वर्णीजी-प्रवचन:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 108
From जैनकोष
धर्मामृतं सतृष्ण:, श्रवणाभ्यां पिबतु पाययेद्वान्यान् ।
ज्ञानध्यानपरो वा, भवतूपवसनतंद्रालु: ।। 108 ।।
उपवास में ज्ञान ध्यान धर्मश्रवण की मुख्यता―उपवास करने वाला गृहस्थ आलस्यरहित होता हुआ ज्ञान के अभ्यास में धर्मध्यान में तत्पर रहता है और धर्मामृत के पान के लिए उसकी तृष्णा बढ़ जाती है । तो मैं धर्मामृत का पान अधिक करूं, अपने आत्मा के सहज स्वरूप का अनुभव करूं, इसके लिए उसकी बड़ी तैयारी रहती है और धर्मामृत का स्वयं भी पान करता है, सुनता है, पढ़ता है और दूसरों को भी धर्मामृत का पान कराता है । उपवास के दिन धर्मकथा श्रवण करना चाहिए, तत्त्व की बात, आत्मा की चर्चा करना चाहिए जिससे आत्मा के सहज स्वरूप में अपनी दृष्टि जाय आरंभ आदिक में या विकथाओं में खोटे कथनों में समय बरबाद न करना । उपवास का सही फल तब प्राप्त होता है कि जब धर्म कथावों में धर्मध्यान में अपना चित्त अधिक लग रहा हो । अब उपवास का लक्षणभेद अर्थ बतलाते हैं ।