वर्णीजी-प्रवचन:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 106
From जैनकोष
पर्वण्यष्टम्यां च ज्ञातव्य: प्रोषधोपवासस्तु ।
चतुरम्यवहार्य्याणां, प्रत्याख्यानं सदेच्छाभि: ।। 106 ।।
प्रोषधोपवास के मुख्य कालभूत । अष्टमी चतुर्दशीपर्व की अनादिपरंपरा―धर्मप्रभावना पूर्वक चतुर्दशी और अष्टमी के दिन सर्वप्रकार के आहार का त्याग करना प्रोषधोपवास कहलाता है । प्रत्येक माह में दो अष्टमी और दो चतुर्दशी होती हैं । इन पर्वों में प्रोषधोपवास करके धर्मध्यान में समय व्यतीत करना यह अनादिकाल से ही व्रत में बताया जाता है । देखिये―दस लक्षण हुए या व्रत हुए ये पर्व तो कभी से बने कोई कारण से चले हैं मगर अष्टमी और चतुर्दशी का पर्व धर्मध्यान में व्रती श्रावक को लिए अनादि से चल रहे । जब बीच में भोगभूमि आयी तब नहीं रही धर्मप्रवृत्ति किंतु उससे पहले जब धर्मप्रवृत्ति थी तो वहाँ तो ये सब चलते थे । इन पर्वों का मनाना, धर्मध्यान में समय बिताना यह अनादिकाल से चला आया । इन अष्टमी और चतुर्दशी के पर्वों में गृहस्थ व्रती संयम पूर्वक रहता है । जो व्रती श्रावक नहीं है, साधारण है, अव्रती हैं वे भी कम से कम इतना ध्यान रखते हैं कि अष्टमी चतुर्दशी के दिन हरी नहीं खाते, क्योंकि वे एकेंद्रिय जीव है और शक्ति अनुष्ठान है उसका बचाना तो इतना ख्याल तो सभी रखते हैं, पर जो व्रती श्रावक हैं वे विशेषतया ध्यान रखते हैं । इन पर्वों में धर्मध्यान विशेषतया करना, उपवास तो धारण करते ही हैं, पर दुकान में दस दिन न जाना, घर का संबंध न रखना, घर में भी रहे तो एक धर्मध्यान वाला जो कमरा हो उसमें रहना, या मंदिर में बैठना । स्वाध्याय करना आदिक धर्मध्यान में समय व्यतीत करने की मुख्यता है प्रोषधोपवास में ।
प्रोषधोपवास करने की विधि―इन व्रतों के करने का विधान यह है कि जिसे अष्टमी का प्रोषधोपवास करना है तो सप्तमी के दिन पूजा पाठ से निवृत्त होकर समय पर दोपहर में भोजन किया, उसके बाद नवमी के दोपहर तक याने भोजन की पारणा के समय तक चारों प्रकार के आहार का त्याग रहता है । यह कही जा रही है उत्कृष्ट प्रोषधोपवास की विधि । अब इसके बीच जितना समय है, सप्तमी का आधा दिन, सप्तमी की रात्रि, अष्टमी का पूरा दिन, अष्टमी की रात्रि और सप्तमी का पहला प्रहर, इतना समय धर्मध्यान में जाता है । उसे शिक्षा व्रत यों कहा कि एक सप्ताह में कुछ धर्मध्यान में समय अधिक लगे, शाम को जल ग्रहण नहीं किया तो उससे मुनिव्रत की शिक्षा मिलती है । मध्यम प्रोषधोपवास में और विधि तो उत्कृष्ट प्रोषधोपवास की तरह है, पर इस मध्यम में अष्टमी और चतुर्दशी को एक बार जल ग्रहण कर लेता है । पर धर्म ध्यान की बात तो इतनी ही चल रही है । जघन्य प्रोषधोपवास में धर्मध्यान आदिक की बात उत्कृष्ट की तरह चल रही है पर वह अष्टमी चतुर्दशी को एक बार आहार ग्रहण कर लेता है यह है जघन्य प्रोषधोपवास । सो व्रत प्रतिमा में निरतिचार प्रोषधोपवास नहीं पलता, निरतिचार तो अणुव्रत ही पलता है । ये 7 शील हैं, इनमें कहीं कोई अतिचार संभव हो जाता है फिर भी वह अपनी शक्ति प्रमाण दोष नहीं आने देता, ऐसा श्रावक का संकल्प रहता है । अब उपवास के समय में और क्या करना चाहिए उसका विधान बतलाते है ।