सबका स्वरूप है उत्पादव्यय होना और उत्पादव्यय होकर भी सत्ता बनी रहना, सो मैं सदा रहूंगा, पर जैसी परिणति करूँगा वैसा ही फल भोगूंगा । इससे स्वभाव के अनुरूप मेरी परिणति बने तो उसमें मेरा कल्याण है और स्वभाव के विरुद्ध मेरा परिणमन चले तो उसका फल चारों गतियों में जन्म मरण करके दुःख पाते रहना है । इससे पदार्थों का यथार्थ स्वरूप जानकर उनसे मोह हटाना और अपने आपके ज्ञानानंद स्वरूप में उपयोग का मग्न करना―यह कल्याणार्थी का कर्तव्य है । इस अध्याय में प्रथम सूत्र में बताया गया है कि हिंसा आदिक पापों से निवृत्त होना व्रत है, तो हिंसा आदिक क्या कहलाते हैं? वह कौनसी क्रिया विशेष है, उनका जानना तो बहुत आवश्यक है ताकि उन परिणामों से विरत होने का प्रयोग परीक्षण हो सके । सो उस विषय में चूंकि एक साथ सबको नहीं कहा जा सकता तो सूत्र में जिसका प्रथम निर्देश है उस निर्देश माफिक सबसे पहले हिंसा का लक्षण कहते हैं ।