वर्णीजी-प्रवचन:युक्त्यनुशासन - गाथा 2
From जैनकोष
याथात्म्यमुल्लंघ्य गुणोदयाऽऽख्या
लोके स्तुतिर्भूरि गुणोदधेस्ते ।
अणिष्ठमप्यंशमशक्नुवंतो
वक्तुं जिन ! त्वां किमिव स्तुयाम ꠰꠰2।।
(6) प्रभुस्तवन की अशक्यता होने पर भी प्रभुस्तवन के उद्यम के लिये एक चिंतन―स्तवन प्रारंभ करने से पहले अब आचार्य कुछ थोड़ा चिंतन में चले हैं कि मैं किस तरह से प्रभु का स्तवन करूं, क्योंकि स्तवन का अर्थ यह है कि किसी की वास्तविकता का भी उल्लंघन करके माने बढ़ा-चढ़ा करके गुणों का वर्णन करना । इसे कहते हैं स्तुति, याने गुण तो थोड़े हों और बढ़ा-चढ़ा करके गुण बखाने जायें उसे कहते हैं स्तुति । लोक में इस तरह के व्यवहार का नाम स्तुति रखा गया है । जैसे कि लोग कहा करते हैं कि वह तो उसकी स्तुति ही रचता रहता है । मानो उतना न चाहता था, उतनी कोई कला नहीं है उसमें, मगर उसकी वास्तविकता से आगे बढ़-चढ़ करके बात करता है । इसे लोक में स्तुति कहते हैं । लेकिन हे प्रभु ! आप तो बहुत विशाल अनंत गुणों के समुद्र हो । आपके तो थोड़े भी गुणों का वर्णन करने में हम समर्थ नहीं, फिर हे जिनेंद्रदेव ! किस प्रकार हम आपका स्तवन कर सकते हैं ? कैसे स्तवन करूँ यह कुछ समझ में नहीं आता । किसी महान कार्य का जब संकल्प किया जाता है तो थोड़ा यह सोचना होता है कि इसका प्रारंभ कहां से करें, कैसे करें, किस बात से करें? तो जिनेंद्रदेव का यह बहुत बड़ा स्तवन का नाम है तो उसमें यह चिंता बनी कि कहां से कैसे स्तवन करूँ ? अथवा मैं कर ही नहीं सकता । करने योग्य ही नहीं हूँ, फिर भी मैं स्तवन के लिए प्रवृत होता हूँ सो उसका कारण क्या है?