वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षशास्त्र - सूत्र 9-6
From जैनकोष
उत्तमक्षमामार्दवार्जवशौचसत्यसंयमतपस्त्यागा किंचन्यब्रह्मचर्याणि धर्म: ।। 9-6 ।।
संवर के हेतुभूत धर्म के प्रथम अंग उत्तम क्षमा का महत्त्व―संवर के हेतु का कथन करने वाले दूसरे सूत्र में सर्वप्रथम गुप्ति बताया है, सो गुप्तियों में प्रवृत्ति का सर्वथा निरोध होता है । वहाँ कोई प्रवृत्ति ही नहीं रहती । अब जो गुप्ति में समर्थ हैं उन साधुवों को प्रवृत्ति के प्रसंग में ईर्यासमिति आदिक समितियों का उपदेश किया है । अब जो समिति पूर्वक प्रवृत्ति कर रहे हैं उनको समिति में प्रमाद न आये, सावधानी बनी रहे, सावधानी से समिति का पालन करें, ऐसी पात्रता रहे, उसके लिए उत्तम क्षमा आदिक धर्मों का उपदेश है । साधुजनों को लौकिक दृष्टि से क्रोध के अनेक प्रसंग आते हैं । साधु आहार के लिए गोचरी करता है, परघर जाता है, तो पर घर जाते समय साधु को देखकर दुष्टजन गाली देते हैं, हँसी करते है, उनका अपमान करते हैं, फिर भी उनकी प्रवृत्ति निरखकर साधु जनों के क्रोध रंच भी नहीं आता । उनके चित्त में कलुषता उत्पन्न नहीं होती । दुष्टप्रवृत्ति करने वाले जीवों पर साधु के रोष नहीं आता । अन्य समय भी कहीं ध्यान में बैठे हों साधुजन तो दुष्ट लोग वहां भी उपद्रव करते हैं । शरीर को ताड़ने, छेदने आदि के अनेक ऐसे प्रसंग मिलते हैं जो कि क्रोध के कारणभूत हो सकते हैं । ऐसी परिस्थिति में भी साधुजनों के चित्त में कलुषता नहीं आती, यह ही उत्तम क्षमा कहलाती है । बाहरी बातों का ख्याल ही न करें और अपने अविकार सहज स्वभाव की दृष्टि बनाये रहे, यह सब उत्तम क्षमा है । क्षमा न करने वाले पुरुष किसी दूसरे का बिगाड़ नहीं करते, अपना ही बिगाड़ करते हैं, क्योंकि क्रोधादिक जगने पर आत्मा के ही ज्ञान गुण का घात होता है । दूसरे पुरुष का बिगाड़ होना उसके पापोदय के आधीन है । कोई भी पुरुष किसी दूसरे जीवे का बिगाड़ नहीं कर सकता जिससे कि ज्ञाता पुरुष प्रत्येक परिस्थिति में बाह्य की उपेक्षा कर अपने अविकार स्वभाव की दृष्टि रखकर उत्तम क्षमा का अनुभव करता रहता है ।
संवर के हेतुभूत धर्म, के द्वितीय अंग उत्तम मार्दव का महत्त्व―धर्म का दूसरा अंग है उत्तम मार्दव । मार्दव शब्द मृदु शब्द से बना है―मृदोन्भाव: मार्दव: । कोमल के भाव को मार्दव कहते हैं, नम्रता, कोमलता मार्दव कहलाती है । मार्दव का विरोधी है मान कषाय । जिसके मान कषाय है जिसके मद हो रहा है उस पुरुष के मार्दव धर्म नहीं होता । मान कषाय बनती है किन्हीं लोक में उत्तम कही जाने वाली चीजों के मिलने पर । जैसे उत्तम जाति, उत्तम कुल में कोई उत्पन्न हुआ तो उसका ही घमंड बना करता है । वैसे तो सभी पुरुष जिस जाति कुल में उत्पन्न हुए हैं उसको ही सबसे अच्छा मानते हैं फिर भी थोड़ा भेद तो सबको ज्ञात ही है, लोक पूज्य कुल में उत्पन्न होकर कुल का मद आ जाया करता है । किसी को रूप सुंदर मिला हो तो वह अपने सुंदर रूप को देखकर घमंड किया करता है । यदि कुछ ज्ञान प्राप्त हो गया तो स्व की दृष्टि के लिए ज्ञान का तो प्रयोग नहीं करता कोई जीव और उस पाये हुए अक्षरात्मक ज्ञान पर गर्व किया करता है । किसी को ऐश्वर्य मिला हो, नेतागिरी मिली हो, जिसकी कुछ आज्ञा आदिक चलती हो तो उस ऐश्वर्य को पाकर ही घमंड हो जाता है। किसी का सत्कार आदर विशेष होता हो तो वह अपने सत्कार का ही गर्व किया करता है, शरीर बल प्राप्त हुआ हो, तपश्चरण जिसके बनता हो तो ऐसे अनेक कारणों से वह पर तत्त्वों के समागम पर गर्व किया करता है, पर साधुजन जिन्होंने अविकार स्वभाव की अनुभूति प्राप्त की है उनके किसी पर परतत्त्व पर घमंड उत्पन्न नहीं होता, और इतना ही नहीं, कोई दूसरा पुरुष यदि अपमान करे तो उस अपमान की परिस्थिति में भी उसके अभिमान नहीं जगता, यह ही उत्तम मार्दव कहलाता है ।
उत्तम आर्जव नामक धर्मांग की संवर हेतुता―काय, वचन, मन इनकी वक्रता न होना अर्थात् योग की सरलता होना आर्जव धर्म कहलाता है । जहाँ कपट नहीं है, मन, वचन, काय की समानता है वहाँ आर्जव धर्म-होता है । जिन जीवों के मन में कुछ है, वचन से कुछ कहते हैं और काय से कुछ प्रवृत्ति करते हैं उनका आशय मलिन है और वे आर्जव धर्म से रहित हैं । जिनके सरलता नहीं है वे धर्म के पात्र नहीं हो सकते । जैसे कि टेढ़े छिद्र वाले मणि के दाने में सूत का प्रवेश नहीं हो सकता इसी तरह मायाचार से वक्र हृदय में धर्म का प्रवेश नहीं हो सकता । इस आर्जव धर्म के पालन से चूंकि अपने स्वभाव के साथ समानता आयी है, उपयोग स्वभाव की ओर बनता है इस कारण संवर होता है ।
संवर हेतुभूत उत्तम शौच धर्मांग का प्रतिपादन―उत्तम शौच अत्यंत लोभ, निवृत्ति का नाम है । जहाँ लोभ की बिल्कुल निवृत्ति हो गई है उसे शौच कहते हैं । इसमें मूल शब्द शुचि है । शुचि के भाव को या शुचि के व्यापार को शौच कहते हैं । यहाँ एक शंकाकार कहता है कि शौच धर्म का तो गुप्ति में अंतर्भाव हो जाता है । फिर इसको अलग से कहना अनर्थक है? समाधान―यह शंका यों युक्त नहीं है कि वहाँ मनोगुप्ति का अर्थ है मन का परिस्पंद न होना । मनोगुप्ति में समस्त मानसिक परिस्पंद का निषेध किया गया है, पर जो मनोगुप्ति में असमर्थ है वह पुरुष दूसरे की वस्तु में अनिष्ट विचार न करे । अनिष्ट विचार की शांति के लिए शौच धर्म का उपदेश है । तो इस प्रकार मनोगुप्ति और उत्तम शौच के विषय जुदे हैं, अत: मनोगुप्ति में उत्तम शौच का अंतर्भाव नहीं होता । यहाँ दूसरा शंकाकार कहता है कि मनोगुप्ति का आकिंचन्य भाव में अंतर्भाव हो जायेगा, क्योंकि आकिंचन्य में भी इसका किसी में लगाव नहीं है, और उत्तम शौच में भी लगाव न रहे ऐसी पवित्रता है तो उसका आकिंचन्य में अंतर्भाव हो जायेगा । तो शौच शब्द का ग्रहण करना अनर्थक है । समाधान―आकिंचन्य धर्म में और उत्तम शौच धर्म में अंतर है । आकिंचन्य धर्म में तो निर्ममता की प्रधानता है । अर्थात् वहाँ किसी भी वस्तु के प्रति ममत्व कुछ नहीं रहता । मेरा कुछ नहीं है, इस प्रकार ममता का परिहार है । वहाँ अपने शरीर आदिक में संस्कार आदिक भी न किया जाये इसके लिए आकिंचन्य धर्म बताया गया है, किंतु उत्तम शौच में विद्यमान पदार्थों में लोभ का परिहार बताया है । लोभ चार प्रकार का होता है―(1) जीवन लोभ (2) आरोग्यलोभ ( 3) इंद्रियलोभ और (4) उपभोगलोभ । और, ये चारों के चारों दो-दो प्रकार के हैं । अपने विषय में जीवन आदिक का लोभ होना, दूसरे के लिए जीवन आदिक का लोभ होना, इस प्रकार लोभ 8 प्रकार का कहा गया है । जैसे अपने जीने का लोभ, दूसरे जिन जीवों में ममत्व है पुत्र मित्रादिक उनके जीवन का लोभ, अपने आरोग्य का, स्वास्थ्य का लोभ, मेरे रोग न रहे, मेरा शरीर रोगरहित चले इस प्रकार का खुद के लिए लोभ या पुत्र स्त्री आदिक दूसरों के आरोग्य का लोभ । इस प्रकार मेरे को इंद्रियसुख प्राप्त हो, उसका लोभ और जिन में इष्टभाव है उन जीवों के लिए इंद्रियसुख मिले उसका लोभ । इसी प्रकार उपभोग के साधनों का खुद के लिए लोभ और जिनमें प्रीति है उन जीवों के लिए लोभ, ऐसे 8 प्रकार के लोभ कहे गए हैं, उनकी निवृत्ति होने का नाम उत्तम शौच धर्म है, अर्थात् ये लोभ जहाँ बिल्कुल नहीं रहे उसे उत्तम शौच कहते हैं ।
संवर हेतुभूत उत्तम सत्य धर्मांग का प्रतिपादन―उत्तम सत्य―संत जनों में उत्तम वचन कहना सत्य धर्म है । वह सत्य 10 प्रकार का बताया गया है । वे सभी वचन सत्यवचन कहलाते हैं और ऐसे ही सत्य वचनों का प्रयोग करना उत्तम सत्य धर्म है । यहाँ शंकाकार कहता है कि उत्तम सत्य धर्म का तो भाषासमिति में अंतर्भाव हो जायेगा फिर अलग से कहने की क्या आवश्यकता ? समाधान―भाषासमिति का तो प्रयोजन है हितमित प्रिय वचन बोलना । चाहे वह साधुवों के प्रति बोला जाये या असाधुवों के प्रति बोला जाये, जो भाषा का व्यवहार करता है आपसी बोलचाल वह हित और मित होना चाहिये । अन्यथा अर्थात् दूसरों से वचन व्यवहार करते समय हितमित बोलने का ध्यान न रखा जाये और अहित बोले, अपरिमित बोले तो उरस में राग का प्रसंग आता है । अनर्थ दंड आदिक दोषों का प्रसंग आता है, इस कारण भाषा समिति में हितमित वचन बोलने की प्रधानता है, किंतु उत्तम सत्य धर्म में चाहे साधुवों के प्रति हो या उनके भक्तों के प्रति हो ज्ञान चारित्र आदिक की शिक्षा देने के प्रसंग में बहुत भी बोल देना चाहिए क्योंकि वहाँ धर्म की वृद्धि होती है । स्थूल रूप से यह अंतर समझिये कि जब भाषा का व्यवहार किया जाता है बोलचाल जैसा तो वहाँ हितमित का ध्यान रखना वह भाषासमिति हैं और जहाँ भाषण ज्ञान चारित्र की शिक्षण आदिक धर्मवृद्धि, के लिए बोला जाता है वहां बहुत भी बोलना चाहिए, किंतु वह आगम के अनुकूल और यथार्थ वचन हो । यही भाषा समिति और उत्तम सत्य में अंतर है ।
संवर हेतुभूत उत्तम संयम धर्म का प्रतिपादन―उत्तम संयम-संयम किसे कहते हैं, इसका लक्षण कहने से पहले यदि संयम विषयक अनेक पुरुषों के द्वारा कहे गए लक्षणों की मीमांसा कर ली जाये तो उत्तम संयम का लक्षण हृदय में भले प्रकार घटित होगा । कोई पुरुष कहते हैं कि भाषा आदिक की निवृत्ति हो जाना संयम है अर्थात् वचन आदिक न बोलना इसे संयम कहते हैं । किंतु उनका यह लक्षण इस कारण ठीक नहीं है कि भाषा आदिक की निवृत्ति करना तो गुप्ति कहलाता है । ऐसे लक्षण वाले संयम का तो गुप्ति में अंतर्भाव हो जायेगा फिर संयम अलग से कुछ न रहा । कोई पुरुष कहते हैं कि काय आदिक की विशिष्ट प्रवृत्ति होना, संयम है, यह भी कथन ठीक नहीं है, क्योंकि काय आदिक की विशिष्ट प्रवृत्ति होना, जीव रक्षा करते हुए होना यह तो समिति में शामिल होगा । तो विशिष्ट काय आदिक प्रवृति समिति रूप होने से तो संयम कुछ न रहा । कोई पुरुष कहते हैं कि त्रस और स्थावर की हिंसा का निषेध करना, हिंसा न होने देना सो संयम कहलायेगा । याने जहाँ जीवों की हिंसा का बिल्कुल निषेध हो गया वह संयम है । तो यह लक्षण भी ठीक नहीं बैठता, क्योंकि इस प्रकार के संयम का तो परिहार विशुद्धि नामक चारित्र में अंतर्भाव हो जायेगा । परिहार विशुद्धि चारित्र के भेद में कहा जायेगा । उसका प्रयोजन यह ही है कि वहाँ त्रस और स्थावर किसी भी जीव का वध नहीं हो सकता है, फिर संयम अलग से कुछ न रहा । तब सभी में यह जिज्ञासा होती है कि संयम का सही लक्षण फिर क्या है । सो संयम का लक्षण कहते हैं । समिति में प्रवृत्ति करते हुए जीवों के जो प्राणिहिंसा और इंद्रिय विषय का परिहार होता है उसको संयम कहते है ।
प्राणिसंयम व इंद्रियसंयम में संयम का द्वैविध्य―संयम दो प्रकार का है―(1) प्राणिसंयम और (2) इंद्रियसंयम । एकेंद्रिय आदिक जीवों की पीड़ा का परिहार करना, किसी भी जीव को दु:ख न हो सके, इस प्रकार की वृत्ति होना इंद्रियसंयम है, और शब्दादिक इंद्रिय के विषयों में राग का प्रसंग न होना इंद्रियसंयम है । इंद्रिय के विषय 5 हैं―(1) स्पर्शन इंद्रिय का विषय स्पर्श हें । ठंडा, गरम, कोमल आदिक स्पर्श सुहाये तो वह इंद्रिय विषय अविरति है, और उस विषय में राग न होना वह स्पर्शनइंद्रिय संयम है । (2) रसना इंद्रिय का विषय है रस । रसास्वाद में राग न होना वह रसना इंद्रिय संयम है । (3) घ्राणेंद्रिय का विषय है गंध । सुगंध सुहाये, सुगंध में राग होना अविरति है, और सुगंध आदिक में राग न होना घ्राणेंद्रिय संयम है । चक्षुइंद्रिय का विषय रूप है । कैसे ही रूप में राग का संग न होना चक्षुइंद्रिय संयम है । कर्णेंद्रिय का विषय शब्द है । किसी भी शब्द मैं रागादिक न होना श्रोत्रेंद्रिय संयम है । मन का विषय बहुत विकट और विशाल हैं । नामवरी चाहना, यश फैलाना आदिक विषय मन के हैं । इन विषयों में राग न आना सो, मन विषयक संयम है । तो समिति में प्रवृत्ति करने वाले मुनि के जो हिंसा व रांग के परिहार रूप वृत्ति होती है वह संयम है अर्थात् न जीव हिंसा होती न इंद्रिय विषयों में राग होता ।
उपेक्षासंयम व अपहृत संयम के रूप में संयम का द्वैविध्य―संयम के उक्त लक्षण से अपहृत संयम नाम के भेद की भी सिद्धि हो जाती है । संयम दो प्रकार के कहे गए हैं―(1) उपेक्षा संयम और ( 2) अपहृत संयम । जो संत जन देश और काल के विधान को समझते हैं, जो स्वाभाविक रूप से देहादिक से विरक्त रहते हैं, जो तीन गुप्तियों के धारक हैं उनके राग और द्वेष न होना, चित्त में रागद्वेष की वृत्ति न बनना उपेक्षा संयम कहलाता है । और अपहृत संयम जीवों की हिंसा के परिहार रूप है सो यह उत्कृष्ट मध्यम और जघन्य के भेदों से तीन तरह का है । उत्कष्ट अपहृत संयम वह है जहाँ जंतुवों के आने पर उनसे अपने को बचाकर संयम पाला जाता है । ये साधु निर्जंतु बसति में बसते हैं । बाह्य साधन भी जिनके धर्म में प्रयोजन मान हैं, ज्ञान-चारित्र रूप साधना जिनकी स्वाधीन है ऐसे साधु के आहार विहार आदिक करते समय कोई बाह्य जंतु समक्ष आयें तो उनसे अपने को बचाकर अपने संयम में रहना उत्कृष्ट अपहृत संयम है । और जंतुवों को पिछी जैसे मृदु उपकरणों से अलग कर देना मध्यम अपहृत संयम है और धीरे से हाथ आदिक से अलग हटाना जघन्य अपहृत संयम है । तो यह अपहृत संयम नाम का भेद वहाँ ही संभव है जहाँ उत्तम संयम नाम का धर्म माना जाये ।
अपहृत संयम के आधारभूत अष्टविध शुद्धियों में भावशुद्धि का कथन―अपहत संयम के प्रतिपादन के लिए या अपहृत संयम भली भाँति हो सके उसके लिए 8 प्रकार की शुद्धियों का उपदेश हे । वे 8 शुद्धियाँ इस प्रकार हैं । (1) भावशुद्धि (2) कायशुद्धि (3) विनयशुद्धि (4) ईर्यापथशुद्धि (5) भिक्षाशुद्धि (6) प्रतिष्ठापनशुद्धि (7) शयनासनशुद्धि और (8) वाक्यशुद्धि । इन शुद्धियों के लक्षण से यह विदित होता चला जायेगा कि प्राणियों की रक्षा करना, उनकी हिंसा परिहार करने में यह शुद्धता मौलिक प्रेरणा करती है । भावशुद्धि का अर्थ है रागादिक बाधारहित परिणाम होना । ये परिणाम कर्मों के क्षय और उपशम से होते हैं । मोक्ष मार्ग में विशेष रूचि होने से जो चित्त में प्रसन्नता होती है वही तो भाव शुद्धि है । इस भावशुद्धि के होने पर आचरण प्रकट होता है । जैसे कोई भींट साफ स्वच्छ है तो उस पर चित्र अच्छी प्रकार बन पाते हैं ऐसे ही भावशुद्धि हो तो आचरण ठीक बनता है ।
अपहृतसंयम की संयोजिका कायशुद्धि का वर्णन―कायशुद्धि निर्ग्रंथ दिगंबर पर पदार्थ में लेपरहित शरीर की स्थिति को कायशुद्धि कहते हैं । न कोई वस्त्रादिक का आवरण है न अन्य कोई कंठमाला आदिक का आभरण है, कायशुद्धि का संस्कार कोई नहीं किया जा रहा है जैसे शरीर को साफ रखना आदिक । जैसे कोई बालक उत्पन्न हुआ तो वह समस्त पर लेप से रहित है अथवा जो कुछ वहाँ मल लगा है ऐसे ही निर्ग्रंथ साधुजन बालकवत् निरावरण होते हैं, नग्न दिगंबर होते हैं और स्वयं जो मल चढ़ा है वह चढ़ा है, उससे भी रागद्वेष कर उसे हटाने लगने की वृत्ति नहीं है । कायशुद्धि मुनिजनों के होती है । वहाँ अंग के विकार रंच भी नहीं होते । उनकी मुद्रा शांति सुख को प्रदर्शित करती है । ऐसी कायशुद्धि होने पर न तो उस मुनि से किसी दूसरे को भय उत्पन्न होता है और न अन्य पुरुषों से उसे भय होता है । चूंकि कायशुद्धि वाले मुनि शस्त्ररहित हैं, अन्य कोई पदार्थ लाठी आदिक भी साथ नहीं हैं तो ऐसी परममूर्ति को देखकर दूसरे को डर उत्पन्न हो नहीं सकता कि यह मुझे मार न दे, आदिक कोई शंका नहीं होती । और जब यह स्वयं निर्ग्रंथ दिगंबर है तो इसे भी दूसरों से क्या भय? जिसके पास धन हो या अन्य कोई वस्तु हो तो उसे भय हो सकता है । तो साधुजनों को न दूसरों से भय है और न दूसरों को साधुजनों से भय है, ऐसी यह कायशुद्धि है । ऐसी कायशुद्धि होने पर प्राणिवध का परिहार होता ही है ।
अपहृत संयम की संयोजिका विनयशुद्धि का वर्णन―विनयशुद्धि अरहंत आदिक परम गुरूवों में यथायोग्य पूजा आदिक भावना होना, ज्ञानादिक में भक्ति होना, सभी जगह गुरू के अनुकूल चलना यह सब विनयशुद्धि कहलाती है । विनय करने वाला पुरुष प्रश्न करने में, स्वाध्याय करने में, कथा आदिक कहने में, कुछ भी बात बताने में, बड़ी नम्रता से कहने में कुशल होता है । विनयशुद्धि उसके होती है जो देश, काल, भाव के परिचय में निपुण है । विनयशुद्धि वाला पुरुष आचार्य की अनुमति के अनुसार अपनी चर्या करता है । गुरू की आज्ञा के विरुद्ध स्वच्छंद चर्या करने वाले के विनय रहा ही क्या? तो ऐसी विनयशुद्धि जहाँ होती है उसके सर्व संपदायें हैं । यह ही पुरुष का भूषण है । ऐसी विनयशुद्धि ही संसार समुद्र से तिराने के लिए नौका की तरह है । विनयरहित पुरुष न इस लोक में सुखी रहेगा, न आगे सुखी रहेगा । जिसके विनयशुद्धि होती है उसके ही प्राणि रक्षा का भाव होता है, क्योंकि सभी प्राणियों के परआत्म द्रव्य के प्रति उस स्वरूप दर्शन के कारण अंतर में विनयभाव आ जाता है और उस विनय के कारण जीवों की पीड़ा का परिहार बनता है ।
अपहृत संयम की प्रवर्तिका ईर्यापथशुद्धि का वर्णन―विनयशुद्धि से प्रेरित भव्यात्मा के प्राणि रक्षा के भाव से हिंसा का परिहार होना ईर्यापथशुद्धि कहलाती है । जिस मनुष्य को नाना प्रकार के जीव स्थानों का ज्ञान है, किस-किस योनि के आश्रय जीव रहा करते हैं यह सब परिचय है उस पुरुष के उन जीवों को पीड़ा न पहुंचे, ऐसा भाव और प्रयत्न होता है, ईर्यापथशुद्धि करने वाला मुनि ज्ञान से देखे गए, सूर्यप्रकाश से देखे गए देश में गमन करता है और वह गमन भी आवश्यक होने पर होता है । ईर्यापथशुद्धि वाला मुनि न शीघ्र जाता है, न अत्यंत धीरे चलता है न चित्त को अस्थिर करके चलता है, न आश्चर्य या लीला विकार के साथ चलता है । अन्य यहाँ वहाँ दिशाओं को देखते हुए नहीं चलता, किंतु चार हाथ सामने जमीन देखकर चला करता है । जिसके ईर्यापथशुद्धि होगी उसके जीवों की पीड़ा का परिहार रूप संयम होता है ।
अपहृत संयम के प्रसंग में भिक्षाशुद्धि का वर्णन―भिक्षाशुद्धि―भिक्षावृत्ति के समय जो अंतर्बाह्य पवित्रता है, शुद्धि है वह भिक्षाशुद्धि है । भिक्षा के लिए जाते समय साधुजनों की दोनों ओर दृष्टि है । अपनी ओर दृष्टि है, बाह्य भेद आदिक में दृष्टि है । यह साधु आचार सूत्र में कहे गए काल देश प्रकृति आदिक की जानकारी में कुशल है तब ही तो संयम सध सके इस योग्य आहार ग्रहण करते हैं । जहां लाभ अलाभ, मान अपमान आदिक में क्षमता रहती हैं, आहार का लाभ हो या न हो, दोनों ही स्थितियों में समता मुनियों के रहती है इसी प्रकार अन्य अनेक लोगों द्वारा रास्ते में मान या अपमान किया जाये तो दोनों में ही समान वृत्ति रहती है । भिक्षाशुद्धि में लोकनिंद्य कुल में भिक्षार्थ जाने का निषेध है फिर भी चाहे निर्धन घर हो चाहे धनिक घर हो, उन घरों में छाँट नहीं होती । जैसे चंद्रमा की किरणों सब घरों में समानतया पहुंचती हैं ऐसे हो गरीब धनिक सभी जगह मुनिजनों का भिक्षार्थ गमन होता है । भिक्षाशुद्धि में गृहस्थ द्वारा विधिपूर्वक पड़गाहा जाने पर घर के लिए जैसे शुद्ध आहार आदिक बनते हैं उनका ही ग्रहण है । दीनशाला, अनाथशाला दानशाली, विवाहप्रसंग, यज्ञशाला आदिक में उनका गमन नहीं होता, वहाँ मुनिजन आहार ग्रहण नहीं करते । भिक्षाशुद्धि में मुख्य लक्ष्य दीनवृत्ति से रहित प्रासुय आहार ढूंढना है । आगम में जैसी विधि बतायी गई है उस विधि से पाया हुआ निर्दोष भोजन प्राणयात्रा का साधन है, और ये मुनिजन प्राणयात्रा के लिए ही भिक्षाशुद्धि आहार ग्रहण करते हैं । भोजन लाभ हो या न हो या सरस भोजन का लाभ हो या नीरस का लाभ हो, सबमें समान भाव रहता है, निर्दोष रहता है इस कारण इसे भिक्षाशुद्धि कहते हैं ।
साधु की अपहृत संयम संयोजिका गोचर वृत्ति वाली भिक्षाशुद्धि―एषणासमिति में आहार के लिए जो भिक्षावृत्ति की जाती है उसके 5 नामों के द्वारा यह जाना जायेगा कि किस प्रयोजन से, किस विधि से भिक्षावृत्ति की जाती है । वे 5 नाम ये हैं―(1) गोचरीवृत्ति (2) अक्षभृक्षणवृत्ति (3) उदराग्निप्रसमनवृत्ति (4) भ्रामरीवृत्ति और (5) गर्तपूरणवृत्ति जैसे गाय को घास डालने के लिए लीला अलंकार सहित सुंदर युवती भी जाये तो गाय उसके अंग के सौंदर्य का निरीक्षण नहीं करती और घास को खा लेती है तथा घास के फूलों पर भी दृष्टि नहीं देती । किसी भी देश का घास हो, कैसा ही वह पूला सजा हुआ हो उसे नहीं देखती किंतु घास को खा लेती है, इसी प्रकार संयमी मुनि भी आहार देने वाले पुरुष अथवा स्त्री के कोमल सुंदर रूप भेष विलास आदिक को नहीं देखते न उनके देखने में उत्सुकता रहती । साथ ही आहार सूखा हो, गीला हो, सरस हो, नीरस हो, आहार की कोई योजना विशेष की अपेक्षा नहीं करते । जैसा मिला वैसा ही शुद्ध आहार कर लेते हैं । इस प्रकार इनकी वृत्ति को गोचरीवृत्ति कहते हैं।
अक्षभृक्षण, अग्निप्रशमन, भ्रामर व गर्तपूरणवृत्तिवाली अपहृतसंयम संयोजिका भिक्षाशुद्धि―(2) जैसे कोई गाड़ी रत्नों के भार से भरी हुई है, कहीं ले जाना है तो किसी भी तैल से उसके पहियों के बीच लेप करके अपने इष्ट देश को वह व्यापारी ले जाता है उसी प्रकार मुनि भी गुणरूपी रत्नों से भरी हुई इस शरीर गाड़ी को निर्दोष आहाररूपी अक्षभृक्षण द्वारा अपने इष्ट समाधि के नगर को पहुँचा देता है, इस कारण इस वृत्ति का नाम अक्षभृक्षण सही है । (3) जैसे भंडार में अग्नि लग जाये तो उस अग्नि को बुझाने के लिए उस पर जल डाला जाता है । उस समय जल कुवें का मिले, तालाब का मिले नल का मिले, अशुचि मिले, शुचि मिले, किसी भी जल से उस अग्नि को बुझा दिया जाता है, इसी प्रकार मुनि भी जब पेट में अग्नि लगी है, क्षुधा भी एक अग्नि की तरह है। वैद्य लोग उसका नाम जठराग्नि कहते ही हैं तो उस जठराग्नि को यतीजन शांत करते हैं । उस समय चाहे नीरस आहार हो चाहे सरस उससे प्रशमन कर देते हैं । हाँ अशुद्ध आहार को वे ग्रहण नहीं करते । (4) जैसे―भंवरा फूल के रस को ग्रहण करता है,अल्प थोड़ा सा ग्रहण करता है, फूल को बाधा नहीं देता, आहार ग्रहण करता है, ऐसे ही मुनि दाता पुरुष को बाधा दिये बिना स्वल्प आहार करता है, इस वृत्ति को भ्रामरी वृत्ति कहते हैं । (5) जैसे कहीं कोई गड्ढा हो और उस गड्ढे को भरना है तो किसी भी प्रकार से उस गड्ढे को भर दिया जाता―ईंट पत्थर डालकर, मिट्टी कंकड़ डालकर, कूड़ा करकट डालकर, कुछ भी चीज डालकर उसे भर दिया जाता है इसी प्रकार मुनि अपने पेट को गड्ढे को चाहे स्वादिष्ट भोजन हो या नीरस भोजन हो, किसी भी प्रकार के भोजन से अपने पेट को भर लेते हैं । इसे कहते हैं गर्तपूरण वृत्ति । इस प्रकार आगम में बतायी गई विधि से भिक्षाशुद्धि की जाती है । भिक्षाशुद्धि का प्रयत्न रखने वाले मुनि अव्रत संयम का पालन करते हैं ।
अपहृत संयमसाधिका प्रतिष्ठापनाशुद्धि एवं शयनासनशुद्धि―प्रतिष्ठापनाशुद्धि―संयमी पुरुष के शरीर तो लगा ही है । जब शरीर है तो शरीर के मल भी शरीर से निकलते ही हैं । जैसे नाखून, रोम, थूक, खकार, मूत्र, मल आदिक निकलते हैं तो उनको कहा निकाला जाये, कहां फेंका जाये, इसके विषय में मुनिजन बड़े सावधान रहते हैं । किसी जंतु की विराधना न हो जाये सो प्राणि पीड़ा का परिहार करते हुए उन मल मूत्रों को उत्सर्ग करने में प्रयत्नशील रहते हैं । ऐसे ये मुनि समस्त देश काल के जाननहार हैं । किस क्षेत्र पर, किस काल में कहाँ कैसे जीव जंतु हो जाया करते हैं इन सबका एक परिचय है । तो ऐसे देश काल का जाननहार मुनि मल के क्षेपण में तथा अपने अंग के धरने उठाने में निर्जंतु जमीन देखकर ही प्रयोग करते हैं । ऐसी प्रतिष्ठापनाशुद्धि रखने वाले मुनि अपहृत संयम का पालन करते हैं । शयनासनशुद्धि―सोने और बैठने की शुद्धि में सावधान संयमी मुनि इन स्थानों में नहीं निवास करते हैं । जहाँ स्त्रीजन हों, तुच्छ लोग हों, चोर हों, शराबी हों, जुवां खेलने वाले हो, पक्षियों के पकड़ने वाले शिकारीजन रहते हों, ऐसे स्थानों में संयमी मुनि नहीं बसते और ऐसे भी स्थानों का त्याग करते हैं जहाँ श्रृंगार विकार, आभूषण या वेश्यावों की क्रीड़ा, मनोहर संगीत नृत्य बाजे आदिक से व्याकुल स्थान हो, ऐसे किसी शाला आदिक में मुनिजन नहीं रहा करते हैं । मुनिजन तो जो प्राकृतिक स्थान हैं जैसे पर्वत की गुफा, वृक्ष की खोह, सूना मकान, छोड़ा हुआ मकान, ऐसे स्थानों में ही निवास करते हैं । यदि मुनि के उद्देश्य से कोई कोठी बना दी जाये तो वहाँ भी वे निवास नहीं करते । ऐसे शयन और आसन की शुद्धि में प्रयत्नशील मुनि अपहृत संयम का पालन करते हैं ।
अपहृत संयम साधिका वाक्यशुद्धि―वाक्यशुद्धि―संयमीजन ऐसा वचन व्यवहार जिन वचनों द्वारा किसी को पृथ्वीकाय आदिक किसी भी काय की हिंसा आरंभ आदिक की प्रेरणा न मिले, तथा जो वचन कठोर न हों, दूसरों को पीड़ा करने वाले न हों, अथवा दूसरों को कोई पीड़ा पहुँचे ऐसे प्रयोग की प्रेरणा न हो, उन वचनों को बोलना वाक्यशुद्धि कहलाती है । संयमीजन ऐसे ही वचन बोलते हें जिनसे व्रत, शील आदिक का उपदेश मिलता हो और योग्य हित, परिमित, मधुर वचन हों । ऐसे वचनों को बोलना वाक्यशुद्धि कहलाती है । ऐसी वाक्यशुद्धि रखने वाले मुनि अपहृतसंयम का पालन करते हैं । यह वाक्यशुद्धि सभी संपदाओं का आश्रय है जिनके वचन सही हैं वे सभी प्राणियों के द्वारा आदरणीय हैं और वहाँ सभी संपदावों का निवास है इस प्रकार 8 प्रकार की शुद्धियों से प्रवृत्ति रखने वाले मुनि अपहृत संयम का पालन करते हैं । इस तरह-उत्तम संयम में उपेक्षा संयम और अपहृत संयम दोनों संयमों का पालन किया जाता है ।
संवर हेतुभूत उत्तम तप का दिग्ददर्शन―उत्तमतप―कर्म का क्षय करने के लिए जो तपा जाये वह उत्तम तप कहलाता है तप मे इच्छानिरोध की मुख्यता है । किसी भी प्रसंग की इच्छा न होना वहाँ ही तप बनता है, यदि कोई क्लेश तो बहुत सहे, गर्मी में पर्वतों पर तप करे, सर्दी में नदी के किनारे तप करे, वर्षा ऋतु में पानी बरसते में वृक्ष के नीचे खड़ा होकर तप करे, और और भी अनेक तप हैं, इन तपों का आगे अलग से प्रकरण पाकर वर्णन होगा । कैसा ही क्लेश किया जाये, पर यदि इच्छानिरोध नहीं है और इच्छानिरोध का उद्देश्य भी नहीं है तो वह उत्तम तप नहीं कहलाता है । उत्तम तप धर्म का अंग है, और उस अंग से विशेषकर निर्जरा होती है । तप के मध्य मुनि का उपयोग ऐसे स्वभाव की ओर अभिमुख होता है कि उसको बाहरी काय क्लेश कुछ भी विदित नहीं होते । वे तो उन तपस्यावों के बीच अंत: चैतन्यस्वरूप का ध्यान रखकर प्रसन्न रहते हैं । कर्मों के क्षय क्लेश से नहीं हुआ करते, किंतु आत्मा की प्रसन्नता से हुआ करते हैं । आनंद बड़े-बड़े कर्म ईधनों को जला देता है । आनंद तो आत्मा का स्वरूप है । जहाँ पर विकल्प समाप्त हुए और आत्मस्वभाव के उपयोग में आये वहाँ उत्कृष्ट आनंद प्रकट होता है । संसार के आनंद आनंद नहीं हैं, वे तो सुख कहलाते हैं । जहाँ इंद्रिय को सुहावना लगे वह सुख है, मुख से कर्मों का क्षय नहीं होता । कर्मों का क्षय आनंद द्वारा ही होता है तो ऐसे कर्मों के क्षय के लिए जो तप तपा जाये उसे कहते हैं ।
संवरहेतुभूत उत्तम त्याग धर्मांग का दिग्दर्शन―उत्तम त्याग―सचेतन या अचेतन सर्वप्रकार के परिग्रहों की निवृत्ति को त्याग कहते हैं । यहाँ कोई शंकाकार कहता है कि तप के 12 भेद कहे जायेंगे, उनमें छ: आभ्यंतर तप हैं, छ: बाह्यतप हैं । तो आभ्यंतर तपों में एक उत्सर्ग नाम का तप है । उस उत्सर्ग नामक तप में ही इस त्याग का ग्रहण हो जायेगा फिर उत्तम त्याग को अलग से कहने की क्या जरूरत? समाधान―उत्सर्ग में और त्याग में यह अंतर है कि उत्सर्ग तो नियतकाल के लिए होता है । किसी समय तप करने के लिए बैठे उस समय सर्व का उत्सर्ग कर दिया, पर यह त्याग तो अनियत काल के लिए सदा के लिए है । इस प्रकार उत्सर्ग तप में और इस उत्तम त्याग में अंतर है । पुन: शंकाकार कहता है कि अभी उत्तम शौच नाम का धर्म कहा गया था । उसमें और उत्तम त्याग में क्या अंतर है? सर्व प्रकार के लोभ का त्याग बताया गया था, सो उत्तम त्याग में भी वही बात है फिर उत्तम त्याग का ग्रहण करना अनर्थक है? समाधान―उत्तम शौच और उत्तम त्याग में ऐसा अंतर है कि शौच धर्म में परिग्रह के न रहने पर भी कर्मोंदय से हुई तृष्णा निवृत्ति की जाती है, अर्थात् परिग्रह नहीं है समक्ष तो भी तृष्णा तो हो सकती है । उस कषाय की निवृत्ति उत्तम शौच धर्म में की गई है, किंतु त्याग में जो विद्यमान परिग्रह है उसका त्याग बताया गया है, अथवा त्याग का अर्थ है अपने योग्य दान देना । जैसे संयमी साधु के योग्य ज्ञानादिक देना यह उनका उत्तम त्याग है ।
संवरहेतुभूत उत्तम आकिंचन्य धर्मांग―उत्तम आकिंचन्य―अतिनिकट प्राप्त शरीर आदिक में संस्कार का निराकरण करने के लिए यह मेरा है आदिक ऐसे अभिप्राय की निवृत्ति हो जाना आकिंचन्य धर्म कहलाता है । जिसके कुछ भी न ही उसे अकिंचन कहते है । न किंचन यस्य अस्ति इति अकिंचन:, अकिंचनस्य भाव: आकिंचन्यं । अकिंचन के परिणाम अथवा चेष्टा का नाम आकिंचन्य है । आकिंचन्य में एक अपने सहज स्वरूप के अतिरिक्त अन्य किसी को भी स्वीकार उसमें किया गया । बाह्य में जितने पदार्थ हैं थे सब प्रकट निराले हैं । वे इस आत्मा के कुछ भी नहीं हैं इसी प्रकार वाह्य में जितने सचेतन परिग्रह हैं, जीव हैं वे भी निराले हैं, वे भी इस आत्मा के कुछ नहीं हैं । अतीव निकट प्राप्त यह शरीर यह भी पौद्गलिक है, अचेतन है, मुझ आत्मा से जुदा है वह भी मेरा कुछ नहीं है । जो कर्म बंधन होता है और निमित्त नैमित्तिक भावों से मेरे आत्मा के एक क्षेत्र में रहता है वह भी पौद्गलिक है । यह भी मेरा कुछ नहीं है । उन कर्मों का उदय होने पर अर्थात् कर्मों में ही अनुभाग फूटने पर उनका प्रतिफलन उपयोग में होता है वह छाया, माया, प्रतिफलन भी मुझ आत्मा का नहीं है, ऐसा समस्त पर और परभावों के प्रति यह मेरा कुछ नहीं है, मेरा जगत में पर पदार्थ अणुमात्र भी कुछ नहीं है, इस प्रकार का भाव होना उत्तम आकिंचन्य कहलाता है ।
संवरहेतुभूत उत्तम ब्रह्मचर्य धर्मांग―उत्तम ब्रह्मचर्य―ब्रह्मचर्य का शब्दार्थ यह है कि ब्रह्म मायने आत्मा, उसमें चर्य मायने रमण करना ब्रह्मचर्य है । पर व्यवहार में ऐसे ब्रह्मचर्य की सिद्धि करने वाला कैसा प्रयोग करता है उस सब प्रयोग का नाम भी ब्रह्मचर्य है । ब्रह्मचर्य व्रत का पालनहार पहले भोगे हुए भोगों का स्मरण नहीं करता, मैंने ऐसी कलावान गुणवान, निपुण-स्त्री के साथ रमण किया । इस प्रकार का स्मरण कभी स्वप्न में भी नहीं आता । यह स्त्री की कथा के श्रवण में उत्सुक नहीं है । पहले भोगे हुए रति कालीन सुगंधित द्रव्यों के सुवास स्त्री संसर्ग वाले शयनासन, साधन आदिक का परित्याग करता है । ऐसे विषय के अल्प या बहुत साधनभूत वाह्य पदार्थों का त्याग करने पर ही परिपूर्ण ब्रह्मचर्य होता है । ब्रह्मचर्य व्रत का पालनहार अपने गुरू के आधीन वृत्ति रखता है । ब्रह्म मायने गुरू, उसके आधीन रहना, उसके नियंत्रण में चलना सो ब्रह्मचर्य है । याने गुरू की आज्ञा पूर्वक चलने का भी नाम ब्रह्मचर्य है; क्योंकि ऐसी वृति रखने वाले के ब्रह्मचर्य की सिद्धि होती है ।
गुप्त्यादि परिपालनार्थ उत्तमक्षमादि धर्मांगों के कथन कथन की सार्थकता―इन धर्मों के वर्णन में अनेक स्थलों पर ऐसी शंकायें हुई थीं कि इनका इस गुप्ति में अंतर्भाव हो सकता है । उनका समाधान यथास्थान दिया गया था, फिर भी यहाँ यह समझना कि यद्यपि किसी प्रकार उनके किन्हीं धर्मों का गुप्ति, समिति आदिक में अंतर्भाव हो सकता है तो भी इन धर्मों में कर्मों का संवरण करने की सामर्थ्य है तो संवरण करने की सामर्थ्य होने से इसका धर्म यह नाम अन्वयार्थक है और ऐसा अन्वयार्थक बताने के लिए इसके पुन: वचन कहे गए हैं इस कारण पुनरूक्त न जानना । अथवा इन धर्मों का पालन उन्हीं गुप्ति आदिक को प्रतिष्ठित करने के लिए बताया गया है । जैसे जो 7 प्रकार के प्रतिक्रमण किए जाते हैं वे किसलिए किए जाते हैं कि गुप्ति आदिक जो संवर के हेतुभूत हैं वे पुन: सही हो जायें, उनकी प्रतिष्ठा के लिए 7 प्रकार के प्रतिक्रमण किए गए हैं―जैसे ईर्यापथ प्रतिक्रमण । विहार करने में कोई, दोष लगे हो तो उनकी शुद्धि के लिए प्रतिक्रमण होता है, रात्रि दिन प्रतिक्रमण रात में या दिन में कोई भी दोष लगे हों उनकी शुद्धि के लिए ये प्रतिक्रमण हैं । पाक्षिक प्रतिक्रमण―15 दिन में जो कोई दोष लगे हों उनकी शुद्धि के लिए यह प्रतिक्रमण है । चातुर्मासिक प्रतिक्रमण―चार महीने में जो दोष हुए हैं उनका प्रतिक्रमण । सांवत्सरिक प्रतिक्रमण याने पूरे वर्ष में जो दोष लगे हों उनके प्रति प्रतिक्रमण होता है, और उत्तम प्रतिक्रमण―सारे जीवन भर के दोष लगे हों उनका मरणकाल के निकट प्रतिक्रमण करना यह उत्तमार्थ प्रतिक्रमण है । ऐसे 7 प्रतिक्रमण गुप्ति आदिक की प्रतिष्ठा के लिए किए गए हैं । इस प्रकार उत्तम क्षमा आदिक 10 धर्मों की भावना गुप्ति आदिक के परिपालन के लिए की गई है । इस कारण किन्हीं धर्मों का उन गुप्ति आदिक में अंतर्भाव भी होता हो तो भी उनका अलग से उपदेश करना युक्त है ।
क्षमादि दस धर्मांगों के पूर्व उत्तम शब्द के संबंध का प्रताप―इन दस धर्मों में उत्तम शब्द जो लिखा गया है उससे यह जानना कि क्षमा आदिक भाव किसी दृष्टि प्रयोजन के उद्देश्य से नहीं किया जाता है, केवल आत्म स्वभाव की शुद्धि के लिए किया जाता है, और तभी ये संवर के कारण हैं । तो लौकिक प्रयोजन के लिए क्षमा, नम्रता, आदिक किए जायें तो वे संवर के कारण नहीं होते, ऐसी विशेषता बताने के लिए उत्तम विशेषण दिया गया है । सो ऐसे उत्तम क्षमा आदिक सम्यक्त्व होने पर ही संभव हैं । अज्ञानीजनों के क्षमा आदिक उत्तम क्षमा नहीं कहलाते । ये दस धर्म संवर के कारण किस प्रकार होते, इनमें अपने आत्मा के गुणों की प्राप्ति तथा प्रतिपक्षी दोषों की निवृत्ति की भावना की गई है इस कारण ये संवर के कारण हैं ।
उत्तम क्षमा के गुण व प्रतिपक्षी के दोष आदि का चिंतन―जैसे क्षमा के गुण क्या हैं? व्रत और शील की रक्षा होना । कोई क्रोध में व्रत का पालन नहीं कर सकता इस कारण क्षमा के ये गुण कहलाते हैं कि व्रत और शील अच्छी तरह से पले । इहलोक और परलोक में दुःख न होना ये क्षमा के गुण है । जो क्षमाशील पुरुष है उसको इस भव में भी दुःख नहीं होता, परभव में भी दुःख नहीं होता । लोक में सम्मान सत्कार होना क्षमा के गुण हैं । क्षमाशील पुरुष का इस लोक में सम्मान होता है, सत्कार होता है । क्रोध करने वाले का सत्कार नहीं होता, तो ऐसे गुण जानकर गुणों की प्राप्ति होती है और उसके दोष जानकर दोषों को दूर किया जाता है । क्षमा के विपरीत है क्रोध । उस क्रोध में क्या दोष होते हैं कि क्रोध के कारण धर्म पुण्य का भी नाश होता है । क्रोध के कारण द्रव्य का उपार्जन भी नहीं हो पाता । कोई भी व्यापारी क्रोध करके द्रव्य का उपार्जन नहीं कर सकता, तब फिर जहाँ क्रोध है वहाँ मोक्ष और मोक्ष के उपायों का सवाल ही नहीं है । तो ऐसे गुण और दोष विचार कर क्षमा धारण करना चाहिए । और भी विचार क्षमा के पालन में सहयोगी हैं । वहाँ यह चिंतन चले कि दूसरा यदि अपने ऊपर क्रोध करता है, गाली देता है तो जिस बात को वह कहता है वह दोष मुझमें यदि विद्यमान है तो वह सच ही तो कह रहा है । झूठ नहीं कह रहा, फिर मुझे क्रोध न करना चाहिए और यदि वह दोष मुझ में न हो तो यह सोचना चाहिए कि यह बेचारा अज्ञान से कहता है, इस कारण इसे क्षमा ही करना चाहिये । यदि कोई परोक्ष में गाली देता है तो उसको यों समझना चाहिये कि यह परोक्ष में ही तो गाली दे रहा है, प्रत्यक्ष तो कुछ नहीं कर रहा । अपना बालक तो प्रत्यक्ष भी गाली दे दिया करता है । तो उसे बालस्वभाव जानकर क्षमा ही करना चाहिये । यदि कोई सामने ही गाली दे तो ऐसा मनन करना चाहिए कि इसने गाली ही तो दी है मुझे मारा तो नहीं है, पर बालक जन तो मुझे मार भी देते है । यह भी एक बाल स्वभाव है । यदि कोई मार दे तो सोचना चाहिये कि इसने मारा ही तो है । प्राण तो नहीं लिया है, मगर बालक जन तो प्राण भी ले लिया करते हैं । जैसे किसी के बालक उद्दंड होते हैं वे अपने बाप के प्रति मारना तो दूर रहा, प्राण भी ले डालते हैं, तो उसे अपने बालक जैसा ही स्वभाव समझ लीजिए । प्राण भी ले ले कोई तो उसे भी क्षमा ही करना चाहिये । वहाँ सोचना चाहिये कि यह प्राण ही तो ले रहा है, मेरे धर्म को तो नहीं छीन रहा । ऐसे बालक स्वभाव के चिंतन द्वारा अपने चित्त में क्षमा भाव ही पुष्ट करना चाहिये । और, आखिरी बात यह है कि वहाँ यह चिंतत होना सही है कि हमने जो पूर्व जन्म में खोटे कार्य किया था, पाप कर्म बाँधा था, उसके उदय में गाली सुननी पड़ रही है । यह पुरुष तो केवल निमित्त मात्र है । निमित्त भी क्या, एक बाह्य कारण मात्र है । निमित्त कारण तो उसके पापकर्म का उदय है । ऐसे चिंतन द्वारा क्रोधभाव को दूर करना, क्षमा भाव का विकास करना यह संवर का कारण है ।
उत्तम मार्दव गुण की भावना व प्रतिपक्षी अभियान के दोष की निवृत्ति की भावना―यहां यह बतलाया जा रहा कि क्षमा आदिक दस धर्मों में अपने आत्मा के गुणों की तो प्राप्ति और प्रतिपक्षी दोषों की निवृत्ति की भावना बनी है इस कारण ये संवर के कारण कहलाते हैं । उत्तम मार्दव धर्म में आत्मा की, उस निरभिमानता पर दृष्टि जाती है और अभिमान दोष रूप है इसलिए उसकी निवृत्ति की भावना बनती है, इस कारण उत्तम मार्दव संवर का हेतुभूत है । जो पुरुष निरभिमानी होता है, मार्दव गुण से युक्त होता है उस पुरुष पर गुरुवों का अनुग्रह होता है, यह एक प्राकृतिक बात है । विनयशील निरभिमानी पुरुषों पर निर्बलों पर गुरूवों की कृपा होती है और साधुजन भी उसे ही साधु मानते हैं जो अभिमान रहित है, कोमल परिणाम वाला है । बड़ों के प्रति विनयशील है, छोटों के प्रति नम्र व्यवहार रखता है । गुरूवों का अनुग्रह प्राप्त हो तो सम्यग्दर्शन आदिक की प्राप्ति होती है । यह एक बड़ी विशुद्ध कला है कि शिष्यजन अपने गुरूवों के प्रति बहुत विनयशील और हृदय से आज्ञाकारी रहे तो इसके फल में उनका ज्ञान निर्दोष चारित्र आदिक के प्रति होता है । गुरूवों का अनुग्रह जिन पर है वे शिष्य नियम से गुणवान हैं । गुणरहित दोषवान शिष्यों पर गुरूवों का अनुग्रह नहीं बनता । यद्यपि गुरूजन समता के धारी हैं, वे माध्यस्थ भाव कर लेंगे, पर अनुग्रह उन्हीं के होता है जो योग्य होते हैं । तो निरभिमानता के कारण उसे स्वर्गादिक सुख मिलते हैं, मलिन मन में व्रत अथवा शील नहीं ठहरता । जिसका हृदय कठोर है, दूसरे जीवों के स्वभाव का आदर नहीं कर सकते हैं, विनयरहित हैं उनका यह परिणमन सर्व आपत्तियों की जड़ है । अभिमानी पुरुष इस लोक में भी दुःखी रहते हैं और परलोक में भी दुःखी रहते हैं । तो मार्दव धर्म में बड़े गुण हैं, मोक्ष मार्ग में प्रगति कराता है । आत्मस्वभाव की दृष्टि का सहायक है और साक्षात् शांति का प्रदान करने वाला है । ऐसे मार्दव धर्म के गुण की भावना में और आत्मस्वभाव के स्पर्श में संवर चलता है, इस कारण मार्दव धर्म संवर का हेतुभूत है ।
उत्तम आर्जव के गुण की व प्रतिपक्षी मायाचार दोष की निवृत्ति की भावना―उत्तम आर्जव में हृदय की सरलता होती है । सरल हृदय गुणों का आवास है । जो मायाचारी से भरा हृदय है वहाँ गुण नहीं ठहरते । कपट करने वाले पुरुषों की निंद्य गति होती है । छल कपट करने वाला पुरुष धर्मधारण का पात्र नहीं है । जैसे किसी टेढ़े छेद वाले दाने में सूत का प्रवेश नहीं होता इसी प्रकार मन, वचन, काय के वक्र पुरुषों में धर्मरूपी सूत का प्रवेश नहीं होता । जिसके अज्ञान छाया है वह ही इंद्रिय के विषयभूत पदार्थों के लाभ के लिए मायाचार किया करता है । जिसे स्वपर भेद विज्ञान होने से संसार की किसी भी वस्तु से प्रयोजन न रहा, इंद्रिय के विषय में रंच भी प्रीति न रही, वह पुरुष छल कपट क्यों करेगा? कपट किया जाता है किसी विषय की प्राप्ति के लिए । चाहे वह पौद्गलिक विषय हो, जिससे कि इंद्रिय का विषय सधता है उन विषयों के लाभ के लिए ही लोग छल कपट किया करते हैं । जैसे मन का विषय है नामवरी यश कीर्ति फैलाना, तो अनेक लोग पर्यायबुद्धि के कारण अपनी यश कीर्ति फैलाने के लिए अनेक प्रकार के मायाजाल रचते हैं । अपने को बहुत महान दुनिया की निगाह में रखना चाहते हैं ।
उत्तम शौच धर्मांग के गुण की भावना व प्रतिपक्षी लोभ के दोष की निवृत्ति की भावना―जिसको स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, शब्द का लोभ है, इन विषयों का आसक्त है, वही इनकी प्राप्ति के लिए छल कपट किया करता है, पर सम्यग्दृष्टि पुरुष को किसी भी विषय में हितबुद्धि नहीं है, केवल स्वभाव दृष्टि ही हितकारिणी है, ऐसा निर्णय है, उनके छल कपट की प्रवृत्ति नहीं होती । तो निश्छल सरल उपयोग होने से कार्य का संवर होता है । इस कारण इसे संवर के कारणों में गिना गया है । उत्तम शौच ऐसा उत्कृष्ट गुण है कि जहाँ आत्मा के स्वभाव का उत्तरोत्तर विकास होता रहता है, और जिसके उत्तम शौच धर्म नहीं हैं, लोभ कषाय बसी हुई है ऐसे लोभी के हृदय में विकास होना तो दूर ही है पर उसमें थोड़े भी गुण नहीं ठहर पाते । लोभी पुरुष इस लोक में भी अनेक आपत्तियों को प्राप्त होते हैं और परलोक में भी दुर्गति को प्राप्त होते हैं । लोभी पुरुष का इस लोक में कोई सम्मान नहीं होता । चाहे वह कितना ही धनिक हो यदि वह लोभी है तो प्रत्यक्ष में भी और परोक्ष में भी लोग उसकी निंदा करते हैं । उसे घृणा की दृष्टि से देखते हैं और लोभी पुरुष के चित्त में कैसा महान अज्ञान छाया है कि उसको अपने निर्लेप चैतन्यस्वभाव मात्र परमात्म द्रव्य की सुध नहीं है और बाह्य विषयों की तृष्णा के कारण यह निरंतर व्याकुल रहता है । संसार में जितने जीव रुल रहे हैं वे मूल तो मिथ्यात्व के कारण रुल रहे हैं, पर रुलने में सहायक लोभ कषाय है । जिसके प्रबल लोभ कषाय है उसके मिथ्यात्व पुष्ट होता है और संसार में परिभ्रमण करते रहना पड़ता है । लोभ कषाय इतनी तीव्र है कि सर्व कषायें छूट जायें, पर लोभ कषाय बहुत देर में छूटती है । और आगम में तो बताया है कि क्रोध, मान, माया, इन तीन कषायों का क्षय 9 वें गुणस्थान में हो जाता है, पर लोभ कषाय का क्षय 9 वें गुणस्थान में नहीं हो पाता । वह 10 वें गुणस्थान के अंत में होता है । तो यों लोभ कषाय बहुत प्रबल कषाय है, उसके त्याग की भावना और लोभरहित अविकार स्वभाव चैतन्यस्वरूप की भावना इस उत्तम शौच धर्म में होती है, इस कारण इसे संवर का कारण बताया गया है ।
उत्तम सत्य धर्मांग के गुण की भावना व प्रतिपक्षी असत्य दोष की निवृत्ति की भावना―उत्तम सत्य―जिसका हृदय कषायों से रहित होता है वही उत्तम सत्य बोल सकता है । झूठ बोलने का कारण कषाय भाव हुआ करता है, इसी कारण क्षमा, मार्दव, आर्जव और शौच धर्म के बाद सत्य धर्म का व्याख्यान किया जाता है । जितने भी गुण समुदाय हैं वे सभी सत्य वक्ता में प्रतिष्ठित होते हैं । सच बोलने वाले का सर्व प्रथम लोग आदर करते हैं । झूठ वचन बोलने वाले का बंधुजन भी तिरस्कार करते हैं, घर के लोग भी घृणा की दृष्टि से देखते हैं, उस पर विश्वास नहीं होता है अतएव उसके वचन निरर्थक माने जाते हैं । झूठ बोलने वाले का जगत में कोई मित्र नहीं बन पाता । जिसको भी यह विदित होता कि इसको झूठ बोलने की आदत है तो उसके साथ कोई भी प्रीति नहीं करना चाहता । लोक में भी झूठ बोलने वाले को अनेक दंड भोगने पड़ते हैं, उसकी जीभ छेद दी जाती है । उसका सर्वस्व धन हरण कर लिया जाता है, ये सब दंड उसे भोगने पड़ते हैं । एक कथानक में सत्य घोष की कथा प्रसिद्ध है । उसने अपने यज्ञोपवीत में चक्कू बाँध रखा था और यह प्रसिद्धि कर रखा था कि जिस दिन मेरी जीभ झूठ बोल देगी उसी दिन चाकू से जीभ को काट डालूंगा । तो लोगों को उस पर बड़ा विश्वास हो गया । एक बणिक ने परदेश जाते समय उस सत्यघोष के पास अपने 4-5 कीमती रत्न रख दिए । और कह दिया कि परदेश से वापिस आने पर मैं ले लूंगा । वह सेठ चला गया परदेश । इधर उन कीमती रत्नों को पाकर सत्यघोष का मन डिग गया, उन्हें अपनाना चाहा । सेठ ने वापिस आने पर रत्न माँगा तो वहाँ सत्यघोष झूठ बोल गया और कहने लगा कि मैं तो नहीं जानता कि आप कौन हैं, कहाँ से आये हैं और कब आपने मेरे पास रत्न रखे? सत्यघोष का ऐसा उत्तर सुनकर उस बणिक के चित्त में भारी ठेस लगी । आखिर इस ठेस के कारण उसका चित्त स्थिर न रह सका । वह पागलों की नाई यत्र तत्र फिरने लगा और यही बकता फिरे सब जगह कि सत्यघोष ने मेरे रत्न चुरा लिए । लोगों को उसकी बात पर विश्वास न हुआ । पर रोज-रोज वही बात सुनकर एक बार वहाँ की रानी के मन में आया कि आखिर किसी तरह से परीक्षा तो करना चाहिए इस बात की कि यह बणिक ठीक कहता है या झूठ । तो रानी ने सत्यघोष को जुवा खेलने के बहाने अपने घर बुलवाया, जुवा में सत्यघोष सब कुछ हार गया । यहाँ तक कि जनेऊ, चाकू तथा अपने हाथ की अंगूठी तक हार गया । इतना होने के बाद रानी ने अपनी दासी को सत्यघोष का जनेऊ, चाकू और उसकी मुदरी देकर कहा―सत्यघोष के घर जावो और सत्यघोष की स्त्री को ये सब निशानी दिखाकर बता देना कि उन्होंने घर में रखे हुए सभी रत्न माँगा है, बस इस तरह से बोलकर उससे सभी रत्न ले आना । दासी ने वैसा ही किया । सत्यघोष के घर पहुंचकर उसकी सब निशानी दिखाकर उसकी स्त्री से सब रत्न ले आयी । वहाँ उस बणिक को बुलाया और अपने रत्न छाँटकर उठाने को कहा तो उस वणिक ने अपने पाँचों रत्न उनमें से छाँट लिए । सत्यघोष पर चोरी का अपराध सिद्ध हो गया । इसके फल में सत्यघोष को क्या दंड दिया गया कि या तो मेरे मल्ल के 32 मुक्के सहो, या एक थाली गोबर खावो या अपना सर्वस्व सौंप दो । सत्यघोष ने सर्व प्रथम, 32 मुक्के मल्ल के सह लेने को कहा, पर मल्ल के एक ही मुक्के में सत्यघोष घबड़ा गया, घबड़ा कर एक थाल गोबर खाने को कहा, उसमें भी वह थोड़ा सा ही खा सका फिर अपना सर्वस्व, अर्पण कर देने को कहा । आखिर सत्यघोष के सर्वस्व का हरण हो गया । तो झूठ बोलने वाले को बड़ा कठिन दंड भोगना पड़ता है और इस उत्तम सत्य का पालन करने पर आत्मस्वभाव का विकास होता है, उससे कर्म का संवर होता है ।
उत्तम संयम व उत्तम तप धर्मांग के गुण की भावना―उत्तम संयम―आत्मा का हितकारी धर्म है । संयमी पुरुष की यहाँ भी पूजा होती है और परलोक में भी कोई विलक्षण पद प्राप्त होता है । संयमी पुरुष यहाँ भी सुखी और शांत रहता है । वास्तविक संयम तो स्वभाव दृष्टि करके अपने आपको उस ज्ञान में मग्न कर देना है । जो पुरुष ऐसा उत्तम संयम पालते हैं उनको आकुलता का क्या काम? तो संयम में आत्मस्वभाव का विकास है और कर्म का वहाँ संवर है । जहाँ संयम नहीं है ऐसे असंयमी पुरुष निरंतर हिंसा आदिक पाप कार्यों में लिप्त रहा करते हैं जिससे उनको पापकर्म का संयम होता है । तो असंयम से संसार में दुर्गतियाँ भोगनी होती हैं और संयम भाव के कारण आत्मा में शांति होती है और कर्म का संवर होता है, इस कारण उत्तम संयम संवर का हेतु बताया गया है । उत्तम तप―जहाँ किसी भी प्रकार की वान्छा नहीं रहती और अपने चैतन्यस्वरूप में उपयोग स्वच्छ रहता है वह उत्तम तप कहलाता है । उत्तम तप से स्पष्ट अर्थ की सिद्धि होती है । जहाँ कोई पदार्थ की वांछा नहीं है वहाँ सबकी ही सिद्धि समझना चाहिये । और वहाँ ऐसा पुण्य रस बढ़ता है कि सभी इष्ट पदार्थ उसे प्राप्त हो जाते हैं जो सुख के हेतुभूत होते हैं । उत्तम तपश्चरण से ब्रह्मचर्य की प्राप्ति होती है । जो-जो आज तीर्थस्थान बने हुए हैं वे तपश्चरण के चरणरज से पवित्र होने के कारण ही तो तीर्थ कहलाते हैं । जिसके तपश्चरण नहीं वह पुरुष तृण से भी लघु होता है । लोक में तृण का कोई आदर नहीं है । कहीं कपड़े पर तृण का तिनका लग जाये तो लोग उसे न कुछ जैसा समझकर फैक देते हैं । जैसे इस जगत में तिनके का कुछ सम्मान नहीं है ऐसे ही तपरहित पुरुष का जगत में कुछ भी सम्मान नहीं है । कोई सदाचारी होता है । अपने आत्मा को आचरण में नियंत्रित करे यह भी तप का अंश है । जो दुराचारी पुरुष है; विषयों में आसक्त हैं उन पुरुषों का लोक में कोई सम्मान नहीं होता । जहाँ इच्छानिरोध नहीं है, किसी भी प्रकार का तपश्चरण नहीं है, रंच भी सदाचार नहीं है ऐसे पुरुष में गुण नहीं बसा करते हैं । सारे गुण उसे छोड़ देते हैं और वह संसार से मुक्त नहीं हो सकता । यह देह पाया है, जो देह विनश्वर है उसको व्यसनों में लगाना और अपने आत्मा का श्रद्धान करना यह बड़ा दोष है । इससे संसार में भ्रमण करते रहना पड़ता है और सदाचार हो, इच्छानिरोध हो, आत्मा के चैतन्य स्वभाव की दृष्टि हो तो उससे संवर भाव होता है । सो यह उत्तम तप संवर के हेतुवों में ठीक ही गिना गया है ।
उत्तमत्यागधर्मांग के गुण की भावना―उत्तम त्याग जो अपने पास परिग्रह हो उसको त्याग, स्व और पर के हित के लिए होता है । परिग्रह के संचय से न खुद को शांति होती है, न दूसरों को लाभ होता है, कोई लोभी पुरुष परिग्रह का संचय ही संचय करे और भोगोपभोग के लिए भी खर्च न करे तो उसने भी उस अर्थ से लाभ क्या पाया? न धर्म में खर्च कर सकता, न अपने जीवन के लिए खर्च कर सकता और फिर परोपकार के लिए जिसके परिग्रह का उपयोग नहीं होता वह लोक में अपमान की दृष्टि से निरखा जाता है । जैसे-जैसे पुरुष परिग्रह से रहित होता जाता वैसे ही वैसे उसके खेद के कारण हटते जाते हैं । जहाँ खेद नहीं रहता उस मन में उपयोग की एकाग्रता रहती है, अपने सहज परमात्मतत्त्व की दृष्टि बनती है और अविशिष्ट राग के कारण विशिष्ट पुण्य का संचय होता रहता है । परिग्रह की आशा के संबंध गुणभद्राचार्य ने आत्मानुशासन में कहा है कि यह आशा रूपी गड्ढा प्रत्येक प्राणी में इतना महान् बना हुआ है कि सारा विश्व का वैभव भी मिल जाये तो उसको भी परमाणु की तरह छोटा देखता है और फिर यह आशा का गड्ढा ऐसा विलक्षण गड्ढा है कि इसको वैभव आदिक से जितना भी भरा जाये उतना ही यह गड्ढा खाली होता जाता है । लौकिक गड्ढे तो मिट्टी, कूड़ा, पत्थर आदिक भरने से भर जाया करते हैं, पर आशा का गड्ढा जैसे-जैसे वैभव मिलता है वैसे ही वैसे गहरा होता जाता है । आशा का परिग्रह का त्याग किए बिना आत्मा की प्रगति नहीं होती । आशा के दूर होने पर उपयोग स्वच्छ होता है और वहाँ कर्म का संवर होता है ।
उत्तम आकिंचन्य एवं उत्तम ब्रह्मचर्य धर्मांग के गुण की भावना―उत्तम आकिंचन्य―मेरा जगत में कुछ भी नहीं है, ऐसी भावना से अपने को समस्त परभावों से शून्य ज्ञानमात्र निरखना उत्तम आकिंचन्य धर्म है । जिसको शरीर में ममत्व नहीं है वह व्यक्ति परम संतुष्ट रहता है । आकिंचन्य के विपरीत जिसके रंच भी ममता है वह पुरुष संसार में ही तो घूमता है । उत्तम आकिंचन्य भावना में समस्त बाह्य पदार्थों से हट हटकर एक परम विश्राम प्राप्त होती है । और उस परम विश्राम की स्थिति में निज सहज ज्ञानमय भगवान आत्मा इस उपयोग में उपलब्ध होता है और उससे अलग सहज आनंद की प्राप्ति होती है । सो यह उत्तम आकिंचन्य धर्म संवर का प्रधान कारण है । इसी कारण संवर के हेतुवों में इस उत्तम आकिंचन्य धर्म को बताया है । उत्तम ब्रह्मचर्य-पालन करने वाले को हिंसा आदिक कोई दोष नहीं लगते । जिसकी अविकार ब्रह्मस्वरूप पर दृष्टि है उसको हिंसा झूठ आदिक वृत्तियों का कहाँ अवकाश है? ब्रह्मचर्य अपने गुरुकुल में निवास करने पर सिद्ध होता है । सो जो नित्य गुरुकुल में निवास करते हैं उनके गुण समुदाय अपने आप प्राप्त हो जाते हैं । ब्रह्मचर्य के विरुद्ध विकारभाव कोई प्राप्त हों, स्त्री विलास, विभ्रम आदिक का कोई शिकार बन गया हो, ऐसा प्राणी पाप का विकट बंध करता है । जो ब्रह्मचर्य में कुशल नहीं है, जो अपने शील व्रत को नहीं निभा सकता है वह अन्य इंद्रियों में भी आसक्त हो जाता है । और जिसकी इंद्रिय पर विजय नहीं है उस पुरुष का पग-पग पर बड़ा अपमान हुआ करता है । कुशील पुरुषों का कहीं भी आदर नहीं है । बल्कि उनकी मार पिटाई होती है और अनेक लोग चाकू मार दे, प्राणघात कर दें, ऐसी अनेक दुर्दशायें करते हैं, पर जिनको अपने अविकार ब्रह्मस्वरूप की सुध है वे पुरुष अपने में संतुष्ट है और सहज आनंद का अनुभव प्राप्त होता है । और ऐसे उत्तम ब्रह्मचर्य के भाव से कर्मों का संवर होता है । इस प्रकार उत्तम क्षमा आदिक गुणों का सद्भाव होने पर और क्रोधादिक दोषों की निवृत्ति होने पर कर्मों के आस्रव का निरोध होता है और संवर होता है । इस सूत्र में धर्म: शब्द एक वचन में कहा है और विशेषणों का समास करके बहुवचन किया गया है । उससे यह सिद्ध है कि क्षमा आदिक दस के दस सब एक संवर भावरूप है और उनका एक संवर भाव रूपपना पाया जाता है । इसलिये धर्म शब्द में एक वचन दिया है और यह पुर्ल्लिंग शब्द में प्रयुक्त हुआ है यह अपने लिंग को कभी छोड़ता नहीं है, इसलिए यहाँ यह जानना कि वे सब दस धर्म एक ही आत्म धर्म रूप है और संवर के कारण हैं ।