वर्णीजी-प्रवचन:युक्त्यनुशासन - गाथा 61
From जैनकोष
सर्वान्तवत्तद᳭गुणमुख्यकल्पं
सर्वान्तशून्यं च मिथोऽनपेक्षम् ।
सर्वापदामन्तकरं निरन्तं
सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव ।।61।।
(206) वीर जिनेंद्र के तीर्थ में अशेषधर्मात्मक वस्तु के यथार्थस्वरूप का दर्शन―हे प्रभो ! आपका तीर्थ सर्वांतवान है अर्थात आपके शासन में जिस पदार्थ की श्रद्धा से संसार से तिरना बनता है वह पदार्थ सामान्यविशेषयुक्त है, द्रव्य पर्यायमय है, विधिनिषेध वाच्य है, एक अनेकरूप है आदिक समस्त धर्मों को लिए हुए है और उन धर्मों का ज्ञान गौण और मुख्यता की कल्पना से होता है । धर्म का बोध दृष्टियों से है । पदार्थ में ये सब बातें दिखती तो हैं ही । अनेक पदार्थ हैं, उनमें सामान्यभाव देखा जाता है कि इस जाति की अपेक्षा ये सब पदार्थ एक समान हैं । जैसे अनंतानंत जीवद्रव्य हैं, वे परस्पर एक समान हैं और उनमें उस सामान्य को चैतन्यस्वभाव की दृष्टि से सिद्ध किया जा रहा है, लेकिन उनकी पर्याय विशेषों को देखा जाये, उनका अनुभव उनमें स्वयं है, इस दृष्टि से निरखा जाये तो एक दूसरे से विशेषता रखते हैं । समस्त द्रव्यों को सामने रखा, सत्त्व सामान्य की दृष्टि से सब द्रव्य समान हैं, क्योंकि सत्ता की कोई विशेषता नहीं । हैंपने में क्या विशेषता है? तो इस तरह से सभी द्रव्यों में सामान्य पाया गया और जब उनके असाधारण गुणों को निरखते हैं तो जो
चैतन्यभाव जीव में है सो जीव में ही है, पुद्गल आदिक में नहीं है । मूर्तत्व गुण पुद᳭गल में है सो पुद᳭गल में ही है, वह अन्य द्रव्यों में नहीं है ।
(207) मुख्यगौण प्रतिबोध से वस्तुधर्मी का विज्ञान―अनेक दृष्टियों से धर्म की निरख होती है और वे धर्म हैं अनंत । उन अनेक धर्मों में जब किसी एक धर्म का उस दृष्टि से समझ हो रहा है तो अन्य धर्म वहाँ गौणरूप से प्रतीति में होते हैं । अनंतधर्मात्मक वस्तु में जब किसी एक धर्म की अपेक्षा से दर्शन हो रहा है तो अन्य धर्म भी हैं, यह दृष्टा की प्रतीति में है । अन्यथा अर्थात् अन्य धर्म की गौणरूप से प्रतीति न मानने पर, अस्तित्व न मानने पर एकांतवाद आ जाता है और एक ही धर्म का आग्रह करने पर वस्तु का लोप हो जाता है तो वस्तुत: जो ज्ञानी पुरुष हैं वे जब किसी एक धर्म को जान रहे हैं तो अन्य धर्मों का अस्तित्व उनकी प्रतीति में रहता, वहाँ एक धर्म मुख्य है तो दूसरा धर्म गौण है, और इस विधि से ही वस्तु में व्यवस्था बनती है । अनेकांतात्मक वस्तु में गुण मुख्य की कल्पना से वर्णन करने पर वहाँ असंगतता या विरोध के लिए कोई अवकाश नहीं है ।
(208) निरपेक्षवाद का मिथ्यापन―जो वाद धर्मों में परस्पर अपेक्षा का वर्णन नहीं करता वह सर्व धर्मों से शून्य है, वह समीचीन वाक्य ही नहीं है । एकांतवाद में यह ही तो अपराध आया कि वह धर्मों का सर्वथा निरपेक्ष अस्तित्व बतलाता है । अनुभव में जो उतरे उसका भी लोप करे, यह कैसी अंध श्रद्धा है? अपने आपके आत्मा के बारे में सभी को ही अनुभव है कि मैं वही हूँ जो पहले था, चिरकाल से अनादि से था । अब इसे ही कोई भ्रम कहे तो यह एकांतवाद के वचनों का एक रटन है जो अनुभव में आयी हुई बात का भी विरोध किया जाता है । यदि निरपेक्ष एक धर्म माना जाये, नित्यत्व अनित्यत्व एक अनेक; किसी भी एक धर्म का ही अस्तित्व माना जाये, अन्य धर्म का प्रतिषेध किया जाये तो किसी भी पदार्थ का अस्तित्व नहीं बन सकता और न ऐसे एकांतवाद में पदार्थ को व्यवस्था बन सकती । इस कारण हे प्रभो ! आपका जो स्याद्वादशासन है वह सर्व दुःखों
का अंत करने वाला है । यह ही निरंत है अर्थात् निःशेष क्लेशों का अंत करने वाला है और किसी भी मिथ्यादर्शन के द्वारा वह खंडित नहीं किया जा सकता । इस कारण हे प्रभो ! सर्व प्राणियों के अभ्युदय का कारण तथा आत्मा के पूर्ण अभ्युदय का साधक ऐसा सर्वोदय तीर्थ आपका ही तीर्थ है । स्याद्वादशासन को ही सर्वोदय तीर्थ कहा है । वस्तुस्वरूप के सम्यग्ज्ञान के बल पर जो जीव अपने आत्मा में उपयोग की वृत्ति को करेगा उसका नियम से विकास होगा और सर्व दुःखों से छुटकारा पालेगा ।
(209) निरपेक्षवाद के मिथ्यापन से प्रभुशासन की मुक्ति―हे प्रभो ! आपका शासन समस्त कुनयों का, निरपेक्षनयों का अथवा मिथ्यावादों का अंत करने वाला है, यह दुर्नय जो वस्तु में किसी भी प्रकार एक धर्म दिखा तो उसको ही हठ करके और वस्तु के शेष स्वरूप का प्रतिषेध किया जाये तो वह नय मिथ्यादर्शन है । संसार में अनेक दुःखों का कारणभूत होता है ꠰ इसलिए मिथ्यावाद, एकांतवाद कभी भी संसार की आपत्तियों को नष्ट नहीं कर सकता । जैसे जब जीव के बारे में यह समझा कि ये जीव द्रव्यदृष्टि से नित्य है, पर्यायदृष्टि से अनित्य है तो कोई पर्याय दुःखरूप होती है तो कोई पर्याय शांतिरूप होती है । वहाँ इस जीव की यह उमंग आती है कि मैं यह जीव इस दुःखरूपी पर्याय को मिटाकर शांतिपर्याय को धारण कर सकता हूँ । उस ही अज्ञानअवस्था में अब तक चले आये अपनी भूल से, उस ही अपनी भूल को मिटाकर, सम्यग्ज्ञान पाकर अज्ञान अवस्था से हट सकता हूँ । जो लोग जीव को सर्वथा नित्य ही मानते हैं याने पर्याय वहाँ होती ही नहीं, जीव का परिणमन नहीं होता तब वहाँ अज्ञान से हटकर ज्ञान में आने की प्रेरणा क्यों मिलेगी और संसारसंकटों से छूटने की और मुक्ति प्राप्त करने की आवश्यकता ही क्या है? और हो सो रहा दुःख ही, तो ऐसा संसार ही उनके चलता रहेगा, इसी प्रकार जो जीव को क्षणस्थायी मानते हैं, क्षणभर को जीव रहा, फिर मिट गया तो एक जीव ज्ञान करे, दूसरा जीव संयम करे, तीसरे जीव को मोक्ष हो । जो करता है वह जब फल नहीं पाता तो वहां पर्याय ही कैसे बनेगी? सर्वथा एकांतवाद की दृष्टि में जीव को सन्मार्ग नहीं प्राप्त हो सकता । इस कारण हे प्रभो ! आपका यह शासन सर्व आपत्तियों का अंत करने वाला है ।