वर्णीजी-प्रवचन:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 111
From जैनकोष
दानं वैयावृत्यं, धर्मायतपोधनाय गुणनिधये ।
अनेपेक्षितोपचारोपक्रियमगृहाय विभवेन ।। 111 ।।
वैयावृत्यनामक चतुर्थ शिक्षाव्रत का निरूपण―इस छंद में वैयावृत्य नाम का चौथा शिक्षाव्रत बताया गया है । इसका दूसरा नाम है अतिथि सम्विभाग व्रत । अतिथि अर्थात् मुनिजन, उनको विभवने यथाशक्ति आहार औषधि आदिक का दान देना अतिथि सम्विभाग कहलाता है । जो लोग एकांतत: समझ बैठे हैं कि मुनि के ख्याल से आहार बनाना, चौका लगाना यह उत्कृष्ट दोष है, सो यह उनकी एक भूल है, यह कहलाता है अतिथि सम्विभाग व्रत । यदि केवल मुनि के लिए ही चौका लगे तब तो उद्दिष्ट है, पर यह भाव हो कि आज मुनि को आहर दूंगा, उस भाव से वह संपूर्ण चौका शुद्ध करता है फिर वह उस चौके में खायगा । खाना तो उसे था ही, बनाना तो उसे था ही । आज वह अशुद्धि से नहीं बना रहा, हिंसा से नहीं बना रहा तो यह उसके लिए गुण हुआ या दोष? गुण हुआ । उद्दिष्ट दोष उसे कहते हैं कि जो केवल मुनि के लिए आहार लगाये, और अपने लिए जैसा रोज-रोज बनता था वैसा अलग बनाये वहाँ उद्दिष्ट दोष होता है । उद्दिष्ट दोष का प्रयोजन यह है कि गृहस्थ को कष्ट न हो । कष्ट मानकर भोजन बनाया तो उसे तो कोई रिश्तेदार भी न खाना चाहेगा, फिर मुनि की बात तो दूर जाने दो । तो जो श्रावक विभाग करता हुआ कि मैं मुनि को आहार दूंगा और खुद भी खाना तो है ही सो खायेगा वह अतिथि सम्विभाग है । इसका दूसरा नाम वैयावृत्य है ।
वैयावृत्य में दान की मुख्यता―वैयावृत्य का अर्थ और-और भी है । जैसे मालिश कर देना या पग दबा देना मगर वास्तव में दान को ही वैयावृत्य कहा गया है । मानो कोई किसी मुनि के हाथ पैर तो खूब दबाये और उनके आहार भोजन की कुछ खबर ही न करे, उसका भाव ही न बनाये और ऐसे हो जायें नगर में सभी भक्त तो क्या उनकी वह वैयावृत्ति ठीक कहलायगी? तो वैयावृत्य में मुख्य है दान । सो जिनकी तपस्या ही धन है, जो गुणों के निधान हैं ऐसे साधुजनों को धर्म बुद्धि से दान करना वैयावृत्य कहलाता है । जो पात्र तपश्चरण को ही वास्तविक धन जानता है, आत्मा का कर्मकलंक मलरहित जो शुद्ध चैतन्यस्वरूप है वह अविनाशी धन देख तो लिया पर प्राप्त नहीं कर पाया और रागादिक कषाय भक्तों को जताने के लिए तपश्चरण रूपी धन को अंगीकार करता है, जिन्होंने सर्व परिग्रहों का त्याग किया, परम वीतराग दिगंबर निरंतर आत्मा के शुद्ध ज्ञानस्वभाव में ही जिनकी धुन रहा करती है उन तपस्वीजनों को भक्तिपूर्वक आहार, औषधि आदिक दान करना । जैसे उनका भय मिटे, जैसे उनका धर्म में मन लगे उस प्रकार उनकी वैयावृत्ति करना यह चौथा शिक्षाव्रत है । जो कि श्रावक का परम कर्तव्य है । देखिये बारह वत बताये गए हैं श्रावक के जिन में पहला व्रत है अतिथिसम्विभाग । बीच में और भी 10 व्रत हैं मगर जो अत्यंत मुख्य व्रत हैं वह पहले नंबर पर है और अंतिम नंबर पर है । जैसे कि कोई लिष्ट बनायी जाय पुरुषों की तो जो सबसे प्रधान है । मुख्य है उसका नाम या तो पहले नंबर पर सबसे ऊपर आता है या फिर सबसे नीचे बाद में । व्रतों में ये दो व्रत बड़े प्रधान हैं । यदि अहिंसा व्रत नहीं है तो फिर धर्म ही क्या रहा? यदि अतिथि सम्विभाग व्रत नहीं है तो फिर धर्मप्रवृत्ति का क्या अवकाश? तो परम दिगंबर व्रती यती को अपने धर्म के प्रवृत्ति के लिए, मुनिजनों के धर्म की प्रवृत्ति के लिए और समाज भी उस धर्मपद्धति में लगे वर्तमान में और भविष्य में भी ऐसे धर्म की प्रवृत्ति के लिए सेवा करना वैयावृत्य है ।
साधुजनों की धर्मधनता―धर्म नाम है सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र का । याने अपने आत्मा का विश्वास हो कि मैं कोई परम पदार्थ हूँ, ज्ञानानंद मैं हूँ, सर्वस्व मेरा मुझ में है । अपनी दृष्टि से अपने में खोजते है मुनिराज । इससे अपने आप ऋद्धि विभूति मिलती है । कोई इसे भूलकर कोई बाहरी पदार्थों में सुखशांति खोजे तो उसको निरंतर अशांति ही होगी । जितनी भी शिक्षा है उस शिक्षा का प्रयोजन यह ही है कि मैं अपने में बसे हुए परमात्मस्वरूप को जान लूँ और सदा के लिए संकटों से रहित हो जाऊं । सुख देने वाला शांति का घर अपने आपके आत्मा में है, अन्यत्र न मिलेगा । तो ऐसे अपने आत्मा का विश्वास करना यह है सम्यग्दर्शन । और जैसे आत्मा का विश्वास हो उस ही स्वरूप की जानकारी बनाये रहना यह है सम्यग्ज्ञान । और बाहर से हटकर अपने ही ज्ञान में मग्न हो जाना यह है सम्यक्चारित्र । यह धर्म धन किसको प्राप्त होता है? जो पुरुष क्षमाशील है, गंभीर है । उनको ऐसे अंतस्तत्त्व का दर्शन होता है ।
क्षमा गुण के प्रभाव―क्षमा स्व ऐसा महान् गुण है कि जिसके प्रताप से सर्वगुण अपने आप विराजमान हो जाते हैं । पहली क्षमा तो यह है कि अपने आपको क्षमा कर दें याने वे दोष न होने दें जिन दोषों के कारण खोटी प्रवृत्तियां होने लगती हैं । वह क्या दोष हैं? दूसरे से ईर्ष्या करना, विरोध रखना, किसी के काम में विघ्न डालना, और असत्य वचन व्यवहार रखना । ये सारे वे दोष हैं जिनसे अपना भगवान आत्मा इतना महान विभूति धारक होकर भी संसार में जन्म मरण करता रहता है । जिसने अपने आपको क्षमा कर दिया है अर्थात् अपने में दोष नहीं आने देता उसका व्यवहार ऐसा मनोज्ञ होगा कि जिससे सभी जीवों को सुख शांति पहुंचेगी । सबसे बड़ा तपश्चरण है यह कि अपने आत्मा को निर्दोष रखना, जिन जीवों की आदत ऐसी रहती है कि दूसरे के दोष ही दोष निरखते हैं और उन दोषों की आलोचना में ही चित्त लगाये रहते हैं उनका ज्ञान भी नष्ट होता है, समय भी बरबाद होता है, किंतु जो जीव अपने अंदर दोष देखते हैं कि मुझ में अभी इतनी कमी है । यह दोष है, यह दोष दूर करना चाहिए वह तो अपनी प्रतिभा से, ज्ञानप्रयोग से दोष को दूर कर लेगा । किंतु जो दूसरे के दोष को निरखने में ही रहा करते हैं उनका कल्याण होना कठिन । जो पुरुष परम वीतराग निर्ग्रंथ दिगंबर साधुजन हैं उनको केवल एक ही काम पड़ा है कि अपने में बसे हुए भगवान आत्मा की ही दृष्टि बनाये रहना उसकी ही उपासना करना, उनके कोई दोष संभव नहीं है । पर गृहस्थ जनों के अनेक दोष संभव हैं । सो जो विवेकी गृहस्थ हैं वे दूसरों के दोष निरखकर अपना डबल दोष नहीं बनाते । एक तो खुद में दोष भरे हैं, दूसरे दूसरों के दोषों को देखकर दोषों का ही तो ज्ञेयाकार बनेगा सो दूसरे के दोषों का बोझा अपने पर और भी ऊपर से लाद लो । इतना डबल दोष करना अच्छी बात नहीं है । दूसरे के गुण निहारो, प्रत्येक में गुण भी मिलते हैं, दोष भी मिलते हैं मगर गुण की दृष्टि रखने वाले पुरुष अपना कल्याण कर लेते हैं और गुणीजनों में दोष कम हुआ करते है अथवा नहीं भी हुआ करते हैं । तो जिनको गुणों की पहिचान नहीं है वे वहाँ दोष बनाया करते हैं तो यह तो उनका बहुत ही बड़ा अपराध है । तो यों दोषों की निगरानी रखने वाले पुरुष अपना कल्याण नहीं कर पाते, इसलिए एक आदत यह दूर हो तो क्षमाभाव आयगा । दूसरे के दोष न निरखना, गुणों पर ही दृष्टि देना और अन्य काम क्या पड़ा है? अपना कल्याण करना है तो अपनी साधना बनाना चाहिए ।
क्रोध न करके क्षमालाने के प्रयास―सर्वप्रथम बात यह है कि हम सबको क्षमाशील होना चाहिए । क्रोध किया, गड़बड़ बोल गए तो उससे फायदा क्या हुआ कुछ विचारो तो सही । जो क्रोध करता है वह तत्काल अपने में घुन जाता है, पहली हानि तो यह है, दूसरी हानि यह है कि क्रोध में जो वचन निकले जाते हैं वे असंतुलित वचन होते है । उनका असर पता नहीं दूसरों पर क्या पड़े? आखिर पीछे पछताना पड़ता है कि मुझे क्रोध क्यों आ गया? क्यों मेरे वचन खोटे निकल गए । तो दूसरी हानि यह है । तीसरी हानि यह है कि जिस पर क्रोध किया वह बलवान है तो उसी समय आपको पीट सकेगा, दंड दे सकेगा । चौथी हानि यह है कि कर्मबंध होता है जिसके फल में आगामी काल में भी दुःख भोगना पड़ता है । तो बताओ गुस्सा करने में कोई अपना लाभ हुआ क्या? तो अपने जीवन में एक ऐसी साधना बनायें । ऐसा भीतरी ज्ञानप्रकाश बनायें कि प्रतिकूल बात सुनने पर भी किसी के द्वारा गाली के वचन सुनने पर भी अपने में क्रोध न आ सके । अगर किसी ने यह साधना बना ली तो वह घर में रहकर भी तपस्वी की तरह है । यह साधना कैसे बनती है इसके लिए चिंतन करें? जो यह बाहर खड़ा हुआ पुरुष है सो इसके आत्मा का क्या स्वरूप है और मैं जो आत्मा हूँ, जीव हूँ सो मेरा क्या स्वरूप है इन दो बातोंपर ध्यान दो बात कठिन नहीं है । जिसको यह नुक्ता समझ में आ गया वह चाहे छोटी उम्र का ही क्यों न हो, उसका बेड़ा पार है । और जिसको यह बात नहीं समझना है, जिसकी धुन विषय कषायों की बनी हुई है उसका तो जीवन बेकार है । जरा अपने चित्त को समाधान रूप कर के विचार करें तो अपनी चीज और अपने को समझ में न आये यह तो गजब की बात कहलायगी । जैसे पानी में रहने वाली मछली प्यासी रहे तो इस पर लोग आश्चर्य करते हैं ना इसी प्रकार ज्ञानानंद स्वरूप में बसे हुए हम ज्ञानानंद न पायें तौ यह भी बड़े गजब की बात है । अवश्य पा सकते हैं, पर विषय कषाय से उपयोग हटाना पड़ता है ।
क्षमापोषिका दृष्टि―यह आत्मा रूप, रस, गंध, स्पर्श से रहित है, अमूर्त है, आकाश की तरह है । जिसमें मैं हूँ, मैं हूँ ऐसा ज्ञान होता रहता है सो वह अमूर्त आत्मा उसके मुख भी नहीं, जीभ भी नहीं, कान भी नहीं, ओंठ नहीं, शरीर नहीं । यह शरीर तो बाहर की चीज है, सो यह आत्मा तो बोल नहीं रहा है और आत्मा के स्वभाव को देखो तो वह तो अविकार है, निरंजन है, उसमें बोलने की बात नहीं होती, पर कर्मउपाधि साथ लगी है सो यह कर्म उपाधि बुला रही है, इसका कुछ कसूर नहीं । एक बार दतिया स्टेट के राजा अपने हाथी पर सवार होकर कहीं जा रहे थे तो रास्ते में कोई शराबी पुरुष मिला । वह था शराब के नशे में, सो उसने राजा को देखकर कहा―ओ बे रजुवा अपना हाथी बेचेगा? तो उसकी बात सुनकर राजा को उस पर बड़ा क्रोध आया और कुछ कहना चाहा कि इतने में मंत्री बोला―राजन् इसे आप अभी कुछ न कहें, इसको राजदरबार में बुलाकर फैसला किया जायेगा । और देखिये राजन्, इस समय यह पुरुष नहीं बोल रहा है, इस पर आप नाराज न हों, इसका फैसला दरबार में हो जायगा । राजा ने उसको दरबार में बुलवाया, तब तक उस पुरुष का नशा उतर चुका था । जब राजदरबार में वह पुरुष आया तो बहुत घबड़ा रहा था, कांप रहा था, उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि मेरे से क्या कसूर बन गया । वहाँ राजा बोला―ओबे कोरी, क्या तू मेरा हाथी खरीदेगा? तो वह पुरुष बोला―राजन् यह आप क्या पागलों जैसी बात कर रहे? कहां आप राजा और मैं आपकी प्रजा, वह भी महा गरीब, मेरे में कहां हिम्मत जो आपका हाथी खरीदूं । राजी उसकी बात सुनकर बड़े आश्चर्य में पड़ा कि अब यह क्या कह रहा? वहाँ मंत्रियों ने राजा को समझाया कि राजन् वहाँ यह पुरुष नहीं बोल रहा था कि ओ बे रजुवा क्या अपना हाथी बेचेगा? वहाँ तो इसकी शराब का नशा बोल रहा था । राजा को सही बात समझ में आ गई और उसे माफ कर दिया । तो ऐसे ही समझिये कि यहाँ जितने लोग गाली देने वाले हैं, विरुद्ध वचन बोलने बाले हैं उनका आत्मा तो भगवान परमात्मा की ही तरह है। मेरे स्वरूप की ही तरह है। वह खोटी प्रवृत्ति नहीं करता, किंतु साथ में जो कर्म-लगे है उन कर्मों का जो अक्स पड़ रहा बस वह बोल रहा है यह नहीं बोल रहा है । यदि ऐसी बात समझ में आ गई तो वहाँ गाली का असर अधिक न होगा ।
क्षमाप्राप्ति के योग्य चिंतन―दूसरी बात यह सोचें कि अपने स्वरूप पर भी विचार करें कि जो मैं हूँ वास्तव में ये नाक, आंख, कान तो मैं नहीं हूँ । यदि मैं नाक, आँख, कान होता तो या तो मैं मरता नहीं क्योंकि नाक, आंख, कान तो रहते ही हैं या ये साथ जाते पर ऐसा तो नहीं होता । मरने पर शरीर यहीं पड़ा रहता है, आत्मा निकलकर जहाँ जाना है जाता है । मैं वह हूँ जो इस शरीर में जुदा हूँ । क्या यह गाली देने वाला पुरुष मेरे आत्मा को जान रहा है? अगर जान रहा है तो वह गाली न दे सकता था । जब नहीं जान रहा तो वह तो इस नाक, आँख, कान को ही जान रहा सो गाली इनको ही पड़ रही, मेरे को नहीं पड़ रही । दूसरा चिंतन यह करें । और तीसरा चिंतन यह करें कि ये जो गाली के शब्द हैं ये निकले और बिखर गए, ये मुझमें घर नहीं करते हैं । इनका क्या मेरे पर असर होगा? ऐसा चिंतन करके गाली सुन मन खेद न आवे । कुछ भी वचन सुनें प्रतिकूल भी बात सुनें तो भी इतनी हिम्मत बनाना चाहिए कि अपने में क्रोध भाव न आ सके । यह सबसे महानगुण है, और साधुसंत पुरुषों में सबसे महानगुण यह क्षमा पाया जाता है । जो क्षमा यह साबित करती है कि इसमें अनेक गुण विराजे है । तो अपने गुण विकास के लिए यह आवश्यक है कि क्रोधभाव का परिहार करें, क्षमाशील बनें ।
क्षमा से सर्वत्र आनंद―आप यह शंका रख सकते है कि इस दुनिया में आज के समय यदि क्षमाशील रहा जाय तो जो चाहे सताता रहेगा, पर ऐसी बात नहीं है । कोई नहीं सता सकता । जो वास्तव में क्षमाशील रहेगा वह गुणवान भी है, उसके वचन कायदे से निकलेंगे । परिमित निकलेंगे और उसकी प्रतिभा भी बढ़ेगी । जो व्यवहार उससे होगा उस व्यवहार में उसको कभी अशांति नहीं हो सकती । दूसरा भी उसे नहीं सता सकता है, बल्कि दूसरे लोग क्रोधियों को सताया करते हैं, परस्पर में एक दूसरे से बैर हो जाने से परस्पर विवाद उन्हीं में होता है । तो क्षमा जीवन में एक महान् गुण हैं । उस क्षमा को जिस प्रकार बने, विकसित करते रहना चाहिए । क्षमा में यह भी नहीं है कि जो कमजोर है उसे तो क्षमा न करें और जो बलवान है उसको क्षमा कर दें । बलवान को जो क्षमा करता है वह क्षमा नहीं है किंतु वह तो विवश होकर क्षमा करता, उसके तो भीतर ही भीतर गुड़गुड़ाहट चलती रहती है, जिसमें संक्लेश बढ़ता जाता है । जो अपने को क्षमा नहीं कर सकता वह क्षमाशील नहीं कहलाता । हां जो अपने को एक तरह से क्षमा कर सके समझना चाहिए कि वह बड़े पुरुषों को भी क्षमा कर सकता है । क्षमा तो वीर पुरुषों का भूषण है । कायरों से क्षमा नहीं बन सकती है ।
क्षमा लाभ के साधनीभूत अंतस्तत्त्व के दर्शन के लिए धर्मशिक्षण की आवश्यकता―आत्मा के जो गुण हैं उन गुणों को पाने के लिए जिसे क्षमा चाहिए तो यह आवश्यक है कि हम अपने आत्मा के सही स्वरूप को जाने तब वास्तव में क्षमा हो पायगी । जैसे कोई बच्चा किसी सभा में रोता है तो उसकी मां उस बच्चे का मुख दाबकर उसका रोना बंद करती है, उसके ओंठ दाबती है पर उसके ओंठ दाबने से कहीं उसका रोना बंद नहीं हो जाता, बल्कि उसका रोना और भी बढ़ जाता है ऐसे ही जबरदस्ती अपने में गुण बनाने से क्या गुण आ जायेंगे? अरे गुण जब आयेंगे तो सहज ही आयेंगे । और उसका आधार है आत्मा की सच्ची समझ बनाना कि मैं क्या हूँ । और यह समझ धार्मिक ज्ञान बिना नहीं बन सकती । इसलिए धर्मशिक्षण से अपने आपको कुशल बनायें, सम्यज्ञानी बनायें । तो जो ऐब हैं व्यसन न करना, दूसरों को न सताना आदिक जो भी गुण हैं वे सब गुण उसमें सहज आ सकते हैं । इसके लिए मुख्यतया चाहिए कि हम अपने आत्मा का ज्ञान करें और उसके लिए चाहिए कि हम ऐसी शिक्षा पायें । धार्मिक शिक्षण लें ताकि हम अपने आपको समझ तो सकें सही कि मैं क्या हूं? अगर आत्मा को सही समझ लें तो सर्वगुण यहाँ प्रकट होंगे और निकट काल में निर्वाण को भी पायेंगे जो सदा के लिए ये जन्ममरण, ये सारे संकट छूट जायेंगे और सिद्ध भगवान हो जायेंगे जिनको आप णमोकार मंत्र में रोज-रोज नमस्कार करते―णमो सिद्धाणं । जिसको नमस्कार करते वह बड़ा ही तो होगा । बताओ ऐसा बड़ा हम आपको भी होना चाहिए या नहीं? यदि सदा के लिए इन संसार के संकटों से छूटना है तो आत्मा का ज्ञान कीजिए । धर्म शिक्षण प्राप्त कीजिए जिससे अपने स्वरूप में संतोष पाने का मौका मिल सके, फिर क्षमा आदिक गुण सहज ही प्रकट हो जायेंगे ।
मोक्षमार्गी ऋषि संतों का वैयावृत्य करने में श्रावक का प्रमोद―जो पुरुष सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र के धारक हैं, अपने आत्मा के सहज स्वभाव को निरखते रहने की जिनकी धुन है, जिन्हें अंतस्तत्व के अतिरिक्त अन्य कुछ सुहाता नहीं है, ऐसे परम पुरुष निर्ग्रंथ दिगंबर, जिनके न कोई रहने का ठौर है, न मठ है, न आश्रम है, एकाकी अथवा गुरुजनों के चरणों के साथ रह रहे हैं जिस किसी भी स्थान में, वन में, गुफावों में, नदी के तट पर, या ऐसे स्थान पर जहाँ असंयमी लोगों का आना जाना विशेष न हो, और थोड़ा ठहर कर विहार भी किया करते हैं, जो असंयमीजनों का संग नहीं रखते हैं ऐसे परम पुरुष निर्ग्रंथ दिगंबर जब कभी घर के सामने से आयें आहारचर्या के लिए तो यह श्रावक अपने को अहोभाग्य समझता है । जीवन की सफलता समझता है, भक्तिपूर्वक पड़गाह कर उन्हें आहारदान करता है, साधुजन अलौकिक पुरुष कहलाते है । लौकिक पुरुषों की जो रीति नीति है उससे अलग रीति है साधु पुरुषों की । लौकिकजन स्नान करते हैं, इनके स्नान का त्याग है । दुनियावी लोग खाट पलंग पर, बड़े-बड़े सेजों पर सोते हैं और ये मुनिजन चाहे पहले राजा थे, सुकुमाल थे फिर भी भूमि पर, काठ पर सोते हैं । दुनिया के लोग आराम से बैठकर मौज से भोजन करते हैं, इन मुनिजनों को अपनी धुन के कारण इतना भी समय नहीं है कि वे मौज में बैठकर खा सकें । वे खड़े ही खड़े भोजन करके चल देते हैं ।
साधु संतों का ध्येय वीतरागता की सिद्धि―लोग वस्त्राभूषण से अपने अंगों की सजावट करते हैं, केशों की सजावट करते हैं और ये मुनिजन वस्त्राभूषण की सजावट के तो अत्यंत ही त्यागी है, पर केशों की भी सजावट नहीं करते, केशलुंच करते हैं, जिससे उनका सिर अटपट सा हो जाता है । ये सारी बातें क्यों करते है? ब्रह्मचर्य की सिद्धि के लिए और अपने आत्मा में रमणकर संतुष्ट होने के लिए । मुनिजनों का ध्येय परम वीतरागता की सिद्धि करना है । लौकिकजन या देवगण पूजा करें प्रशंसा आदिक करें पर उनके चित्त में इसकी रंच भी चाह नहीं है । धुन हैं केवल यह कि मैं आत्मा के सहज स्वरूप को जानूँ और उसमें ही रमण करूं । उनकी वांछा यह भी नहीं रहती कि परलोक में मैं इंद्र बनूँ, बड़ा धनिक राजा बनूँ, ऐसी चाह होना तो दूर ही रहा । इसमें वे रागरूप अंगारे कर तप्त तृष्णा को बढ़ाने वाली विभूति समझते हैं । कोई मुनिराज का देहांत हुआ तो उसके बाद वह देव होगा, देवियां मिलेंगी, कुछ वहाँ राग होगा, नटखट होगा, यह बात ध्यान में आने से भी खेद मानते हैं कि मेरा यह पवित्र जीवन परम ब्रह्मचर्य का जीवन और यदि मुझे स्वर्ग में उत्पन्न होना पड़ेगा तो देवदेवियों का वह बोलचाल राग सब बढ़ता जायगा । अभी तक इतना पढ़ सके, अब फिर से वही पाटी पढ़नी पड़ेगी जो राग में की जाती है । वे स्वर्ग में उत्पन्न होने को क्या तरसेंगे? जो उस स्वर्ग की बात सोचकर खेद करते हैं किं ऐसे अलौकिक पवित्र जीवन के बाद ऐसा भोगना पड़ेगा, तो ऐसे परमविरक्त साधुजनों का वैयावृत्य करने का लाभ अनंतकाल में भी दुर्लभ है ।
आहार करने में साधुसंतों का प्रयोजन―साधुजन देह से इतना विरक्त हैं कि उनके उमंग नहीं चलती कि मैं आहार को जाऊं, पर यह जानते हैं कि आहार आदिक किए बिना जीवन नहीं चलता और यों अगर कुसमय में मरण हो जायगा । हम अपनी साधना में पूर्ण न हो सके और यों ही मरण बन गया तो आगे असंयमी जीवन व्यतीत करना पड़ेगा, और-और भी खोटे परिणामों का जीवन बन जायगा । इसलिए थोड़ा जिंदा रहें और रहे सहे जीवन में आत्मा के सहज चैतन्य स्वरूप का ध्यान धरकर मग्न होने की धुन रखकर अपने को कृतार्थ करले । इस भावना से उन्हें आहार के लिए उठना पड़ता है, सो रत्नत्रय का सहकारी जानकर आहार लेते हैं । आहार नहीं है रत्नत्रय का सहकारी, बाह्य सहकारी है, यह शरीर जिसमें मिल रहा है । यह रहेगा तो हम अंत: धर्मसाधना करते रहेंगे । जिसकी रत्नत्रय की धुन है उसकी बात कही जा रही है । कहीं सभी के लिए धर्म का सहकारी न बन जायगा जीवन जो अपने जीवन को जैसा ढालना चाहता है वह ढालता है । सो मुनिजन आहार को जाते हैं, सरस मिले, नीरस मिले, ठंढा मिले, गरम मिले, कड़ा मिले, नरम मिले, शुद्ध भोजन ग्रहण करके रत्नत्रय की रक्षा के लिए वे कृतघ्न देह की रक्षा करते हैं । मुनिजन जानते हैं कि यह देह कृतघ्न है । कृतघ्न उसे कहते हैं कि कितना ही उपकार उसका किया जाय तो भी उपकारक का उपकार भूल जाय, बल्कि उससे विपरीत चलने चले, ऐसे विपरीत चलने वाले को कहते हैं कृतघ्न । तो यह देह भी कृतघ्न है इस देह को कितने ही रसीले भोजन कराये जाते हैं, बड़ा इसको पुष्ट कराया जाता है, उसका उपाय बनाया जाता है और इस शरीर को देख देखकर लोग खुश होते हैं, दिन भर में कम से कम दो बार तो आयने में अपना चेहरा देख ही लेते होंगे । बाल संवारना, कई-कई बार नहाना, आयने से अपना चेहरा देख-देखकर खुश होना, हां हमारा देह ठीक है, पुष्ट हो रहा है तो जिस देह के पीछे यह जीव इतना मर रहा वह देह इस जीव के लिए पाप का ही कारण बनेगा, नरकादिक खोटी गतियों में पहुंचाने का साधन बनेगा । तो इससे अधिक कृतघ्न क्या कहा जाय देह की फिर भी वे मुनिजन इस कृतघ्न देह की रक्षा करते है इस कारण कि देह रहेगा तो इस शेष जीवन में हम रत्नत्रय की साधना बनायेंगे । यदि यों ही जल्दी हठ में कि हम तो मरण ही करेंगे, हमें जीना नहीं है और यों अकाल में देह नष्ट हो जायगा तो मरकर देवादिक बनेंगे । असंयमी रहेंगे और वहाँ असंख्यात काल पर्यंत असंयम रहेगा, मैं रागभाव में आकर नाना कर्मबंध करुंगा । तो वे जान रहे कि यदि मैं इस देह को व्यर्थ ही असमय में मार दूं समाधिमरण के नाम का बहाना करके, तो एक यह देह ही तो मरा, तो न मरेगा, आगे नया देह मिलेगा । तो मुझे इस देह के मारने से नफा नहीं है, किंतु इस देह के उत्पन्न होने का बीज जो कार्माण शरीर है उसको नष्ट करना है, और वह कार्माण शरीर यों नष्ट नहीं होता । आत्मस्वभाव का ध्यान बने, उसमें रमण बने तो ऐसे अनुभवों से यह कार्माण देह नष्ट होगा कार्माण शरीर नष्ट होगा । तो इसके लिए क्या करना? कषायों का जीतना विषयों का निग्रह करना।
साधु की निर्दोष क्रियाविधि से आहारादिचर्या―आहार आदिक क्रियायें करनी पड़ें तो साधु निर्दोष विधि से क्रियायें करते हैं । साधु के लिए ही जो भोजन बने उसे साधु ग्रहण नही करते, गृहस्थ का भोजन बन रहा, गृहस्थ का भी भाव बना है कि मैं साधु को आहार कराकर खाऊंगा । यह तो गृहस्थ का एक अतिथि सम्विभाग व्रत है । यह हो तो वैयावृत्य शिक्षाव्रत है । जान जाये साधु कि केवल मेरे लिए भोजन बनाया है, इतना कष्ट उठाया है तो साधुजन भोजन नहीं लेते हैं और विधि मिलने पर भोजन ग्रहण भी करते हैं तो आधा पेट भोजन से भरते हैं, चौथाई भाग जल से भरते हैं और चौथाई भाग ध्यान अध्ययन में प्रमाद न आये उसके लिए खाली रखते हैं । जिनको कुछ लिप्सा नहीं, जो नाम नहीं चाहते, नेवते से बुलाये जाने पर नहीं जाते, याचना करके नहीं खाते, हाथ से संकेत करते नहीं, ऐसे साधुजन भिक्षावृत्ति से गृहस्थ के घर के आगे से निकलें और गृहस्थ यों ही देखता रहे, तो यह सद्गृहस्थ से न बनेगा । वह तो विधिपूर्वक पड़गाह कर आहार करायगा । आजकल समस्या कुछ यों कठिन हो गई कि शुद्ध आहार बनाने की पद्धति न रही । अगर कुछ सोचें तो यह पद्धति प्रत्येक घर में रोज हो सकती है । वह कैसे? दाल चावल तो पीसने नहीं पड़ते । हां टोंटी वाले नल का पानी न हो, चमड़े वाले नल का पानी न हो, पानी बाबरी कुवे आदि का हो । फिर तो दाल, चावल और उसके साथ फल सब शुद्ध रह सकते है । हां थोड़ा हाथ के आटे की जरूर दिक्कत मान सकते क्योंकि आजकल प्राय: लोगों ने घर में हाथ से आटा पीसने का काम ही बंद कर दिया । तो उसमें भी साधुजनों की कहीं यह अपेक्षा नहीं होती कि मुझे आटे की चीज रोटी पूड़ी वगैरह मिले । वे तो विरक्त बुद्धि से रत्नत्रय का साधन जानकर इस जीवन की कुछ रक्षा के लिए आहार को उठते हैं । अत: इतनी बात यदि प्रत्येक घर चला सके केवल दाल चावल का शुद्ध निर्माण, जिसमें कुछ दिक्कत ही नहीं पड़ती सो वह तो तेज भावना रख सकता है कि मेरे यहाँ कोई साधु आयें और हम उनको आहार कराकर खायें । ऐसे विरक्त चित साधुजनों को आहार आदिक दान देना सो वैयावृत्य है ।
साधु वैयावृत्य में सद्गृहस्थ की भावनायें―ये गृहस्थ किस भावना से मुनिजनों को आहार कराते है? वे इस आहार के एवज में कुछ भी वांछा नहीं रखते । ये मुनिराज प्रसन्न होकर मेरा भी कुछ उपकार कर देंगे या हम को विद्या मंत्र आदिक देंगे अथवा मुनिवरों को दान करने से मेरे नगर में दाता के रूप में मान्यता बढ़ जायगी । ऐसी कुछ भी भावना वह गृहस्थ नहीं रखता है, केवल रत्नत्रय की मूर्ति को निरखकर रत्नत्रय को ही पसंद करने बाला श्रावक उस रत्नत्रय की मूर्ति के नाते से उससे नहीं रहा जाता है और रत्नत्रय के साधकों की वैयावृत्य करता है । दातार की अन्य कोई वांछा नहीं है किंतु रत्नत्रय के प्रमोद में वह रत्नत्रयधारी की सेवा करता है । सद्गृहस्थ मुनीश्वरों को आहार देने के एवज में लौकिक भी कोई वांछा नहीं करता । इनके चरण घर में आने से, इनकी वैयावृत्य करने से मेरे घर में अटूट धन हो जायगा ऐसा न विकल्प रखता, न वांछा रखता । सिर्फ रत्नत्रय के धारियों में ही मुनीश्वरों की भक्ति के कारण अपने आपको कृतार्थ मानता है और गृहस्थ जीवन को सफल मानता है । यदि मेरा धन इन साधु संतों के काम में लगेगा तो मेरा धन सफल है, गृहस्थी सफल है, जीवन सफल है और अपने लिए अपने घर कुटुंब के लिए तो सभी लौकिकजन उद्यम करते हैं । यहाँ तक कि पशु भी ऐसा ही मोह रखते हैं जिनको परिवार समझा उनके लिए वे सब कुछ करने को तैयार रहते हैं । तो उससे क्या है? कर्मबंध हुआ, परिणाम खराब किया और मरकर खोटी गति में गए । तो ऐसे कुटुंबीजनों के लिए ही मेरा सब कुछ है ऐसे भाव में तो दुर्गति ही है और जिसको साधु संतों को निरखकर प्रसन्नता जगती है वह उनकी वैयावृत्ति के लिए सब कुछ अर्पण करने को तैयार रहता है । ऐसा प्रमोद उठता है रत्नत्रय के इच्छुक श्रावक के चित्त में । तो एक इस रत्नत्रय धर्म के नाते साधुजनों की वैयावृत्य सद्गृहस्थ करते हैं ।