वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षशास्त्र - सूत्र 9-45
From जैनकोष
सम्यग्दृष्टिश्रावक विरतानंतवियोजकदर्शनमोहक्षपकोपशम-
कोपशांतमोहक्षपक क्षीणमोहजिना: क्रमशोऽसंख्येय गुण निर्जरा: ।। 9-45 ।।
सूत्रोक्त दस स्थानों में उत्तरोत्तर असंख्यात गुणी निर्जरा का प्रसंग व उनमें से प्रथम तीन स्थानों में निर्जरा का पुन: निर्देश―सम्यग्दृष्टि, श्रावक, विरत, अनंतानुबंधी का विसंयोजन करने वाला, दर्शनमोह का क्षपक करने वाला, चारित्र मोह का उपशमन करने वाला, उपशांतमोह, चारित्र मोह का क्षपण करने वाला, क्षीणमोह तथा जिनेंद्रदेव ये क्रम से उत्तरोत्तर असंख्यातगुणी निर्जरा वाले होते हैं । इस सूत्र में सबसे पहले शब्द आया है सम्यग्दृष्टि, और उसके लिये यह बताते हैं कि सम्यग्दृष्टि असंख्यातगुणी निर्जरा करता है, तो यह जिज्ञासा होती है कि किससे असंख्यातगुणी निर्जरा करता है । तो सम्यक्त्व उत्पन्न होने से पहले करणलब्धियाँ होती हैं और उसमें तीसरी करणलब्धि है अनिवृतिकरण और इस ही लब्धि के पूर्ण होते ही सम्यक्त्व होता है । तो सम्यग्दृष्टि सम्यक्त्व होने से पहले उसका नाम सम्यग्दृष्टि नहीं है । सातिशय सम्यग्दृष्टि है । पर वह भी पवित्र आत्मा है और वहाँ निर्जरा ही चलती है, वहाँ जितनी यह निर्जरा करता है उससे असंख्यातगुणी निर्जरा सम्यग्दृष्टि जीव में है । सम्यग्दृष्टि से असंख्यातगुणी निर्जरा देशसंयम उत्पन्न होने वाले जीव में है । यह श्रावक पंचम गुणस्थान में है, इससे असंख्यातगुणी निर्जरा महाव्रत करने वाले जीव में है ।
सम्यक्त्व आदि की निष्पत्ति के लिये होने वाले करणलब्धियों की पृथक्-पृथक् स्थानों में संख्या का निर्देश―यहां यह बात जानना कि सम्यक उत्पन्न होने में कहीं तीन करण होते है कहीं दो करण होते हैं । अनादि मिथ्या दृष्टि जीव प्रथमोपशम सम्यक्त्व को करता है, उसके अन्य सम्यक्त्व नहीं होता और वह तीन करणलब्धियों से होता है । प्रथमोपशम सम्यक्त्व हुए बाद क्षयोपशम सम्यक्त्व हुआ अथवा प्रथमोपशम सम्यक्त्व छूटकर । कुछ समय अधिक समय न हो । तब तक 7 प्रकृतियों की सत्ता है, ऐसा मिथ्यादृष्टि भी क्षयोपशम सम्यक्त्व करता है । तो यह क्षयोपशम सम्यक्त्व दो करणलब्धियों से उत्पन्न होता है । यहाँ अनिवृत्तिकरण नहीं होता, ऐसे ही महाव्रत दो कारणों से उत्पन्न होता है । वहां भी अनवृत्तिकरण नहीं होता । कहीं तीन करण, कहीं दो करण जो बताये जा रहे हैं उसमें यह ध्यान होता है कि जो कार्य सबका एक समान नहीं है उसमें तो दो करण होते हैं और जो कार्य सबका एक समान है वहाँ तीन करण होते हैं । क्षायोपशमिक सम्यक्त्व सबका समान नहीं होता क्योंकि वहाँ चलमलिन अगढ़ दोष हुआ करते हैं और इस विविधता के कारण क्षायोपशमिक सम्यक्त्व भी नाना स्थानों में पाया जाता है । ऐसे ही श्रावक का व्रत और मुनियों का महाव्रत ये भी सबके समान नहीं होते, इनमें कभी बढ़ती का बहुत अंतर पाया जाता है । ये भी दो करणों से होते हैं ।
विरतभव्यों से उत्तरोत्तर असंख्यातगुणी निर्जरा के अधिकारी भव्यात्भावों का निर्देश―महाव्रत उत्पन्न करने वाले जीव के जो निर्जरा होती है उससे असंख्यातगुणी निर्जरा अनंतानुबंधी का विसंयोजन करने वाले के होती है । यहाँ निर्जरा होने से तात्पर्य कर्म प्रदेश की निर्जरा से है । सो अनंतानुबंधी का कोई विसंयोजन करने वाले चौथे गुणस्थान में भी हो तो इस विसंयोजन क्रिया में महाव्रत से भी असंख्यातगुणी निर्जरा होती है । अनंतानुबंधी के वियोजन से असंख्यातगुणी निर्जरा दर्शनमोह की क्षपणा करने वाले जीव के होती है । दर्शनमोह की क्षपणा करने वाला जीव क्षायिक सम्यक्त्व उत्पन्न करता है, उससे असंख्यातगुणी निर्जरा चारित्रमोह का उपशमन करने वाले अर्थात् उपशम श्रेणी की समाधि में रहने वाले मुनियों के होती है । उससे असंख्यातगुणी निर्जरा उपशांतमोह अर्थात 11वें गुणस्थान वाले जीव के होती है उससे असंख्यातगुणी निर्जरा चारित्रमोह का क्षपण करने वाले क्षपक श्रेणी में रहने वाले मुनियों के होती है । ये मुनि 8वें, 9वें, 10वें गुणस्थान के हैं, किंतु इनकी निर्जरा 11वें गुणस्थान से असंख्यातगुणी है । इन क्षपकों से असंख्यातगुणी निर्जरा क्षीणमोह गुणस्थान वाले जीव के होती है । क्षीणमोह गुणस्थान वाले अर्थात 12वें गुणस्थानवर्ती जीव से असंख्यातगुणी निर्जरा केवली भगवान के होती है । असंख्यातगुणी निर्जरा उत्तरोत्तर होते जाने का कारण है परिणाम विशुद्धि की वृद्धि ।
वर्तमान उपलब्ध जिनशासन की शरण्यता की उपलब्धि की दुर्लभता―यह जीव अनादिकाल से निगोद में रहा आया, और वहाँ ऐसी मूर्छा रही कि कुछ होश नहीं, केवल कहने मात्र को स्पर्शनइंद्रियजंय मति है । सो जैसे मद्य पीने वाले पुरुष के शराब का कुछ नशा उतरे तो अव्यक्त ज्ञान शक्ति प्रकट होती है या जैसे बड़ी निद्रा के हटने पर कुछ ऊँघते-ऊँघते भी अल्प स्मृति चलती है अथवा विष से मूर्छित व्यक्ति को विष का वेग कम होने पर कुछ चेतना शुरू होता है अथवा पित्त आदिक विकारों से जो पुरुष मूर्छित हुआ है उसकी मूर्खों हटने पर जैसे कुछ चेतना ही प्रकट होती है ऐसे ही साधारण अर्थात निगोद आदिक एकेंद्रिय में बार-बार जन्म मरण भ्रमण कर करके कभी इस जीव को कुछ चेतना में स्फूर्ति हुई, यों दो इंद्रिय आदिक पंचेंद्रिय पर्यंत त्रस पर्याय मिलती है, फिर भी न चेते तो वहीं एकेंद्रिय आदिक में परिभ्रमण होने लगता है । यों अनेक बार चढ़ उतर कर नरकादिक गतियों में भी दीर्घकाल तक पंचेद्रियपना अनुभव कर एक घुणाक्षर न्याय से मनुष्य जन्म प्राप्त होता है । घुणाक्षर न्याय क्या है कि जैसे भंवरा आदिक कोई कीड़ा काठ में लग जाये तो काठ को थोड़ा सा छेद देता है जिसे कहते हैं घुन लग गया, और उस घुन में कोई अक्षर बन जाय तो क्या कीड़ा उस तरह अक्षर बनाने के लिये काठ को घुनता है? अरे हो गया कभी, अर्थात दुर्लभ है । ऐसे ही मनुष्य जन्म भी दुर्लभ है, फिर मनुष्य जन्म में भी अनेक बार घूमा, पर और विशेष प्रगति का साधन न मिला । उत्तम देश, उत्तम काल, विशुद्ध परिणाम, प्रतिभा शक्ति आदिक मिलना बहुत दुर्लभ है । ये सब मिले और भीतर आत्मा को उपदेश भी मिला, कुछ इसका चिंतन मनन भी किया । मगर योग्य उपदेश न मिलने से सन्मार्ग की प्राप्ति न हुई । उपदेश तो बहुतों के मिले पर खोटे तीर्थों में मिथ्या मार्ग में भटक कर वहीं संसार में रुलते रहे । कभी ज्ञानावरणादिक कर्म का क्षयोपशम पाये, क्षयोपशमलब्धि प्रथम लब्धि पाये तो उसके चेतने से विधि पूर्वक विकास होने लगता है और तब इसके परिणाम विशुद्ध होने लगते हैं । विशुद्धलब्धि प्राप्त करके यह देशनालब्धि में प्रगति पाता जाता है ।
प्रथमोपशम सम्यक्त्व से प्रगति का आरंभ और निर्वाण में प्रगति की पूर्णता―यह भव्यात्मा समीचीन उपदेश सुनकर ऐसे निर्मल भाव में आता है कि प्रतिबंधी कर्म कषाय मंद होने लगते हैं । और यों कभी यह श्रद्धा भी सही पा लेता है । सो सर्वप्रथम इस जीव के प्रथमोपशम सम्यक्त्व होता है । जैसे कि कोई गंदला जल हो और उसमें कतकफली या फिटकरी आदिक डाल दी जाये तो उसका मैल नीचे बैठ जाता है । जल निर्मल हो जाता है उसी प्रकार मिथ्यात्व का उपशम होने पर आत्मनिर्मलता हुई, श्रद्धान के अभिमुख हुआ, प्रथमोपशम सम्यक्त्व पाया वह जीव असंख्यातगुणी निर्जरा करता है यह प्रथमोपशम सम्यग्दृष्टि 5 प्रकृतियों के उपशम से हुआ है । इससे सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्प्रकृति की सत्ता न थी, क्योंकि इन दो प्रकृतियों का बंध नहीं हुआ करता है । तो जैसे ही प्रथमोपशम सम्यक्त्व हुआ तो उस सम्यक्त्व चक्की के चलने से मिथ्यात्व प्रकृति के तीन हिस्से हो जाते हैं । कुछ मिथ्यात्व ही रह जाते हैं । कुछ सम्यग्मिथ्यात्व हो जाते हैं, कुछ सम्यक्प्रकृति हो आते हैं । इसके बाद क्षयोपशम सम्यग्दृष्टि होते हैं । क्षयोपशम सम्यग्दृष्टि कभी क्षायिक सम्यग्दृष्टि होते हैं । तो जो क्षायिक सम्यग्दृष्टि है वह तो बहुत ही अधिक निर्जरा करता है । जैसे कि अभी सूत्र में बताया गया । प्रशम सम्वेग आदिक का धारक है जिनेंद्र भक्ति जिनके विशिष्ट है वे भव्य जीव केवली भगवान के पादमूल में मोह का क्षय करना प्रारंभ करते हैं । कोई श्रुतकेवली के पादमूल में भी दर्शन मोह का क्षय प्रारंभ कहते हैं । सो दर्शन मोह के क्षय की समाप्ति इस मनुष्यभव में भी हो सकती है । और कदाचित इस क्रिया के बीच मरण हो जाये तो जिस गति में जायेगा उस गति में भी क्षय की पूर्णता हो जाती है । और यों मिथ्यात्व नष्ट होकर निर्मल क्षायिक सम्यग्दृष्टि हो जाता है । सम्यग्दृष्टि जीव शंकादि दोष से रहित है । खोटे शास्त्र से उसकी बुद्धि क्षुब्ध नहीं है । पदार्थ का जैसा स्वरूप है वैसा स्वरूप का जाननहार है । प्रवचन वात्सल्य संयम आदिक पवित्र चेष्टाओं में तत्पर है । यह ही जीव अप्रत्याख्यानावरण कषाय के क्षयोपशम से संयमासंयम में परिणत होता है और श्रावक कहलाता है । उसके अथवा किसी सम्यग्दृष्टि के विशुद्धि की वृद्धि हो और वह समस्त परिग्रहों से मुक्त होकर निर्ग्रंथता का अनुभव करता हुआ महाव्रती हो जाता है तो वहाँ भी असंख्यातगुणी निर्जरा है । फिर महाव्रत होने के बाद की श्रेणियों में चढ़ेगा वहाँ असंख्यातगुणी निर्जरा है । वहाँ से वह केवली होगा, वहां असंख्यातगुणी निर्जरा और केवली भगवान अंत में शेष रहे समस्त कर्मों का क्षय होने पर सिद्ध भगवान हो जाते है । तो सम्यक्त्व से लेकर अयोग केवली पर्यंत किससे, किसकी असंख्यातगुणी निर्जरा चलती है यह वर्णन इस सूत्र में किया गया है ।