वर्णीजी-प्रवचन:युक्त्यनुशासन - गाथा 4
From जैनकोष
त्वं शुद्धि-शक्त्योरुदस्य काष्ठां
तुला-व्यतीतां जिन ! शांतिरूपाम् ।
अवापिथ ब्रह्म-पथस्य नेता
महानिनीयत् प्रतिवक्तुमीशा: ।।4।।
(9) स्तुतिकार द्वारा अतिसंक्षिप्त शब्दों में प्रभु का महानस्तवन―सो हे वीर प्रभु ! मैं आपके स्तवन के लिए भक्तिवश प्रयत्नशील तो हुआ हूँ, लेकिन कुछ कहा ही नहीं जा रहा है । जहाँ इतना विशाल गुणनिधान मेरी दृष्टि में आ गया हो तो मैं समस्त गुणसमूह को एक साथ कैसे कह दूं ? भक्ति में ऐसा अंदर प्रयास होता है, पर ऐसा प्रयोग में तो नहीं आ पाता । सो मैं ज्यादा कुछ कह ही नहीं सकता । सिर्फ इतना ही में कहने में समर्थ हूँ कि हे प्रभु ! तुम शुद्धि और शक्ति के विकास की उत्कृष्टता को प्राप्त हुए हो । शुद्धि मायने ज्ञानविकास, आत्मविकास; अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतआनंद अनुभवने का सामर्थ्य । तो इन दोनों बातों की चरमसीमा को आप प्राप्त हुए हो, जो चरम सीमा कैसी है ? अतुल है । तुलना से रहित है और शक्तिरूप है । तो ऐसी उत्कृष्ट अवस्था को आपने प्राप्त किया । बस इतना ही कहने में मैं समर्थ हूँ । इससे आगे और में क्या कह सकता हूं? कैसा यह अभेदभक्ति का, अनुपम भक्ति का एक उदाहरण है कि दो शब्दों में प्रभु की सारी महिमा बता दी, इससे बढ़कर और आत्मा की क्या महिमा हो कि जहाँ दोष तो एक भी नहीं और गुण परिपूर्ण प्रकट हैं और इतने पर भी कहते हैं कि बस हम इतना ही कहने में समर्थ हैं । इससे ज्यादा हम से कुछ कहते नहीं बनता । सो हे ब्रह्मपथ के नेता ! मोक्षमार्ग के नायक ! आपने उस चरमसीमा को प्राप्त किया जहाँ निर्दोषता की हद है और ज्ञानविकास की हद है । चाहे सीधे शब्दों में यह कहो कि हे प्रभो ! आपने निर्दोषता की हद की और गुणविकास की हद कर दी अर्थात् अधिक से अधिक पूर्ण तो आपका विकास हुआ और बुद्धि का भी परिपूर्ण विकास है याने जहाँ दोष रंच भी नहीं हैं । हे प्रभो ! इतना ही कहने में हम समर्थ हैं ।