वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षशास्त्र - सूत्र 9-5
From जैनकोष
ईर्याभाषैषणादाननिक्षेपोत्सर्गा: समितय: ।।9-5।।
समिति और ईर्यासमिति का लक्षण―समिति शब्द का सबके साथ संबंध है और इससे पहले सूत्र में कहे गए सम्यक शब्द का भी प्रत्येक के साथ संबंध है । भली प्रकार ईर्या करना ईर्यासमिति है । भले प्रकार भाषा में प्रवृत्ति करना भाषा समिति है । भले प्रकार आहार की खोज में प्रवृत्ति करना एषणा समिति है, भले प्रकार वस्तुओं के ग्रहण और धारण करने की प्रवृत्ति करना आदान निक्षेपण समिति है और भले प्रकार मल मूत्रादिक का निक्षेपण करना उत्सर्ग समिति है । यहाँ भले प्रकार का अर्थ है कि जिस विधि में अपने भावों में दोष न आये और प्राणियों की रक्षा रहे उस प्रकार की प्रवृत्ति करना समिति है । समिति शब्द का अर्थ है भले प्रकार आचरण करना । समिति शब्द में सम तो उपसर्ग है और एण धातु से इक्ति प्रत्यय लगाकर इति बना है । सम+इति=समिति । समिति में ईर्यासमिति का लक्षण है कि गमन करने में जीव के वध का परिहार होना ईर्यासमिति है । ईर्यासमिति वही मुनि कर सकता है जिसको जीव स्थान का ज्ञान हो । जीव कहां-कहां रहते हैं, उन स्थानों का परिचय होने पर ही जीव वध टाला जा सकता है । एतदर्थ मार्गणावों की विधि से, जीव समास की विधि से जीवों का परिचय होना आवश्यक है । किस जल में, किस वातावरण में, किन वनस्पतियों, में कैसे जीव हुआ करते हैं, इन सबका परिचय होने पर ही तो जीव वध टाला जा सकता है । तो जिसको जीव स्थान का ज्ञान हो और धर्म के लिए ही गमन कर रहा हो, सूर्य के उदय होने पर ही गमन किया जाये, और अन्य जगह चित्त न डुलाया जा रहा हो, जिस मार्ग पर बहुत से मनुष्य चले गए हों, वहाँ धीरे-धीरे कदम रखने वाले और अपने शरीर को संकुचित सा करते हुए चलने वाले, चार हाथ आगे जमीन देखकर चलने वाले पुरुष के ईर्यासमिति हुआ करती है ।
चौदह जीवस्थान―यहाँ जिज्ञासा होती है कि जीवस्थान का ज्ञान हुए बिना जब ईर्यासमिति नहीं बनती तो वे जीवस्थान कौन से हैं जिनका ज्ञान करना अतीव आवश्यक है, तो उन जीवस्थानों को बताते हैं । वे जीवस्थान 14 प्रकार के जीव समास कहे जाते हैं । यदि बहुत से जीवस्थानों का ज्ञान न हो, जैसा कि मार्गणा में बताया गया है, सूक्ष्म परिचय न हो तो भी 14 प्रकार के जीव समासों का ज्ञान तो आवश्यक ही है अन्यथा जीव हिंसा कैसे टलेगी? वह जीव समास हैं बादर एकेंद्रिय पर्याप्त, बादर एकेंद्रिय अपर्याप्त । जीव समास में पंचेंद्रिय जीवों का आधार लिया गया है―एकेंद्रिय, दोइंद्रिय, तीनइंद्रिय, चारइंद्रिय, पंचेंद्रिय, उनमें एकेंद्रिय के दो भेद कहे गए हैं―(1) वादर एकेंद्रिय (2) सूक्ष्म एकेंद्रिय और पंचेंद्रिय के दो भेद किये गये हैं―(1) संज्ञीयपंचेंद्रिय और ( 2) असंज्ञीपंचेंद्रिय, इस प्रकार के ये 7 भेद हो जाते हैं और ये सातों ही पर्याप्तक भी होते हैं और अपर्याप्तक भी । ऐसे इन 14 जीवसमासों में वादर एकेंद्रिय पर्याप्त का परिचय सुनो―जिन जीवों का शरीर वादर है, अर्थात् दूसरे शरीर को रोक सके, दूसरे शरीर से रोक सके अर्थात् जो वादर नामकर्म का उदय है ऐसे शरीर वाले एकेंद्रिय पर्याप्त को वादर एकेंद्रिय पर्याप्त कहते हैं । यह ही जीव जन्म समय में अपर्याप्त था । इसमें से कितने ही जीव लब्धपर्याप्तक होते हैं, कितने ही जीव निवृत्त पर्याप्त होते हैं । लब्ध पर्याप्त उन्हें कहते हैं जिनके पर्याप्ति पूर्ण न होगी, अपर्याप्त अवस्था में नियम से मरण होगा । निवृत्त पर्याप्तक वे जीव हैं जिनके अभी पर्याप्ति पूर्ण नहीं हुई किंतु पर्याप्ति नियम से पूर्ण होगी । पर्याप्त पूर्ण हुए बिना मरण नहीं हो सकता । लेकिन अभी पर्याप्त नहीं हो पाये तब तक वे निवृत्त पर्याप्त कहलाते हैं । सूक्ष्म एकेंद्रिय पर्याप्त और सूक्ष्म एकेंद्रिय अपर्याप्त । जिन जीवों का शरीर सूक्ष्म है आग से जल नहीं सकता, वायु से उड़ नहीं सकता, पकड़ने से पकड़ा नहीं जा सकता, किंतु अपनी ही छोटी आयु के क्षय होते रहने के कारण मरण होता रहे, ऐसे शरीर वाले एकेंद्रिय पर्याप्त और अपर्याप्त, सूक्ष्म एकेंद्रिय पर्याप्त व अपर्याप्त कहलाते हैं । जिन जीवों के स्पर्शन रसना आदिक दो इंद्रियाँ हैं वे जीव भी पर्याप्त और अपर्याप्त होते हैं जिन जीवों के स्पर्शन, रसना, घ्राण ये तीन इंद्रियाँ हैं वे भी दोनों प्रकार की होती हैं । स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु बार इंद्रिय वाले जीव भी पर्याप्त व अपर्याप्त होते हैं । संज्ञीपंचेंद्रिय भी दो प्रकार के और असंज्ञीपंचेंद्रिय भी दो प्रकार के होते हैं । वे सब विशेष नामकर्म के उदय से उत्पन्न हुए हैं, पहले चार जीव समास तो एकेंद्रिय जाति सूक्ष्मवादर पर्याप्ति अपर्याप्ति नामकर्म के उदय से हुए हैं । दो इंद्रिय आदिक जीवों में वादर नामकर्म का ही उदय है और साथ ही दोइंद्रिय जाति, तीनइंद्रिय जाति और पर्याप्त व अपर्याप्त नामकर्म का उदय है । पंचेंद्रिय जीवों में पर्याप्त और अपर्याप्त नामकर्म का उदय है । ऐसे जीव समासों का ज्ञान करने वाले मुनि ही जीव हिंसा टालकर समिति का पालन करते हैं ।
भाषा समिति की संवर हेतुता―हित, परिमित, संदेहरहित वचन बोलना भाषासमिति है । हित वह है जहाँ निराकुलता है । निराकुलता मोक्ष पद में है । तो मोक्ष पद की ओर ले जाने वाले स्व पर हितकारक अनिरर्थक बकवाद रहित स्पष्ट संदेहरहित वचन बोलना भाषा समिति कहलाती है । मिथ्यावचन, ईर्ष्या वाले वचन, प्रियता का नाश करने वाले वचन जिन में थोड़ा ही सार हो ऐसे वचन, जिन वचनों में शंका भरी हो तथा कषाययुक्त वचन ये सभी वचन अहितकारी वचन हैं, ऐसे वचनों से न स्वयं का हित है, न पर का हित है । भाषा समिति में ऐसे वचनों का अवकाश ही नहीं आता है । जो वचन दूसरे का उपहास करने वाले हों, सज्जनों के अयोग्य हों, सभ्यता से दूर हों, निष्ठुर हों, जिनकी सुनकर सुनने वाले के चित्त में ठेस पहुंचे, पापकर्म की प्रेरणा करने वाले वचन, इस देश काल के विरोधी वचन, दूसरे का मर्यादा से बाहर स्तुति करने वाले वचन, ये सब वचनों के बड़े दोष हैं । इन वचनों से किसी का हित नहीं है । इन सभी दुर्वचनों से रहित संभाषण करना भाषा समिति है । मनुष्य का धन वचन है । वचन से ही मनुष्य के मन की परीक्षा होती है । वचनव्यवहार से ही जीव आपत्तियों में अथवा शांति के वातावरण में पहुँचता है । जिन पुरुषों के भाषासमिति नहीं है वे पुरुष पद-पद पर दूसरों के द्वारा पीड़ित किए जाते हैं । उत्तम क्षमा का प्रयोग गृहस्थों को भी आवश्यक है । फिर जो सर्व आपत्तियों से रहित होना चाहते हैं उन साधुवों के लिए भाषासमिति अतीव आवश्यक है ।
एषणासमिति की संवर हेतुता―उद्गम्, उत्पादन, भोजनदोष व अंतराय से रहित विधि से भिक्षा चर्या करना, आहार ग्रहण करना एषणासमिति कहलाती है । साधुजन गुणों रत्नों को ढोने वाली इस शरीररूपी गाड़ी को चलाने के लिए ही इस अभिलाषा से भोजन करते हैं कि समाधि के योग्य हम चारित्र और तपश्चरण कर सकें । साधुजन जठराग्नि की ज्वाला शांत करने के लिए औषधि की तरह भोजन करते हैं, अथवा जैसे गाड़ी में औंगन न दिया जाये तो गाड़ी का चलना मुश्किल होता है ऐसे ही शरीररूपी गाड़ी को भोजनरूपी औंगन न दिया जाये तो शरीर गाड़ी चल नहीं सकती और तप संयम आदिक योग्य चारित्र में लगने के लिए इस परिस्थिति में शरीर गाड़ी का चलाना आवश्यक है, इस कारण साधुजन अनासक्त रहकर भोजन करते हैं । साधुवों की भिक्षावृत्ति का नाम गोचरीवृत्ति भी है, जैसे गाय को कोई महिला कितना ही साज शृंगार किए हुए घास डाले फिर भी गाय की दृष्टि उस महिला के साज शृंगार पर नहीं जाती किंतु घास पर जाती है ऐसे ही साधुजन केवल आहार योग की ही दृष्टि रखते हैं, किसी महिला के रूप साज शृंगार आदिक पर दृष्टि नहीं रखते । साधु की भिक्षावृत्ति का नाम भ्रामरी वृत्ति भी है, वह जिस श्रावक के घर विधि बने उसके यहाँ उसे कष्ट न पहुंचाते हुए अल्पाहार कर आते हैं । जैसे कि भंवरा किसी भी फूल पर बैठकर फूल को कष्ट न पहुँचाता हुआ थोड़ा सा रस ग्रहण करता है । ऐसे ही साधुजन भी श्रावक को बिना किसी प्रकार का कष्ट पहुँचाये अल्पाहार ग्रहण कर लेते हैं । साधुजन स्वाद के लिए आहार ग्रहण नहीं करते, किंतु एक शरीर बना रहने के लिए योग्य अल्प आहार ग्रहण करते हैं । यदि साधु ऐसी हठ करे कि मुझे आहार से क्या प्रयोजन? मैं तो निराहार ही रहूंगा और स्थिति हों उसकी स्वस्थ रहने की तो ऐसे असमय में प्राण का छूट जाना एक संक्लेशकारक होता है और उसके फल से मानो कदाचित देव भी बन गए तो असंयम में ही तो समय जायेगा, इस कारण साधुजनों को अपने संयमभाव से अनुराग है और उसी को निभाने के ख्याल से अपना जीवन रखते हैं । साधुजन नवकोटि शुद्ध आहार लेते हैं अर्थात् वे मन से, वचन से, काय से न भोजन विधि को करते हैं, न कराते हैं न उस तरह की अनुमोदना करते हैं, इस कारण साधु निरूदिष्ट आहार करने वाले कहलाते हैं ।
संवर हेतु रूप आदान निक्षेपण समिति व उत्सर्ग समिति―आदान निक्षेपण समिति―ज्ञान और संयम के साधक उपकरणों को देखभाल कर पिछी से शोधकर धरना और उठाना आदान निक्षेपण है । सहजनों के पास केवल ज्ञान और संयम के साधक उपकरण होते हैं । कमंडल, पिछी और शास्त्र, और वै भी समस्त द्रव्य उपकरण धर्म के अविरोधी होते हैं, दूसरों को बाधा न पहुंचे ऐसे होते है । जिनको चुराने का किसी के भाव ही न आये, ऐसे ये उपकरण होते हैं । शास्त्रों को कौन चुरायेगा? जो चुराने का भाव रखता है उसको शास्त्र से क्या प्रयोजन? वह तो ज्ञान का साधन है । जो शास्त्र और ज्ञान से रूचि रखते हैं उनके चोरी की आदत ही नहीं होती । कमंडल से किसी अन्य को क्या प्रयोजन? काठ का कमंडल, उसका दूसरे के लिए कुछ उपयोग ही नहीं है, अथवा अन्य जीव कोई उपयोग करे कमंडल का तो सभी समझेंगे कि यह तो चोरी का लाया हुआ है । तो कमंडल भी ऐसा उपकरण है कि जिसकी चोरी का संदेह ही नहीं रहता । पिछी किसी असंयमी जीव के काम की ही नहीं है । तो ऐसे उपकरणों को साधुजन रखते हैं जो साधुवों के लिए तो उपयोगी हैं और अन्य पुरुषों के लिए अनुपयोगी हैं । उपकरणों का धरना उठाना देखभालकर होता है जिसमें किसी जीव की हिंसा न हो । यही साधुवों की आदान निक्षेपण समिति है । उत्सर्गसमिति―साधुजनों के शरीर से भी पसीना, थूक, मल, मूत्र आदिक निकलते हैं सो उनका ऐसी जगह क्षेपण करना जहाँ कोई जंतु न हों अथवा कोई कहीं एक आध जंतु हो तो उसे पिछी से एक ओर करना, फिर अपने थूक आदिक मलों का क्षेपण करना यह उत्सर्गसमिति है । स्थावर जीव भी और त्रस जीव भी जहाँ कहीं मिलते ही हैं उन जीवों को किसी प्रकार की बाधा न हो, यह समिति में प्रयोजन है । तथा अपने अंगों को भी शरीर को कहीं रखना है तो वहाँ भी जीव रक्षा करते हुए, जमीन को शोधते हुए प्रवृत्ति करते हैं ।
गुप्ति में न रहते हुए साधु के समिति के उपयोग की अनिवार्यता―यहाँ शंकाकार कहता है कि जो ये समितियाँ बतायी गई हैं सो ये सब वचनगुप्ति और कायगुप्ति में शामिल हो जाती हैं, जैसे ईर्यासमिति, आदान निक्षेपण समिति, ये सभी समितियां कायगुप्ति में आती हैं, केवल भाषा समिति वचनगुप्ति में आती हैं । गुप्ति में भी तो प्राणियों की पीड़ा का परिहार है, तब ये दोनों पर्यायवाची ही रहे । इनको अलग से कहने की क्या जरूरत रही? इस शंका के समाधान में कहते हैं कि गुप्ति का काल तो परिमित होता है । जिस समय मन, वचन, काय को वश में रखने का उद्यम है वह थोड़े समय के लिए होता है, शेष समय तो कुछ प्रवृत्ति करनी ही होती है । तो जो गुप्ति में असमर्थ हैं वे पुरुष उस समय यत्नाचार पूर्वक प्रवृत्ति करते हैं, यह समिति कहलाती है । गुप्ति में सर्व प्रकार की निवृत्ति है, । और समिति में निवृत्ति का ध्यान रखते हुए प्रवृत्ति है । जो साधुजन गुप्ति में अपना प्रयत्न रखते हैं, पर गुप्ति पालन न हो सके तो उस समय सावधानी पूर्वक चलना, बोलना, वस्त्र रखना, उठाना या मलोत्सर्ग करने की क्रिया में सावधानी से प्रवृत्त होते हैं जैसे गुप्ति के भाव के कारण कर्मों का संवर होता है ऐसे ही समिति के भाव के कारण कर्म प्रकृतियों का संवर होता है ।
साधुवों द्वारा करपात्र में आहार ग्रहण करने की अनिवारित विशेषता―यहाँ शंकाकार कहता है कि साधुजन हाथ में ही भोजन करते है, पात्र तो रखते नहीं हैं, क्योंकि पात्र रखें तो परिग्रह का दोष होता है, तो पात्र जब नहीं हैं और हाथ में ही आहार लेते हैं तो उन साधुवों के हाथ से अन्न आदिक कुछ न कुछ अंश में नीचे गिरते ही हैं और उसके नीचे गिरने से हिंसा आदिक दोषों की संभावना है, फिर जो हाथ में ही अहार ग्रहण करें उनके एषणा समिति कैसे बन सकती है? इस शंका के समाधान में कहते हैं कि पात्र अगर ग्रहण करते हैं तब तो उसमें परिग्रह का दोष आता है और जहाँ परिग्रह का भाव हैं वहाँ निरंतर अपनी हिंसा कहलाती है । यदि निर्ग्रंथ मुनि पात्र ग्रहण करता है तो उसकी रक्षा करने में, उसका ख्याल बनाये रहने में अनेक दोष होते हैं, इस कारण यह तो पूर्ण नियम है कि मुनि करपात्र से ही आहार ग्रहण करें, हां करपात्र से आहार ग्रहण करता हुआ सावधानी से आहार ग्रहण करे, उसी ओर चित्त रखता हुआ आहार ग्रहण करे, जंतुरहित भूमि पुर खड़ा हुआ आहार करे तब उसको दोष की संभावना नहीं है । यदि साधु कोई पात्र लेकर भिक्षा के लिए जाये तो उसमें दीनता का दोष आता है । कोई कहे कि जिस घर गए उसी घर से ही पात्र ग्रहण कर लें, वह तो सर्वत्र सुलभ है सो यह तो ठीक है पर उस पात्र के धोने आदिक में आरंभ और पाप तो संभावित हैं अतएव पात्र तो साधुजन रखते नहीं; क्योंकि साधुवों का उद्देश्य अपने आप में समता परिणाम बनाये रहना है । यदि गृहस्थ के पात्र से ही आहार लें तो कभी कोई पात्र ठीक मिलता है, कभी कोई पात्र असुविधाजनक मिलता है, तो ऐसे पात्र के ग्रहण करने में चित्त में दीनता, हीनता, और मलिनता का अनुभव होना संभावित है । इसी कारण स्वावलंबी भिक्षु को करपात्र के सिवाय किसी में आहार लेना नहीं कहा है । यदि कोई यह युक्ति दे कि साधु को कभी अच्छा आहार मिलता, कभी नीरस मिलता, तिस पर भी भिक्षु के चित्त में हीनता तो नहीं आती, तो ऐसे ही कोई पात्र रख ले या गृहस्थ के यहाँ से ले तो कैसा ही मिले, उसमें भी दीनता नहीं आ सकती । उनकी ये युक्तियाँ ठीक नहीं हैं कि आहार लेना तो अनिवार्य है, चाहे कहीं सरस मिले चाहे कहीं नीरस मिले और उत अनिवार्य आहार साधन में मुनिजन समता रखने का ही प्रयास रखते हैं, पर यात्र रखना अनिवार्य तो नहीं है, फिर क्यों ख्वाह-म-खाह अपनी विषमता का साधन जुटाया जाये? अत: साधुवों को पात्र रखना निषिद्ध है, करपात्र में ही शुद्ध, नीरस, विधिपूर्वक आहार ग्रहण करते हैं । अब क्रम प्राप्त धर्म का वर्णन करते हैं ।