वर्णीजी-प्रवचन:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 107
From जैनकोष
पंचानां पापाना-मलंक्रियारंभगंधपुष्पाणां ।
स्नानांजननस्याना-मुपवासे परिहृतिं कुर्य्यात् ।। 107 ।।
उपवास के दिन हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह इन 5 पापों का त्याग करना । यह तो मुख्य बात है ही, साथ ही आभरण वेषभूषा सजावट का त्याग करना । गृह के कार्यों का आरंभ या आजीविका के आरंभ को छोड़ देना क्योंकि इन कार्यों में यदि वृत्ति लगी रही तो निर्वाध धर्मध्यान बन ही नहीं सकता । इन सबसे निवृत्त होकर ताकि हिंसा से भी बचे, और धर्मध्यान में भी अधिक लगें इसके लिए इनका त्याग उपवास में बताया गया है । सुगंधित केसर, कपूर इत्र आदिक का त्याग करना याने घ्राणेंद्रिय के विषय को रोकना, पुष्पों का त्याग करना, फूल सूँघ रहे, फूल माला पहिन रहे, फूल सामने धरे उन्हें उठा रहे, सूँघ रहे, यह व्रत में नहीं किया जाता । स्नान का त्याग करना, उपवास में स्नान भी नहीं करते, पर यह व्रती श्रावक भगवान की पूजा के लिए थोड़ा अल्प स्नान रोज जैसा करता था वैसा करेगा केवल शरीर शुद्धि के ध्यान से अल्प स्नान करता । उस दिन बहुत-बहुत जल बिखेरने की बात नहीं होगी । जितना उपयोगी है उतने ही जल से शुद्ध होकर पूजा करे, बाकी स्नान की जरूरत ही क्या है । और जो ऐसे ऊंचे श्रावक हैं, जो आरंभ का त्याग किए हुए हैं वे नवमी प्रतिमा 10वीं प्रतिमा क्षुल्लक ऐलक ये भी तो श्रावक है । ये स्नान तो उपवास के दिन करेंगे ही नहीं । उपवास के दिन अंजन या अन्य अनेक चीजें जो सूंघने की वस्तुयें है उनका भी परिहार रहता है । यह तो एक उपलक्षण रूप में कहा गया है, पर दिल ही बता देगा कि उपवास के दिन क्या-क्या न करना चाहिए । जैसे नाच देखना, गाना बजाना, संगीत सुनना इनका भी त्याग उपवास में होता है । हां जो धार्मिक भजन हों जिनमें आत्मा का और परमात्मा का स्वरूप ध्यान में आये तो उसकी बात अलग है ।
उपवास करने के प्रयोजन व परिणाम―उपवास करने का प्रयोजन क्या है? इंद्रियों का मद मारने के लिए इंद्रिय में प्रवृत्ति न बने, प्रमाद आलस्य आदिक भी न आये, आरंभ आदिक से विरक्त हों, इन सब प्रयोजनों से उपवास किया जाता है । उपवास करने के लाभ अनेक हैं । जैसे कभी किसी समय मन के अनुकूल काम नहीं होता तो कोई उसके खिलाफ एक जिद्द सी बना लेते, ऐसा लोक में देखा जाता, तो यहाँ तो ज्ञानपूर्वक यह व्रती यह सोच रहा कि इंद्रिय के विषयों में प्रवृत्ति बहुत चलती है, मन भी बहुत इंद्रिय विषयों में जाता है तो इन सबको दंड देना, इन सब पर विजय प्राप्त करना है, ऐसे भावों से भी उपवास किया जाता है । उसका संबंध धर्म से ही रहा । कोई अधर्म वृत्ति में संबंध नहीं है, हां अपनी प्रशंसा के लिए उपवास न करना । मात्र विषयों का अनुराग घटाने के लिए और आत्मा की भीतरी शक्ति बढ़ाने के लिए उपवास किया जाता है उसके रस आदिक की लंपटता समाप्त हो जाती है, निद्रा पर विजय होती है और उपवास का सबसे बड़ा प्रभाव यह है कि बाहरी विकल्पों से हटकर यह अपने निकट बसता है । इसका नाम उपवास रखा गया है । उप मायने समीप में वास मायने रहना । आत्मा अपने स्वरूप के समीप रहे याने आत्मस्वरूप की दृष्टि बनी रहा करे इसे कहते हैं उपवास । अब बतलाते हैं कि उपवास का दिन किस प्रकार व्यतीत करना चाहिए।