वर्णीजी-प्रवचन:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 125
From जैनकोष
आलोच्य सर्वमेन: कृतकारितमनुमतं च निर्व्याजम् ।
आरोपयेन्महाव्रतमामरणस्थायि निश्शेषम् ।।125।।
कृत-कारित-अनुमोदित, सब पाप आलोचना कर निश्छल ।
मरण पर्यंत समस्त महाव्रत आरोपै स्थिर हो ।
सल्लेखनाधारी का गुरु से अपने कृत कारित अनुमत पापों का प्रकाशन व निवेदन―जो जीवन में पाप किया अथवा कराया अथवा पाप करते हुए की अनुमोदना की उन समस्त पापों का आलोचना प्रकाशन करके मरणपर्यंत अथवा कहो आजीवन महाव्रत का आरोपण करे जिसमें सर्व परिग्रहों का त्याग बने । यह व्रती श्रावक गुरुजनों से कपट रहित अपने पाप की आलोचना करता है । यदि मरण समय पाप की सही आलोचना नहीं कर पाता तो इसके मायने यह है कि उसको इस देह से ममता है । कहीं लोग यह न जान जायें कि इसने ऐसा पाप किया । लोग कह देते हैं देह को, ज्ञानमात्र अमूर्त आत्मा को कोई लोग नहीं जानते । फिर लोगों का संकोच क्या? संकोच होता है तो उसके सामने यह है कि उसकी अभी देह में आत्मबुद्धि लगी है, और जहाँ देह में आत्मबुद्धि हो, पर्यायबुद्धि हो वहाँ मिथ्यात्व है । समाधिमरण कैसे हो? तो सन्यासमरण में प्रवृत्ति करने वाला यह व्रती श्रावक अपने सर्वपापों को निष्कपट ज्यों के त्यों गुरु से कहता है । यों सबसे पापों को प्रकट करने में इसका तो कोई बिगाड़ नहीं है मगर धर्म तीर्थ बिगड़ जाता है, लोगों की श्रद्धा हट जायगी । इस धर्म के मानने वाले ऐसे-ऐसे पाप करते हैं सो गुरुजनों से वह अपने पाप की आलोचना करता है । सबसे आलोचना करना बताया इसमें भी इस ज्ञानी को संकोच नहीं है, क्योंकि देह से निराले ज्ञानमात्र अमूर्त आत्मा की इसकी दृष्टि है । इसकी निंदा क्या? देह को देखकर लोग सोचते हैं कि यह व्यक्ति है, तो निंदा है सो देह की । सो पौद्गलिक की निंदा से किसको नुकसान? जो मैं अमूर्त आत्मा हूँ उसको कोई जानता ही नहीं, निंदा कोई क्या करेगा? और कोई जान जाय तो वह निंदा का विषय नहीं रहता । सो इस ज्ञानी को मरणकाल में अपने पापों को कहने में रंच भी संकोच नहीं है फिर भी धर्म प्रेम के कारण, शास्त्राज्ञा के कारण वह यहाँ वहाँ पापों का प्रकाशन नहीं करता फिरता, धर्मतीर्थ की रक्षा करता है और अपने गुरुजनों से आलोचना करता है ।
सल्लेखनाधारी का गुणरूप निश्छल स्वापराध का निवेदन―जैसे बालक अपने पाप की आलोचना का करने में रंच भी संकोच नहीं करते । जो किया हो उसे मुख से कह देंगे क्योंकि वे सरल हृदय होते हैं, और जो सरल होता है उसमें धर्म की वासना होती है । कपटी में, मायाचारी पुरुषो में धर्म की बात नहीं टिक सकती । इसीलिए विवेकीजनों को, त्यागियों को, साधुवों को बताया है कि वे बालकों की तरह सरल और निर्विकार होते हैं । बालकों की सरलता की एक घटना सुनिये―कोई बाबूजी किसी सेठ के कर्जदार थे । एक दिन बाबूजी ने देखा कि सेठ आ रहा है तगादे के लिए तो झट अपने बेटे से कह दिया कि देखो बेटे वह सेठ आ रहा है । तुम जावो बाहर चबूतरे पर खेलो, जब वह द्वार पर आवे और पूछे कि तुम्हारे बाबूजी कहां है । तो कह देना कि वह घर पर नहीं हैं, बस लड़का द्वार पर पहुंच कर खेलने लगा । सेठ ने आकर पूछा उस लड़के से कि तुम्हारे बाबूजी कहां हैं? तो लड़के ने वही उत्तर दिया जो उसके पिता ने सिखा दिया था―बाबूजी घर पर नहीं है । फिर पूछा कहा-कहा गए? तो वह लड़का बोला―ठहरो यह भी हम बाबूजी से पूछकर बताते हैं? तो इतने सरल होते हैं बालक लोग । बालकों को खेलते हुए देखकर लोग बोलते कि बचपन बड़ा अच्छा होता है, पर खुद भी तो कभी बालक थे, तब की याद करें तो लगेगा कि बचपन बहुत अच्छा होता है । पढ़ना, लिखना, खेलना, किसी बात की चिंता नहीं, पर ज्यों-ज्यों आयु बढ़ती गई त्यों-त्यों विकार बढ़ते गए । ज्यों-ज्यों विकार बढ़ते गए त्यों-त्यों परेशानी बढ़ती गई । तो ये व्रती श्रावक गुरुजनों से अपनी कृतकारित अनुमोदित समस्त पापों का निवेदन करता है और जो प्रायश्चित प्रतिक्रमण दें उनको ग्रहण करता है ।
व्रती श्रावक की महाव्रत सहित सल्लेखना की भावना―यह व्रती श्रावक यदि समागम योग्य समझे तो वह महाव्रत धारण करता है । कैसा समागम चाहिए कि जिससे महाव्रत धारण करना सफल हो? वीतराग निर्दोष गुरुवों का संग मिले याने जो समता प्रिय हैं जिनका किसी जीव पर रागविरोध नहीं है । जो संसार, शरीर, भोगों से विरक्त है, सहज आत्मस्वरूप की धुन में ही रहा करते हैं ऐसे गुरुवों का संयोग प्राप्त हो । दूसरी बात―परीषह आदिक सहन करने में समर्थ हों । चौथी बात―स्वयं में धीरता, गंभीरता रह सके, ऐसा अपना विचार हो, ऐसा अभ्यास हो, ये सारी बातें निजसहज परमात्मद्रव्य की आराधना के प्रताप से सहज और सुगम हो जाती है । बताओ मोह छोड़ना कठिन है कि सरल? जिनको आत्मा की सुध की योग्यता ही नहीं उनके लिए कठिन है, कठिन ही क्या, उस काल असंभव है, और जिन्होंने अपने सहजस्वरूप का अनुभव किया, निर्णय किया कि यह मैं आत्मतत्त्व हूँ तो उनके लिए सुगम है, सरल है, सहज है । मोहरहित होना यह तो सरल काम है, पर मोह रागद्वेष न करना यह कठिन काम है । निर्मोह होना कितना सरल है कि उसमें किसी बाहरी पदार्थ की अपेक्षा नहीं, किसी की आशा नहीं, स्वयं स्वाधीन है, और रागद्वेषादिक का करना कठिन क्यों है कि इसमें पर की अपेक्षा है, दूसरे भी इसमें खुश रहें, दूसरों की भी कृपा रहे, कर्म का उदय अनुकूल हो, यों उसमें कितनी ही अपेक्षायें चाहिए, तब यह जीव रागद्वेष कर सकता है । इतना सरल सुगम कार्य है निर्मोह होना और आत्मतत्त्व में लीन होना, पर जिनका ध्येय बन गया आत्मस्वरूप के दर्शन का उनके लिए सब सुगम है, और जिनके अज्ञान है, बाह्य विषयों में जिनके आसक्ति है उनके लिए यह कल्याण का मार्ग कठिन है । ये व्रती श्रावक सल्लेखना के समय ध्यान धर रहा है, महाव्रत धारण करने के लिए चिंतन कर रहा है कि मेरे को निर्दोष गुरु का संयोग हो, मेरे रागादिक कषाय घट जायें, परीषह आदिक सहन करने की सामर्थ्य हो, धीरता गंभीरता आदिक गुण प्रकट हों, साथ ही निर्ग्रंथ वीतराग गुरु मेरा निर्वाह करने को समर्थ हों । देश काल का शुद्ध सुयोग हो ताकि मैं महाव्रत धारण करूं । वह देखता है कि यदि योग्य समागम है तो वह महाव्रत धारण करता है और यदि योग्य समागम न पाया तो भी परिग्रहों का त्यागकर अपने आत्मप्रभु का ध्यान धरकर, अपने स्वरूप का ध्यान रखकर अरहंत के स्मरण सहित आलोचना करता और अपनी शक्तिमाफिक परिग्रह का त्यागकर, पंचपाप का त्यागकर घर में ही रहते हुए महाव्रती तुल्य साधना करता है ।
सल्लेखना में विवेकी का व्याधियों के प्रसंग में भी कायरता छोड़कर धीर वीर रहना―मरण काल एक कठिन काल है । शारीरिक वेदनायें रोगादिक बढ़ जाते हैं, कफ बढ़ गया, खासी हो गई, बुखार बढ़ा है, यों कितने ही रोग इस मरणकाल में आते हैं, पर एक बात विलक्षण है कि जब मरणकाल अत्यंत निकट हो जाता है, जिसे कहते हैं कि यह तो बस दो चार मिनट का ही महिमान है तो उस समय पता नहीं ये सब रोग कहां चले जाते? वह वेदना नहीं रहती । बहुतों को देखा होगा मरण समय में कि बड़े कठिन रोग से ग्रस्त है और उन अंतिम दो चार मिनटों में रोग उनके नहीं रहता । तो यह भी एक अच्छा अवसर सा है, और फिर यह ज्ञानी पुरुष इतना ज्ञानबली है कि रोगादिक वेदनायें भी आती हैं तो कायरता छोड़कर बड़े धैर्य से उन सबको समतापूर्वक सहता है । जहाँ भेद-विज्ञान प्रबल है और अपने आत्मस्वरूप की ओर अभिमुखता है वहाँ वेदनायें सहलेना बहुत आसान होता है । यहाँ भी तो देखा जाता है कि करीब-करीब एकसी ही बीमारी तो है 10 व्यक्तियों को, उनमें एक व्यक्ति तो चिल्लाता है बुरी तरह, कोई मामूली कराहता है कोई शांत पड़ा रहता है, वेदनायें करीब एक सी ही हैं, रोग एक सा है, ऐसा भी यहाँ अंतर देखा जाता है, वह अंतर किसने कर दिया? उन आत्मावों के स्वयं के ज्ञान ने अंतर कर दिया, देह में ही दृष्टि जिसकी बनी है, देह को ही जो आत्मस्वरूप मानता है उसकी वेदनायें अधिक हैं और देह से निराला अपनी अमूर्त चेतना को आत्मारूप मानता है उसे वेदनायें कम हैं अथवा नहीं हैं । जैसे यहाँ कोई किसी दूसरे के लड़के को सताये या कुछ भी दूसरे का नुकसान होता हो तो उसे देखकर भीतर में विह्वलता न हो । भले ही थोड़ा कुछ संबंध से कुछ सज्जनता के नाते से थोड़ा सोचते हैं, खेद करते हैं मगर आंतरिक विह्वलता तो नहीं होती, वह जानता है कि जो हो रहा वह दूसरे का हो रहा, तो ऐसे ही यहाँ की बात समझिये । शरीर में कोई रोगादिक बने, व्याधियां बढ़ें तो वह देखता है कि यह दूसरे का हो रहा है देह में ऐसा परिणमन हो रहा है । जिसने अपने को अत्यंत निराला अनुभव कर लिया उसको ये वेदनायें नहीं सताती । तो कायरपना छोड़कर यह ज्ञानी पुरुष सल्लेखना के काल में बड़ी-बड़ी व्याधियों को धैर्यपूर्वक सहता है ।
आई हुई व्याधि वेदना उपसर्ग आदि में भी सल्लेखनाधारी के आत्मप्रसन्नता―भले ही कुछ थोड़ी वेदना है, मगर न यह कराहता है, न लोगों को अपने शब्दों से प्रकट करता है कि मेरे को इतनी कठिन वेदना है । क्योंकि स्वयं ही उसमें इतना ज्ञानबल हुआ है कि प्रकट करने के लायक उसके पास राग नहीं है । यह भी समझता है विवेकी कि पूर्व कर्म खुदने ही तो कमाया है, उनका उदयकाल आ रहा है तो यह तो मेरे लिए भली बात है । मैं तो इन कर्मों के कर्जे से आज मुक्त हो रहा हूँ । किसी को यदि दुःखं होता है तो वह पापकर्म के निकलने से होता है किसी को यदि संपदा सुख सामग्री मिलती है तो वह पुण्यकर्म के निकलने से मिलती है । कहने का रिवाज ऐसा है कि इसके बड़ा पाप का उदय है जो इतना कष्ट पा रहा इसके बहुत पुण्य है जो इसको सुख संपदायें प्राप्त हो रही हैं, पर वास्तविकता क्या है? उसे यों कना चाहिये कि इसके पापकर्म निकल रहे है अब या जिनको सुख संपदा मिली है उनका पुण्य कर्म अब निकल रहा है । निकलना और उदय होना दोनों का एक ही अर्थ है । जैसे सूर्य का उदय होना और सूर्य का निकलना इन दोनों का मतलब एक है । ऐसे ही कर्म का उदय होना और कर्म का निकलना इन दीनों का भी मतलब एक है । होता यह है कि पुण्यकर्म का भंडार बहुत पड़ा हुआ है सो कुछ निकला, बाद में और निकला, बस निकलने की धारा बनी रहती है कुछ काल तक सो वह वैभव कुछ काल तक टिका हुआ दिखता है, ऐसे ही पापकर्म का भी भंडार पड़ा है सो अमुक पाप निकला जिससे कष्ट हो रहा, तो पाप के निकलने की धारा बनी हुई हैं, सो उसका कष्ट देर तक रहा करता है । तो यदि कोई विपदा आये, रोग आये तो यह तो भला है कि जो पापकर्म कमाया था वे पापकर्म अब मुझ से निकलकर विदा हो रहे । कर्तव्य यह है कि उस काल में उन विपदावों में घबड़ाये नहीं, और यह ज्ञान बनाये रहें कि मेरे पर क्या विपदा है? वह बाह्य पदार्थों का परिणमन है, हो रहा है । देह का अमुक परिणमन है जो भी हो रहा है, मेरे में कहां विपदा है? अमूर्त ज्ञानमात्र आत्मा में कहां से विपदा आ सकती? ऐसा अपने को निरापद निरखें, वेदनायें समता से फिर सुगमतया सहली जाती है । सल्लेखना का अर्थ ही यह है कि विषयकषाय के भावों को भले प्रकार कृश कर देना और अपने को विषयरहित कषायरहित ज्ञाताद्रष्टामात्र निरखना । जो इस चैतन्यभाव रूप अमृत का पान करता है वह अमर ही है । उसका मरण कहां है? सल्लेखना व्रत के समय यह व्रती श्रावक अपने ज्ञानबल द्वारा समस्त आकुलताओं को दूर कर देता है ।
सल्लेखना धारण करने वाले का अपनी निःशल्यता के लिये सर्वव्यवस्था विभाजन की पूर्णता का प्रक्रम―सल्लेखना धारण करने वाला महाभाग पुरुष उससे पहले घर की ऐसी व्यवस्था बना देता है कि जिससे बीच में कभी कोई शल्य न आये । वह व्यवस्था किस तरह की है? जैसे किसीने कोई धन हर लिया हो छल से, झूठ से, जमीन, मकान, रत्न आदिक, तो पहले उसको बुलाकर अपने अपराध की क्षमा कराकर उनका धन, मकान, जमीन आदिक जो भी किसी प्रकार हर लिया है वह वापिस देता है, फिर जो कुछ धन आदिक परिग्रह है उसके विभाग कर देता है, लड़कों को देता हे, लड़की, बहिन, बुआ आदिक जो भी हैं उनको देता है, दीन दु:खी, अनाथ, विधवा या जो-जो भी इसके आश्रयभूत हैं उन्हें जो देना है सो देकर सब विभाग बनाकर, अपना उसमें कुछ भी न समझकर अपने लिए कुछ न रखकर समस्त परिग्रहों को त्यागकर सबमें ममता को छोड़ देता है । लोग जिनको कुछ देते है उनसे कुछ आशा रखते कि ये हम को भला मानें, अच्छा कहें, प्रशंसा करें, इस तरह कुछ उनसे अपेक्षा रखता है, पर ऐसी अपेक्षा सल्लेखना वाले के नहीं है । उसने तो विभाग किया सो अपने को नि:शल्य रखने के लिए और यह भी शल्य न रहे कि बाद में कोई झगड़ा उठे । किसी प्रकार की शल्य न रहे एतदर्थ यह सारा विभाग किया है, इसके पश्चात् सबमें ममता को छोड़ दिया, शरीर के संस्कार को भी त्यागा, देह की सेवा को भी त्यागा । अंत में केवल पंचपरमेष्ठियों का स्मरण और आत्मस्वरूप का स्मरण ये दो ही उसके आधार रहते हैं ।
प्रभुगुणस्मरण की भावना―पूजा करने वाला, दर्शन भक्ति करने वाला यह प्रार्थना करता है रोज जैसा कि भक्ति पाठ में लिखा है―
आबाल्याज्जिनदेव देव भवत: श्रीपादयो: सेवाया ।
सेवासक्तविनयेकल्पलतया कालोऽद्य यावद्गत: ।।
त्वां तस्या: फलमर्थये पद्धुना प्राणप्रयाणक्षणे ।
त्वन्नामप्रतिबद्धवर्णपठने कंठोऽस्त्वकुंठो मम ।।
हे प्रभु, बचपन से लेकर आपकी चरण सेवा में मैंने इतने वर्ष व्यतीत कर डाला, ऐसी आज तक जो मैन भक्ति सेवा आदिक किया है सो उसका फल मैं यह चाहता हूँ कि जब मेरे प्राण का प्रयाण हो, मरणकाल हो उस मरण के समय में आपके नाम के दो अक्षर हैं जिन अक्षरों के बोलने में मेरा कंठ न रुंध जाय, अर्थात् मैं आपके नाम के अक्षर बोलता हुआ और उसका चिंतन करता हुआ मरण करूं । केवल यही चाहते हैं जीवनभर प्रभु की भक्ति के फल में । यह तो बड़ा अज्ञान है जो किन्हीं लोगों के चित्त में आता है दर्शन करके, पूजा करके, यात्रा करके कि मेरा अमुक कार्य सिद्ध हो । पुत्रादिक की प्राप्ति हो, धन आदिक मिलें, कुछ भी वांछा रखकर धर्मकार्य करना अज्ञान में ही हुआ करता है । और यों समझिये कि इस प्रकार की इच्छा कर लेने से मेरा आने वाला पुण्य घट गया, लाभ न हुआ, तिस पर भी पूर्व पुण्य मानों महान था और धर्म के एवज में सांसारिक चीजें मांग ली तो मिलना बहुत था सो अब कम मिला । लेकिन यह अज्ञानी उस कम मिले को ही समझता कि मुझे भगवान ने दिया है । निर्वांछ होकर प्रभु की भक्ति करने से मन चाहा स्वयं मिलता है । पर धर्मधारण के एवज में चाहने से पुण्य घटता कुछ पापरस ही आता है । क्योंकि मूल में मिथ्यात्व पड़ा हुआ है । जहाँ मोह और मिथ्यात्व बसा हुआ है वहाँ सातिशय पुण्य की कोई आशा रखे तो वह व्यर्थ है।
सर्व परिजन संपदा में ममत्व त्यागकर निजदर्शन ज्ञानस्वभाव में उपयुक्त होने की भावना―सल्लेखना व्रतधारी आत्मा कुटुंबीजन, मित्रजन, चेतन अचेतन समस्त परिग्रहों से ममता को त्याग देता है । वह जान रहा कि अब यह मरणकाल है । इस पर्याय का संबंध कितने समय का है और फिर इन बाह्य वस्तुवों से देह का ही तो नाता था, उसकी क्यों ममता हो? अथवा देह ही छूट रहा फिर ममता का अर्थ क्या? हमारे आत्मा का संबंध तो अपने स्वभावरूप सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र से है । यह ही मेरा निजी स्वरूप है, सो इसमें ही मेरा संबंध बढ़े और जो देह है, हाड़, मांस, मज्जा, खून आदिक से रचा है यह तो कृतघ्न है । इस देह की इतनी सेवायें की मगर यह तो रोग व्याधि कष्ट आदिक का उपजाने वाला बन रहा है । यह देह जड़ है, यह मेरा कुछ नहीं है, मैं इसका कुछ नहीं हूं । देह विनाशीक है, मैं अविनाशी हूँ, अत्यंत विलक्षणता तो है फिर संबंध किस बात का? जो अंत तक ममता रही आयी वह सब मेरे अज्ञान के कारण रही आयी और उस अज्ञान में ही अशुभ कर्म का बंध किया । अब तो मेरी यह ही अभिलाषा है कि यह देह मुझे कभी मिले ही नहीं । जैसा मैं अपने आपके सहज स्वरूप में हूँ विविक्त, सर्व से निराला ज्ञानमात्र ऐसा ही मैं सर्वप्रकार से हो जाऊं अन्य वांछा नहीं है क्योंकि देह से लाभ नहीं है । हानि ही है । इस देह की ममता से जन्ममरण की धारा बनती है । आत्मा को जो अनंतज्ञान अनंतदर्शन आदिक विकास है वह विकास रुक जाता है ।
समस्त दुःखों के मूल देह से ममत्व करने की व्यर्थता―जितने भी संसार में दुःख हैं वे सब इस देह के कारण ही है । जो मेरे दुःख का कारण हो उससे ममता किस बात की? आप कोई भी दु:ख का नाम लेते जाइये, क्या-क्या दुःख हैं । सबमें यह मिलता जायगा कि देह के संबंध से ही दुःख हैं, अन्यथा दुःख कुछ नहीं । किसी भी प्रकार के दु:ख का नाम लो―धन नहीं रहा, यश मिट गया, निंदा हो रही हो, कुटुंब का कोई गुजर गया हो, व्याधियां हुई हों, किसी प्रकार का भी दुःख हो, सबका आधार है देह का संबंध तो जिस देह के संयोग के कारण कष्ट उठाना पड़ रहा है उस देह से क्या ममता? और भी जितनी आपत्तियां आती हैं क्रोध, मान, माया, लोभ, कामवासना विकार आदि अनेक बातें जो भी विपत्तिरूप होती हैं उन सबका कारण है देह का संबंध । ऐसे देह से क्या राग रखना । सो उस देह से भी कुटुंबीजनों से भी ममता त्यागकर अब अपने निजस्वभाव में मग्न होता हूँ । सल्लेखना व्रतधारी का केवल एक ही काम है भीतर, इसी को कहते हैं अंत: क्रिया, (भीतरी काम) । यह सल्लेखना ग्रहण करने वाला व्रती श्रावक और क्या करता है सो बताते है ।