वर्णीजी-प्रवचन:युक्त्यनुशासन - गाथा 32
From जैनकोष
न सच्च नाऽसच्च न दृष्टमेक-मात्मांतरं सर्व-निषेध-गम्यम् ।
दृष्ठं विमिश्रं तदुपाधि-भेदात् स्वप्नेऽपिनैतत्त्वदृषे: परेषाम् ।।32।।
(114) सर्वथा सद्रूप व सर्वथा असद्रूप तत्त्व की असिद्धि―अब तक जो कुछ भी वर्णन किया गया है उन समस्त मंतव्यों के दो प्रकार बन गए―कोई सद᳭रूप तत्त्व है, कोई असद्रूप है, पर इसका ही एकांत कर लेने पर ऐसे दो दर्शन बिल्कुल भिन्न निकल बैठते हैं । सत्मात्र ही तत्त्व है, ऐसा बोलने वाले सत्ताद्वैत को सिद्ध करना चाहते । इसके मत से जो कुछ भी शब्द बोला जाये वह सर्वथा वाचक है । यों कहो कि जितने भी शब्द हैं वे सभी शब्द सभी शब्दों के पर्यायवाची हैं । ऐसा न मानने पर उनका सत्ताद्वैत तत्त्व नहीं ठहर सकता । तो कुछ दार्शनिक सत्ताद्वैत को ही तत्त्व मानते हैं और कोई दार्शनिक सर्वथा अभावरूप ही तत्त्व मानते हैं याने शून्यवाद, किंतु ये दोनों ही मान्यतायें असत्य हैं, क्योंकि कोई भी सत् हो उसमें किसी दृष्टि से सत्त्व है तो किसी दृष्टि से असत्त्व है । निरपेक्ष सत्त्व और असत्त्व कहीं भी न मिल सकेंगे याने सत् ही सत् हो उनमें किसी भी अपेक्षा से असत्त्व होता ही नहीं, ऐसा कोई तत्त्व न मिलेगा या सर्वथा अभाव ही अभाव हो और उसमें किसी भी अपेक्षा से सत्त्व न मिले, ऐसी भी कोई वस्तु नहीं है ।
(115) सर्वथा सद्रूप व असद्रूप तत्त्व की सिद्धि का उदाहरण―जैसे उदाहरण ले―एक चीज की परीक्षा कर रहे, जैसे घड़ी को ही घटना प्रसंग में ले तो इस घड़ी को अगर यह कहा जाये कि यह सर्वथा सत् है याने सर्वरूप सत् है मायने यह चीज घड़ी भी है, बेंच भी है, बर्तन भी है, पानी भी है, आग भी है, सर्वरूप हो गई; तो घड़ी ही क्या रही? उसकी सत्ता तो तब है जब घड़ी के अतिरिक्त जितने अन्य पदार्थ हैं उन सब अन्य पदार्थों का उसमें अभाव हो । तो ऐसे ही सिर्फ सत्त्व सत्त्व ही माना जाये तो वस्तु का स्वरूप ज्ञात नहीं हो सकता । इसी तरह वस्तु को मात्र अभावरूप ही माना जाये । जैसे इस ही घड़ी के बारे में यों कल्पना से तत्त्व देखना कि वह कपड़ा नहीं है, बेंच नहीं है, भींत नहीं है, ऐसे अनंत पदार्थों का नाम लेते जाइये―यह नहीं है, यह नहीं है । तो इन अनंत पदार्थों का निषेध बताते क्या स्वरूप समझ में आयेगा? घड़ी स्वयं अपने स्वरूप से सत् है, यह बात समझे बिना केवल अभाव-अभाव के कथन से हम उसका परिचय न कर सकेंगे । तो किसी भी वस्तु में निरपेक्ष सत्त्व या निरपेक्ष असत्त्व नहीं होता ।
(116) सत् असत् अवाच्य में सप्तभंगी―जैसे कोई विशिष्ट वस्तु न केवल सर्वथा सत्रूप ही है, न केवल असत्रूप ही है । सर्वथा इसी तरह सत्-असत्, एक-अनेक आदिक सर्व धर्मो का जहाँ निषेध है, ऐसा कोई परमब्रह्म यों कहने वाले दार्शनिकों का तत्त्व भी नहीं दृष्टि में आ सकता है याने सर्व विशेषों से रहित कोई सामान्य ब्रह्म है यह बात हो नहीं सकती । हां, सर्वथा सत्त्व और सर्वथा असत्त्व इनसे भिन्न परस्पर सापेक्षरूप तत्त्व जरूर देखा जाता है और ऐसा परिचय उपाधि के भेद से हुआ करता है । वस्तु अपने द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से भावरूप है और पर के द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से, भाव से नहीं है । तो नास्तित्व में परद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव; ये विशेषण बने और अस्तित्व में स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव; ये विशेषण बने, इससे क्या सिद्ध हुआ कि समस्त तत्त्व जो भी हों वे अपने स्वरूप चतुष्टय की अपेक्षा सत्रूप ही हैं और वही तत्त्व परचतुष्टय की अपेक्षा असत्रूप ही है । इस तरह स्वरूपदृष्टि करने से सत् नजर आया तो पररूप दृष्टि में लेने से वही तत्त्व असत्रूप में नजर में आया, और इन दोनों दृष्टियों को क्रम से रखने पर या एक को प्रतीति में लिया, एक को कह रहे अथवा क्रम से दोनों को कह रहे तो कहेंगे कि वह तत्त्व तो असत्रूप है वही तत्त्व एक साथ दोनों धर्मों से युक्त नहीं कहा जा सकता । हैं यद्यपि उसमें दोनों ही धर्म और एक साथ हैं । कहीं ऐसा नहीं है कि जिस क्षण में वस्तुस्वरूप से सत् है उस क्षण में वस्तु पररूप से असत् नहीं है या जिस समय में वस्तु पररूप से असत् है उस समय जो वस्तुस्वरूप से सत् नहीं है, ऐसा नहीं है तो भी उन दोनों धर्मों को एक साथ नहीं कहा जा सकता, इस कारण से अवाच्य ही है तो इस दृष्टि से वस्तु सत् अवाच्य है । ऐसी यही चार दृष्टियां नजर में आयीं, जिनमें तीन दृष्टियां तो स्वतंत्र हैं―सत᳭रूप, असत्रूप और अवाच्यरूप, इन तीन स्वतंत्र अंगों को किसी एक के साथ जोड़ने से तीन भंग और होते हैं, जैसे सदसत्, सत्-अवाच्य, असत्-अवाच्य और तीनों ही दृष्टियाँ रखने से एक अंग और होता हैं―जिसे कहेंगे―सत्-असत्-अवाच्य । तो यहाँ निष्कर्ष यह लेना कि कोई भी वस्तु है, वह न केवल सत᳭रूप है कि सर्वथा सर्वपदार्थों की अपेक्षा सत् हो और न कोई वस्तु असत्रूप ही है कि सर्वथा अभाव हो और न कोई वस्तु सर्वथा अवाच्य है और न तो अवाच्य शब्द से बोला ही जा रहा है । इस तरह हे वीर जिनेंद्र ! सत्यानृरूप वचन स्याद्वादशासन में तो संगत हो सकते हैं, पर स्याद्वादशासन से बहिर्भूत एकांतवादियों के सत्यानृत वचन संभव नहीं हैं ।