वर्णीजी-प्रवचन:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 124
From जैनकोष
स्नेहं वैरं संंग परिग्रहं चापहाय शुद्धमना: ।
स्वजनं परिजनमपि च क्षांत्वा क्षमयेत्प्रियैर्वचनै: ।।124।।
स्नेह बैर और संग, परिग्रह त्याग शुद्ध मन हो करके।
क्षमा स्वजन-परिजन प्रति, करै करावै प्रियवचनों से ।।
सल्लेखना के समय व्रतीश्रावक का निर्वैर व नि:स्नेह होने के लिए चिंतन―इस वर्तमान भाव को छोड़कर जाने की तैयारी रखने वाला यह श्रावक यहाँ के सर्व समागमों से विरक्त होता है, स्नेह को, बैर को, परिग्रह को त्यागकर यह शुद्ध हृदय वाला श्रावक दूसरों को क्षमा कर के दूसरों से क्षमा लेकर यह अपने को निर्मल बना रहा है । अपने कुटुंबीजनों से या अन्य जनों से सबके साथ यह स्नेह बैर को छोड़ देता है । यह विचार करता है कि यह मैं इस पर्याय में आया, ऐसा ही कर्मोदय था, इस पर्याय को भुगतना पड़ा, अब इस मनुष्य देह का उपकार करने वाला जो पदार्थ है, भोजन धन आदिक जो भी इस शरीरं के पोषण में मददगार हैं अथवा इस शरीर के भोगोपभोग के साधन हैं उन साधनों को जिन्होंने मिला दिया उन्हें तो इष्ट मित्र मान रहे और जिन्होंने इन साधनों में बाधा डाली उन्हें गैर मान रहे, इस पर्याय से मेरा क्या संबंध? यह तो मैं नहीं हूँ, पर बंधन है, और उस बंधन से इस पर्याय के उपकारक को मित्र मानता रहा और पर्याय का अपकार करने वाले को बैरी मानता रहा । सो मित्रजनों को देखकर मैं खुश रहता था, उनका समान करता था उनका पोषण करता था और जो इस पर्याय का अपकार करने वाले, द्रव्यादिक को नष्ट करने वाले लोग थे उनको मैं अपनी कल्पना से चारित्रमोह के कारण बैरी मानता रहा । अब जिस पर्याय के पीछे मैं लोगों को बंधु और दुश्मन मानता रहा, जब यह पर्याय ही नष्ट होने वाली है तो अब मैं किससे मित्रता शत्रुता करूं । यहाँ कौन मुझ को जानता है । इन लोगों को चाम दिखता है यह चाम पौद्गलिक है ।
सल्लेखना के समय व्रती श्रावक का क्षमापण―सल्लेखना व्रतधारी श्रावक वस्तुस्वरूप सहित चिंतन कर रहा है । अब सबसे क्षमा करना कराना यह ही उचित है ताकि अंतिम विकल्प भी समाप्त हो और अपने आत्मा की आराधना में लग जाऊं । सो जिन लोगों के प्रति कुछ बुरा सोचा था जो अपने अभिमान के कारण ही बिना कारण ही बैर करने वाले थे उन सभी को बुलाकर नम्र होकर क्षमा ग्रहण कराता है, मेरी जो भूलचूक हुई हो उसे आप क्षमा करें । आप तो सज्जन पुरुष हैं, मैं अज्ञ रहा, जो किसी प्रकार का कटु व्यवहार बन गया उस अपराध को क्षमा करें । देखिये जैसे जीवन में किसीने अपराध भी कर लिया, कुछ गलती भी कर लिया तो भी उसको ऐसा अभिमान रहता है कि मैं क्यों क्षमा माँगू । जीवन में प्राय: ऐसा चलता है, पर मरण के समय में नम्रता आ जाती है और वहाँ यह ऐंठ नहीं रहती कि मैं क्यों क्षमा मांगू? उन दोनों स्थितियों में फर्क है । जीवन में तो यह बात है कि मुझे आगे भी रहना है, जीवन तो चल ही रहा है । मरण में यह बात है कि कुछ समय बाद मेरा मरण हो ही रहा है फिर मैं किसके लिए ऐंठ बगराऊं? यों अंत समय में उसके परिणाम कोमल हो जाते हैं, सो जिसके प्रति कुछ भी कटु व्यवहार रहा या जिसने अपनी ही भूल से अभिमान के कारण मुझ से बैर माना उन सभी से यह क्षमा याचना करता है, आप मुझे क्षमा का दान कीजिए । यह श्रावक यदि किसी का कुछ धन धरती आदिक दबा लिया हो तो उसको बड़े प्रेम से विनय से कह कर वापिस कर देता है । मरण समय में यह भावना बन ही जाती है कि मैं मर ही रहा हूँ, धरा धन अमुक का कपट से कुछ अधिक लिया है तो यह मेरे क्या काम आने का है । मैं तो इस भव को छोड़कर जा ही रहा हूँ, उसके परिणामों में उदारता आ ही जाती है और जिसका जो कुछ धन आदिक कुछ हड़प कर लिया हो वह उसे पूरा वापिस कर देता है । मैंने दुष्टता से या छल से आपका इतना धन हड़प लिया था सो आप मुझे क्षमा करें और यह द्रव्य आप अपना लीजिए । मैंने उस समय कषाय में आकर दुराचार किया । मैं अंतरंग में पश्चात्ताप करता हूँ ।
मरणकाल में कुछ भी विवेक होने पर परिणाम विशुद्धि की प्रधारा―मरण समय में कितनी ही बातें ऐसी होती हैं जिनसे परिणामों में उज्ज्वलता और निर्मलता आती है । कोई मनुष्य साल दो साल के लिए भी विदेश जाता है तो जिनके साथ कुछ अनुचित व्यवहार बने या गाली गलौच की बात बने तो उनसे भी क्षमा मांग ली जाती है । अब यह तो इस शरीर से सदा के लिए विदा हो रहा है और आगे का कुछ भरोसा नहीं कि मिलाप हो । भरोसा क्या, होगा ही नहीं मिलाप । और यदि मिलाप होगा तो दूसरे भेष में होगा । पता ही न रहेगा कि हमारा और इसका कुछ संबंध था । तो ऐसे अवसर पर नम्रता आती है । और जिसका धन हरा हो उसका धन वापिस करता, बड़े विनय से प्रेम से वचन बोलता, क्षमायाचना करता । यह काम करके वह अब निर्विकल्प रहना चाह रहा है । किसी के प्रति कटुक व्यवहार कर लेना एक शल्य होता है । चाहे उस खोटी बात का दूसरे को पता नहीं मगर खुद को तो पता है जिसने खोटा भाव किया, चाहे वचन से और काय से कोई दुर्व्यवहार नहीं बना और किसीने नहीं जान पाया तो भी कुछ अपराध हुआ कि जो मन का मन में ही रह गया तो भी यह अपने मन की शल्य दूर करने के लिए दूसरे से अपना अपराध कहता है―मुझ से ऐसी गलती हुई है । आप बड़े सज्जन पुरुष हो, मेरे को क्षमा करो । ये सब क्रियायें क्यों करता है समाधिमरण वाला, ताकि कोई शल्य न रहे और बड़ी समाधि के साथ, समता के साथ इस देह का त्याग कर जाऊं ।
मरणकाल में हुई आत्मदृष्टिधारा का प्रताप―मरण समय में यदि आत्मदर्शन की धारा बन जायगी तो यह अगले जीवनभर काम देगा । जैसी दृष्टि लेकर जायगा वैसी ही दृष्टि में जमे रहकर शरीर को ग्रहण करेगा तो ऐसा ही योग बनेगा कि उसकी पात्रता रहेगी जीवन में । सो यह व्रतीश्रावक सल्लेखना काल में अपने आपको स्वच्छ बनाकर जा रहा है । हमने बचपन में एक ऐसा खेल खेला था कि जैसे खिरनी पड़े की दो डाली ली, वे अंदर पोली होती हैं, उनको चाकू से कलम की तरह बना लिया और फिर उन दोनों डंडों को चिपका लिया । ऊपर से कुछ मिट्टी लगा दिया । अब उसका एक डंडा घड़े में भरे हुए पानी में डाल दिया । पानी अभी नहीं निकल रहा, मगर एक बार बाहर निकले हुए डंडे को मुख से जरा चूस ले तो उससे पानी निकलना शुरु हो जाता है । धीरे-धीरे सारा घड़ा खाली हो जाता है । तो थोड़ीसी प्रक्रिया कर दी कोई पाव सेकेंड में फिर उसके बाद आगे कोई प्रक्रिया होती रहती है । तो ऐसे ही समझो कि मरणकाल में कितना सा समय है जिस समय जीव इस शरीर को छोड़कर जा रहा । सेकेंड का 100 वां हिस्सा भी न होगा उस समय में चूँकि आत्मा तो आत्मा ही है, ज्ञानस्वरूप है । यह ज्ञानस्वरूप आत्मा अपने सहज ज्ञानस्वभाव की दृष्टि करता हुआ निकले यह कितने बड़े ऊंचे भवितव्य की बात है ।
मरणकाल में बाह्य पदार्थों से उपेक्षा होने की प्राकृतिकता―जिसको छोड़कर जा रहे उससे क्या मतलब है? जिनके बीच रह रहे थे उनसे क्या मतलब है? एक कोई अफसर भी जब उसका तबादला होता है तो जिस स्थान की छोड़कर जा रहा उस स्थान से विरक्त हो जाता । जब वहाँ से जा रहा तो अब यह आशा तो न रही कि इनसे अब कुछ मुझे पैसा मिलेगा । उसको एक सहज विरक्ति हो जाती है, वह है एक लौकिक ढंग की विरक्ति पर वहाँ चित्त नहीं रहता, वह जहाँ जाना है वहाँ उसका चित्त लग जाता है । चाहे अभी उस जगह पहुंचा नहीं मगर दिल की उमंग वह सब उस दूसरे क्षेत्र के लिए हो जाती है । तो ऐसे ही मरणकाल में सब कुछ छोड़कर जा रहा है न तो इस क्षेत्र से मोह रहता, न कुटुंबीजनों से मोह रहता, न यश कीर्ति आदिक किसी बात में व्यामोह रहता । जिसके कुछ विवेक है उसकी यह चर्चा चल रही है । भैया मरण समय सबके विरक्ति की बात कहां होती? प्राय: प्राणी तो मरण, समय बहुत वेदना, मोह, मुग्धता रखते जैसे―मैंने इतना परिश्रम करके लोगों को आँखों में धूल डालकर इतना वैभव इकट्ठा कर डाला है, अब यह छूटा जा रहा है मुझ से, ऐसा चिंतन कर प्राय: प्राणियों को बड़ा कष्ट होता है । मैंने कैसा पढ़ा लिखा कर योग्य बनाकर बच्चों को विनयशील, आज्ञाकारी बना दिया । अब इनको छोड़ कर जा रहा हूँ... तो उसको बड़ा कष्ट होता है, मगर ये सब बेवकूफी भरी बातें है । जीवन में ही बड़ा सम्हलकर रहना था वहाँ भी गलती की । अब मरण समय में इतना व्यामोह किया जा रहा है तो यह बहुत बड़ी गल्ती है । फल इसका खोटा है, अनर्थक्रियाकारी है ।
सल्लेखनाधारक श्रावक का परिजनों को संबोधन―यह श्रावक क्षमायाचना करते समय कह रहा है कि मैंने आपको बड़ा दुःख उपजाया । अपराध किया, सो जो मुझ से बन गया वह तो अब उल्टा आता नहीं वापिस । अब मैं क्या करूं? आप मुझे क्षमा करें, इसके सिवाय और मैं क्या कर सकता हूँ । आप मुझे सरलभाव से क्षमा कीजियेगा । यों तो जिनसे बैर विरोध है या जिन्होंने मान रखा है उनकी बात कर रहा है । यह भी सोचता है कि ऐसी क्षमा याचना, यह परस्पर का सद्व्यवहार मुझे जीवन में ही कर लेना था, पर इतने दिन तक कटुकता रही, मनमुटाव रहा, यह भी खोटी ही बात रही लेकिन जो बन गया गुजर गया उसका अब क्या किया जाय? अब तो यह ही उपाय है कि नम्र वचनों से क्षमा याचना करें कि दूसरे के चित्त में भी शल्य न रहे, मैं भी नि:शल्य होऊं । अब स्नेही जनों से वार्ता करते हैं, कुटुंब मित्र आदिक जिन जिनसे स्नेह किया उनसे कहता है यह सल्लेखना व्रतधारी कि तुम हमारे संबंधी हो, स्नेही हो, यह सब लोक व्यवहार में चला आया था, परंतु आत्मा-आत्मा का स्नेही नहीं है, यह सब पर्याय के संबंध की ही बात रही । जो इस देह के पैदा करने वाले हैं वे तो मातापिता कहलाये और जो देह उत्पन्न हुआ है वह पुत्र कहलाया, जो इस देह को रमाने वाली है वह स्त्री कहलायी । सारे व्यवहार जितने स्नेह संबंधी हैं वे सब देह के नाते से चले, आत्मा के नाते से नहीं चले । हां त्यागी के समुदाय में देह के नाते से व्यवहार नहीं चलता, वहाँ तो आत्मा के नाते से व्यवहार चलता, पर गृहस्थी में, कुटुंब में रहने वाला तो देह के नाते से ही सारे व्यवहार रखता है । सो उन स्नेही कुटुंबीजनों से कह रहा है किं हमारा तुम्हारा जो संबंध व्यवहार था वह इस पर्याय के संबंध से था सो इस विनाशीक पर्याय का इतने वर्ष तक आप से संबंध रहा । यह पर्याय तो आयु के अधीन है । आयु का क्षय होते ही नियम से यह शरीर विनशता है । सो अब इस विनाशीक पर्याय से क्या स्नेह करना? तुम इस विनाशीक पर्याय से स्नेह मत करो । तुम्हारा स्नेह छूटेगा तो मुझे भी निर्मोह रहने में मदद मिलेगी ।
स्नेह व शोक दोनों ही न करने का परिजनों का संबोधन―बारबार कुटुंबीजन सामने आकर रोवें कि तुम जा रहे हो, हम अब क्या करेंगे? यों बड़े-बड़े शब्द कहें, चिल्लायें तो कुछ तो बाधा होगी ही, सो भली प्रकार समझा रहा यह सल्लेखना व्रत वाला कि हमारा तुम्हारा पर्याय से ही तो संबंध था, जितनी देर आयु रही उतनी देर यह पर्याय रही, अब आयु का अंतकाल है, पर्याय भी बिनसेगी, इस विनाशीक पर्याय से तुम स्नेह मत रखो । रही यह मेरे आत्मा की बात सो प्रथम तो आत्मा से कौन स्नेह करता? थोड़ा बहुत यदि यह भी चित्त में हो कुटुंबीजनों के कि मैं तो तुम्हारे आत्मा से स्नेह रखता हूँ तो मेरे आत्मा का कुछ बिगाड़ तो नहीं हो रहा है । आत्मा अमर है, सत् है, इसका कभी नाश नहीं होता इसलिए भी तुम्हें कोई कष्ट न मानना चाहिए । मैं आत्मा अमर हूँ । यह विनशता नहीं है, देह विनशता है इससे स्नेह क्या करना? मैं आत्मा अमर हूँ । जहाँ जाऊंगा, रहूंगा, अपने ही परिणमन से परिणमता हूँ । ऐसे ही तुम भी अपनी परिणति से परिणमते हो । तो आत्मा का क्या स्नेह करना? करना तो वह धर्म धारा पूर्वक ही तो होगा, वहाँ स्नेह छोड़ ही देना चाहिए । सो हे कुटुंबीजन, मित्रजन अब इस विनाशीक पर्याय से स्नेह करना व्यर्थ है । जिस देह से तुम स्नेह कर रहे थे वह देह तो अब अग्नि में भस्म हो जायगा, बिखर जायगा । जिसका संयोग हुआ है उसका वियोग होता ही है, और मेरे आत्मा का जो स्वरूप है वह ज्ञानानंदमय है, अविनाशी है, मानो यह आत्मा भी जा रहा तो यह तो संसार की पद्धति है कि जिसका संयोग हुआ है उसका वियोग नियम से होता है । ये जड़ पिंड पुद्गल मिल गए, ये मायारूप हैं तो ये बिखरते भी हैं । अब इस पर्याय को विनाशीक जानकर इस पुद्गल से, इस देह से स्नेह छोड़ो और यदि हो सके तो मेरे आत्मा के उपयोग करने में उद्यमी होइये, निर्मोहता की चर्चा करिये, आत्मा के स्वरूप की वार्ता करिये । अन्य बात करना व्यर्थ है । ये स्नेह वाले वचन योग्य नहीं हैं, जैसे मेरे ज्ञानदर्शन स्वभावी आत्मा का रागद्वेष भावों से घात न हो ऐसा यत्न करिये । जो कुटुंबीजन मरणहार व्यक्ति से मोह ममता की बात करते हैं तो मानो जीवनभर भी उसे रगड़ा और मरते समय भी उसे रगड़ रहे कि तुम जावो दुर्गति में । तो कुटुंबीजनों का भी यह काम होता है कि वे इस पर्याय से स्नेह छोड़ें और जिसमें इस भगवान आत्मा का घात न हो ऐसा ही पौरुष करें ।
दर्शनज्ञान सामान्यात्मक भगवान आत्मा की दृष्टि होने में मददगार वातावरण देने का परिजनों को संबोधन―सल्लेखना व्रत ग्रहण करने वाला यही व्रती श्रावक अपने घर के कुटुंबियों से कह रहा है कि जो यह देह है, जिसको हम आप लोग देखकर व्यवहार करते हैं यह तो विनाशीक है, पर्यायमात्र से ही आप लोगों का संबंध था, अब यह नष्ट होने वाली है, इसका स्नेह छोड़ें और जो मैं आत्मा हूँ वह अदृश्य हूँ, उससे कोई व्यवहार करता ही नहीं सो मैं अमर हूँ, इस कारण कुछ सोच भी नहीं करता और जैसे ही मेरे दर्शन ज्ञानादिक की उज्ज्वलता बने वैसा ही आप लोग व्यवहार रखें जिससे कि भविष्य में शांत सुखी रह सकूँ । यह पर्याय तो अनंत बार ग्रहण की है और छोड़ी है, पर मेरा दर्शन, ज्ञान, चारित्र उल्टा होने से चारों गतियों में मैंने भ्रमण किया और उस ही भ्रमण के सिलसिले में आज मनुष्यपर्याय पायी, सो कहां तो मेरा सर्वज्ञातास्वरूप, जिस ज्ञान का ऐसा सामर्थ्य कि त्रिलोक त्रिकालवर्ती समस्त पदार्थ ज्ञान में झलके, परमआनंदमयस्वरूप और कहां आज ऐसी दशा बन रही है । जब निगोद में थे, एकेंद्रिय पर्याय में थे तो अक्षर के अनंतवें भाग ज्ञान रहा और कर्मोदयवश उसके परिपूर्ण ज्ञानदर्शन ये सब कुछ बिगड़ गए, नष्ट हो गए, कितने ही बार पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति हुए, कीड़ा मकोड़ा विकलत्रय हुए । यह सब मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, मिथ्याचारित्र का प्रभाव है । यदि इस मरण महोत्सव के समय भी न चेत पाये, कुमरण हुआ तो जैसी दुर्गतियों में अब तक घूमते आये वैसा ही घूमना पड़ेगा । सो हे कुटुंबीजन मुझ पर कृपा कर स्नेह मत लावो, शोक भी मत लावो और इतने समय तक जो संबंध रहा, जो मुझ से सेवा बनी उस सेवा के फल में मैं चाहता हूँ कि मेरा मरण सुमरण हो । अपने कारणसमयसार भगवंत निजपरमात्मद्रव्य की सुध लिए हुए मैं इस शरीर को छोड़कर जाऊंगा, तो निकट काल में ही कर्मकलंक हट जायेंगे, निर्वाण मिलेगा । सो एक यह अवसर मिला है, ज्ञानावरण का क्षयोपशम मिला है, जैन शासन प्राप्त किया है, स्वपर भेदविज्ञान भी हुआ है, तो इतनी विशेषता पा लेने पर मुझे और प्रगति करने दीजिए । हे कुटुंबीजन अब मुझ से स्नेह करें तो ऐसा करें कि मेरा आत्मा रागद्वेषरहित हो जाय । दर्शन, ज्ञान, चारित्र तप इन चार की आराधना सहित होवे तो इस ही में आपका सच्चा स्नेह है । बारबार मैं मरूं, जन्मूँ ऐसी व्याथा मेरी कट जाय और इसका पूर्ण वातावरण आप से मिले तो यह आपका बड़ा स्नेह कहलायगा । बालबाल मरण तो अनंत बार हुआ अज्ञान अवस्था में, पर अब तक पंडित मरण नहीं प्राप्त किया । बालपंडित मरण नहीं पाया, सो हे सज्जनों, ऐसे ही वचन सुनाओ, ऐसी ही धर्मचर्चा करो और जो-जो समय पर उपयुक्त हो वह व्यवहार करो ताकि मेरे दर्शन, ज्ञान, चारित्र की आराधना बनी रहे । समाधिमरण एक ऐसा उच्च पवित्र कार्य है कि जिसके प्रताप से यह जीव संसारसमुद्र में फिर नहीं डूबता । सो स्नेह, शोक, बैर आदिक छोड़कर मुझ से सद्व्यवहार करो और मैं भी सबसे स्नेह बैर आदिक छोड़ रहा हूँ और समस्त परिग्रहों को भी छोड़ रहा हूँ । किसी भी परिग्रह से मुझे लगाव नहीं । मैं अपने शुद्ध अंतस्तत्त्व की दृष्टि में ही लगूं, यह ही मेरी भावना है । यह व्रती श्रावक समाधिमरण के अवसर पर और क्या करता है सो बतला रहे है ।