वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षशास्त्र - सूत्र 8-9
From जैनकोष
दर्शनचारित्रमोहनीयाऽकषायकषाय वेदनीयाख्यास्त्रिदि्वनवषोडशभेदा:
सम्यक्त्वमिथ्यात्वतदुभयान्यकषायकषाया हास्यरत्यरतिशोकभयजुगुप्सा-
स्त्रीपुंनपुंसकवेदा: अनंतानुबंध्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानसंज्वलनविकल्पाश्चैकश: क्रोधमानमाया लोभा: ।।8-9।।
(262) मोहनीयकर्म के मूलभेदरूप दर्शनमोहनीय व चारित्रमोहनीय में से दर्शनमोहनीय के प्रकारों का विवरण―मोहनीय कर्म के मूल भेद दो हैं―(1) दर्शनमोहनीय और (2) चारित्रमोहनीय । दर्शनमोहनीय के उदय से तो जीव को तत्वार्थ का सत्य श्रद्धान नहीं हो पाता और अतत्त्व श्रद्धान में ही बना रहता है । इस दर्शनमोहनीय के तीन भेद हैं―(1) सम्यक्त्व (2) मिथ्यात्व और (3) सम्यग्मिथ्यात्व । इन तीनों में मूल आधार प्रकृति है मिथ्यात्व, क्योंकि बंध केवल मिथ्यात्व का होता है । सम्यक्त्वप्रकृति और मिश्र प्रकृति का बंध नहीं होता फिर उनकी सत्ता कैसे हो जाती है? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि जब अनंतानुबंधी 4 और मिथ्यात्वप्रकृति के उपशम से उपशम सम्यक्त्व होता है तो उपशम सम्यक्त्व होने के प्रथम क्षण में ही मिथ्यात्व प्रकृति दलित हो जाती है । इस समय मिथ्यात्व प्रकृति का उदय तो नहीं है क्योंकि उपशम सम्यक्त्व का अभ्युदय हुआ है, लेकिन सता में है । तो उस सत्ता में ही रहने वाली मिथ्यात्वप्रकृति का दलन होता है जिससे कि अधिक दलित मिथ्यात्व प्रकृति की कर्मवर्गणायें सम्यक्त्वप्रकृतिरूप बन जाती हैं । इस सम्यक्त्व प्रकृति का जब उदय हो तो सम्यक्त्व तो नाश नही हो पाता किंतु सम्यक्त्व में दोष लगता रहता है, जिन्हें चल, मलिन और अगाढ़ कहते हैं । यह पहला सूक्ष्म दोष है । सम्यक् प्रकृति का उदय क्षयोपशम सम्यक्त्व की स्थिति में मिलेगा । जहाँ अनंतानुबंधी 4 प्रकृतियों का और मिथ्यात्व प्रकृति का तथा मिश्र प्रकृति का उदयाभावी क्षय हुआ और सूक्ष्म प्रकृतियाँ जो सत्ता में स्थित हैं, जिनका उदय आगे आयेगा उनका उपशम हो, ऐसी स्थिति के साथ सम्यक्प्रकृति का उदय हो तो क्षायोपशमिक सम्यक्त्व होता है । तो इस सम्यक्त्व प्रकृति के उदय से सम्यक्त्व का घात तो नहीं है किंतु सम्यक्त्व में सूक्ष्म दोष लगते रहते हैं । सम्यक्त्व प्रकृति का कार्य सम्यग्दर्शन नहीं किंतु सम्यक्त्व में दोष लगाना है । मिथ्यात्वप्रकृति के उदय से जीव के मिथ्यादर्शन रहता है । शरीर को जीव को एक मानना विकार में स्वभाव में अंतर न समझ पाना, अहंकार, मम कार, कर्तृत्वबुद्धि तथा भोक्तृत्व बुद्धि होना, ऐसे अटपट भाव मिथ्यादर्शन कहलाते हैं । मिश्र प्रकृति के उदय में इस जीव के मिश्र परिणाम होता है । अर्थात् जिसे न तो केवल सम्यक्त्वरूप कहा जा सकता है और न केवल मिथ्यात्वरूप कहा जा सकता, किंतु जात्यंतर जैसी दशा होती है । कोई दही गुड़ को मिलाकर खाये या, दही शक्कर मिलाकर खाये तो उसमें स्वाद न केवल दही का मिल सकेगा न केवल मीठे का मिल सकेगा, किंतु कोई तीसरा ही स्वाद हो जाता है । ऐसा मिश्र प्रकृति का जहाँ उदय है वहां अनंतानुबंधी और मिथ्यात्व का उदयाभावी क्षय है और उपशम है और ऐसे ही यदि सम्यक्प्रकृति सत्ता में है तो उसका भी उपशमन रहता है । इस प्रकार दर्शनमोहनीय के तीन भेदों का वर्णन हुआ ।
(263) चारित्रमोहनीय के भेद अकषायवेदनीय व कषायवेदनीय में से अकषायवेदनीय के प्रकारों में हास्य, रति, अरति, शोक का निर्देशन―अब मोहनीय के मूल भेदों में जो चारित्र मोहनीय है, जिसके उदय से आत्मा के चारित्रगुण का विकास नहीं हो पाता उस चारित्र मोहनीय के दो भेद कहे गये हैं―(1) अकषाय वेदनीय और (2) कषाय वेदनीय । जिसके सीधे नाम हैं नोकषाय और कषाय । नोकषाय के 9 भेद हैं―(1) हास्य, (2) रति, (3) अरति, (4) शोक, (5) भय, (6) जुगुप्सा, (7) स्त्रीवेद, (8) पुरुषवेद, (9) नपुंसकवेद । हास्य प्रकृति के उदय से हँसी का आविर्भाव होता है । हँसना, मजाक करना, भीतर रोष के कारण दिल्लगी करके खुश होना यह सब हास्य की घटना है । रति प्रकृति के उदय से इष्ट देश, काल, द्रव्य में उत्सुकता रहती है । प्रीति का परिणाम बनता है, उसकी ओर खिंचाव रहता है । अरति प्रकृति के उदय से देश आदिक में, पदार्थों में अनुत्सुकता अप्रीति का भाव रहता है जिससे कि उससे हटने का भीतर में भाव बना रहता है । शोक प्रकृति के उदय में रंज का परिणाम होता है । किसी भी घटना को चित्त में लेकर उसके लाभ अलाभ के संबंध को सोचकर शोक बना रहता है ।
(264) भयप्रकृतिनामक कषायवेदनीय मोहनीयकर्म के अनुभाग का वर्णन―भयप्रकृति के उदय से 7 प्रकार का भय उत्पन्न होता है । इस लोक में इस पर्याय में मेरा गुजारा कैसे होगा, कभी कोई आपत्ति न आवे आदिक बातों को विचार विचारकर इस लोक का भय बना रहता है । ये भय अनेक प्रकार के हैं, जिनका परिचय साधारणतया सभी मनुष्यों को है । कितने प्रकार के भय इस चित्त में बसे रहते हैं? किसी को थोड़ा बहुत परलोक संबंधी बात करनी आती है तो वह परलोक का भय बनाये रहता है । पता नहीं कैसा मुझे जन्म मिलेगा, कहीं मेरी खोटी दशा न हो, दरिद्र न बनूं आदिक अनेक प्रकार के भय होते हैं । शरीर की व्याधि का भय बना रहता है । शरीर में कभी रोग न हो, अगर रोग होता है तो घबड़ाते कि हाय अब क्या होगा, मरण हो जायेगा, कैसे बात बनेगी, आदिक अनेक भय भयप्रकृति के उदय में चलते हैं । एक भय अगुप्ति का होता है । मकान खुला है, किवाड़ों का अच्छा प्रबंध नहीं है । कहीं किवाड़ लगे नहीं हैं, कहीं लगे भी हैं, किवाड़ तो अत्यंत जीर्ण शीर्ण हालत में हैं । ऐसी हालत में मैं कैसे सुरक्षित रह सकूंगा, ऐसा भय भयप्रकृति के उदय में चलता है । एक भय अरक्षा का रहता है । मेरी रक्षा करने वाला कोई नहीं है, किसी की मुझ पर भली-भाँति छाया नहीं है, मेरे मकान आदिक भी ढंग से नहीं हैं आदिक अरक्षा संबंधी भय भयप्रकृति के उदय में चलते हैं । एक भय मरण का भी होता है । मरण से प्राय: सभी जीव डरते हैं । जिसको अपने आत्मा के स्वतंत्र स्वरूपास्तित्व की श्रद्धा नहीं है वह मरणभय से बड़ा व्याकुल रहता है । यद्यपि मरण होने पर जीव का कुछ बिगड़ता नहीं है । जो जीव अपनी सत्ता में है वह अपनी पूरी सत्ता लिए हुए अपनी सर्वगुण समृद्धि में रहता हुआ इस शरीर में न रहकर अगले शरीर में रहने के लिए जाता है और नवीन शरीर में रहता है । तो मरण से बात भली होने वाली है । एक जीर्ण शीर्ण शरीर को छोड़कर किसी नवीन शरीर में पहुंचने वाली खुशी वाली बात है, किंतु जिनको अपने अस्तित्त्व का परिचय नहीं है उनको मरण का भय बना रहता है । एक भय आकस्मिक होता है―अटपट भय । किसी भी घटना की कल्पना करके, कहीं ऐसा न हो बैठे, ऐसे अनेक भय लगाये रहते हैं । तो भय प्रकृति के उदय में इस जीव के भय होता है।
(265) जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद प्रकृति नामक अकषायवेदनीय मोहनीयकर्म के प्रकारों का निर्देशन―जुगुप्सा ग्लानि को कहते हैं । मन खराब हो जाना, अधीर हो जाना, ये सब जुगुप्सा की प्रकृतियाँ हैं । जुगुप्सा प्रकृति के उदय से जुगुप्सा के भाव होते हैं । जुगुप्सा का पर्यायवाची शब्द कुत्सा हो सकता है, मगर यह जुगुप्सा के भाव को पूरा नहीं बता पाता । अपने दोषों का सम्वरण करना, दोषों को ढाँकना ऐसी मूल में बात तो जुगुप्सा की होती है, किंतु कुत्सा में दूसरे के कुल शील आदिक के दोषों को बताने का भाव और उनमें दोष हों तो उससे एक क्षुब्ध होने का भाव होता है । स्त्रीवेद नामकर्म के उदय से स्त्रियों के जैसे भाव उत्पन्न होते हैं । पुरुष की कामना करना, नेत्र विभ्रम करना, काम के आवेश में रहना, इन भावों को प्राप्त होता है और यह ही भाव स्त्रीवेद कहलाता है । जब स्त्रीवेद का उदय होता है तब पुरुषवेद नपुंसकवेद सत्ता में रहते हैं । स्त्री का जो शरीर है उसकी रचना तो नामकर्म के उदय से होती है । पर स्त्रीवेद के उदय से स्त्री के संभव भाव हुआ करते हैं । और इसी कारण कोई शरीर से पुरुष हो उसके भी स्त्रीवेद का उदय संभव है, इसी प्रकार शरीर से कोई स्त्री हो तो उसके भी पुरुषवेद का उदय संभव है । पुरुष का शरीर भी नामकर्म के उदय से बना हुआ है, और उसमें वेद विषयक भाव इस चारित्रमोहनीय के उदय से होता है । पुरुषवेद के उदय से जीव पुरुष संबंधी भावों को प्राप्त होता है और नपुंसक वेद के उदय से नपुंसकों के भाव को प्राप्त होता है । इस प्रकार नोकषाय की प्रकृतियों का वर्णन हुआ ।
(266) कषायवेदनीय मोहनीय के सोलह प्रकारों में से क्रोधसंबंधित चार प्रकारों का निर्देश―अब चारित्रमोहनीय का दूसरा भेद है कषायवेदनीय । इसके 16 भेद होते हैं―अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ, अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ, संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ । क्रोध रोष का नाम है । अपने या दूसरे के उपघात या अनुपकार आदिक करने के क्रूर परिणाम क्रोध कहलाते हैं । क्रोध में यह जीव अपना भी घात कर लेता है, दूसरे का भी घात करता, अपना भी बिगाड़ करता, दूसरे का भी बिगाड़ करता है । यह क्रोध चार प्रकार का है―अनंतानुबंधी क्रोध जो पत्थर पर छेदी गई रेखा के समान चिरकाल तक रहता है । इस क्रोध से मिथ्यात्व का संबंध बना करता है । अप्रत्याख्यानावरण क्रोध―जैसे जोते गए खेत में हल की लकीर पड़ जाती है और कुछ ही महीनों में मिट जाती है ऐसे ही अप्रत्याख्यानावरण क्रोध 6 महीने से अधिक नहीं रह पाता । क्रोध तो कोई सा भी लगातार 10 मिनट भी नहीं रह सकता । उसके बीच में अन्य-अन्य कषायें आती रहती हैं, पर इस क्रोध का संस्कार 6 महीने से अधिक नहीं चलता । हाँ अनंतानुबंधी क्रोध का संस्कार 6 माह से अधिक की तो बात क्या, वह तो अनेक भवों तक चलता रहता है । अप्रत्याख्यानावरण क्रोध के उदय से अणुव्रत के भाव नहीं हो पाते । प्रत्याख्यानावरण क्रोध―यह धूली की रेखा के समान है । इसका कुछ ही दिन रहना कठिन होता है । इस क्रोध में महाव्रत का भाव नहीं हो पाता । संज्वलन क्रोध―यह क्रोध जल में लाठी से लकीर खींचने पर जैसे जल की लकीर तुरंत ही विलीन हो जाती है ऐसे ही यह संज्वलन क्रोध अंतर्मुहूर्त ही रहता है । इससे अधिक इसका संस्कार भी नहीं रहता । इस क्रोध में यथाख्यातचारित्र नहीं होता ।
(267) कषायवेदनीयमोहनीय के 16 भेदों में से मानकषाय संबंधित चार प्रकारों का निर्देशन―मानकषाय―जाति, कुल आदिक के घमंड से दूसरे के प्रति नमन करने का परिणाम न होना मान कषाय है । यह मान कषाय भी चार प्रकार का है । अनंतानुबंधी मान―जैसे पत्थर का खंभा अत्यंत कठोर होता है, उसमें नमन रंच भी नहीं है, इस तरह का कठोर होना, नम्रता रंच न होना अनंतानुबंधी मान है । यह मान मिथ्यात्व को पुष्ट करने वाला है । अप्रत्याख्यानावरणमान―जैसे कि हड्डी पत्थर की तरह कठोर नहीं है, उसमें कुछ नमने की योग्यता है, इसी प्रकार जो अत्यंत कठोर नहीं, किंतु उसके बाद का कठोर हो वह अप्रत्याख्यानावरण मान है । इस कषाय के उदय से जीव अणुव्रत धारण नहीं कर सकता । प्रत्याख्यानावरणमान―जैसे लकड़ी हड्डी से अधिक नम्र रहती है फिर भी कठोरता है इसी प्रकार जिसमें कुछ नम्रता आयी हो वह प्रत्याख्यानावरण मान कषाय है । इस कषाय के उदय से महाव्रत धारण नहीं किया सकता है । संज्वलनमान―जैसे लता अत्यंत नम्र होती है फिर भी उसमें साधारण कठोरता है । उसकी तरह जहाँ अतीव कम कठोरता हो उसे संज्वलन मान कषाय कहते हैं । संज्वलन मान कषाय के उदय से यह जीव अपने सहज शुद्ध स्वरूप को विकसित नहीं कर सकता । यथाख्यात चारित्र नहीं हो सकता ।
(268) कषायवेदनीयमोहनीय की मायासंबंधित चार प्रकारों का निर्देश―माया कषाय―छल कपट करना माया है । यह माया भी 4 प्रकार की है―(1) अनंतानुबंधी माया―माया का स्वरूप टेढ़ेपन से चलता है । मन में और, वचन में और, करे कुछ और, जहाँ ऐसी वक्रता है वही तो माया कषाय है । तो जो माया बाँस की जड़ की तरह है, गठीली रहे, बहुत वक्र रहे, वह अनंतानुबंधी माया है । इसके उदय से सम्यक्त्व प्रकट नहीं होता । अप्रत्याख्यानावरणमाया―जो माया अनंतानुबंधी से कम टेढ़ी हो, मेढ़े के सींग की तरह जहाँ टेढ़ापन पाया जाये उसे अप्रत्याख्यानावरण माया कहते हैं । इस कषाय के उदय में यह जीव अणुव्रत धारण नहीं कर सकता । (3) प्रत्याख्यानावरण माया―जो अप्रत्याख्यानावरण से तो कम कुटिल है, फिर भी कुटिलता पायी जाती है । जैसे बैल मूतता हुआ जा रहा है तो उसके मूत्र की जैसी कुटिल रेखायें हैं इस प्रकार का जो कुटिल भाव है वह प्रत्याख्यानावरण माया है । इसके उदय से यह जीव महाव्रत नहीं धारण कर सकता । (4) संज्वलनमाया―जिसमें अत्यंत कम कुटिलता है, लेखनी कलम के समान साधारण ही कुटिलता है वह संज्वलन माया है । इसके उदय में यह जीव यथाख्यात चारित्र नहीं पाल सकता ।
(269) कषायवेदनीयमोहनीय के सोलह भेद में से अंतिम लोभ संबंधित चार प्रकारों का कथन―लोभकषाय―लोभ, तृष्णा, आशा आदिक परिणाम को कहते हैं । लोभकषाय का इतना गहरा रंग है जीव पर कि यह प्रसिद्धि हो गई कि लोभ पाप का बाप बखाना । सर्व पापों में प्रधान पाप लोभ है । जिसका संस्कार बड़ी कठिनाई से छूटता है । यह लोभ भी चार प्रकार का है―(1) अनंतानुबंधी लोभ―धन आदिक की तीव्र आकांक्षा, अत्यंत गृद्धि, विषयों की बड़ी आसक्ति होना, जिसका संस्कार जन्म-जन्म तक रहता है वह अनंतानुबंधी लोभ है । जैसे किरमिची रंग कपड़ा फट जाये तो भी नहीं छूटता, ऐसे ही यह लोभकषाय भव-भव में इस जीव को परेशान करती है । इस अनंतानुबंधी लोभ के उदय में जीव का मिथ्यात्वभाव पुष्ट होता रहता है । अनंत नाम मिथ्यात्व का है । जो मिथ्यात्व का संबंध बनाये, पोषण करे सो अनंतानुबंधी है । (2) अप्रत्याख्यानावरणलोभ―जैसे काजल का दाग किरमिची के रंग से तो हल्का है, फिर भी यह बड़े प्रयत्न से छूटता है, ऐसे ही अनंतानुबंधी लोभ से तो गृद्धि कम है, फिर भी उतनी गृद्धि है कि जिसके कारण यह जीव अणुव्रत भी धारण नहीं कर सकता । (3) प्रत्याख्यानावरण लोभ―जैसे कीचड़ का रंग कुछ जल्दी घुल सकता है ऐसे ही जो लोभकषाय 15 दिन तक का भी संस्कार बना सके उसे प्रत्याख्यानावरण लोभ कहते हैं । इसके उदय में महाव्रत के परिणाम नहीं हो सकते हैं । (4) संज्वलन लोभ―यद्यपि संयम का विरोधी तो नहीं है । इतना कम लोभ है, फिर भी यथाख्यात चारित्र नहीं हो सकता । इसका दृष्टांत है हल्दी का रंग । यह जल्दी से छूट जाता है । संज्वलनकषाय का संस्कार अंतर्मुहूर्त ही रहता है । इस प्रकार चारित्रमोहनीय का जो दूसरा भेद है कषायवेदनीय उसके 16 भेद कहे गए हैं । मोहनीय की समस्त उत्तरप्रकृतियां मिलकर 28 हैं । सो यह सब मोहनीय कर्म का ही परिवार है । अब क्रम प्राप्त आयुकर्म की उत्तर प्रकृतियों को कहते हैं ।