वर्णीजी-प्रवचन:युक्त्यनुशासन - गाथा 46
From जैनकोष
स्यादित्यपि स्याद᳭गुणमुख्य-
कल्पैकांतोयथोपाधिविशेषवीक्ष्य: ।
तत्त्वं त्वनेकांतमशेष रूपं द्विधा
भवार्थव्यवहारवत्त्वात् ।।46।।
(159) स्यात् शब्द से गौण प्रधान स्वभावों द्वारा विज्ञात सम्यक् एकांतों का बोध―स्यात् इस शब्द का प्रयोग भी गौण और मुख्य स्वभाव के द्वारा कल्पित किए हुए एकांतों को लेकर होता है, याने जितने भी एकांत हैं नयों की मुख्यता से जो-जो भी अभिधेय हैं उन अभिधेयों में कोई प्रधान है तो शेष अप्रधान हैं । शुद्ध द्रव्यार्थिकनय की प्रधानता से जब अस्तित्व का एकांत मुख्य बनता है तो शेष नास्तित्व आदिक एकांत गौण हो जाते हैं क्योंकि जिसका प्रयोग किया है वे प्रधानभाव से विवक्षित हैं पर शेष धर्म यद्यपि प्रधानभाव से विवक्षित नहीं है, फिर भी उनका निराकरण नहीं किया जा सकता । वस्तुत: ऐसा अस्तित्व कहीं न पाया जायेगा जो नास्तित्व आदिक धर्मों की अपेक्षा नहीं रखता । बहुत ही स्पष्ट बात है । जैसे कि यह चौकी तब ही चौकी कहला सकती है जब चौकी से अलग जो पदार्थ हैं वे चौकी में नहीं हैं, यह मान लिया जाये । स्यात् शब्द प्रधान और गौण रूप से सभी धर्मों का प्रकाशन करता है । जिस पद अथवा धर्म के साथ स्यात् शब्द प्रयुक्त होता है उसे तो प्रधान कहा गया है और शेष पदार्थ अथवा धर्मों को गौण बताया गया है । व्यवहारनय की प्रधानता से जब नास्तित्व एकांत मुख्य है तो वहाँ अस्तित्व एकांत गौण समझना चाहिए क्योंकि जिसका प्रयोग है वह प्रधानरूप से विवक्षित है और शेष धर्म गौणरूप से कहे गए समझे जाते हैं । इस प्रकार नयों का प्रयोग नय-सापेक्ष होता है तब ही वस्तु के यथार्थ स्वरूप की सिद्धि होती है, पर विशेषणानुसार विशेष का द्योतक होता है ।
(160) किसी पुरुष से भी मन में आशंका न रखने का अनुरोध―यहां कोई पुरुष ऐसी आशंका मन में न रखे कि फिर तो जीवादिक तत्त्व भी प्रधान और गौण रूप से एकांत को प्राप्त हो जायेंगे । यह शंका यों उचित नहीं है कि तत्त्व तो अनेकांतात्मक है और वह अनेकांत भी अनेकांत रूप है, एकांतरूप नहीं है । एकांत तो उसे नय की अपेक्षा से कहा गया है । प्रमाण की अपेक्षा से एक बात बोलकर भी एकांत नहीं कहलाता, क्योंकि प्रमाण समस्त धर्मों का ग्रहण करने वाला होता है । एक धर्म को ही ग्रहण करे वह नय का विषय है, सो जब नय-सापेक्ष होता है तो उन नयों में भी मिथ्यापन नहीं होता, इस प्रकार तत्त्व दो प्रकार से व्यवस्थित हुए―एक द्रव्यरूप जिसे कि विधि कहें, सत्रूप कहें, दूसरे व्यवहाररूप या पर्यायरूप कहें, असत् कहें, गौण कहें, प्रतिषेध कहें, ऐसी दो प्रकार की विवक्षायें होती हैं, और जो कुछ भी कहा जाये वह सब इन दो के अंतर्भूत होता है ।