वर्णीजी-प्रवचन:युक्त्यनुशासन - गाथा 3
From जैनकोष
तथाऽपि वैय्मात्यमुपेप्य भक्त्या
स्तोताऽस्मि ते शक्त्यनुरूपवाक्यः ।
इष्टे प्रमेयेऽपि यथास्वशक्ति
किंनोत्सहंते पुरुषा: क्रियाभि: ꠰꠰3।।
(7) अभीष्टप्रभुभक्ति के लिये स्तुतिकार का प्रबल उद्यम―तथापि तो भी अर्थात् यद्यपि हम छद्मस्थ जन आपके गुणों का लवलेश भी स्तवन नहीं कर सकते तो इतने महान अनंत गुणों के निधान, प्रभु ! आपका स्तवन हम कैसे कर सकते हैं? नहीं कर सकते हैं । तो भी कुछ ढीठपने को प्राप्त होकर मैं भक्ति से आपका स्तवन करने वाला बन रहा हूँ । शब्दों में कितनी सभ्यता बसी हुई है कि कहा यह जा रहा है तो भी मैं आपका स्तवन करने वाला बन रहा हूँ, ऐसा भी कह सकते थे कि तो भी मैं आपका स्तवन कर रहा हूँ । स्तवन तो कर ही नहीं सकता मैं, पर स्तवन करने वाला हो रहा हूँ । किस प्रकार कि शक्ति के अनुरूप वाक्यरचना करके? सो ऐसा क्यों कर रहा हूं? उसका कारण यह है कि सभी लोग जिसका जो इष्ट है, जिन्हें जो रुचता है, जिसका जो कार्य है, जो प्रमेय है सो अपनी शक्ति के माफिक क्या वे प्रयत्न नहीं करते? करते ही हैं । तो इसी तरह जब हमारे इष्ट प्रमेय आप हैं, आपके सिवाय मेरा कोई इष्ट नहीं तब क्यों न मैं अपने प्रयास के लिए उत्साह करूंगा? मैं इसी कारण स्तवन का उद्यम कर रहा हूँ । इष्ट प्रमेय हैं प्रभु । इन विशेषणों से यह बताया गया कि आचार्य समंतभद्र को एक प्रभुस्मरण इष्ट था, आत्मस्मरण इष्ट था ।
(8) सांसारिक विषयों में लिप्त न होने पर वीतरागस्थान की प्राप्ति―जिन्होंने यह पहिचान लिया कि इस जगत् में मेरा कुछ नहीं है । सब बाहरी बातें हैं । अब भी झूठा, पहले भी झूठा था, आगे भी झूठा रहेगा । यहाँ के परमाणुमात्र में भी मैं मिल नहीं सकता । वस्तु का स्वरूप ही ऐसा है । सत्त्व इसी ढंग से ही हुआ करता । तो जब मेरा जगत् में कहीं कुछ नहीं है, किसी से मेरा कुछ प्रयोजन नहीं है तब फिर मैं कैसे किसी अन्य बात को इष्ट कर सकता हूं? और चूंकि मेरे को यही इष्ट है कि राग-द्वेष, मोह, गंदगी, विकार सब मिटकर मैं केवल ज्ञानज्योतिस्वरूप रह जाऊं । जिसको यह इष्ट हो जाता है, यों जो ऐसा हो गया उसके साथ मेरा घनिष्टपन बढ़ता है । तो प्रभु जिनेंद्र ! आप वीतराग निर्दोष सर्वज्ञ हो और यह ही एक जीव की अंतिम मंजिल है जहाँ इसे फिर अनंत आनंद रहता है; वह जब मुझे इष्ट नहीं है तो फिर उस इष्ट के स्तवन का, उस इष्ट के साथ अपना संबंध जोड़ने का क्यों प्रयत्न करूं? सो प्रभु ! आप अनंत गुणा के निधान हैं तो भी में आपका स्तवन करने के लिए प्रवृत्त हुआ हूँ । भक्तामर स्तोत्र में कहते हैं कि मैं आपकी भक्ति स्तवन करने को उद्यत हुआ हूँ सो जैसे हिरणी अपने बच्चे की प्रीति के कारण सामने आते हुए सिंह से भी नहीं डरती अपने बच्चे के परिपालन के लिए तो ऐसे ही मैं प्रभु का स्तवन करने लायक नहीं हूँ तो भी अपने परिणामों की विशुद्धि के लिए, अपने आत्मा की रक्षा के लिए पालन के लिए आपके स्तवन में अपनी शक्ति के माफिक प्रवृत्त हो रहा हूं ।