वर्णीजी-प्रवचन:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 117
From जैनकोष
आहारौषधयोरप्युपकरणावासयोश्च दानेन ।
वैयावृत्त्यं ब्रुवते चतुरात्मत्वेन चतुरस्त्रा: ।। 117 ।।
चतुर्विधदानों से वैयावृत्य का कर्तव्य―जिनके चार मुख हैं उन प्रभु ने दान चार प्रकार के बताये―प्रभु के चार मुख दिखते है । समवशरण में एक अतिशय है, है यद्यपि उस शरीर में है एक मुख मगर देवकृत अतिशय है कि लोगों को चारों ओर मुख दिख जाता और उनके चारों ओर धर्मसभायें होती हैं इस कारण किसी भी समय कोई पहुंच जाय, उसे अड़चन भी न हो, प्रभु के दर्शन होते ही रहते है । प्रभु ने चार प्रकार का वैयावृत्य बतलाया है । (1) आहार दान, (2) औषधि दान, (3) उपकरण दान, उपकरणों में मुख्यतया शास्त्रदान आता है । पिछी, कमंडल, शास्त्र―ये तीन उपकरण हैं, किंतु उन तीनों में प्रधान शास्त्र है, इस कारण दान के चार भेदों में एक शास्त्र दान आया है । और (4) चौथा है अभयदान । अभयदान में 6 काय के जीवों के कृतकारित अनुमोदना में विराधना का त्याग है । सो यतीजन अभयदान सब जीवों को दे रहे हैं । जो सब जीवों को अभयदान दे रहे हैं ऐसे गृहरहित केवल आत्मा की धुन रखने वाले मुनिजनों को आवास आदि देना अभयदान कहलाता है । गृहस्थ दान से ही प्रशंसा के योग्य हैं । दान और पूजा के ये दो मुख्य काम श्रावक के बताये गए हैं,, सो उनमें पूजा से तो आत्मकल्याण है और दान से धर्म तीर्थ की प्रवृत्ति है ।
दानरहित गृहस्थ जीवन की व्यर्थता जानकर दानवृत्ति की उमंग रखने का स्मरण―जिस गृहस्थी में आहार आदिक दानों की प्रथा नहीं है । वे पापारंभ के भार से ऐसा बोझल हो जाते हैं कि वे पत्थर की नाव के समान है । जैसे पत्थर की नाव खुद डूबती है और दूसरों को डुबोती है ऐसे ही जहाँ दान की परंपरा नहीं है ऐसे गृहस्थजन पाप के आरंभ से खुद दबते हैं और कुटुंबीजनों को, मित्रजनों को डुबोते हैं, ज्ञानी श्रावक चिंतन करता है कि यह धन जो मैंने कमाया है या पिता का कमाया हुआ है, घर में बिना श्रम किए ही धन मिला है अथवा राज्य ऐश्वर्य देश नगर व स्त्री, सभी नौकर आदिक सबका समूह प्राप्त हुआ है सो यह पूर्व जन्म में दान देने का फल है । पूर्वभव में दूसरे के धन में स्वप्न में भी चित्त न चलाया था, परम संतोष से जीवन व्यतीत किया था, विषयों से विरक्त थे, चाह का परिमाण था, ऐसे तपश्चरण का फल है कि जो इस भव में सुख सुविधा सामग्री प्राप्त हुई है । सो यह संपदा मिली तो है, पर इसका कुछ दिन का ही संयोग है, यह परलोक में साथ न जायगा, मरने के बाद यही पड़ा रहेगा । जमीन में गड़ा धन जमीन के अंदर रह जायगा, जो बाहर पड़ा है वह बाहर रह जायगा, उसके मालिक कोई दूसरे बनेंगे, या राजा लूट लेगा । यह जीव अचानक मरकर दुर्गति में चला जायगा । सो जिस धन की मैंने प्राणों से भी अधिक रक्षा की उसका फल मिलेगा दुर्गति । सारा समय कष्ट ही कष्ट में व्यतीत होगा । तो ऐसे कुछ दिन के लिए प्राप्त हुए धन का दान में सदुपयोग करूं जिससे कि पाप भी झरे और अगला भाव भी उत्तम प्राप्त हो । आहारदान देने से साधुजनों को निर्बाध धर्मध्यान में रहकर तपश्चरण का मौका मिलता है, औषधिदान से रोग दूर हो जाने से साधुजनों को समता से शांति से तपश्चरण का मौका मिलता है । अभयदान देने से योग्य स्थानों में उन्हें ठहराने से वे निर्वाध अपने तपश्चरण में लगते हैं और शास्त्रदान देने से इस तत्त्वज्ञान के प्रसाद से ऐसा ज्ञान लाभ ले लेते कि अष्ट कर्मों का विनाश करके निकट काल में, निकट भव में निर्वाण प्राप्त करेंगे ।
श्रावकों के सिद्धावस्था की उपादेयता का मूल लक्ष्य रखकर धर्मप्रवर्तन―हम आपको यह सोचना चाहिए कि सिद्ध अवस्था मिले, तो वह है हमारे लिए भली बात, बाकी तो संसार में जितना भ्रमण है, चाहे राजा बने, चाहे क्रोड़ाधीश बने, वह सब कष्ट है । कदाचित कोई अच्छी बात मिल गई तो उसका भरोसा क्या? जैसे कि जनता के राज्य में जहाँ कोई एक राजा नहीं है तो 5 वर्ष को कोई मंत्री बन गया राष्ट्रपति बन गया, राज्य चलाने वाला बन गया, तो 5-6 वर्ष बाद क्या होता कि फिर चुनाव हुआ हार गया फिर साधारणजनों की भांति रह गया तो उसको कितना कष्ट होता । उसको तो जीवनभर के लिए विश्वास बन जाता कि मैं राजा रहूंगा पर 4-5 वर्ष बाद फिर चुनाव में हार जाता तो उसको बड़ा दुःख होता । तो ऐसे ही राजा हो या धनिक हो, अधिक से अधिक जीवनभर मौज माना, पर इस मौज में जो कर्मबंध हुआ उसके उदय में दुर्गति प्राप्त होती । इससे इन बाहरी पदार्थो को निरखकर खुश न होना कि मैं बहुत धनी हूँ, मैंने अच्छा धन कमाया है, मैंने बड़ी-बड़ी सुख सुविधायें बनाया है । ऐसा अनुभव करें कि गुजारा करने के लिए मैं घर में रह रहा हूँ, जिस तरह क्षुधा तृषा शीत उष्ण की वेदना न रहे और मैं धर्म पालन में अपना कर्तव्य निभाऊं इतना ही प्रयोजन है जीवन का इससे अधिक प्रयोजन नहीं है वैभव का । जो वैभव में तृष्णा किए हुए हैं उनका तो बड़ा अंधकारमय जीवन है, उसे न इस भव में सुख है न आगे सुख रह सकता है । चतुर्थकाल में पात्रों की संख्या अधिक थी । सम्यग्दृष्टि मुनि व्रती अधिक मात्रा में थे । पुराणों में देखते है कि प्रत्येक राजा प्रत्येक सेठ बड़े-बड़े पुरुष भोग भोगने के बाद अंत में गृह त्यागकर मुनि हुए थे । तो इस पद्धति से आप देखें तो मुनियों की संख्या अधिक स्वयं ही हो जाती थी । पर आज पंचमकाल में सही मुनिजन सम्यग्दृष्टि श्रावक व्रतीजन बहुत ही दुर्लभ है । और कदाचित् मिल जायें और उनकी उपेक्षा करें तो यह श्रावक का बहुत पाप का उदय है जो उसकी बुद्धि विपरीत बनी है । जहाँ कहीं भी कोई पात्र मिले तो बड़ी उमंग पूर्वक उनकी हर प्रकार सेवा करना इससे गृहस्थ का जीवन सफल है, उसके पुण्य का विशेष बंध है ।
दानादि की प्रवृत्ति न करने वालों के भविष्य की मीमांसा―अच्छा धनी लोग यदि धन को दान में न खर्च करें और अर्जन ही अर्जन करते जायें तो बतलावो उन्हें सफलता क्या मिली? यदि भोगों में ही लगायेंगे तो यह कार्य तृष्णा बढ़ाने वाला है । महापाप में प्रवर्तने वाला है । उससे नरकादि कुगति ही प्राप्त होगी, और मोहवश यदि पुत्रादिक को ही समर्पण करते हैं मेरा मुन्ना है, इसको मैं खूब धन कमाकर दे जाऊं, यह बुद्धि करके जीवन में एक धनार्जन का ही उद्देश्य बना रखा है तो उनके भी बड़ा अंधकार है । लोक व्यवहार में हैं पुत्रादिक मगर ये ही मेरे सर्वस्व हैं, और मेरा सब कुछ श्रम इनके लिए ही हो, ऐसी मोहबुद्धि का फल दुर्गति में उत्पन्न होना है और फिर ये पुत्रादिक तो बिना दिए ही अपने आप लें लेंगे, इनको देना कोई दान नहीं कहलाता । आप न दीजिए पुत्रों को तो वे अपने आप ही सब मालिक बनेंगे । दान करना, सेवा करना तो उनका कहलाता है कि जिन्होंने सर्वपरिग्रह का त्याग किया है और केवल एक आत्मध्यान ही जिसको शरण है । ऐसे रत्नत्रय से पवित्र ज्ञानीजनों की सेवा दान में दान है । अच्छा मान लो किसी धनिक ने सारे जीवन धन कमाया और वह मरकर परलोक गया, यहाँ किसी को दान न कर सका । पुत्रादिक में ही ममता रखकर मरा तो मरने के बाद वह यहाँ देखने आयगा कि मेरा लड़का किस तरह रहता है? कैसे आ सकता है? कुटुंब का संबंध तो आत्मा से नहीं है, इस चाम का संबंध है सो यह चाम भस्म हो ही जायगा, कुटुंब न इसको देख सकेगा, न वह धनिक कुटुंब को देख सकेगा । फिर इतनी आसक्ति क्यों? अपने कमाये हुए द्रव्य का दान करने की, उसका सदुपयोग करने की भावना क्यों नहीं बनती । इस संसार में अन्य कुछ इस जीव का शरण नहीं है, एक धर्म ही शरण है । जो धन है सो भी आपका नहीं, पुण्य के प्रभाव से कुछ दिन को यह मिला है, अंत में इसे भी छोड़कर जाना पड़ता है । धन साथ जायगा नहीं, और पुत्रादिक में ममता करके धन संचय किया है उस ममता के कारण दुर्गतियों में जन्म लेना पड़ेगा । जैसे यहाँ देखते हैं अनेक दरिद्रियों को कि बेचारे अन्न के एक-एक दाने को तरसते हैं, याचना कर करके बड़ी मुश्किल में पेट भरते हैं ऐसी ही स्थिति बनेगी उनकी जिन्होंने धन पाकर दान में सदुपयोग नहीं किया । श्रावकों को ममतारहित होना ही चाहिए । रागरहित तो न हो पायेंगे क्योंकि घर में रहते हैं, सब व्यवस्था करते हैं । पर सही श्रद्धा, सही ज्ञान रखें तो श्रावकों का कल्याण है ।
ज्ञानदान का सर्वोत्कृष्ट प्रभाव―देखिये लोक में सर्वोत्तम बात है सिद्ध भगवान होना । जो यहाँ यह तीन चीजों का पिंड है―जीव, कर्म और शरीर । इनकी सत्ता अपने-अपने में अलग-अलग है । केवल इन तीन का संयोग है, तो जिनका संयोग है उनका वियोग हो सकता है । आत्मदृष्टि, आत्मध्यान के प्रताप से अपने आपको समझ लीजिए, सबसे निराला केवल अपनी सत्तामात्र, ऐसे अपने सत्तामात्र चैतन्यस्वरूप के ध्यान के प्रताप से इसका निर्णय मिलता है । वहाँ अकेला आत्मा रहे, यह ही अवस्था कल्याणमय अवस्था है । इसके पाने का ही लक्ष्य रखना चाहिए । और, इसकी प्राप्ति ज्ञान से ही होती है । ज्ञान के सिवाय अन्य कोई उपाय नहीं है जो इस जीव को शांति मिल सके या भगवान का पद प्राप्त हो सके । दुर्लभवस्तु ज्ञान ही है, सो ज्ञान का अभ्यास बनायें और ज्ञानावरण का इतना विशेष क्षयोपशम न हो कि तत्त्वज्ञान ही सीख सकें तो जो ज्ञानवंत हैं उनकी सेवा सुश्रुषा में रहें, जो ज्ञान के साधन हैं धार्मिक विद्यालय शास्त्रादिक उनके प्रचार प्रसार में रहे और सामर्थ्य नहीं है कि हम धन व्यय कर सकें तो इस ज्ञान की साधना का समर्थन बनाये रहें, हृदय में अनुमोदना करें तो यह वह साधन है जिसके प्रताप से ज्ञानावरण का क्षयोपशम होकर ज्ञान प्राप्त होगा और यह निकटकाल में कभी केवल ज्ञानी हो जायगा । इसीलिए सर्व दानों में ज्ञानदान को सर्वप्रधान कहा गया है अन्य कुछ दान तो एक गुजारा कराने के लिए हैं, किंतु ज्ञानदान इस जीव को सदा के लिए सर्वसंकटों से छुटकारा दिलाने के लिए है । ऐसा श्रावक शुद्ध भाव से पात्र को दान करता है जिसके प्रताप से यह मोक्षमार्ग में लगा है, सद्गति पायगा वहाँ भी धर्म साथ रहेगा, मनुष्यभव पाकर निर्ग्रंथ होकर सदा के लिए मुक्त होगा । यह सब ज्ञानदान के अभिप्राय का ही प्रभाव है कि वह मोक्ष जाता है ।
कुपात्र दान का फल कुभोग भूमि में उत्पत्ति―जो पुरुष कुपात्र में दान करता है याने अन्य साधु सन्यासियों को दान करता है भक्ति से, जैसा कि उनका भाव है उसके प्रताप से अच्छी गति तो नहीं प्राप्त होती कुभोग भूमि प्राप्त होती है, फिर भी खाने पीने आदिक के कष्ट तो नहीं, पर उनकी स्थिति एक विडंबना वाली स्थिति होती है । वे मनुष्य बेढंगे होते हैं । कोई बड़े कान वाले हैं, इतने लंबे कान हैं कि कहो एक कान में सो जायें और एक कान ओढ़ लें, ऐसे मनुष्य बनते है । ये मनुष्य अंतर्द्वीपों में होते हैं जो लवण समुद्र के भीतर पाये जाते हैं । किसी का शेर जैसा मुख, किसी का घोड़े जैसा, किसी का कुत्ते जैसा, किसी का सूकर जैसा । यों नाना ढंग के मनुष्य होते हैं । ऐसी खोटी भोग भूमि में उत्पन्न होते हैं, पर जो सुपात्रदान करते हैं रत्नत्रय धारियों की वैयावृत्ति करते हैं उनको उत्तम देवगति, उत्तम भोगभूमि प्राप्त होती है, जहाँ पर धर्म का भी संबंध बना रहता है और मोक्ष मार्ग में प्रगति होती है ।