वर्णीजी-प्रवचन:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 126
From जैनकोष
शोकं भयमवसादं क्लेदं कालुष्यमरतिमपि हित्वा ।
सत्त्वोत्साहमुदीर्य च मन: प्रसाद्यं श्रुतैरमृतै: ।।126।।
शोक और भय विषाद स्नेह कलुषता अरतिभी तजकर।
सत्त्वोत्साह प्रगटकर, श्रुतअमृत से करै मनतुष्ट ।।
शोक विषाद त्यागकर प्रभुवचन श्रवण से आनंदरस का पान―सल्लेखना के अवसर पर शोक, भय, विषाद, स्नेह, कलुषता, अरति आदिक कुभावों को त्याग करके और अपने आपके बल को प्रकट करके उत्साह प्रकट करके अमृतमय जिनवाणी के वचनों के श्रवण से अपने मन को शांतचित्त करके आत्मा की साधना करें । शोक क्यों उत्पन्न होता? उस शोक का कारण है अज्ञान । मैं आत्मा एक हूं, इस आत्मा का द्वितीय कुछ भी नहीं है । इस मुझ में किसी पर का प्रवेश नहीं है । सर्व बाह्य-बाह्य बातें हैं, लेकिन अनादिकाल से इस जीव के बाह्य बातों में आत्मबुद्धि रही । जब जो पर्याय प्राप्त किया उस पर्याय में आत्मबुद्धि लगी है । देह को आत्मा माना । देह मिलने को जन्म माना, देह के वियोग को मरण माना । जब यह देखते हैं कि मेरा देह मिट रहा या धन, पुत्र, मित्र, स्त्री का वियोग हो रहा तो इसको बड़ा कष्ट उत्पन्न होता है ऐसा शोक अज्ञानी के होता, सम्यग्दृष्टि के शोक नहीं होता । एक वह भीतर में प्रकाश पाल लिया जाय जिस प्रकाश के पाने से सारे संकट एक साथ समाप्त हो जाते है । संकट क्या है? परपदार्थों के बारे में अपनी कल्पना इष्ट अनिष्ट बुद्धि बनाना, बस यह ही कष्ट है, दूसरा कोई कष्ट नहीं । बाहरी चीजें बाहर है वे सब अपने आप में पूरी हैं, उनसे कष्ट क्या निकलेगा? उनमें कष्ट भरा ही नहीं है । पर पदार्थों के विषय में ममता विकल्प इष्ट अनिष्ट भावना होना यह कष्ट है । और देखो सभी मनुष्य अपने-अपने में ख्याल बनाये हुए है कि यह मेरा घर है, यह मेरी स्त्री है, यह मेरा पुत्र है, यह मेरा सब कुछ है, और इनके लिए ही मेरा सब कुछ है, तन, मन, धन, वचन, प्राण । सब अपने-अपने चित्त में ऐसा एक अध्यवसान बनाये बैठे हुए हैं । बाकी सारी चीजें, दूसरे की सब बातें उसे गैर लगती, न कुछ लगती, मतलब नहीं । उन पदार्थों का बिगाड़ हो, नाश हो, कुछ भी हो, उससे हम में कुछ भी प्रभाव नहीं आता ।
ममता करने की कुबुद्धि में आत्मघात―जिनको अपना मान रखा है उनको ही अपना सर्वस्व मानने की आस्था है, तो कितनी बड़ी कुबुद्धि है, और कितनी बड़ी विपत्ति है । आज जिसको गैर माना जा रहा, मरकर उसी के लड़का बन गया तो अब वह अपना बन जायगा और पूर्वभव का जो सब कुछ है कोई घटना बनी वह गैर बन जायगा, दुश्मन हो जायगा । कैसा पागलपन है कि आज जिस पर्याय में आये हैं उस पर्याय के संबंधियों में तो ममता है बाकी सब जीवों में उपेक्षा बुद्धि है । ऐसी यदि आस्था है तो यह विपत्ति है, उन्मत्तता है, मदमत्तता है, अपने की सम्हालना चाहिए और कुटुंबीजनों से ममता हटे, मिथ्यात्व हटे और सब जीवों में इष्ट अनुराग जगे, मैत्रीभाव बने तो इसमें आत्मा की रक्षा है । और जो करते आये अनादि से उन्हीं दो चार जीवों में ममता बनाये रहे तो यह विपत्ति हैं, अधर्म है, पाप है । यह बात चित्त में अगर पूरी पड़ी हुई है तो भगवान की पूजा और विनती का अर्थ क्या रहा? जैसे कोई कहे कि पंचों की आज्ञा सिर माथे मगर पनाला यहीं निकलेगा, तो फिर सिर माथे का अर्थ क्या रहा? अपनी आदत में फर्क नहीं डालते, मोह में, ममत्व में, दूसरों से घृणा में, विरोध में, दो धारा बनाने में उसमें कुछ फर्क न डाला, भीतर में समझ भी न बनाया तो धर्म के नाम पर इतनी बड़ी बात करने का क्या अर्थ रहा? अर्थ इतना ही रहा कि जैसे अनेक शौक लगते हैं पुरुषों की ऐसे ही एक पूजन दर्शन का भी शौक लग गया इसका एक ही अर्थ रहा । यदि भीतर में कुछ अपने परिणाम सुधारना चाहते ही नहीं है न तत्त्वविचार चाहते है तो थोड़ा पुण्य बनेगा सांसारिक चीजें मिलेंगी, रुलना वही का वही बना रहेगा ।
जीवन में सद्भावना बनाये रहने से सल्लेखना की सुगमता―धर्मसाधना की बात करना चाहिए घर में रहकर जिंदगी में, मरते समय की आशा न बनावें कि मरते समय हम सब कुछ छोड़ देंगे, अभी तो बहुत जीवन पड़ा है, ये काम तो तब के करने के हैं, ऐसा मरण पर निर्भर न करें । अपने ही इस जीवन में यह तपश्चरण करें कि सर्वजीव एक समान है । घर में गुजारा करना है इसलिए उस गुजारे के नाते से सही व्यवस्था के हेतु राग करना होता है । व्यवस्था करना है प्रबंध करना है सो यह तो है गृहस्थधर्म में कर्तव्य मगर उनको ही अपना सर्वस्व मानकर वही-वही चित्त पर चढ़ा है, बाकी लोगों का कुछ महत्त्व नहीं आंका जाता है, यह है विपत्ति । शोक का कारण क्या है? मिथ्यात्व, अज्ञान, बाह्यपदार्थों में लगाव । जिसको अनिष्ट माना उसका संयोग होने पर यह शोक करता है, जिसको इष्ट माना उसका वियोग होने उपर यह शोक मानता है।
क्लेशमूल शरीर से प्रीति न करने में श्रेयोमार्ग का लाभ―हे आत्मन् ! पर्यायें तो अनंतानंत ग्रहण हुई है और छूटी हैं और पर्याय, यह देह क्लेशों का स्थान है । इस देह के कारण रोज-रोज ही दु:ख भोगना पड़ता है । भूख लगती, कुछ क्षुधा की वेदना रोज-रोज सहनी पड़ती । तो भले ही भोजन साधक है, खा लिया पेट भर गया, मगर खूब ठूँस लिया तो फिर पेटदर्द के मारे पड़ गए, आखिर इस देह को कष्ट ही कष्ट तो हुआ, शीत, उष्ण, प्यास, भय आदिक सभी के उत्पन्न होने का साधन यह देह है । जिस देह से तुझे इतनी तीव्र ममता हुई है सो तत्काल भी कष्ट पाया और अनंत ज्ञानादिक गुणों का विकास रुक गया, सो अपवित्रता भी पायी । यह देह समस्त पापों का उत्पन्न करने वाला है, और कुछ समय बाद लोगों के द्वारा जला दिया जायगा ऐसे इस देह को दु:खमूल निरखकर प्रीति करना तो छोड़ दो । पर्याय में आत्मबुद्धि होना कष्ट का कारण है । इस देह को तो दुष्ट संग की तरह छोड़ देना चाहिए । जैसे―दुष्ट का संग मिल जाय तो उसको छोड़ने की ही ठानते हैं ऐसे ही देह का संयोग मिला है, संग मिला है तो इससे सदा के लिए छुटकारा पाने की ही मन में ठानो । इस देह से सदा के लिए छुटकारा होने का उपाय अपने सहजस्वरूप को ही आत्मसर्वस्व मानना यह ही मात्र उपाय है । दुष्टों से कोई प्रीति करे तो वे तो बढ़ेंगे, आयेंगे, रहेंगे, ऐसे ही देह से जो प्रीति करे तो उसको तो देह आयेंगे, बारबार मिलते रहेंगे यह ही होगा इस देह की प्रीति में ।
पौद्गलिक पर्याय समागम में हर्ष विषाद कर सहजात्मस्वरूप की उपासना का कर्तव्य―गृहस्थजनों को सोचना चाहिए कि वे अपने वर्तमान साधन समागम में मौज न मानें । उन मौज का परिणाम अच्छा नहीं है । हो रहा है, व्यवस्था बनाइये, राग भी करना पड़ता तो करिये मगर ममत्व न रखिये । इस संसार समागम के मिलते रहने का उपाय न बनाइये । ध्यान रहना चाहिए अंत: अपने विविक्त स्वरूप का, सबसे निराला ज्ञानमात्र । मेरी जिम्मेदारी मेरे पर ही है, दूसरों पर नहीं है, दूसरे तो मैं अच्छा रहूं तो वे मेरे सुकार्यों में सहायक बन जाते हैं, मैं ही गड़बड़ होऊं, विह्वल होऊं, ममता करूं, अज्ञानी रहूं तो मैं ही अपने अपराध से दु:खी होता हूँ । इसमें दूसरे लोग क्या कर देंगे? इस व्रती श्रावक को सल्लेखना के समय में सर्व से ममता छूट जाती है । सबसे अधिक बंधन है दृश्यमल पदार्थों में तो शरीर का बंधन है । सो यह शरीर जान लिया गया कि समस्त दु:खों का बीज है, बड़े संताप और उद्वेगों को उत्पन्न करने वाला है । सदा ही भय को उत्पन्न करने वाला है । अमूर्त ज्ञानमात्र जैसा है वैसा ही रहे, वहां भय का क्या काम? अंतस्तत्त्व कैसे हो सकता? असंभव है, पर देह का संबंध है तो उससे भय उत्पन्न हो रहा । कुछ से कुछ विचारता । यह देह तो जेलखाना है, जैसे बैरी जेलखाने से नहीं निकल पा रहा, वहाँ रहता हुआ वह दुःखी हो रहा, ऐसे ही यह आत्मा इस देह जेलखाने से नहीं निकल पा रहा और यह भीतर रहता हुआ अनेक कल्पनाओं से दु:खी होता रहता है । इसका स्नेह क्या करना? इसका स्नेह तजकर, वियोग का शोक तजकर सहजात्मस्वरूप की उपासना करना ।
सल्लेखनाधारी का निर्भय होकर अध्यात्मसाधना का पौरुष―यहां भय किस बात का करना? जिसका भय लगा उससे ममता छूटे तो भय समाप्त । भय होना, शंका होना यह सम्यक्त्व का महादोष है । यदि भय शंका होने लगे तो वहाँ सम्यक्त्व नहीं रह सकता । सब कुछ निर्भर है अपने सहज आत्मस्वरूप के निर्णय पर । भय किस बात का? बाह्य पदार्थों का मुझमें प्रवेश नहीं । बाह्य पदार्थ मुझ में कुछ परिणति बना सकते नहीं । मैं अपने आप में अपनी योग्यता से अपने में परिणाम बनाता रहता हूँ । जब इसमें किसी दूसरी वस्तु का प्रवेश ही नहीं है तो भय का अवसर क्या? क्या भय आयगा? जो पुरुष अपने इस सहज आत्मस्वरूप को उपयोग में नहीं लेते और बाह्य पदार्थों से अपना राग ममत्व रखते हैं उन जीवों को भय रहता है । जैसे जीवन शोक में गुजारा ऐसे ही यह जीवन भय में भी गुजरा । आत्मस्वरूप की सम्हाल किए बिना सबसे इसने भय माना, परिजनों से, मित्रों से, सरकारी लोगों से, शत्रुवों से, चोरों से सबसे इसने भय माना और एक अंतस्तत्त्व की दृष्टि हो तो वहाँ महान बल प्रकट होता है कि लौकिक हिसाब से भी भय नहीं रहता, परमार्थ भय तो रहता ही नहीं । तो भय का कारण भी यह देह का संबंध है । बैठे हैं, किसी बालक ने पुरुष ने पीछे से आकर अटपट हल्ला किया तो यह डर गया । अकेला आत्मा भर हो तो वह डरेगा क्या? देह का संबंध है सो देखो आत्मा में भी भय का प्रभाव बन गया । तो भय का कारण भी यह देह है । ज्ञानी पुरुष को तो देह के विनाश का भी भय नहीं आता, अन्य भय तो आयेंगे ही क्यों? वह जानता है कि मरण कोई चीज का नाम नहीं है । जीव और देह एक जगह रह रहे थे सो अब देह अन्य जगह रह गया, जीव अन्य जगह चला गया, बस यही तो बात हो रही है । इसमें मरण किसमें हुआ? जीव-जीव की जगह परिपूर्ण है । देह की आयु देह की जगह परिपूर्ण है, कुछ भी चीज कभी मरती ही नहीं । जो सत् है उसका कभी विनाश नहीं होता । तो ज्ञानीजीव अपने को अमर रखता है, वह किसी भी बात का भय नहीं करता ।
सर्वममत्व छोड़कर प्रभुवचनामृतपान की धुन―सल्लेखनाधारी सर्व से अत्यंत विरक्त होने से रंच भी किसी भी स्थिति में विषाद नहीं करता, जिसे देह से भी ममता नहीं है वह किसी भी बाह्य परिणति से प्रभावित नही होता । ध्रुव सहज ज्ञानानंदस्वरूप अंतस्तत्त्व का अनुभव कर लेने से अब इस ज्ञानी को किसी भी प्रकार का स्नेह विरोध आदि कुछ भी कलुषता नहीं रही । यह तो बड़े उत्साह से अपना साहस धैर्य प्रकट करता हुआ अमृत स्वरूप प्रभु वचनों का कर्ण पात्र से पान करता है । इस श्रावक को सल्लेखना के समय अध्यात्म अमृत के पान की धुन लगी है, अत: दूसरे ज्ञानीजनों के मुख से अध्यात्म वचनों को सुनता है, स्वयं अध्यात्म तथ्यों का स्मरण व मनन करता है । यह सल्लेखनाधारी ॐ नम: सिद्धेभ्य:, ॐ शुद्धं चिदस्मि, का सविनय आराधना करता है, अपने में अविकल्प स्थिति का पौरुष करता है।
मरणावसर में बोधि समाधि की परम शरण्यता―व्रती श्रावक ने मरण समय तत्त्वज्ञान के बल से परिजन, मित्रजन धन संपदा देह सभी से ममत्व का त्याग कर लिया है और इसी कारण अब उसके न शोक है, न डर है, न स्नेह है, न विरोध है, किसी भी प्रकार की कलुषता उसके चित्त में नहीं है । ऐसा निर्मल भव्य आत्मा मरण महोत्सव में चिंतन कर रहा है कि इस मरण पथ पर चलने वाले अर्थात् देह को छोड़कर अकेले शरीर को धारण करने के लिए जाने वाले इस आत्मा को बोधि और समाधि का लाभ हो । बोधि का अर्थ है सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र की प्राप्ति और समाधि का अर्थ है उसको उपयोग में बसाये हुए चलना और उसका निर्वाह करते हुए अगले भव में पहुंचना । सो परलोक के मार्ग में उपकारी वस्तु यही है । मरण के बाद जीव के साथ बोधि समाधि जायगी, देह भी साथ नहीं जाता । कुटुंब, मित्रजन, धनसंपदा सब यहीं के यही पड़े रह जाते हैं । मैंने अनादिकाल से अनंत खोटे मरण किया है जिनकी याद भी मुझे नहीं है, पर युक्ति बतलाती है कि जों मैं हूँ सो अनादिकाल से हूँ । और जब अनादिकाल से हूँ तो किसी न किसी पर्याय में रहा आया था । वह पर्याय कौनसी होगी? जगत में जो ये पर्यायें दिख रही हैं ये ही तो होंगी और जो नहीं दिख रही हैं सो भी अनेक पर्यायें हैं । एक दो तीन इंद्रिय, चार इंद्रिय, पंचेंद्रिय पशु पक्षी देव, नारकी, मनुष्य, ऐसे भवों में रहकर अनंतकाल व्यतीत हो गया । और अब तक उन भवों में रागद्वेष ममता करके खोटा ही मरण किया और यह दुर्गति की धारा बराबर चली आयी । एक बार भी सम्यक् मरण नहीं हुआ । यदि समाधिमरण होता तो संसार में मरण करने का, भ्रमण करने का पात्र न रहता ।
समाधिमरण का महत्त्व―समाधिमरण कितना अलौकिक वैभव है । इसके भविष्य का फैसला है उस समय कि भविष्य शांति में रहेगा या कष्ट में ही गुजरेगा । और अंत समय में समाधिमरण बने इसके लिए जीवन में अभ्यास करना है । यह ही मान लें कि हमारा मरण तो प्रति समय हो रहा है, आवीचिमरण तो है ही । जो आयु के निषेक खिर गए वे वापिस नहीं आते । आज जो जिसकी अवस्था हो गई उसको बीती हुई अवस्था फिर से वापिस मिलेगी क्या? न मिलेगी । तो फिर रहा सहा जितना जीवन है वह अच्छे भावों में व्यतीत हो, किसी दूसरे से क्या लेना देना । सब जीव मेरे स्वरूप के समान है । सर्व सुखी हो सर्व को उन्नति का मार्ग मिले । जीवन जितना बचा है उसमें अच्छे भाव रहना चाहिए । किसी भी योग्य कार्य में विघ्न न डालना । दूसरे को पनपता हुआ देखकर मन में जलन न करना । यह संसार मायाजाल है, यहाँ जो दृश्य है वह परमार्थ नहीं है, परमार्थ तो अनादि अनंत ध्रुव वह स्वरूप सामान्य है । तो जिसने अपने जीवन में भलाई की ही बात सोची, सर्व जीवों का हित ही सोचा, अपने आत्मतत्त्व की भावना बनायी उस पुरुष को मरण समय में समाधि का लाभ होता है ।
सल्लेखना की सिद्धि के लिए जीवन में विधातव्य सप्तभावनाओं में प्रथम भावना―पूजा के अंत में 7 भावनायें बोलते हैं वे ही प्रयोगरूप होना चाहिए जीवन में, तब अंत समय में समाधि की सुपात्रता होती है । पहली बात है शास्त्राभ्यास, ग्रंथ का स्वाध्याय, अभ्यास, पढ़ना, चर्चा । अपनी-अपनी भी सोच लो कि हमारे इस जीवन में 24 घंटे में कितना समय ज्ञानवार्ता में जाता है, यदि नहीं जाता तो उसका खेद मानना चाहिये । जिंदगी यों ही व्यर्थ चली जा रही है, एक बड़ा अवसर मिला मनुष्य होकर कि यह चाहे तो संसार के समस्त संकट दूर करने का उपाय बना सकता है । ऐसा भला अवसर कब-कब मिलेगा । संसार के जीवों पर दृष्टि पसारकर देखो कैसे-कैसे कीड़े मकोड़े पतंगे एकेंद्रिय जीव, कैसी स्थिति दुर्दशा में पड़े हुए हैं । यह मनुष्यभव मिलना बहुत दुर्लभ है देव भी इंद्र भी इस मनुष्यभव को तरसते हैं । कब मैं मनुष्य होऊं, रत्नत्रय की साधना करूं और संसार के जन्म मरण से सदा के लिए छुटकारा पाऊं, ऐसा यह मनुष्य जन्म पाया और इसका महत्त्व न आके और जैसा वह भाव बनायें विषयों में कषायों में उनमें बह जाय यह कितने खेद की बात है । बाहर में किसका बुरा विचारना । बुरा विचारने से कहीं बुरा नहीं होता दूसरे का, पर इसका बुरा अवश्य ही होता है । खोटे कर्म बांधे उनका उदय आयगा, इसे दु:खी होना पड़ेगा । सद्भावना होने से, उसके लिए शास्त्राभ्यास जीवन में चलते रहना चाहिए । चाहे उपदेश देकर चले, चाहे पढ़कर चले, बांचकर चले, प्रश्न से चले, चाहे पाठ करते हुए । मनन करते हुए शास्त्राभ्यास चले । जितना ज्ञानलाभ मिले वह तो अपनी कमायी और जितना ज्ञान से दूर रहकर बाहरी बातों में उलझे रहे, फंसे रहे, बोलते रहे उतना ही टोटे में, नुकसान में । सो शास्त्र का अभ्यास होना एक बहुत महत्त्व की बात है । वृद्ध हो जाय आंखों से न दिखे तो भी अब धर्मात्माजन यत्रतत्र मिलते हैं, उनसे श्रवण, मनन ही तो चाहिए, आत्मा की दृष्टि ही तो चाहिए । जैसे पढ़ने से दृष्टि बनती है उससे भी जल्दी सुगमतया सुनने से दृष्टि बनती है । तो शास्त्राभ्यास द्वारा अपने इस जीवन को सुवासित करना । आत्म वासना से पुष्ट करना, यह कर्तव्य है जीवन में । और देखिये―कितना ही कष्ट हो कैसा ही क्लेश हो, आप शास्त्र के पढ़ने और लिखने में लग जायें, कष्ट का विकल्प न चलेगा । अपने विचार लिखिये और ग्रंथों को स्वाध्याय कीजिए तो आपको शांति मिलेगी । कष्ट आने पर कष्ट की तरफ ही दृष्टि जाय तो वह दुगुना हो जाता है कष्ट । कष्टरहित आत्मा के ज्ञायक स्वरूप पर दृष्टि जाय तो कष्ट दूर हो जाता है । ऐसी योग्यता पाने के लिए चाहिए शास्त्राभ्यास । तत्त्वज्ञान बिना जग से पार हुआ ही नहीं जा सकता । वह कौनसा बल है ज्ञान को छोड़कर जिस बल से यह जीव प्रगति कर सके । ज्ञान से ज्ञान में ज्ञान ही हो, यह स्थिति है पवित्रता के लिए, आनंद स्वरूप, सो शास्त्राभ्यास इस जीवन में न छूटे । हर प्रकार से तत्त्वज्ञान की बात मनन में आये ।
(2) वीतराग सर्वज्ञ परमात्मा के गुणों का स्मरण करना―दूसरा कर्तव्य है जिनेंद्रगुणस्मरण । लोग देखते हैं, लोगों के बीच हैं, दृष्टि यहाँ जाती है, पर यहां के क्रियाकलाप देखने से या जीवों के अवगुण विचारते रहने से आत्मा में कुछ प्रगति नहीं हो सकती । चाहिये जिनेंद्रदेव के गुणों का स्मरण । प्रभु अनंतज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत आनंद, अनंत शक्ति के धारक हैं, इनका स्वरूप भी विचारें । कैसा अनंतज्ञान? ऐसा ज्ञानविकास कि तीन लोक तीन काल के पदार्थ सब झलक जाते हैं । जो जीव सब पदार्थों को झलकने की चाह करते हैं सब बातों का ज्ञान हो जाय, क्या होता है आगे, इसका भाव बढ़ेगा, घटेगा तो बड़ा लाभ प्राप्त कर लेगा । ऐसा सोचने वाले के ज्ञान का विकास नहीं होता । प्रभु का ज्ञान का विकास है तो वहाँ रंच भी विचार, क्षोभ, रागद्वेष, कुछ करना है, ऐसी कुछ भी बात नहीं है । इसीलिए तीन लोक तीन काले का सब कुछ झलकता है । सो जैसा अनंतज्ञान प्रभु के है वैसा ही मेरे में शक्तिरूप से पड़ा हुआ है, ऐसा मैं हो सकता हूँ । स्वरूप एक ही समान है । जो प्रभु है सो मैं हूँ । जिनेंद्र के गुणों का स्मरण पापरस को नष्ट करता है पुण्यरस को बढ़ाता है, धर्ममार्ग में लगाता है । तो दूसरा कर्तव्य है श्रावक का कि वह जिनेंद्र गुण का स्मरण करे ।
(3) संसारशरीर भोगनिर्विण्ण श्रेष्ठ पुरुषों की संगति करना―श्रावक का तीसरा कर्तव्य है सज्जन पुरूषों के साथ संगति करना । सज्जन पुरुष वह कहलाता है जो संसार, शरीर, भोगों से विरक्त है और अपने आत्म स्वरूप की दृष्टि रखता है । संसार से छुटकारा पाने का जिसका पौरुष चलता रहता है वह महात्मा सज्जन कहलाता है । तो सदा आर्य पुरुषों के साथ संगति रखना यह ध्यान में रहना । कर्मोदय ऐसा है जीवों के कि कुसंगति में तो जल्दी लग जाता है जीव, और बहुत प्रिय लगते हैं कुसंग, क्योंकि विषयकषाय पुष्ट होते है कुसंग में और यह जीव सदा रागी द्वेषी मोही विषयकषायों को चाहता ही है । पर कुसंग का कैसा खोटा परिणाम है कि व्यसनों में लग जाय तो वह धन की हानि कर दे । कहीं ऐसी कषाय जग जाय कि अपने ही हाथ से अपने परिजन का घात कर दे । कैसी-कैसी विडंबनायें बन जाती है कुसंग से, जिनसे जीवों का अकल्याण हो, पतन हो, खोटी दशा हो वह सब कुसंग का फल है । यदि घर में कुटुंबीजन अज्ञानी है, मोही है, विषयकषायों के प्रेमी हैं तो घर में भी वह कुसंग ही है । घर में पूरा धार्मिक वातावरण हो तब तो बुराई नहीं हो पाती, किंतु धर्म से विमुख है घर के लोग, विषयकषायों के प्रेमी हैं तो भी वे ऐसी ही बात कहेंगे और रोज-रोज कहेंगे सुनते रहेंगे तो परिणामों में निर्मलता आ ही जाती है । कुसंग लाभ भला नहीं है इसलिए यह व्रती श्रावक यह भावना करता है कि सदा ही मुझे आर्य पुरुषों की संगति प्राप्त हो ।
(4) गुणवंत पुरुषों की कथा करना―चौथी भावना है―गुणवान पुरुषों के, सच्चरित्र पुरुषों के गुणों के समूह में कथा की जाती रहे । मैं दूसरों के गुणों को बखानूं । उनके बड़े पाप का उदय है जिनको दूसरों के दोष ही दोष दिखते हैं, क्योंकि जब दोष ही दिखे तो वह स्वयं दोषी है । दोष का प्रेमी है तब दूसरों के दोष ही दोष पर दृष्टि जाती है । और जब दोष पर दृष्टि गई तो खुद के उपयोग में तो वह दोष का फोटो आ गया । दोषाकार ही ज्ञान बन गया, यह तो तत्काल नुकसान हुआ । किसी के दोष की कहानी न कीजिए । दूसरे की निंदा करना यह बहुत बड़ा अवगुण है, निंदक का सारा ढचरा बिगड़ जाता है, बुद्धि में बल नहीं रहता, वचन में ओज नहीं रहता, मन में अच्छी बात नहीं समा पाती, तब फिर सोचिये तो सही कि परनिंदा से मेरा अटका क्या है? न मेरी उसमें उन्नति है बल्कि अवनति ही अवनति है । सो यह व्रती पुरुष भावना करता है कि सच्चरित्र पुरुषों में गुणों की कथा ही मेरी जिह्वा से निकले, गुणों की कहानी कहेंगे, गुणों की दृष्टि रखेंगे तो स्वयं में भी गुणों में विकास चलेगा । हे प्रभो, मेरी सदा गुणों पर ही दृष्टि बने ऐसी भावना और प्रयोग सम्यग्दृष्टि के चल रहा है ।
(5) परदोषकथन में मौन रहना―5वीं भावना है ‘दोषवादे च मौनं’ दूसरों के दोष कहने में मेरा मौन भाव रहे । दोष कहने से कितना नुकसान है, पहले तो यह ही ज्ञान दूषित हो गया, इस पर दोषों का फोटो छा गया, दोषाकार बन गया, लो यहीं से अंधेर नगरी चली अब । फिर दोष जब चलेंगे तो लोग कहेंगे कि यह बड़ा ओछा आदमी है । यह दोष ही दोष बखानता रहता है । इसकी निरंतर दोष ही दोष पर दृष्टि रहती है । तीसरी बात―जिसके दोष कहा जायगा वह शत्रु बन जायगा और उसके जितने मित्रजन होंगे वे भी बुरी निगाह से देखने लगेंगे । तब जीवन में विपत्तियां बिछ जायेंगी । दूसरे के दोष कहते समय दिल कंप जाता है यह सबको अपना-अपना अनुभव होगा । दूसरों का गुण कहते समय चित्त में उमंग हर्ष रहता है । दोषवाद में कितना नुकसान है उस सिलसिले से अगर झगड़ा बढ़ जाय तो मारपीट जेल सब कुछ हो जाता है । व्रती श्रावक की भावना है कि मेरा दोष वाद में मौन भाव रहे । मनुष्यों को जो जिह्वा मिली है सो कितनी श्रेष्ठ मिली है । अन्य जीवों पर दृष्टि डालकर देखें, अनंतकाल तो इस जीव को जीभ ही नहीं मिली । एकेंद्रिय रहा, पृथ्वी आदिक रहा, निगोद रहा और दोइंद्रिय बना, और जीभ मिली तो केचुवा जोंक ये प्राणी तो यहाँ दिखते ही हैं । उनकी जीभ का कितना मतलब होता है? क्या बोल सकते हैं? आवाज भी कैसी कि जिसका कुछ पता भी नहीं पड़ता । होती तो होगी आवाज, हवा तो निकलती हीं है पर उस जीभ से क्या मिला जिसको वाणी नहीं मिली । यह ही हाल दो इंद्रिय, तीन इंद्रिय, चार इंद्रिय का है, असंज्ञी पंचेंद्रिय जीव का है । कुछ बोल ही नहीं सकते । संज्ञी पंचेंद्रिय जीवों को जिह्वा मिली तो देख लो घोड़ा, गाय, बैल, भैंस, भेड़, बकरी, कुत्ता आदि जानवरों की कैसी बोली है―कहीं बांय-बांय कर रहे, हिनहिना रहे, भिनभिना रहे, उनके कहां ठीक-ठीक वचन निकला करते हैं? एक मनुष्य को ही ऐसा जिह्वा मिली कि वचन बोले जा सकते हैं, जिन वचनों का वाच्य अर्थ है, लोग उस अर्थ को जानते हैं, इतनी श्रेष्ठ यह स्थिति है, और यहाँ हम इस जीभ का सदुपयोग अगर नहीं करते तो फिर यह परिणाम होगा कि मानों कर्म विधाता ने यह देखा कि इसको जीभ की जरूरत नहीं है, क्योंकि यह इसका दुरुपयोग कर रहा है तो अब इसे जीभ न देना चाहिए, अर्थात् एकेंद्रिय बन जायगा । बहुत बड़ी सावधानी रखना होती है वचन बोलने की और जीवन में यह अभ्यास बनाइये कि बोलिए कम और सुनते जाइये सब कुछ । विचारिये और जब बोल निकले तो ऐसा निकले कि दूसरों को भी शांति हो । तो यह व्रती श्रावक मनन कर रहा है अपने कर्तव्य कि किसी के भी दोष कहने में मेरी जिह्वा न डोले । मौनभाव रहे ।
(6) प्रिय हित वचन ही बोलना―सभी जीवों के प्रति प्रिय और हित वचन बोलूँ । दूसरे जीव मेरे ही स्वरूप के समान भगवंत स्वरूप हैं, उनको देख करके तो भीतर प्रसाद हो जाना चाहिए । यह भगवत्स्वरूप है, किसी भी जीव को देखो मनुष्यों की तो बात क्या पशु पक्षी कीड़ा मकोड़ा एकेंद्रिय जीव पेड़ पौधे, इनको देखकर एक बार चित्त में यह तो विचार लावें कि यह भगवतस्वरूप हैं । इसका आत्मा ज्ञानमय है, चैतन्यस्वरूप है । जो प्रभु का स्वरूप है सो इनका स्वरूप है, जिससे आप वचन बोलें उसके प्रति तो यह सोचना ही चाहिए एक बार कि यह भगवतस्वरूप है, जीव है, इसमें कोई अपराधी बनता है तो वह कर्म का उदय है, ऐसी ही छाया पड़ी, झांकी हुई, बात बन गई, पर जीव स्वयं तो अविकार और निरपराध है । ऐसा चिंतन करके फिर आम बात बोलें वे प्रियहित वचन निकलेंगे ।
(7) आत्मत्त्व में भावना―7वीं भावना―जो समस्त भावनाओं का उद्देश्यरूप है, प्रयोजनरूप है वह है आत्मतत्त्व की भावना होना । मैं क्या हूँ, स्वयं क्या हूँ, सहज क्या हूँ । बिना दूसरे के संबंध के मैं
क्या हूं? अपने आपके सत्त्व से मैं चिदानंदस्वरूप हूँ । प्रतिभास आनंद यह निज का स्वरूप है। प्रतिभास होता ही रहे ऐसा यह सर्व द्रव्यों का राजा है आत्मा । सब द्रव्यों में आत्मा ज्ञाताद्रष्टा सबसे निराला यह मैं आत्मा स्वयं ज्ञानानंदमय हूँ, ऐसी निरंतर भावना होना । इस आत्मतत्त्व की भावना के प्रसाद से ही पापरस मिटता है, पुण्यरस बढ़ता है, धर्म मार्ग में गति होती है, जीवन में ये ही तो करने के काम है । यह अंत: क्रिया होती रहे फिर तो जो होगा वह सहज ठीक ही ठीक होगा । तो अपने आत्मा की सम्हाल यह ही सबसे बड़ा अपना पौरुष होना चाहिए । तो इस सल्लेखना धारी श्रावक के मनन चल रहा कि जीवनभर तो अच्छे आचार से रहा । अब इस मरणसमय से मेरा शुद्ध आचार भंग न हो, बोधि और सामायिक परिणाम सहित ही इस शरीर को छोड̣कर जाऊं ।
सहजात्मस्वरूप की उपासना की भावना―समाधिमरण का अर्थ है कि इस देह का तो वियोग हो जाय पर आत्मा का जो दर्शन ज्ञान स्वभाव है उस शील परिणाम सहित इसका इस देश से गमन हो, इसे कहते हैं समाधिमरण । और कुमरण कहते हैं उसे जहाँ संक्लेश परिणाम करके मोह ममत्व रखता हुआ देह से गमन करता है । सल्लेखनाधारी पुरुष चिंतन कर रहा है कि मैंने अनादिकाल से लेकर अनंतकाल कुमरण किया, जिसके फल में कुयोनियों में जन्म लेकर दुःख ही पाया । अब हे प्रभु, हे वीतराग सर्वज्ञ देव, हे सहज आत्मस्वरूप मेरी यही प्रार्थना है, अभिलाषा है कि मेरी दृष्टि अपने स्वभाव से न चिगे और आंतरिक प्रसन्नता के साथ इस देह से विदा होऊं, और अच्छा हो कि मरण समय में वेदनायें न हों और हों तो तत्त्वज्ञान के बल से, उनका मेरे अनुभव न बने, मैं तो केवल एक सहज चित्प्रकाशमात्र अपने भगवत आत्मा को ज्ञान में लिए हुए हूँ । इस ही की आराधना करता हुआ इस देह से प्रयाण करूं । मेरे को रत्नत्रय का लाभ हो और समाधि का लाभ हो । एतदर्थ अब उस वीतराग सर्वज्ञ के गुणों का ही स्मरण करता हूँ और निश्चयत: मैं अपने सहज ज्ञानानंदस्वरूप अंतस्तत्त्व की उपासना करता हूँ ।
कमिकुलकलित देह के वियोग में ज्ञानी के विषाद का अभाव―इस देह से अलग होने का विषाद क्यों? यह देह कोई सारभूत चीज है क्या? सैकड़ों कीड़ों के समूह से भरा हुआ यह देह है । यह देह हाड़ मांस मज्जा आदि का पिंड है । इसके ऊपर की सजावट का पलस्तर और चमड़े का रंग रोगन इनको यदि न देखा जाय तो भीतर क्या निरखने में आएगा? जैसे कि शमशान में पड़ी हुई हड्डियों को जोड़कर एक ढांचा बना दिया जाए ऐसे जर्जर सैकड़ों कीड़ों के समूह से भरे हुए इस देह पिंजरा में मेरे को ममता नहीं है । इसका वियोग होता? है तो मेरे को कोई भय नहीं है । यह शरीर पौद्गलिक है । मैं ज्ञानशरीरी हूँ । मेरा स्वयं का विग्रह (शरीर) ज्ञान है । ज्ञान को शरीर की उपमा देना तो भला नहीं है, पर ज्ञान ही मेरा सर्वस्व है, बोडी है यह अभिप्राय जानना । शरीर तो उसका नाम है शीर्ण होवे, गले, उसका नाम है शरीर और बोडी नाम है उसका जो इसका आत्मभूत हो । वही वस्तु जिससे वह निर्मित है जिसे कह दीजिए विग्रह । इसका तो ज्ञान ही विग्रह है । काय, देह, शरीर और विग्रह इम के चार नाम है । काय तो कहते है उसे जो संचित हो, पुद्गल परमाणुवों का संग्रह हो उसे कहते हैं काय । जो बढ़ता रहे उसे कहते है देह । जो गले सड़े, जीर्ण हों उसे कहते हैं शरीर, और जिसका विशेष रूप से ग्रहण हो उसका नाम है विग्रह । मेरा काय ज्ञान है, उसी के अविभाग प्रतिच्छेदों का प्रकटपना होता है । मेरा यह ज्ञान ही देह है, इस ही के विकास की डिग्रियों का बढ़ाव होता रहता है । तो मेरा ज्ञान ही विग्रह है । याने शाश्वत अनादि अनंत ज्ञान स्वभाव का व उसकी वृत्ति का ही ग्रहण मुझ में रहता है । ऐसा ज्ञान विग्रह वाला यह मैं आत्मा कभी मरता ही नहीं हूँ, पूर्ण सत् हूँ। जैसा हूँ वैसा ही यहाँ से उठकर चला गया । मेरे को शोक क्या? भय क्या?
मृत्युमहोत्सव में अविकार स्वभाव के दर्शन की प्रसन्नता―मरण समय में भय उनके ही होता है जिनको देह धन परिजन आदिक में ममता बसी रहती है, वे बड़े संक्लेश से मरण करते हैं । यह देह पिंजर विघटता है तो विघटे पर मेरा जो विग्रह है, ज्ञान है वह कभी विघट ही नहीं सकता, जिस ज्ञान में अतुल सामर्थ्य है । जिसमें सकल पदार्थ झलक जाएँ ऐसा अमूर्त ज्ञानमात्र ज्योति स्वरूप मैं हूँ । इसमें क्या संकट है । इस ही स्वभाव को दृष्टि में रखता हुआ मैं महाप्रयाण करूं । अन्य प्रकार की मेरे दृष्टि न हो, मैं अविनाशी हूँ, ज्ञाताद्रष्टा रहना मेरा स्वभाव है । केवल मैं अपने सत्त्व से जो हूँ, उसका मात्र प्रतिभास काम है, जानन हुआ, दर्शन हुआ बस यह ही मेरी वास्तविक वृत्ति है । स्नेह, विषय, शोक यह मेरी वास्तविक वृत्ति नहीं है, किंतु उदय में आए हुए कर्मों के अनुभाग की वह झलक है । जैसे जल कहीं गंदा नहीं होता । जिन जलों को हम गंदा कहते हैं उनमें जल गंदा नहीं है, किंतु धूल कण, करकट आदि जो बाहरी चीजें उसके साथ मिल गई हैं गंदी हैं कुछ बाहरी चीजें जल में इस तरह मिली हैं कि वह जल ही गंदा लगने लगा । पीने के काम का ही नहीं मगर स्वरूप देखिए तो जल कभी गंदा नहीं होता । जल-जल ही है, जल के साथ जो कलमसता है वह अन्य वस्तु की है । दर्पण स्वयं अपने आप किसी के फोटो रूप नहीं है । मगर इसका स्वभाव है फोटो, तो वह स्वभावतो रहा आया मगर ठीक फोटो न झलके याने कांच गंदा हो, दर्पण गंदा होने पर और तरह से झलके, मलिन झलके, तो उस दर्पण के साथ कोई परवस्तु उपाधि लगी हुई है, तेल चिपक गया हो या कांच के भीतर ही बनते समय कोई दूसरी वस्तु आ गई हो या कुछ पोलसी हो गई हो कुछ ऐब है तब बुरा झलकता है, ऐसे ही आत्मा के साथ कोई ऐब लग गया पर उपाधि लगी है इस कारण से रागद्वेष कल्पना आदिक होते हैं ।
स्व व पर के भेदविज्ञान का महाबल―मैं स्वयं अपने आपके सत्त्वमात्र हूँ । जैसे हंस मिले हुए दूध पानी में दूध को ही ग्रहण करता पानी को छोड़ देता उसकी चोंच में ऐसा गुण हैकि मिले हुए दूध पानी में चोंच के पड़ते ही पानी अलग हो जाता दूध अलग हो जाता । जैसे कि अन्य कई वस्तुएँ हैं ऐसी कि मिले हुए दूध पानी में डाल दें तो दूध अलग होता पानी अलग हो जाता । और कुछ तो ऐसा होता ही है जैसे गरम दूध में नींबू डाल दिया तो पानी अलग हो जाता । दूध गाढ़ा होकर (जमकर) अलग हो जाता और भी कई वस्तुएँ ऐसी हैं कि उस मिले हुए दूध -पानी में डाल दी जाएँ तो पानी अलग हो जाए दूध अलग, हो जाए । जो तारीफ उस वस्तु में है वही तारीफ हंस की चोंच में है । भेद विज्ञान हो गया । अब वहाँ जो उपादेय तत्त्व है उसको ग्रहण करना, जो हेय तत्त्व है उसको छोड़ देना । मेरी कल्पना में राग और ज्ञान मिला जुला है । वहाँ भी राग का स्वरूप राग में है ज्ञान का स्वरूप ज्ञान में है स्वरूप नहीं बदल गया पर ऐसा मिश्रण हो गया कि उस रूप न ज्ञान रहा, न उसका रूप रंग रहा किंतु कल्पनारूप बन गया । उस कल्पना में उस तत्त्वज्ञान के बल से राग और ज्ञान को जुदा निरख रहा हूँ । सो मैं ज्ञान को ग्रहण करता हूँ राग को छोड़ता हूँ । मुझ आत्मा में और इस देह में अत्यंत अंतर है । बिल्कुल विपरीत है। देह पौद्गलिक है, हाड़, मांस का पिंड हैं। यह मैं आत्मा ज्ञानरूप हूँ, अविनाशी हूँ, देह विनाशीक हैं, बिखर जाएगा इसमें आग भी लग जाती, मैं अविनाशी हूँ, मैं बिखरता नहीं, मुझ में आग नहीं लगती । अत्यंत उल्टी दोनों चीजें हैं मैं और देह । तो इस देह के मिटने का भय क्या? मैं अपने आपके स्वरूप में हूँ ।
जीर्णशीर्ण दुर्गंधित कुटी को त्यागकर नवीन सज्जित कुटी में पहुँचने में प्रसन्नता का ही अवसर―जैसे कोई मुसाफिर रेलगाड़ी में किसी के मना करने पर कि यहाँ मैं बैठा था पहले, तो पास में दूसरी सीट खाली होने पर वह उठकर दूसरी सीट पर बैठ जाता है । आयुकर्म का तकाजा है कि अब आप इस सीट पर न बैठिए, यह सीट गंदी हो गई । बुढ़ापे से यह जर्जर सीट हो गई, आप इस नई सीट पर जाइए, हम आपके लिए तैयार रख रहे हैं, तो उस जीव को वह पुरानी गंदी सीट छोड़कर नई सीट पर जाने में क्या तकलीफ? रेल में आपकी सीट के पास बैठे हुए किसी बच्चे ने मानो टट्टी पेशाब करके आपकी सीट को गंदा कर दिया तो उस बच्चे की मां आप से कहती है कि आप उस सीट पर आ जावो, आपकी यह सीट गंदी हो गई तो बतावो वहाँ क्या आप उससे लड़ते हैं कि मुझे तो मेरी ही सीट चाहिए, यह न चाहिए? नहीं लड़ते । वहाँ तो आप खुशी-खुशी से उस सीट को बदल देते है । तो ऐसे ही जब कोई मान लो समझा रहा कि अब तेरा यह शरीर जीर्ण शीर्ण हो गया, गंदा हो गया इससे बदबू आने लगी, अत्यंत रुग्ण हो गया, इसको कोई देखता है तो डरने लगता है, तेरे को नया शरीर दिया जा रहा है, इसे छोड़, और उस समय कोई यदि यह कहे कि मैं नहीं किसी की सुनना चाहता मैं तो इसी शरीर में रहूँगा तो बताओ यह उसकी बेवकूफी है कि नहीं? अरे क्यों व्यर्थ में इस शरीर से ममता करते? यह लोक तो 343 घनराजू प्रमाण विस्तृत है । अगर सांसारिक वैभवों की चाह है, उनकी प्रीति नहीं छूटी तो यहाँ का वैभव न सही, अगले भव में मिल जाएगा । उसमें भी टोटा क्या?
समाधिमरण में ज्ञानी का विशेष पौरुष―मरणसमय भी वैभव की आकांक्षा कोई रखे तो वह तो उसका कुमरण है । अरे अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंत आनंद, अनंत शक्ति जैसी विभूति का भी तो ख्याल कर । ये अत्यंत भिन्न पौद्गलिक पदार्थ हैं जिनके संसर्ग से तेरा घात हो रहा । तू उसको क्यों चाहता? मैं चाहूंगा, मैं तो अपने अनंत ज्ञानादिक के स्रोतरूप सहज कारण परमात्मतत्त्व की उपासना करूंगा । यह तो मरण महोत्सव है । इस मरणकाल में उसका आगे के सारे भविष्य का फैसला होना है । जीवनभर तो पाठ याद किया और परीक्षा के समय पागल हो गया तो यह उसका खोटा ही भवितव्य है । ऐसे ही इस जीवन में सारे जीवन तो खूब व्रत तप निभाया और मरण समय में मोह मदमत्त होकर पागल हो जाऊं तो समझो कि मेरा सारा भविष्य खोटा रहेगा । यह परीक्षण का समय है । बच्चे लोग परीक्षा के समय और अधिक तैयारी रखते हैं । तो यहाँ भी मरण समय में, जीवन में जो सावधानी बरती उससे भी अधिक सावधानी यहाँ मृत्यु महोत्सव के समय रखना है । यह मृत्यु महोत्सव मुझे प्राप्त हुआ है तो इसमें भय किस बात का? मैं स्वरूप में स्थित होता हुआ अन्य देह में स्थित हो जाऊंगा ।
स्वयं से ही स्वयं के हित की अभ्यर्थना में लाभ―सारा क्लेश मोह का है । दूसरों से प्रार्थना करना कि मुझे कष्ट न देना, मुझे सुख देना, मुझे शांति दिलाना और प्रार्थना करना उनसे जिन में मोह बसा है तो यह कैसी बेजोड़ यात्रा है, जैसे किसी रथ में हाथी और गधा दोनों को एक साथ जोत दिया जाए तो रथ न चलेगा ऐसे ही मैं चाहता हूँ कि मुझे शांति मिले समाधि मिले, उत्तम परिणाम से मरण करूं और वह चाहूं मैं अपने कुटुंब से, परिजन से, तो यह बात क्या संभव है? कठिन है । जैसे काजल की कोठरी में कितना ही सयाना जाए पर काजल की एक न एक कोर लग ही जाएगी ऐसे ही घर के कुटुंबीजनों से समाधिमरण की अभिलाषा रखें कि ये मेरा सारा काम बना देंगे तो बड़ा मुश्किल है । घर के लोग सुना रहे हैं―भाई क्या सुना रहे हैं? वैराग्य की बात, और यह घर का आदमी सुन रहा है और मन में सोच रहा हैकि मेरा मुन्ना सुना रहा है वैराग्य की बात । अरे मेरी मुन्ना, यह तो बीच में लगा हुआ है । वैराग्य की बात कहां से आयगी? तो उस समय संबंध रखें त्यागीजनों का, श्रावकों का, अन्य जनों का, बाहर से आए हुए पुरुषों का । कुटुंबीजनों से धर्मध्यान सुनने का क्या अर्थ है? उतना ही जैसे कि पति पत्नी मिलकर भगवान की पूजा करते हैं । पूजा कर रहे हैं, भीतर लगाव लगा है कि मैं पत्नी सहित पूजा कर रहा हूँ, रागभाव तो निरंतर लिए हुए हैं । पूजा कहां हो रही? तो उसकी करतूत भी सामने नजर आती । जब फल का छंद पढ़ेंगे तो खुद की रकेबी में रख लिया काला कमलगट्टा और स्त्री की रकेबी में धरेंगे बादाम । यह करतूत भी सामने नजर आ रही कि कितना रागवश पूजा कर रहे । जो हालत वहाँ है वही हाल समाधिमरण का है जो अपने ही परिजनों से धर्मश्रवण सुनना चाहता है । यद्यपि आवश्यक यह भी है कि अपने परिजन से धर्मश्रवण करेंगे मगर उसका फल इतना ही है कि यह तो चाह रहा है कि इनसे ममता त्यागें । उनकी ओर से भी सहयोग मिल रहा कि ममत्व त्यागें पर ऐसा होते-होते भी कभी-कभी राग हो बैठेगा । उन श्रावकों का महाभाग है जिनको परिजन तो दें मौका कि समाधिमरण होने दो और साधुजन विद्वज्जन समाधिमरण का संबोधन रखें, उनका समाधिमरण सुगम होता है ।
सल्लेखनाधारी का भविष्यविषयक मंगलचिंतन―सल्लेखनाधारी चिंतन कर रहा हैकि जैसे कोई टूटी-फूटी कुटी से निकलकर नए महल में जाता है तो बड़े उत्सव के साथ जाता है, ऐसे ही यह मैं आत्मा जीर्ण शीर्ण शरीर से निकलकर एक नए देह में जाता हूँ तो मेरा इसमें नुकसान क्या है? वह चित्त में प्रसन्नता के साथ उत्सव के साथ जाता है । प्रसन्नता महोत्सव के साथ मरण हो तो जो वैभव यहाँ पाया है उससे कई गुना वैभव वहाँ मिलेगा । इसकी परवाह क्या करता? यहाँ के समागमों में ममता क्यों रखता? और यहाँ के समागमों में ममता रखता हुआ मरण करेगा तो न यहाँ रहना, न आगे मिलेगा । यदि मैं अपने ज्ञायकस्वभाव में ठहरता हुआ, दूसरों से ममत्व तजता हुआ परलोक जाऊंगा तो धातु उपधातुरहित देह में पहुँचूँगा जहाँ कि अनेक देव पहले से ही आदर स्तुति करने के लिए खड़े होंगे । जैसे यहाँ कोई पुण्यवान बालक उत्पन्न होता है, गर्भ से निकलता है तो ढोल मंजीरा गान तान ये अनेक उत्सव होने लगते है तो ऐसे ही देवगति में भी पुण्यवान जीव उत्पन्न होते हैं वहाँ भी अनेक देव खड़े होकर उसकी प्रशंसा करते हैं और वह अकृत्रिम चैत्यालयों की वंदना को पहले जाने का भाव रखता है तो उसके साथ वे यात्रा करते है । सो समाधि सहित मरण होगा तो वैक्रियक देह में देव होऊंगा, महान् ऋद्धि धारक देव देह पाऊंगा और जो भय करके, ममता करके यहाँ का मरण बिगड़ा तो एकेंद्रिय आदिक के शरीर में जाकर मैं जड़वत् हो जाऊंगा । अब कुछ ही मिनटों में फैसला होने वाला है । बताओ आपको देव बनना प्रिय है या एकेंद्रिय दोइंद्रिय आदिक जीवों में उत्पन्न होना प्रिय है? यहाँ मोह ममता करने का तो फल है पेड़ पौधा आदिक बनना और यहाँ का ममत्व छोड़कर अपने सहज आत्मस्वरूप की आराधना सहित मरण करें तो वहाँ दिव्य देह में उत्पन्न होना होगा । इन समस्त समागमों को पर जानकर मैं उनसे ममत्व तजता हूँ । सल्लेखनाधारी भलीभाँति सर्व कुछ वस्तुस्वरूप विचारकर सर्व से विरक्त होकर सहज आत्मस्वरूप में ही मग्न होता हुआ संतोष पाता है । ममत्व के त्याग का भी एक बड़ा सुंदर अवसर है । ऐसे अवसर में मैं सर्वपरपदार्थों का लगाव छोड़कर अपने सहज अमूर्त चैतन्य प्रकाशमय परमात्मतत्त्व में ही रमता हूँ । अन्य कुछ वृत्ति बनाना मेरे लिए लाभकारी नहीं है ।
मृत्युमित्र के उपकार का विचार―जीवन में भले प्रकार व्रतों का पालन कर यह व्रती श्रावक मरण समय में चिंतन कर रहा है । यह जो आज मृत्यु का अवसर आ रहा है जो बड़ा मित्र है । जो मैंने जीवन में अनेक व्रत तपश्चरण किया सो उन किए हुए पुण्य कार्यों का फल इस मृत्यु मित्र के बिना प्राप्त नहीं हो सकता । करणानुयोग के अनुसार जो आयु बंध गई है, जो पुण्यकर्म बांधे हैं, जिनका फल देवगति में मिलता है, अन्य सुगति में मिलता है तो वह फल तब ही मिल पाएगा जब मरण होगा और इस जीर्ण शीर्ण गले शरीर से निकालकर यहाँ के दुःखों से जो छुटकारा दिलाएगा वह मृत्यु मित्र ही तो है । जीवन में 6 काय के जीवों की हिंसा टालकर प्रवृत्ति की । धर्मबुद्धि से अनेक सदाचारों का पालन किया । सत्य वचन पर डटे रहे, चाहे कितने ही कष्ट सहे, पर असत्य कभी बोला नहीं, पर धन का लोभ करके उसे कभी छुआ नहीं, परनारी, परस्त्री को निरखकर कभी कामभाव किया नहीं । और परिग्रह में तृष्णा नहीं की परिग्रह परिमाण किया, संतोष किया, ऐसे कर्तव्य से जो पुण्य बांधे उसका फल मृत्यु मित्र बिना कौन दिखा सकता है? कुछ समय की ही तो बात है, जल्दी ही सुख संपदा में और धार्मिक वातावरण में हमारी स्थिति होगी, फिर इस मरण का भय क्या है? इस समय यदि आर्तध्यान रौद्रध्यान परिणाम होगा तो नरकगति, तिर्यंचगति में उत्पन्न होकर अनेक दुःख भोगने पड़ेंगे । सो अब उस धनसंपदा में परिजन में परिग्रह में ममत्व छोड़कर चिंतामणि कल्पवृक्ष के समान इस समाधिमरण को न बिगाडूँ । मैं अपने स्वरूप को निहारता हुआ इस शरीर से प्रयाण करूं ।
विविध कष्टप्रद देह से छुटकारा में विषाद का अनौचित्य―यह सल्लेखनाधारी श्रावक चिंतन कर रहा है कि इस भव में गर्भ से लेकर अब तक कष्ट ही भोगा कल्पना से । पर सारे जीवन में पाया क्या? कष्ट । और मोह के वश होकर उन कष्टों में ही राजी रहा और मोह न छोड़ सका । गर्भ में कितने कठोर दुःख । कितने से पेट की छोटी जगह में बंध करके रहना, हाथ, पैर, सिर, अंग आदिक बनने पर भी चिपका हुआ औंधे मुख बना रहना, मां ने जो खाया पिया उसका उसही रस की नली से आहार हुआ । कैसे दुर्गंधमय स्थान में इन 9 महीने रहना पड़ा । फिर जब गर्भ से निकले तो उस समय का दुःख मरण के दुःख से कम नहीं होता, पर और लोगों को क्या पता? और लोग तो गाजे बाजे नाच में ही उमंग सहित हर्ष मनाते हैं । पर जो बच्चा गर्भ से निकल रहा वह कितना कष्ट पा रहा है इसका अनुभव तो उस बालक को ही होता है । गर्भ से निकलने का भी बड़ा दुःख है । जैसे कि देखा ही करते हैं यहाँ, कुछ चेतना सही नहीं, सावधानी नहीं, समझ का विकास नहीं । कुछ बड़ा हुआ तो अनेक कल्पनाएँ करके दुःख मानने लगा था । जो इष्टवस्तु चाहिए वह न मिले तो कष्ट, यह इतने में भी कष्ट मानता रहा, यदि मां की गोद में चढ़ा हुआ हो और नीचे बैठाल दिया गया तो वह रोने लगा । मानों उस बच्चे ने बड़ा अपमान महसूस किया कि कहां तो ऊँचे चढ़े हुए थे और कहाँ मुझे नीचे पटक दिया, अनेक प्रकार के दुःख हैं, जहाँ कुछ होश नहीं, जहाँ चाहे मलमूत्र कर दिया, गंदी चीज भी मुख में डालने को तैयार हुए, ऐसे कठिन दु:खों में समय बीता । कुछ और बड़े हुए तो मां बाप स्कूल में पढ़ाने को ले गए । यह पढ़ना नहीं चाहता, घर में पिटाई होती, स्कूल में पिटाई होती अथवा कुछ होशियार है तो भी खेलना बचपन में बहुत पसंद होता, उस खेल में बाधा आती है, वहाँ कष्ट मानने लगते हैं । फिर विद्याध्ययन के कष्ट, दूसरे की डाट के कष्ट । चाहे अपराध भी नहीं किया उसमें फिर भी उसका बाप जरा-जरासी बात में झुंझला जाता, और थोड़ा बहुत अपराध बन गया तब तो डाट ही डाट पड़ती है । उसका दुःख भोगा । जैसे-जैसे बड़े होते गए वैसे ही वैसे विकार भाव के कारण दु:ख और बढ़ते गए । बड़ा हुआ और मानों गृहस्थी बसी तो अब विकल्पों की जाति बदलने लगी, और भिन्न-भिन्न कल्पनाएँ करके जरा-जरा सी घटना पर वह खेद मानने लगा । जीवन भर ही दुःख पाया है ।
संतानोत्पत्ति के संदर्भ में कष्ट का चित्रण―पंडित आशाधरजी ने एक चित्रण किया है । जिस समय इस पुरुष की स्त्री के गर्भ रह गया तो कितना कष्ट है उस बच्चे के कारण कि आते ही उसने इस पुरुष की प्रिय स्त्री का रूप बिगाड़ डाला । स्त्री दुर्बल हो गई, बेढंगी हो गई, रूप बिगड़ गया, यह बच्चा गर्भ में आया तो है, पर इसकी कितनी निर्दयता है अपने माता-पिता पर, इसका चित्रण किया है । जब गर्भ के दिन करीब-करीब पूरे हो गए तो उन दिनों उस बच्चे के माता पिता अत्यंत चिंतित हो जाते कि पता नहीं अब कैसे क्या होगा? ठीक-ठीक काम निपट पाएगा या नहीं । कहीं कोई कठिन घटना तो न बन जाएगी, यों दुःख मानते रहे उस बच्चे के माता-पिता । जब वह बच्चा उत्पन्न हो गया तो उसकी सम्हाल में अनेक-अनेक प्रकार से दुःख मानते रहे । जब वह बच्चा बड़ा हुआ और उसकी भी शादी हो गई तो उसने माता पिता से दृष्टि हटा ली, क्योंकि उसका उपयोग अब बदल गया । उस समय भी माता-पिता को-दुःख । और बड़ा होकर कही किसी बातपर घटना लेकर वह दुश्मनसा भी बन जाए । तो इस जीव ने मनुष्यभव में आकर कष्ट ही कष्ट भोगा । जैसे तैसे जीवन निकला, बुढ़ापा आया तो उस बुढ़ापे का प्राकृतिक कष्ट । तो ऐसी कष्ट वाली पर्याय से निकलकर नवीन देह में पहुंचेंगे और धर्म पुण्य के प्रसाद से स्वर्ग में पहुंचेंगे, तो बताओ इस मृत्यु से घृणा करना चाहिए या उसके अवसर में उमंग लाना चाहिए?
देहबंधन के कारण ही हुए पराधीनता, परिश्रम, व्याधि आदि के दुःखों से छुटकारा पाने का उपाय स्वाधीन विश्रांत रोगरहित अविकार चित्स्वरूप का उपयोग―यह सल्लेखना व्रतधारी अपने आप में मनन कर रहा है कि इस कर्मविपाक ने, इस शत्रु ने मुझे ऐसा संसार में पटक रखा हैकि मैं इंद्रिय के वश होकर नाना प्रकार के दुख भोग रहा हूँ । नाना प्रकार के भूख प्यास आदिक की वेदनाएँ कितनी कठिन हैं । कोई वेदना आ जाए तो चलो एक से तो निपट लिया मगर एक दिन में कई बार उससे निपटना पड़ता है । यह क्या कम दुःख है मगर यह मोही जीव वहां ही मौज मानता हैकि मैंने अच्छा खाया । श्वासोच्छ्वास जो निकलता है वह क्या सुख का कारण है? वह भी दुःख का कारण है । यह कब पता पड़ता कि यह ही श्वास जरा जल्दी-जल्दी निकलने लगे तो मालूम हो जाता कि कितना कष्ट है । अच्छा और धीरे निकल रहा तो थोड़ा कष्ट है, कोई सुख के संकेत नहीं है ये सब । फिर एक पेट भरने के खातिर कितना पराधीनता का संगम बनाया जाता है । मित्रजन बनाएँ, परिजन बनाएँ, कुटुंबीजन बनाएँ, ये अनेक व्यवस्थाएँ बनाते हैं एक पेट भरने के लिए । और यही तब तक चलता रहता है जब तक कि शरीर और कर्म से मुक्ति न मिल जाए । तो यह संसार रहने के काबिल नहीं है और इस संसार से छूटने का उपाय है तो केवल यही हैकि संसाररहित अविकार स्वभाव वाले अपने सहज आत्मस्वरूप की आराधना रखें कि मैं यह हूँ । बाहर में अन्य कुछ भी होता रहे, वह बाह्य की परिणति है । मैं अपने आप में अपने ही स्वरूप को भोगता रहूं । जीवन के दुःख देख लो व्यापार किया, खेती की, बड़ा कष्ट उठाया, ऋतुवें बदली ठंड के दिनों में ठंड के कष्ट उस समय यह मनुष्य कह उठता है कि इससे तो गर्मी अच्छी है । गर्मी के दिनों में गर्मी के कष्ट, उस समय यह मनुष्य कह उठता कि इस गर्मी से तो सर्दी अच्छी होती है । बरसात के दिनों में घिनावनासा लगता, वहाँ भी कष्ट मानता और फिर इस जीवन में पर के अधीन होना पड़ता है । तो इस समय ऐसे बड़े कष्ट से यह मृत्यु राजा हम को निकालने आया है तो इस समय उमंग रखना चाहिए कि भला अवसर मिल रहा है ।
कृतघ्न देह का पक्ष लेने में विमुग्धता का प्रकाशन―यह देह तो बड़ा कृतघ्न है । इसकी कितनी ही सम्हाल करते हैं भोजन से, आराम से, लेकिन यह देह क्या मन को शांति पहुंचा देता है? यह तो आकुलता में ही बढ़ाता है, राग को ही उत्पन्न करता है । यह देह कृतघ्न कहा गया है, इसकी बहुत सेवा की । इस देह को अच्छी तरह उठाया बैठाया, खिलाया, पिलाया, स्नान कराया, निद्रा लिवाई, अनेक आराम के साधन जुटाया, बड़े अच्छे-अच्छे वस्त्राभूषण पहिनाए, रात दिन इस शरीर के ही दास बने रहे, और इसकी सेवा करते हुए मैं अपने भगवान आत्मा को त्रास ही देता रहा । इतना तो मैंने इसकी सेवा की और अब यह देह भय दिला रहा । आत्मा को भुला रहा है । ऐसे कृतघ्न देह से कौन निकाल सकता है? जो इन सबसे बड़ा बलवान हो, ऐसा बलवान राजा है मेरी यह मृत्यु । सो अब उस ज्ञान सहित अपने आपके स्वरूप की सुध रखते हुए धर्मध्यान सहित, संक्लेश रहित होकर मरण करूं तो मैं भविष्य में इन दुःखों का पात्र न रहूंगा । इस कारण यह समाधिमरण मेरे को शरण है । यह देह समस्त दुःखों का देने वाला है । दु:ख तो निश्चयत: यह जीव ही अपने आपकी कल्पना से पाता है, अगर केवल जीव हो इसके साथ, शरीरादिक उपाधि न हो तो क्या इसकी कल्पना जग सकती है? कभी नहीं जग सकती तो इस कल्पना में सहयोगी यह देह बन रहा है । तो सर्व दुःखों को प्रदान करने वाले इस शरीर पिंड को दूर करके जो सुख संपदा दिलाने का कारण बन रहा है वह मृत्यु मित्र ही तो है । इस मृत्युमित्र के प्रसाद से भविष्य स्वर्ग संपदावों में बीतेगा धार्मिक वातावरण में बीतेगा । पंच कल्याणकों में तीर्थंकरों के साक्षात् दर्शन में मुझे विलंब न रहेगा ऐसे मरण से मेरे को हानि क्या है?
मृत्यु की कल्पवृक्षतुल्यता―यह सल्लेखना व्रतधारी अध्यात्मदृष्टि से, लौकिक दृष्टि से सब तरह से चिंतन कर रहा है और यह निर्णय पा रहा हैकि मृत्यु से मेरा नुकसान कुछ नहीं है । यह मृत्यु तो कल्पवृक्ष है । जिस कल्पवृक्ष के नीचे पहुंचकर देव अथवा भोगभूमिया मनुष्य जो कुछ सोचते हैं, मांगते हैं वह सब प्राप्त हो जाता है, ऐसे ही यह मृत्यु कल्पवृक्ष है । इस अवसर में हम जो चाहें सो प्राप्त हो जाएगा, पर इस चाहने से मतलब क्या? जैसा भाव करेंगे वैसाही फल प्राप्त हो जाएगा । यदि नरकादिक कुगतियों में जाना है तो उसका मौका यही है । मरणसमय में यदि ममता करे, रोए, चिल्लाये तो नरकादिक गतियां बड़े आराम से मिल जाएगी और यदि इसे भविष्य में सद्गति प्राप्त करना है तो उसका भी यह मौका है, रत्नत्रय धर्म की आराधना करे, वस्तुस्वरूप का उपयोग रखे अपने सहज आत्मस्वरूप की आराधना करे । बाहर के सारे विकल्पों को छोड़ दे ऐसी स्थिति से मरण होगा तो भविष्य उत्तम हो जाएगा । अच्छे सुख शांति के वातावरण का दाता निश्चय में आत्मा ही है, पर व्यवहार में निरखिए कि यह मरण समय न आए तो किए हुए तपश्चरण का फल कैसे प्राप्त हो? अरहंत भगवान तीर्थंकर इनका भी मरण होता है, पर उनके मरण को मरण नहीं कहते । निर्वाण, पंडित पंडित मरण कहते । आखिर आयु का क्षय तो होता ही है वहतो सदा के लिए सिद्ध अवस्था प्राप्त होना, शरीर कर्ममल से रहित पवित्र बने रहना यह पंडित पंडित मरण के प्रसाद से ही तो प्राप्त होता है ।
समाधिमरण में सर्वत: लाभ―यद्यपि हम यहाँ साधारण लोग हैं सकल परमात्मा नहीं हैं, सो सिद्ध अवस्था तो न प्राप्त होगी, पर सद्भावना रहे, धर्म की आराधना रहे तो जहाँ धर्म प्राप्त होता रहे ऐसी गति में, सत्संग में तो जन्म हो जाएगा, फिर वही से मनुष्य बनकर तीर्थकर होकर या अन्य चक्री आदिक होकर फिर निर्ग्रंथ मुनि बनकर तपश्चरण करके निर्वाण भी प्राप्त कर लेंगे । पर यदि प्रमाद करके दुर्ध्यान करके अभी ही मरण बिगाड़ लिया और खोटी गति में पहुंच गए तो आगे का फिर विश्वास क्या? यह पाया हुआ समागम बहुत अमूल्य समागम है । इसमें एक क्षण भी दुर्भाव न रखना चाहिए । जीवन बने दूसरे की भलाई का । दूसरे के द्वारा अपने को कष्ट भी पहुंचे तो भी उस जीव के सही स्वरूप का चिंतन करके उसकी भलाई ही सोचिये । जीवन ऐसा सद्भाव में व्यतीत हो तो इस जीवन में भी यह शांत रहता है और परलोक में भी यह शांत रहेगा । यह मरण समय उसके लिए सुख शांति का ही कारण होगा, जिस मरण के प्रसाद से यह जीर्ण शरीर छूटकर सारा नवीन समागम मिलेगा । वह मरण हर्ष के लिए होगा, कठिनाई के लिए न होगा । जैसे मिली हुई संपत्ति की बात लोग सोचते हैं कि हमने इतनी संपत्ति कमायी और अब इसे छोड़ रहा हूँ, अरे इतनी संपदा छोड़ रहे और कुछ ही सेकेंड में इससे हजारगुनी संपदा मिलेगी तो संपदा से कहां छूटे? वहाँ विशिष्ट संपदा पायी जाएगी? किसी दृष्टि से हानि क्या है? सद्भाव से मरण होगा तो इससे लाख गुनी संपदा प्राप्त होगी । न कुटुंब की हानि है । इस कुटुंब को छोड़कर जाएंगे सो विनयशील आज्ञाकारी परिजन प्राप्त होंगे । यदि सद्भाव से मरण हो तब की बात है । नहीं तो दुर्ध्यान से यहाँ भी मरे, आगे भी मरेंगे।
आराधना सहित मरण से कल्याण का लाभ―भैया, आत्माराधना सहित मरण होता है तो यह संस्कार विग्रहगति में भी रहेगा, जन्म समय में भी रहेगा और जो स्थिति जन्म समय में आ जाती है वह जीवन में भी रहती है । पहले भव में भी पढ़ा लिखा था और पहले भव को छोड़कर इस भव में आए तो अब फिर चाहे पहले एम0 ए0, डबल एम0 ए0 किया था लेकिन यहाँ तो फिर से ए0 बी0 सी0 डी0 पढ़̣नी पड़ेगी । वह सब बात कहां गई । वह सब इंद्रिय के साथ, मन के साथ वहीं खत्म हो गई, लेकिन यदि वह संस्कार रहा तो इस भव में चाहे ए0 बी0 सी0 डी0 से पढ़े मगर उसे विद्या झट आती है । प्रतिभा बढ़ती है, ज्ञान शीघ्र बढ़ जाता है । यह किस बात का अंतर है कि क्लास में मानों 20 छात्र पढ़ते हैं तो मास्टर सबको एकसा पढ़ा रहा है पर किसी छात्र की बुद्धि में बात जरा भी नहीं बैठती, किसी के कम बैठती, किसी के अधिक बैठती और किसी के इतनी बैठती कि जितना पढ़ाया उससे भी अधिक जानकारी कर ले । यह अंतर है पूर्वकाल में विद्यार्जन का और धार्मिकता के संस्कार सहित आत्मदृष्टि करते हुए भव छोड़ने का । अपना शरण, अपना साथी केवल सहज आत्मस्वरूप का दर्शन है किसी दूसरे का कुछ भी विश्वास नहीं है कि वह मेरी शक्ति का कारण बन सकेगा । अपने सहज परमात्मस्वरूप की आराधना में रहे तो यह हीं मैं ज्ञानमात्र हूँ । मेरा जानन रहे इतना ही काम है और इस जानन कार्य के करते हुए जो निराकुलता रहती है वही मेरा भोग है । इससे बाहर मेरा कुछ नहीं है । ऐसा दृढ़ता का भाव जिसके रहता है उसके पवित्रता बढ़ती है । कल्याण उसका होता है । मैं इस मरण समय पर इस सहज आत्मस्वरूप की ही आराधना करूं, इसही में उपयुक्त रहकर अन्य विकल्प करके इस शरीर को छोड़कर जाऊं, ऐसी उमंग रहती है मृत्यु के अवसर पर ज्ञानी व्रती श्रावक की ।
सल्लेखनाधारी श्रावक का समाधिमरण के लाभ का चिंतन―सल्लेखना के समय में यह श्रावक चिंतन कर रहा हैकि इस संसार में जन्मे, जीव पाया, जीवन में नाना दुःख भोगे, फिर मरण हुआ । फिर जन्मे, ऐसी धारा कब तक चलेगी? इस धारा के मिटने में ही कल्याण है । अनेक कुयोनियों में भ्रमण करते-करते आज सुयोग से मनुष्यत्व पाया जहाँ जैनशासन मिला, जिन-वचनरूपी अमृत कर्ण पात्र से पीने को मिलते हैं, ऐसे शुभ अवसर में यदि मरण समय में किसी बाह्य पदार्थ की इच्छा रखी तो वही जन्ममरण की परंपरा लंबी बन जाएगी । इस जगत में मेरा कहीं कुछ नहीं है । स्वरूपमात्र हूँ ज्ञानदर्शनस्वरूप, जानना देखना जिसका कार्य और इसही कार्य के बल से आनंद का भोगना वह ही मेरी दुनिया है । इसके अतिरिक्त जो कुछ भी है वह सब कर्म की छाया माया है, इसमें लुब्ध होने का कारण ही कुछ नहीं । अज्ञान ही कारण होता है । मैं कर्मों से निराला, देह से निराला अमूर्त ज्ञानमात्र हूँ मैं । अब मैं इस भगवंत आत्मतत्त्व की आराधना करता हुआ ही शरीर को छोडूँगा ।
मृत्युमहोत्वस के अवसर पर शाश्वत सहज परमात्मतत्त्व के आलंबन की शरण्यता―यह मृत्यु तो कल्पवृक्ष की तरह है । यहाँ समाधिमरण होगा तो सदा के लिए कल्याण का तंत्र हो जाएगा । इस रुग्ण अवस्था में या बड़े कठिन उपसर्ग की दशा में जो देह की हालत बिगड़ रही है अथवा जो समय बुरा बीत रहा है तो मृत्यु ही एक ऐसा मित्र है जिसके प्रसाद से यह असाता से छूटेगा, और साता का उद्भव होगा । मैं अविनाशी आत्मा अपने आपको ही देखने वाला यह मैं सर्वत्र निराकुल हूँ । देह में कुछ भी बीत रहा हो, यह तो परद्रव्य है उसकी परिणति का मैं ज्ञातादृष्टा हूँ । मुझ में और देह में तो महान अंतर है । मैं चैतन्य प्रकाशरूप हूँ । यह देह अचेतन है, मैं अमूर्त हूँ, यह देह पौद्गलिक पिंड है, मुझ आत्मा में न रोग है, न यह जलता है, न यह गलता है, न बहता है । यह देह जलता भी है, गलता भी है । मुझ में और इस देह में तो अत्यंत विपरीतता है, फिर इस देह का ख्याल क्यों करूं और इसका ख्याल रखकर क्यों विकल्प संकल्प करूं? यह तो अज्ञानियों का काम है । जिन्हें आत्मा की कुछ सुध नहीं है और देह को ही आत्मसर्वस्व मान रखा है, उनको ही संक्लेश हुआ करता है । मरण से भय उन्हीं को होता है जिनका चित्त संसार के कामों में आसक्त है । 5 इंद्रिय के विषयों में जिनका मन लुभा गया है और इसी कारण इन विषयों के साधनों में ही जिनका लोभ बढ़ गया है उनको मरण से डर है । मेरा तो स्वयं आनंदस्वरूप है । बाह्य पदार्थों की दृष्टि करके जो यह आत्मा अपने धाम को छोड़कर बाहर में डोल रहा है सो यह दु:खी ही होता है । विषयों के सुख, सुख नहीं हैं किंतु दुःख ही हैं । आत्मीय आनंद जो कि ज्ञान में ज्ञान ही हो, इस स्थिति को करके अनुभवा है । ऐसे स्वानुभव के आनंद को निरखने वाले मुझ आत्मा को विषयों से क्या प्रयोजन है? मेरा काम अनंत काल तक यह ही रहता है कि मैं ज्ञानस्वरूप ज्ञानरूप वर्तता रहूं और इसही ज्ञान स्थिति में निराकुल बना रहूं । इसके सिवाय मेरा और कोई व्यवसाय न होगा । देह और कर्म के बंधन से छूटकर अनंतकाल यह ही तो करूंगा । जो शुद्ध वृत्ति अनंतकाल तक रहेगी उसकी प्रतीक्षा, उसकी दृष्टि उसके उपयोग में कष्ट का क्या काम?
सल्लेखनाधारी भव्यात्मा के अंत: प्रसन्नता का कारण―यह सल्लेखना व्रतधारी सल्लेखना के काल में चूँकि ज्ञान और वैराग्य से वासित है अतएव भीतर बहुत प्रसन्न हो रहा है । सहज परमात्मतत्त्व के दर्शन में बहुत बड़ा प्रताप है । यह भव्य आत्मा अपने आपके स्वरूप में बसकर अलौकिक आनंद भोग रहा है, यह ही अमूर्त तत्त्व है । अमृत का पान करने से अमर हो जाता है, ऐसी लोक में रुढ़ि है, पर वह अमृत बाहर कहां मिलेगा? वह क्या पानी सा है? किस प्रकार का होता है वह अमृत? ‘मैं अविनाशी सबसे निराला ज्ञानमात्र हूँ ऐसे आत्मतत्त्व की दृष्टि बने यह ही वह अमृतपान है जिससे यह अपने को अमर अनुभवता हूँ’ । ऐसे जब बाह्य पदार्थों में मोह न रहा तो मुझ आत्मा का कुछ यहाँ न रहा । वहाँ मैं ही रहूंगा और अपने आपकी दृष्टि में भी मैं ही रहूंगा । यह तो एक प्रमोद का अवसर है कि ऐसी जीर्ण शीर्ण हालत को छोड़कर मैं अन्यत्र जा रहा हूँ । मैं औपाधिक दुःखों से दूर हो रहा हूँ । अपने आपको निरखने वाले आत्मा के किसी भी प्रकार का कष्ट नहीं होता ।
मरण समय में विषयासक्तचित्तों के मरण का भय व भेदविज्ञानी संतों के निर्भयता व प्रसन्नता―अज्ञानीजन ही जिनको बाह्य विषयों में विश्वास है वे दु:खी रहा करते है । खाने पीने विषय भोगने को ही जिसने सुख माना है । मरते दम तक भी बुद्धि सही नहीं बनती और आस्था यही रहती हैकि विषयों के भोगने में ही सुख है । ऐसी अज्ञान वासना में आसक्त पुरुष अपना मरण जानते है और दुखी होते है कि हाय मेरा नाश हो रहा । अब यह खाना पीना बिल्डिंग ये आराम, ये परिजन कहां रहेंगे? मरने के बाद क्या होगा । अब ये मेरे कुटुंबीजन जो बड़े प्रेम से बोलते थे वे सब छूटे जा रहे हैं । अब मैं किसकी शरण ग्रहण करूंगा? ऐसा बड़ा संक्लेश करके मरण करता है, किंतु ज्ञानी जीव तो प्रसन्नता के साथ शरीर को छोड़ रहा है । उसको दृढ़ निर्णय है और इसकी दृष्टि में हैकि जो मेरा सब कुछ है वह सब कुछ मैं अपने साथ ले जाऊंगा और जो मेरा कुछ नहीं है वह कुछ है ही नहीं, पड़ा रहे तो पड़ा रहे, उसका विषाद क्या? मेरा सब कुछ है दर्शन ज्ञान चारित्र । आत्मा के गुण, स्वरूप, वह साथ ही जाएगा । यहाँ विनाश कहां हुआ? सम्यग्ज्ञानी, जीव को मरण समय में विषाद नहीं होता । यह मैं इस जीर्ण, शीर्ण जेलखाने की देहकुटी में बंद पड़ा हुआ हूँ, चिल्ला रहा हूँ । यहाँ से निकलूंगा तो यहाँ की यह दुर्दशा तो दूर हो ही जायगी । यह मृत्यु मित्र के प्रसाद से ही तो हो रहा है । सत्यस्वरूप जिन्होंने जाना उनको मरण समय में भी कष्ट नहीं है । जीवन में भी कष्ट नहीं है ।
अविकार स्वभाव सहजपरमात्मतत्त्व की आराधना में वास्तविक आनंद―आनंद तो उनके है जिनके भेदविज्ञान जग रहा है । वस्तु का स्वरूप सही समझ रहे हैं । सर्वपदार्थों की स्वतंत्र-स्वतंत्र सत्ता बिल्कुल स्पष्ट है । जीवन तो उनका धन्य है । यदि विषय आराम भोग के मिलने में ही जीवन की सफलता मानी जाय तो गधे सूकरों ने कौनसी और दूसरी बात की है? वे भी खाते-पीते विषय भोगते, मोह करते, सब कुछ कर रहे हैं । धन्य जीवन तो उनका है जिनको ज्ञानप्रकाश मिला है । ज्ञानप्रकाश मिलना, समग्र चेतन अचेतन पदार्थों की भिन्न-भिन्न सत्ता का निगाह में बना रहना यह वह वैभव है जिसकी तुलना तीन लोक के पौद्गलिक ढेर भी नहीं कर सकते । तो संसार के अनेक कष्टों से बचाने वाला यह मृत्यु राज आया है, जिससे प्रसाद से जीव अनंत दुःखों से छूटकर अनंत सुखों में पहुंच जाता है उस मृत्यु के अवसर पर यह अपने में बड़ी प्रसन्नता रख रहा है अपने को दृष्टि में लिए हुए, मार्ग की सुगमता बना रहा । अब यह मैं इस शरीर से जुदा हो रहा हूँ, इसको रोकने के लिए कोई भी समर्थ नहीं हो सकता । कितने भी रिश्तेदार हों, कितने ही मित्रजन हों यह सबसे निराला स्वतंत्र है, अपने ही परिणमन से परिणमता हुआ अपना कार्य कर रहा है । इस समय आत्मस्वरूप की दृष्टि ही शरण है । मेरा स्वयं अपने सत्त्व के कारण जो सहज चैतन्यस्वरूप है उसकी आस्था, उसी का उपयोग और इसही उपयोग का बना रहना और इसही शुद्ध स्वरूप में उपयोग का प्रताप बढ़ाना, यह ही मेरी सब दर्शन ज्ञान चारित्र तप की आराधना है । मैं इन चार आराधनाओं सहित अपने उस सहज आनंद को भोगता हूँ ।
सल्लेखनाधारी श्रावक की निज अचल अंतस्तत्त्व में अचल प्रतीति―सल्लेखनाधारी श्रावक चिंतन करता है कि इस मृत्यु के संबंध में पूर्व ज्ञान के उदय से राग आए, कि कठिन व्याधियां आएँ, दुःख उत्पन्न हो, कफ बढ़ गया, शरीर कफ से हिल जाता है, खांसी से कंप जाता है, ऐसी कठिन भी स्थिति देह की हो वहाँ भी मैं अचल आत्मा अपने इस सहज परमात्मस्वरूप में ही निवास कर रहा हूँ, चल में भी अचल हूँ । सारा देह चल रहा है, पर यह मैं भीतर तो अचल हूँ । मेरा स्वरूप केवल प्रतिभास मात्र है । मैं उसको निरखूँगा । अज्ञानी जीव ही देह में तन्मय होकर देह में रहने को ही सुख मानते हैं । यह देह जो हाड़ का पिंजरा है जिसे लोग तुरंत जला देंगे इस देह से मेरा क्या मतलब है? मैं-मैं हूँ, परिपूर्ण हूँ, अविनाशी हूँ । आनंदस्वभाव वाला हूँ । मैं यहाँ से अलग हूँ कौनसा कष्ट है? यह ज्ञानी अपने आत्मा को अपनी दृष्टि में रखता हुआ प्रसन्न रह रहा हैं । यह तो और अच्छा हुआ कि इस देह में वेदना राग दुःख हो रहा है । जिससे मैं चेत तो पाया । अब इसमें मोह तो नष्ट हुआ, सुख में मोह बढ़ता है । दुःख में मोह के नाश का अवसर आता है । जो बीत रहे बीतने दें, मैं तो उसका ज्ञाता ही रहूंगा । यदि इस अवसर पर चूक जाऊं, संक्लेशमरण करूं, एकेंद्रिय आदिक में जन्म लूं तो मेरा तो चिरकाल के लिए अकल्याण हो गया । यों यह सल्लेखना के काल में रागद्वेष मोह को कृष करता हुआ अपने में अचल ज्ञान प्रकाश को अनुभवता अलौकिक आनंद पा रहा हूँ । जिसे मरण समय में ऐसी आत्मदृष्टि जगती है वह तो लौकिक जनों के द्वारा पूज्य है । भले ही कोई गृहस्थी में, श्रावक दशा में ही समाधि मरण कर रहा हो पर समाधिमरण करने वाले की स्थिति आदर्श और पूज्य होती है । मात्र थोड़े से कपड़े शरीर पर हैं । उनको भी यह दूर करके मुनिव्रत अंगीकार करता है । नहीं कर सका यह काम इस गृहस्थ पद मैं तो भी इस सल्लेखनाधारी का न कपड़ों में राग है, न कुटुंब में राग है, न देह में राग है । उसकी दृष्टि में तो अमूर्त ज्ञानप्रकाश ही विराज रहा है । जो मैं हूँ उसही को मैं जान रहा । यह श्रावक जीवनभर व्रत तपश्चरण करके सदाचार में बढ़कर अब इस परीक्षा के अवसर में शुद्धभावों से रहता हुआ अपना जीवन सफल कर रहा है ।
रोगादिक वेदना की स्थिति को भी भले के लिए मानना―सल्लेखनाधारी श्रावक चिंतन कर रहा है कि जो मेरे कोई रोग वेदना है सो यह तो देह में ममत्व घटाने के लिए बड़ा उपकार कर रहा है । यदि रोगादिक न होते और बड़े सुख आराम में देह रहता तो देह से ममता न छूटती और रोग होता है सो वे पहले बंधे हुए कर्म निकल रहे हैं इसका सूचक है, सो यह तो कर्मनिर्जरा के लिए है । जो कर्मबंध किया था, जिसके उदय में रोग होते थे उनका उदय आया, रोगादिक हो रहे हैं तो वे पापकर्म के निकलने के संकेत ही तो दे रहे हैं, उनसे मेरी क्या हानि? मैं तो अमूर्त ज्ञानमात्र अविनाशी हूँ । मेरा विनाश नहीं होता । यदि मुझे जो कुछ वेदना या दुःख हो रहा है तो वह इस शरीर के संबंध से हो रहा है फिर इन शरीरों की ममता क्यों जिसके कारण मुझे दुःख पहुंचे? उसमें मोह क्यों हो? मेरी दृष्टि तो आनंदमय ज्ञानस्वरूप आत्मा में ही हो । जैसे लोहे पर कोई चोट मारता, पर लोहे की संगति से अग्नि पर भी चोट पड़ रही है । केवल अग्नि पर कौन चोट करेगा? ऐसे ही शरीर की संगति होने से मुझ आत्मा को वेदना हो रही है नहीं तो मुझ आत्मा में वेदना का क्या काम था? मैं आत्मा तो अमूर्त हूँ । जैसे अग्नि से झौपड़ी जलती है, पर झौपड़ी के बीच का आकाश नहीं जलता, ऐसे ही रोगरूपी अग्नि से शरीर का ही नाश होता है, पर इसके बीच रहने वाले मुझ आत्मा का नाश नहीं होता । इस समय रोग व्याधि से कायर बनकर अपने परिणाम बिगड़ेंगे तो मैं कुगति पाऊंगा । जो कर्म उदय में आए हैं वे तो आए ही हैं, अपने उपजाए कर्म को खुद को ही भोगना पड़ेगा । अब कायर होकर, अधीर होकर भोगेंगे तो वे कर्म न झड़ेंगे और धीर होकर भोगेंगे, तो वे कर्म अपना उदय दिखाकर निकल जावेंगे । विवेक इसी में हैकि मैं अपने ज्ञानस्वरूप अंतस्तत्त्व को निहारकर इस देह वेदना से मुक्त होऊं ।
मरण व रोगादिक की वेदना में धीरता लाने वाला विज्ञान―मरण तो कोई भय की चीज नहीं है अब तक अनंतबार मरण किया । मरण कोई एक नई चीज नहीं है । इसका अभ्यास तो अनंतकाल से चल रहा है । वह तो आदत बन गई है । उस मरण का भय क्या है? मरे, दूसरे शरीर में गए, पर अज्ञानवश बाह्यपदार्थों में ममता आयी, किसी भी प्रकार का संक्लेश जगे तो उसमें मेरा अकल्याण है । मैं अनेक बार शस्त्रों से मारा गया, अग्नि में अनेकों बार जलकर मरे । बड़े-बड़े उपद्रवों के बीच मरे । आज तो उपद्रव ही क्या है? तो जो रोगादिक की वेदना है उसे मैं धीरतापूर्वक सहूं और उस नियम में रहकर ही इस शरीर से प्रयाण करूं । क्षुधा वेदना होती है तो यह क्या है? नरकों में क्षुधा इतनी है कि सारा अनाज खालें, फिर भी क्षुधा न मिटेगी, पर एक दाना भी नहीं मिलता । उसके आगे क्षुधा क्या है? वहाँ इतनी तृषा रहती कि सारे समुद्र का पानी पी लेवे नारकी फिर भी प्यास न बुझे, अब तो प्यास ही क्या है, अथवा यह देह है, कभी इसमें तृषा की बात आती है तो अपने आप ही थोड़ी देर बाद स्वयं ही ऐसा परिणमन हो जाता है कि वह तृषा नहीं रहती है । इसका क्या अधिक विकल्प करना? अपने संयम को भंग न करना । यदि एक बार भी समाधि पूर्वक मरण हुआ होता तो आज संसार के जन्म मरण ये न सहने पड़ते । मैं समाधि के अवसर पर अपने आत्मा को निरखता हूँ और अपने आप में अपने को स्वाधीन बनाता हूँ ।
मृत्यु की श्रेयस्करता―सल्लेखना ग्रहण करने वाला श्रावक चिंतन कर रहा है कि इस लोक में मृत्यु जगत में आताप करने वाली है । मृत्यु से सबको कष्ट होता है लेकिन सम्यग्ज्ञानी के तो मृत्यु निर्वाण के लिए होती है । मृत्यु कष्टदायी है ऐसी प्रसिद्धि जो लोक में है वह सही नहीं है । अगर ज्ञान नहीं है तो मृत्यु कष्टदायी है । ज्ञानी को मृत्यु अमृत का संग करने वाली है । निर्वाण अमृतपद है । अरहंत भगवान की आयु का क्षय नहीं होता, तो सिद्ध पद कैसे मिलेगा? भले ही अरहंत भगवान के मरण का नाम पंडित पंडित मरण है, चूँकि उसके बाद जन्म नहीं होता इस कारण उसका मरण नाम भी लिया जा रहा है । पर आखिर आयु का क्षय होना मरण ही तो कहलाता हैं । तो सकल परमात्मा का यह मरण निर्वाण पद देने का कारण बन रहा है । कहां यह नियम रहा कि मृत्यु संताप को उत्पन्न करता है? यह तो अज्ञान और ज्ञान का फैसला है । अज्ञान में मृत्यु के अवसर पर संताप होता है पर ज्ञानप्रकाश में मृत्यु से कोई संताप नहीं होता । यह घड़ा बनाया गया, सूख गया, कच्चा है अभी, पर उसे अग्नि में पका देने से वह घड़ा पक्का हो जाता है तो कच्चे घड़े से कोई पानी नहीं खींच सकता न उसमें पानी भर सकता । अगर वह पंक जाए तो अमृतरूपी जल के भरने के काम आता है ऐसे ही यह मृत्यु का अवसर इस आत्मा को पकाने जैसा अवसर है । इस अवसर में अगर समताभाव से आताप और वेदनाएँ सह ली जाएँ तो यह आत्मा अनंतकाल के लिए निर्वाण लाभ लेकर सही शांत आनंदमय रहेगा । जैसे कि अग्नि से पके घड़े में बरसों पानी रखते जाइए ऐसे ही एकं बार भी समता परिणाम सहित सर्व उपद्रव वेदनावों को सह लिया जाए और इस ज्ञानानंदस्वभाव अंतस्तत्त्व की दृष्टि दृढ़ कर ली जायतो इसे आगे निर्वाण प्राप्त होगा ।
समाधिमरण का अपूर्व लाभ―इस समाधिमरण के अवसर पर यह एक बड़े लाभ का सुगम समय मिला है कि बड़े-बड़े व्रतों के प्रयास करने का जो फल प्राप्त हो सकता है वह महाफल इस मृत्यु के समय में समताभाव के कारण सहज ही प्राप्त हो जाया करता है । लोक में बड़े पद माने गए हैं―इंद्र का पद, चक्री का पद और अंतिम पद है निर्वाणपद । सो यह पद बड़े घोर तपश्चरण से प्राप्त किया जा सकता है । सो यदि मृत्यु के इस अवसर पर चेतन अचेतन समस्त परिग्रहों की ममता छोड़ दी जाए और निर्भय होकर अविकार ज्ञानस्वभाव की दृष्टि रखी जाए इस शुद्धस्वरूप का शरण गहा जाए तो ऐसा उत्कृष्ट पद पाकर निकटकाल में मनुष्यभव में निर्ग्रंथ मुनिपद धारण कर निर्वाण प्राप्त किया जा सकता है । तो समाधिमरण कितना एक सुंदर अवसर हैकि एक समता परिणाम ही कर लिया जाए तो महाफल प्राप्त हो जाएगा । इस मरणकाल के अवसर में यदि आत्मरूप परिणाम नहीं है तो समझो कि दुर्गति के पात्र हैं और यदि आत्मरूप परिणाम हैं तो समझो कि वह नरक तिर्यंच जैसी खोटी गतियां तो पाएगा नहीं । नरक या तिर्यंच आयु का बंध किया हो तो उसके मरण समय में समता के परिणाम हो ही न सकेंगे । फिर भी यदि ज्ञानबल है तो वहाँ भी समता का प्रयास किया जाता है, ताकि कुगति भी मिले तो उसमें भी कुछ वहाँ के लायक अच्छी स्थिति मिल सकती । तो समता परिणाम पूर्वक मरण करने वाले जीव को तिर्यंचगति, नरकगति नहीं प्राप्त होती और जो धर्मध्यान सहित अनशन आदिक तपश्चरण सहित समाधिमरण हो तो वह महर्द्धिक देव होगा, इंद्र होगा, उसके अन्य पर्याय संभव नहीं है ।
अपूर्वफल पाने का अवसर समाधिमरण―यह सल्लेखनाधारी अपने आपके आत्मा को समझा रहा है कि जो तप तपा है जीवन में, जो व्रत आदिक पाले हैं जीवन में, जो अन्वेषण किया है जीवन में, जो जिनवचन सुना है जीवन में उनका फल तो इस मृत्यु काल में समाधि द्वारा ही प्राप्त होने को है । बड़े-बड़े तप तपे, बड़े-बड़े इंद्रिय विषयों की वांछा छोड़ी, अनशन आदिक तपश्चरण किया तो इतना महान संयम जो पाला वह अंत समय में समाधिमरण के लिए ही तो है । यदि यहाँ समताभाव न रह सके तो उस व्रतादि के पालन का अर्थ अत्यंत कम रह जाता । अनेक प्रकार के व्रत पालन किए, रात्रि भोजन त्याग, अभक्ष का त्याग, एकाशन, अनशन, आचरण, सारे जीवन में जो व्रत पाले हैं और उन व्रतों के पालन के समय समताभाव भी धारण किया है और आज अब मरण के अवसर पर समता बिगाड़ लू तो उसका प्रयोजन क्या रहा? सारे जीवनभर संयम किया तो अब उसकी लाभ मिलने का अवसर आया है अर्थात् संयम परिणाम रहने से ही मुझे भगवंत परमात्मस्वरूप की प्राप्ति होगी । बड़े-बड़े ग्रंथों का अध्ययन किया । जीव अजीव आदिक तत्त्वों का परिचय किया, नय विभाग से सर्व वस्तुस्वरूप जाना, जीव और कर्म विषय अनेक घटनाओं का बड़ा ज्ञानसंपादन किया जीवन में, उसका फल यह ही तो है कि मरण समय में समता परिणाम रहे । यदि मरण समय में ममता, डर, विरोध, कायरता, दीनता दूर न की तो जितना जीवन में धर्म कार्य किया वह सब निरर्थक हो जाता है । इस चिंतन से यह श्रावक सल्लेखना के अवसर पर अपनी बड़ी सावधानी बनाए है बारबार अंत: स्वरूप की दृष्टि करता है । मैं देह से निराला अमूर्त ज्ञानमात्र हूँ इसकी प्रतीति तो निरंतर है पर समय-समय पर अनुभूति भी चलती रहती है ।
देह से ममत्व हटाने का एक और चिंतन―समाधिमरण करने वाला विचार कर रहा है कि लोक में यह नीति पायी जाती है कि जिसका अत्यंत अधिक परिचय हो जाए उसमें फिर लोगों की अवज्ञा होने लगती है, उसके प्रति गाढ़ प्रीति नहीं रहती है, उससे उपेक्षा होने लगती है । यहाँ इस शरीर का कितना बड़ा परिचय है, भव-भव में यह देह मिला, अनंतकाल से इस देह का परिचय चल रहा है, तब फिर इस शरीर की तो उपेक्षा करना ही ठीक है । यदि आज यह देह मिट रहा है तो उसमें डर का क्या काम? और फिर यह जीर्ण शीर्ण शरीर रोगी, वृद्ध, तथा अत्यंत दुर्गंध देने वाली चीजों से भरा है ऐसे खोटे शरीर के नष्ट होने के कारण नवीन शरीर मिलने के समय क्यों कायरता धारण की जा रही है । वस्तुस्वरूप का परिज्ञान करके चेतन अचेतन बाह्य परिग्रहों में ममता को तज देना और ऐसी अविकार दृष्टि रखकर शरीर से निकलना इसको कहते हैं समाधिमरण । जिसने समाधिमरण एक बार भी प्राप्त किया हो उसको निकटकाल में संसार के समस्त संकटों से छुटकारा मिल जाता है ।
स्व में स्वत्व की भावना―सल्लेखना धारण करने वाला व्रती श्रावक चिंतन कर रहा है कि इस समय जबकि मैं देह को छोड़कर जा रहा हूं तो जो मेरे साथ जाएगा उसका तो मुझे अनुराग है और जो मेरे साथ न जा सकेगा उससे अनुराग करने से लाभ क्या? साथ जाएगा मेरा स्वरूप और साथ ही सद्भावना । साथ जाया करते हैं अच्छे बुरे संस्कार और पुण्य पाप कर्म, पर बुरे संस्कार और पाप का फल तो बुरा है । उससे तो मेरा प्रयोजन ही कुछ नहीं? प्रयोजन तो मेरा एक कारण समयसार से है, अपने स्वरूप से है । मैं हूँ और अपने सहज स्वरूप को लखता रहूं बस इसके फलरूप शुद्ध परिणति होगी । होगी, किंतु वह मेरे लक्ष्य में नहीं है । वह तो फल है, मेरे लक्ष्य में तो यह एक सहज ज्ञानानंद स्वरूप रहे । जो साथ न जाएगा वह क्या है? यह कुटुंब, धन, संपदा, मित्रजन, शरीर ये कुछ भी साथ नहीं जाने के हैं । इनसे मेरा कुछ प्रयोजन नहीं । मेरा स्वरूप क्षमाशील है । ऐसा क्षमाशील अविकार स्वरूप ही मेरी दृष्टि में रहे । शांति इसके ही स्व के आलंबन में है, अन्यत्र शांति नहीं । अथवा वस्तुस्वरूप का यही तकाजा है, जैसा मैं हूँ वैसा ही लखता रहूं, स्वरूप के विरुद्ध कुछ देखेंगे तो उसका फल संसार संकट है । मेरा स्वरूप जो है सो ही है । नम्र है, इसमें मान कषायरूप विकार नहीं है । यह विकार सब कर्म की फोटो है कर्म में उदित हुई है, मुझ में झलकी है । अज्ञानीजन ही उस झलक को अपना स्वरूप मानकर कषाय करते हैं । वह मेरा स्वरूप नहीं है । मेरा स्वरूप सरल है । वहाँ टेढ़ मायाचार का कोई स्वरूप नहीं, स्वभाव नहीं । तृष्णा लालच ये सब मेरे में कोई विकार नहीं । मैं यथार्थ ज्ञानानंदस्वरूप सत् लिए हुए हूँ । अपने सत्व से हूँ । अपने उस स्वरूप में ही मैं रमूंगा । इस स्वरूप में रमते हुए मेरे चैतन्य का प्रताप बढ़ेगा । सो वही मेरा वास्तविक व्यवसाय है । अपने आपको मैं ग्रहण करूं सो जो मेरा नहीं है वह अपने आप छूटेगा । मुझ में कोई बाहरी पदार्थ नहीं है, ऐसा चिंतन कर यह सल्लेखनाधारी अपने आपके सहज ज्ञानस्वरूप में रम रहा है।
अंतस्तत्त्व की ध्रुवता व शरण्यता―जगत में जितने भी पदार्थ दृश्यमान हैं वे सब मायामय हैं, विनाशीक हैं । इन सबमें परमार्थ तो परमाणु-परमाणु हैं और मुझ में यह मैं चैतन्यस्वरूप परमार्थ हूँ । मायामयी वस्तुवों से प्रीति करना व्यर्थ है, उससे धोखा ही मिलेगा, आत्मा को शांति नहीं मिल सकती । ये सब विनाशीक हैं । यह मैं सहज आत्मस्वरूप अविनाशी हूँ । अविनाशी होकर विनाशीक वस्तु में लगाव लगाना अज्ञान का काम है । बाहर में मुझे कुछ भी शरण नहीं है जब मैं अपने उपयोग को अपने स्वरूप से हटाकर बाहर लगाता हूं तो यही मैं अशरण कहा जाता हूँ । मेरा शरणं है मेरा शाश्वत स्वरूप, जो कभी मुझ से अलग नहीं होता । यह मैं उपयोग ही कल्पना से अलग हो बैठता हूँ, पर मेरा भगवान परमात्मा ऐसा स्वभाव वाला है कि मुझ से कभी भी अलग नहीं हो रहा । जब मैंने अज्ञान से पाप किया, भोगों में रहा तो वहाँ भी मेरा भगवान आत्मा अलग नहीं हुआ था, पर मैं ही उसे न देख रहा था और मेरे इस अपराध के कारण भगवान परमात्म तत्त्व पर आवरण पड़ा हुआ है । अब मेरे को मेरा भगवत्स्वरूप दृष्टि में है बाहर पदार्थों से शरण का काम ही क्या है?
अंतस्तत्त्व की सारभूतता, एकत्वगतता-विविक्तरूपता व शुचिरूपता―मेरे लिए सारभूत पदार्थ केवल मेरा स्वरूप ही है अन्य बाह्य पदार्थ रहे वह अपनी परिणति से रहेगा । सभी पदार्थ अपनी सत्ता कायम रखने के लिए निरंतर परिणमन किया करते हैं । सबका काम उनका उन्ही सबमें है, उनसे मेरा कुछ भला नहीं है बुरा भी नहीं है उनके लगाव में बुरा है भला नहीं है । अब मैं अपने सद्भूत इस परम पारिणामिक भावरूप सहज चैतन्य स्वरूप को ग्रहण करता हूँ । यह मैं सर्वत्र अकेला हूँ, स्वरूप में भी एक हूँ, बाहरी पदार्थों में भी एक हूँ, मेरा कोई साथी नहीं है । सब मुझ से निराले हैं । जब मेरा किसी अन्य से रंच संबंध नहीं है तो मैं क्यों अपने स्वरूप से चिगकर बाहर दृष्टि दूं? मैं पवित्र ज्ञानानंद शरीरमय अपने आत्मा को ही देखूँ । इस देह से भी मेरा क्या प्रयोजन है? देह न रहे यह तो मेरे कल्याण के लिए है और देह मिलते रहें यह मेरे अकल्याण के लिए है । जब मैं देह पर दृष्टि देता हूँ, अन्य पदार्थों की ओर उपयोग लगाता हूँ, तो मेरे इस उपयोग के कारण अनेक कर्मों का आना होता रहता है । आते हैं तो बंधते उसी क्षण हैं और उनमें अनुभाग भी बंधता है अपनी स्थिति पूरी होने पर या पूरी होने से ही पहले कारणवश उनका अनुभाग फूटता है जिससे मेरे इस सहज ज्ञानस्वरूप भगवान आत्मा को बड़ी चोट पहुंचती है, आक्रमण होता है इस पर और यह दबा-दबा रहता है, जिसके फल में संसार में परिभ्रमण करना होता है । अब मैं अपने इस अविकार स्वरूप को ही निरखता हूँ । यहाँ ही मेरी दृष्टि रहे, यहाँ ही मैं बना रहूं । इसमें मेरी रक्षा है और इसी के प्रताप से पहले के बांधे हुए आए हुए कर्म बैरी भी अपने आप दूर हो जाएँगे । सल्लेखना धारण करने वाला पुरुष अपने आपकी स्थितियों के बारे में विचार कर रहा है कि मैंने अनादि काल से अब तक अनंतकाल अज्ञान में खोया, जन्म मरण किया । मिथ्यादर्शन, ज्ञान, चरित्र के कारण लोक में अनंतबार सर्वत्र जन्मा मरा, अब थोड़ीसी बिंदु बराबर भूमि पर प्राप्त हुए इन समागमों में राग करना, विरोध करना यह बिल्कुल बेहूदापन है । मैं तो अपने स्वभाव को ही निरखता हूँ जिसके प्रताप से सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र का विकास होता है । मेरा स्वरूप स्वयं धर्ममय है । स्वभाव में और मुझ में भेद नहीं है । मैं स्वयं धर्ममूर्ति हूँ । अत: स्वरूप को निरखकर सल्लेखनाधारी अनुभव कर रहा है । इस धर्म में, इस आत्मस्वरूप में कष्ट का नाम ही नहीं है, सो मैं कष्टरहित इस अविकार पवित्र ज्ञानस्वरूप में ही अपने ज्ञान को चेतता रहूं । आत्मस्वरूप में दृष्टि रखने वाले, रमने वाले पुरुष को अंत: प्रसन्नता रहती है, वेदना नहीं रहती और कदाचित पूर्वबद्ध कर्म के उदय से कोई वेदना आयी है शरीर में रोग हुआ है, कितना ही कठिन रोग हुआ हो, कफ खांसी निरंतर चल रहे हों, शरीर में भी ज्वर के कारण एक वेदना मच रही हो । कितनी ही कठिन वेदना हुई हो, ये वेदनाएँ कोई वेदनाएँ नहीं हैं । अपने पुराण पुरुषों की वार्ता याद कीजिए, उन्होंने कैसी कठिन-कठिन वेदनाएँ पाई, वे कभी आत्मस्वरूप से चलित नहीं हुए ।
उपसर्ग विजेता श्री सुकुमाल मुनि की समता का स्मरण―सुकुमाल महामुनि हुए जो कि गृहस्थावस्था में बड़े सुकुमार थे, बहुत बड़े धनी होने के कारण सुकुमाल पुत्र से अधिक अनुराग होने के कारण उनके माता पिता ने उनको बहुत आराम सुविधा दी थी । और यह जानकर कि यह पुरुष विरक्त हो जाएगा किसी मुनि को निरखकर तो बड़े विशाल महल बाग बगीचे के अंदर ही उनको रमने के स्थान बना दिया था । रत्नों के दीप प्रकाश में रात्रि में उनका आवागमन रहता था । दीपक की ज्योति को सुकुमाल देख न सकते थे, आँखों में अश्रु आ जाते थे । कमल के फूलों से सुगंधित चावलों का ही भोजन किया करते थे । बिना सुवासित चावल खा न सकते थे । सुकुमाल महामुनि जो गृहस्थावस्था में सुकुमार थे, वही सुकुमाल जब वैराग्य आया, घर से बाहर निकले, कोई साधन न था तो धोतियों की गांठ लगाकर नीचे लटकाकर ऊपर से उसके सहारे उतरे । बिना जूतों के सुकुमाल चले जा रहे । पैरों से खून भी चूने लगा पर प्रसन्न थे वे इस धुन में कि संसार, शरीर, भोगों का लगाव छोड़कर अपने आत्मा के सहज आनंदमय स्वरूप में प्रीति करके अब मैं कृतार्थ होऊंगा। इस धुन में प्रसन्न हुए चले जा रहे हैं, मुनिराज दिखे, दीक्षा ली, ध्यानस्थ हो गए । अब रास्ते में जो उनके पैर के खून के बूँद पड़े थे । उनके सहारे एक स्यालिनी अपने बच्चों सहित वहाँ पहुंची । और उस स्यालिनी को सुकुमाल से था पूर्वभव का विरोध, तो उस बैर विरोध के कारण उसे इतना क्रोध आया कि सुकुमाल महामुनि के पैरों का भक्षण करने लगी, उसके बच्चे भी भक्षण करने लगे । ऐसे कठिन उपसर्ग में भी उन्होंने धीरता न त्यागी और एक अविचल सहजस्वरूप में उपयोग रमाकर अविचल रहे, जिसके प्रताप से वे सर्वार्थसिद्धि गए, जहाँ 33 सागर पर्यंत तत्त्वचर्चा में प्रसन्न रहकर वहाँ की इतनी स्थिति गुजार कर मनुष्यभव पाकर मोक्ष जाएँगे । तो देखिए उन पर आया हुआ वह दुःख कितना था कि उनके शरीर को चीथा, मांस खाया, ऐसी स्थिति में जो वेदना हो सकती है उसके सामने हम आपको क्या वेदना है? कुछ भी वेदना नहीं है । और वेदना आए तो उसे धीरता से सहेंगे तो यह उदय कराएगा । धीरता छोड़कर संक्लेश करेंगे तो यह उदय कराएगा । धीरता में वेदना कम है अथवा न होगी । समता परिणाम होने से सद्गति होगी । उसके कोई कठिन वेदना नहीं है । तो सल्लेखना धारी पुरुष चिंतन कर रहा है । पुराण पुरुषों का । जो अपने कुल में पुराण पुरूष हुए हैं वे है अपने सब पुरुखा ।
उपसर्गविजेता सुकौशल मुनिराज के अंतर्ध्यान की स्मृति―एक सुकौशल मुनिराज हुए । वे जब बच्चे थे तभी उनके पिता कीर्तिधर मुनि हो गए थे मंत्रियों ने बहुत समझाया पर न माने, और किसी से यह भी विदित हुआ यह बच्चा यदि किसी मुनि के दर्शन कर लेगा तो यह भी विरक्त हो जाएगा । तो सुकौशल की मां ने यह प्रबंध किया कि यहाँ पर कोई मुनि न आ सकेगा क्योंकि यदि कोई मुनि आ गया तो मेरा पुत्र विरक्त हो जाएगा, एक तो मैं पति से वियुक्त हो गई, दूसरे अपने पुत्र से भी वियुक्त हो जाऊंगी, यह सोचकर उसने बड़ा कड़ा प्रबंध कर दिया कि वहाँ कोई मुनि आ न सकेगा । एक बार द्वारपाल की असावधानी से कीर्तिधर मुनि महल की सीमा में चर्या के अर्थ आए । उस समय सुकौशल की मां ने कीर्तिधर को अनेक गालियां सुनायी और वहाँ से उन मुनि को निकलवा दिया । यह देखकर सुकौशल की धाय को बड़ा कष्ट हुआ और उस धाय के आंसू आ गए । धाय को रोता हुआ देखकर सुकौशल का चित्त भीग गया और कहा मां तुम को क्या दु:ख है । अपने दुःख का कारण बताओ? धाय भी मां की तरह होती है । जो दूध पिलाए, बच्चे को पाले पोषे । धाय मां से कम नहीं है, फर्क सिर्फ इतना है कि धाय के पेट से पैदा नहीं होता वह बच्चा । तो सुकौशल के बारबार पूछने पर उसने गद्गद स्वरूप में सारी बात बता दी कि अभी एक मुनिराज आए थे और जिनको क्षणभर तुमने भी देखा वे तुम्हारे पिता थे, और तुम्हारी मां ने उन मुनिराज के प्रति याने तुम्हारे ही पिता के प्रति ऐसा व्यवहार किया कि उनको गाली देकर भगा दिया । उनके इस अपमान को देखकर हमारा हृदय दुःख से भर आया । सुकौशल को उन मुनिराज के दर्शन करके चित्त में विरागता तो हुई थी, किंतु वे मेरे पिता थे, यह जानकर उनकी विरक्ति की और औरभी तीव्र भावना हुई । और साथ ही अपनी माता के द्वारा ऐसा अपमान देखकर उनको विशेष विरक्ति बढ़ी । वह सुकौशल उस छोटी अवस्था में ही घर छोड़कर साधु होने के लिए चल दिए । जिस समय वह घर छोड़कर जा रहे थे उस समय लोगों ने बहुत मनाया कि तुम्हारी अभी किशोर अवस्था है, अभी दीक्षा मत लो मगर जिसको आत्मानुभव का अलौकिक आनंद आ जाता है उसे फिर संसार के कोई विषय नहीं रुचते । मंत्रियों ने कहा कि तुम्हारी रानी के गर्भ है । संतान हो जाने दो, उसे राजतिलक देकर फिर दीक्षा ले लेना । तो वहां सुकौशल ने यही कहा कि जो भी उदर में संतान होगा उसी को मैं राजतिलक करता हूँ, वही इस राज्य का अधिकारी होगा । और जब तक वह संतान बाहर नहीं निकलता तब तक राज्य की सारी सम्हाल मंत्रीजन करेंगे । इतना कह कर चल दिये और दीक्षा ले ली । वह सुकौशल ध्यान में आरूढ़ थे और यहाँ सुकौशल की मां संक्लेश में भरकर व्याधी बनी । उसको पूर्वभव के बैर का स्मरण हो गया सुकौशल को ध्यान करते देखकर । उसके बैर उमड़ा और वह सुकौशल मुनि को अपने पंजों से चीथने लगी । देखिए उस समय सुकौशल मुनि के लिए कितनी बड़ी वेदना का प्रसंग था मगर वे आत्मध्यान में इतना आरूढ़ रहे कि उनको उस वेदना का भाव तक न हुआ । तो जिसने देह से अत्यंत निराले अपने आत्मा की अनुभूति का आनंद पाया है, उनका उपयोग तो आत्मस्वरूप पर ही रमेगा । इतनी बड़ी वेदना में वे धीरवीर रहे और तपश्चरण कर समाधिमरण कर केवल ज्ञान पाकर मुक्ति प्राप्त की । तो सुकौशल मुनि के समक्ष यह वेदना ही क्या है अथवा हो वेदना शरीर की कुछ भी परिणति है, उसका उपाय औषधि नहीं, उसका दुःख देखकर दूसरे से याचना करना नहीं केवल एक ही उपाय है अपने आत्मस्वरूप की दृष्टि दृढ़ की जाए । उसही ज्ञानबल के प्रताप से ये पीड़ाएँ दूर होंगी । आत्मा में प्रसन्नता जगेगी । संसार के संकट दूर होंगे ।
उपसर्गविजेता गजकुमार मुनिराज की धीरता का स्मरण―सल्लेखनाधारी पुरुष अपने उन पुराण पुरुषों का विचार कर रहा है जिन्होंने अपने उपयोग को आत्मस्वरूप में ही रमाया और बड़े-बड़े उपसर्गों के बीच भी वे अपने ध्यान से विचलित न हुए । यह उपयोग जाननहार है, यह यदि मेरे स्वरूप में रमेगा तो बाहरी पदार्थों का विकल्प न रहेगा । और कल्याण इसी में है कि मैं अपने स्वरूप की ओर ही अभिमुख रहूं । नेमिनाथ भगवान के समय में गजकुमार मुनिराज हुए थे । वे बहुत रूपवान थे और भरी जवानी के हृष्टपुष्ट पुरुष थे । उनके साथ एक ब्राह्मण ने अपनी कन्या का विवाह कर दिया । विवाह हुए कोई एक दो दिन हुए थे कि वे नेमिनाथ स्वामी के समवशरण में गए, धर्मोपदेश सुना । उनकी आत्मदृष्टि जगी और आत्महित की तीव्र भावना हुई और वे तुरंत ही दीक्षा लेकर ध्यानस्थ हो गए । ध्यान कर रहे थे कहीं जंगल में । जब यह सुना उनके स्वसुर ने कि गजकुमार ने दीक्षा ले ली तो उनको बड़ा क्रोध उमड़ा समझाने गए, पर उनने एक न सुना, न उसकी ओर देखा, वे तो अपने ही आत्मा में ध्यानस्थ हो गए । यह वृत्ति थी गजकुमार की । उनके स्वसुर को उस समय तीव्र क्रोध आने के कारण गजकुमार के सिर पर मिट्टी की बाड़ लगाकर एक अंगीठी सी बना दी और उसमें कोयला डालकर आग लगा दी । उससे उनका सिर तेज जलने लगा, पर गजकुमार अपने स्वरूप में ही अविचल थे । जो स्वरूप की दृष्टि का आनंद पा लेता है, उसके लिए ये सब बाधाएँ सुगम हो जाती है । मोहियों को तो इस प्रकार की बात सुनकर आश्चर्य होता है पर आश्चर्य की बात नहीं । आत्मध्यान का कुछ ऐसा ही प्रताप है कि उसमें वे सब बातें सुगमतया आ जाती हैं । आखिर आत्म ध्यान के बल से उसे ही स्थिति में उनको केवलज्ञान जगा और उन्होंने निर्वाण पाया । तो ऐसे पुरुष की ऐसी कठिन पीड़ा थी फिर भी उसमें वे विचलित नहीं हुए । अपने आत्मस्वरूप में रत रहे मैं भी सर्वसंकटों के बीच अपने आत्मस्वरूप के अभिमुख रहूं और अंत: प्रसन्न रहूं ।
व्याधि से विह्वल न होने के लिए सनतकुमार चक्री जैसे पुण्यवंतों की महाव्याधि का तृतीय मान स्मरण―सल्लेखना धारण करने वाला व्रती श्रावक चिंतन कर रहा हैकि मेरे इस अवसर पर जो शरीर में व्याधि आयी है वह न कुछ चीज है । प्रथम तो मुझ आत्मा का इस शरीर और शरीर की परिणति से संबंध ही नहीं है । शरीर की परिणति का अनुभवन मुझ में नहीं होता है । कुछ भी संबंध नहीं है और फिर व्याधि का स्वरूप देखा जाए तो न यह कुछ चीज है । पुराण पुरुषों को कैसी-कैसी आपत्तियां आयी, व्याधियां आयीं जिन में भी वे नहीं चिगे, तो मैं न कुछ सी व्याधि में कैसे चलित होऊँ, सनतकुमार महाराज हुए पहले जिनके रूप की प्रशंसा स्वर्गो में भी इंद्र सभा में होती थी । जैसे यहाँ प्रवचनसभा होती है और श्रोता सुनते हैं ऐसे ही स्वर्ग में भी प्रवचन सभाएँ होती है और उनमें मुख्य वक्ता इंद्र होता है, इंद्र का नाम वृहस्पति भी है । तो एक बार सभा में सनतकुमार महाराज के रूप की प्रशंसा की चर्चा चल रही थी । दो देवों ने सोचा कि परीक्षा तो करें―देखें तो सही कि कैसा रूप है । सो दो देव आए । वे उस समय आए सुबह के समय जबकि अखाड़े से व्यायाम कुश्ती करके नहाने के लिए बैठे हुए थे । उनके शरीर में कहीं-कहीं धूल भी लगी थी । जब वे देव आए तो उनका अद्भूत रूप देखकर, कांति और रूप देखकर बड़ी प्रशंसा करने लगे कि स्वर्ग में जैसी प्रशंसा हो रही थी वैसाही रूप महाराज का है । किंतु वहाँ के मंत्री, बाडी गार्ड वगैरह ने बताया कि अभी तो ये अखाड़े से आए हैं, धूल से धूसरित हैं । अभी इनका क्या रूप देखते । जब ये खूब सजधज कर राजसिंहासन पर बैठे हों तब देखिए इनका रूप कैसा है । तो वे देव पुन: उस वक्त भी आए जबकि सनतकुमार खूब सजधज कर राजसिंहासन पर बैठे थे । तो उस समय उन्हें देखकर वे अपना माथा धुनने लगे और कहने लगे कि अब तो इनमें वह रूप नहीं रहा जो उस समय था । देवों की ऐसी बात सुनकर वहाँ बैठे लोग बोले―वाह आप लोग यह क्या बात कह रहे । तो उन देवों ने एक दृष्टांत देकर समझाया―एक घड़े में पानी भरवाया और उसमें सींक डालकर एक बूंद पानी घड़े से निकालकर बाहर डाल दिया और पूछा बताओ घड़ा कुछ खाली हुआ कि नहीं तो लोग तो बोले कि अभी घड़ा खाली नहीं हुआ, ज्यों का त्यों भरा है । पर देवों ने समझाया कि भले ही मोटे रूप से देखने पर कुछ न विदित हो पर कुछ न कुछ तो पानी कम हो ही गया । फिर बताया कि जैसे एक-एक बूंद पानी निकल निकलकर घड़े का पानी कम होता जाता है ऐसे ही जीवन का एक-एक क्षण ज्यों-ज्यों निकलता जा रहा है त्यों-त्यों शरीर का बल, रूप, सौंदर्य आदि सब कम होता चला जा रहा है । दूसरी बात यह है कि कोई यदि बिना शृंगार किए अचानक बैठा हो तो जो सुंदरता उस समय होती है वह सुंदरता बनावट करके नहीं होती । खैर यहाँ कथानक तो यहीं का यहीं रहा । ये ही सनतकुमार जो इतने रूपवान थे जब मुनि हुए तो इनको कुष्ठ वेदना हो गई । अब कोढ़ होने पर शरीर की बात सोचिए कैसी होती है । बोझ हो जाता है शरीर उसके लिए । लोग उसे देखकर घृणा करने लगते । उस समय भी देव आए परीक्षा करने के लिए कि देखे तो सही कि कितना सावधान है । उस समय 10-12 बार चक्कर लगाते हुए बोलते थे कि मैं वैद्यराज हूँ, मेरे पास सब रोगों की अचूक दवाई है । जब 10-12 चक्कर लगाया तो सनतकुमार ने सोचा कि ये लोग मुझे दिखाने के लिए ऐसा कर रहे है । बुलाया पास में और कहा―आपके पास कौनसी दवाई है? तो उन्होंने बताया कि मेरे पास सब रोगों की अचूक औषधियां हैं जैसे कुष्ठ, कैन्सर आदि । बताओ तुम्हें क्या रोग है? तो सनतकुमार ने कहा कि मेरे जन्ममरण के चक्र का विकट रोग लगा है उसके मिटने की औषधि यदि आप दे सकें तो दे दीजिए । तो वहां वह देव चरणों में लोटकर बोला―महाराज माफ कीजिए, मैं यह दवा दे सकने में असमर्थ हूँ । मैं वैद्य नहीं हूँ, मैं तो देव हूँ । मैं तो तुम्हारी परीक्षा लेने आया था सचमुच मैंने आपको व्रत, तप आदिक में अत्यंत सावधान पाया । तो ऐसे-ऐसे बड़े कठिन रोगों में भी हमारे पुरखा विचलित नहीं हुए । तो उनके सामने हम आपको तो कुछ भी कष्ट नहीं है ।
कलिकालसर्वज्ञ श्रीसमंतभद्राचार्य की घटनाओं का स्मरण―यहां समाधिमरण करने वाला पुरुष अपने आपको ऐसा संबोध रहा कि शरीर से दृष्टि ही हट जाए । जिनके ज्ञान नहीं होता उनको लौकिक हिसाब से कष्ट भी न हो तो भी ये निरंतर कष्ट में रहते हैं । जिनके ज्ञान होता है वे लौकिक कितने ही कष्ट में रहें तो भी उनके चित्त में प्रसन्नता रहती है । बड़े-बड़े पुरुष ज्ञानबल के ही कारण विचित्र परिस्थितियों में भी गुजरे पर वे अपने सम्यक्त्व से नहीं बिगड़े । सम्यग्दर्शन ही मुझ आत्मा का वास्तविक साथी है । जो इस समय भी मदद करता है और आगे भी मदद करेगा । समंतभद्र मुनिराज हुए हैं बड़े दिग्गज विद्वान । उनको कलिकाल सर्वज्ञ कहा जाता है । जब उनके न्याय शास्त्रों का कोई अध्ययन करे तो कुछ परिचय हो पाता कि उनमें कितनी विद्या निधि थी । आज अष्ट सहस्री ग्रंथ प्रसिद्ध है, तो जिन कारिकाओं पर अष्टसहस्री टीका बनी, अष्टशती टीका बनी वे कारिकाएँ समंतभद्र स्वामी की रचित हैं जिन में छोटे-छोटे श्लोकों में थोड़े से संकेत में सैकड़ों दर्शन शास्त्रों का इतना भंडार भरा हैकि उसके विस्तार में कितनी ही टीकाएँ होती चली जाएँ । अचानक ही भस्म व्याधि रोग हो गया जितना चाहे खा जाएं सब हजम होता जाए, मन, दो मन, चार मन खाएं, बड़ी कठिन वेदना फिर भी भूख की भूख । उस समय समंतभद्र मुनि ने अपने आचार्य से प्रार्थना की कि मैं अब समाधि मरण चाहता हूँ । आचार्य जानते थे कि इस समय समंतभद्र मुनि के सिवाय कोई विद्या निधि नहीं है जो जैन धर्म की प्रभावना कर सके और हमारे ज्ञान का प्रकाश कर सके । तब उनको आदेश दिया आचार्य ने कि आपको समाधिमरण का आदेश नहीं दिया जा सकता । और आदेश आपको यह हैकि आप कोई सा भी भेष रख ले किसी संन्यासी वगैरह का जब तक कि रोग न मिटे, पश्चात् आपको दीक्षा दे दी जाएगी । गुरु का आदेश मानना पड़ा । आखिर कुछ दिन समंतभद्र संन्यासी के भेष में रहे । क्या किया उन्होंने सो सब आप सबको विदित ही है, और अंत में उन्होंने वृहत्स्वयंभू स्तोत्र रचा, जिन में है तो 24 तीर्थंकरों की स्तुति मगर वहां भी दर्शनदृढ़ता उन श्लोकों में पायी जाती है । और राजा ने जो कि अप्रसन्न हो गया था उसने तीर्थकर के सिवाय अन्य मूर्ति के सामने नमस्कार करवाया उस मूर्ति को, उस पिंडी को सांकलों से जकड़ दिया मगर जब स्तोत्र को पढ़ा तो 7 तीर्थंकरों की स्तुति तक उन्होंने नमस्कार शब्द नहीं बोला । स्तवन होता रहा दार्शनिक वर्णन चलता रहा, पर चंद्रप्रभु का स्तवन करते समय वंदे शब्द कहा तो उसी समय सांकल टूटी और चंद्र प्रभु की मूर्ति प्रकट हुई । ऐसे बड़े दिग्गज विद्वान कलिकाल सर्वज्ञ जैसे मुनिराज को भी व्याधि ने छोड़ा नहीं । उन बड़ी व्याधियों के सामने क्या व्याधि है, ऐसा निरख रहा है यह सल्लेखना व्रतधारी ।
उपसर्गविजेता पंचशत मुनिवरों की समता का स्मरण―बहुत पुरानी एक घटना है कि दंडक वन में 500 मुनिराज आए हुए थे, राजा ने नमस्कार किया, मंत्री साथ थे । मंत्रियों को किसी बात पर रोष आ गया । कहीं वाद-विवाद करते हुए में हार गए तो उस क्रोध में आकर उनने पहले सोचा कि इन मुनियों को कैसे मरवाया जाए? होते-होते एक उपाय उन्हें सूझा । एक भांड से कहा कि तुम मुनि का रूप रख लो, नग्न हो जावो, पिछी कमंडल ले लो और रानी के महल में जाकर उससे कुछ वार्ता करो । सो वैसाही किया उस भांड ने । तो उस मंत्रि ने राजा को प्रत्यक्ष दिखाया कि देखो जैन मुनि इस तरह के निर्लज्ज होते हैं जो कि रानियों से एकांत में वार्ता करते हैं । तो यह दृश्य देखकर राजा को गुस्सा आया और 500 मुनियों को घानी में पिलवा दिया । अब भला बतलावो घानी में पेले जाने पर तो हडि्डयां भी चूर-चूर हो जाती हैं । तो उस समय भी मुनिराज ने अपनी धीरता नहीं त्यागी और आत्मध्यान में सावधान रहे । तो उनके सामने हम आपको रोग की वेदना क्या है? मरण समय, रोग वेदना के समय यदि जीवों की दृष्टि अपने चैतन्यस्वरूप की ओर आए तो वह कृतार्थ हो जाता है । संसार के संकटों से छूटने का उसने यत्न कर लिया । बाहर का कुछ भी पदार्थ संग साथी नहीं है । यह देह भी साथी नहीं है । जिसे कुछ ही मिनट बाद लोग श्मशान में जला डालेंगे । उस अत्यंत भिन्न देह का विकल्प क्यों करना? मरण समय आहार योग्य रखें तो कफ खांसी का रोग न बढ़ेगा । सब रोगों से बुरा रोग है मरण समय में तो यह खांसी वाला रोग है। कहने को तो बहुत छोटा है जिसमें देह हिल जाता है । मरण समय में जो आहार का त्याग सम्हालने में भी बहुत ऊंची चीज है । अपनी ऐसी सावधानी रखता हुआ कोई कठिन रोग आ जाए तो उस रोग को भी एक शरीर का संबंध जानकर, अपने से भिन्न जानकर उसकी उपेक्षा करता है ।
उपसर्गविजेता सप्तशतक मुनिवरों की धीरता का स्मरण―सल्लेखनाधारी अपने पुराण पुरुषों के उपद्रवों का चिंतन कर रहा जिन में वह धीर वीर रहता है । 700 मुनि अकंपनाचार्य के संघ के आचार्य सहित हस्तिनापुर में थे, जिनको बलि मंत्री ने अपने पहले विरोध के कारण 7 दिन का राज्य लेकर जो उपसर्ग किया वह दिल को कंपाने वाला उपसर्ग है । धर्म का तो रूप रख लिया, पर वह धर्म नहीं, वह तो कुधर्म है । यज्ञ का बहाना किया और 700 मुनियों के चारों तरफ बाड़ लगाकर भीतर कूड़ा-कचरा हड्डी ऐसी गंदी चीजें भी फैंककर आग लगा दी और यज्ञ में किमिच्छुक दान दिया । मांगा हुआ राज्य था । पीछे तो राजा बनकर रहना न था । सब खजाना लुट जाए तो उनको क्या परवाह? ऐसा ढोंग रचकर जो 700 मुनियों पर उपद्रव किया गया वह दिल को हिला देने वाली घटना है । उस समय भी वे मुनिराज अपने ध्यान से विचलित नहीं हुए । सहज परमात्मस्वरूप के ध्यान में उन्होंने और अधिक दृष्टि की । आखिर विष्णुकुमार मुनि की कला से वह उपसर्ग बचा और उपसर्ग निवारण के बाद वे सब मुनि आहार को भी गए । श्रावकों ने जल्दी कंठ से निगल जाएँ ऐसा आहार बनाया, पर देखिए कितना घोर उपद्रव सहा । उस उपसर्ग के आगे मेरे व्याधि आदिक का कौनसा बड़ा उपसर्ग है जिसमें मैं विकल्प करूं? इन विकल्पनों से हटकर आत्मस्वरूप की ओर ही अभिमुख होना मेरा कर्त्तव्य है ।
उपसर्गविजेता पांडवों का स्मरण―उपसर्गों में उपद्रवों में अनेक पुरुषों के प्राण गए, पर जिन्होंने संक्लेश किया उनको कुगति हुई और पाए हुए दुर्लभ मनुष्यजन्म को व्यर्थ खोया और जिनके सद्भाव रहे उनकी सुगति हुई । उन्होंने इस दुर्लभ मनुष्यजन्म को सफल किया । नेमिनाथ स्वामी के ही तीर्थ में कृष्ण कौरव पांडव आदिक हुए । घटनाएँ बड़ी-बड़ी विचित्र थी, अंत में विरक्त होकर पांचों पांडव तपश्चरण में जुट गए । दुर्योधन के रिश्तेदारों ने सोचा वे मुनि बनकर अब कहां जाएँगे? पता लगाऊंगा, जहाँ मिलेंगे वहीं उनकी खबर लूँगा । पता लगाते-लगाते वहाँ पहुँचे जहाँ पाँचों पांडव तपश्चरण कर रहे थे । कायोत्सर्ग से आत्मध्यान में थे, वहाँ उन रिश्तेदारों ने क्या किया कि अनेकों प्रकार के लोहे के आभूषण बनाये, उनको अग्नि में खूब तपाया और संडासियो से पकड़-पकड़ कर उनके सारे अंगों में उन्हें पहनाया हाथों में पहनाकर कहा कि लो ये कड़े हैं पैरों में पहनाकर कहा कि लो ये चूरा है, गले में पहनाकर कहा―लो ये हार हैं । कमर में पहनाकर कहा―लो यह पेटी है... यों सारे अंगों में अनेक तेज गरम लोहे के आभूषण पहिनाए । अब जरा विचार तो करो कि यह कितने कष्ट का प्रसंग है । इतने पर भी वे मुनिराज अपने आत्मध्यान से नहीं चिगे । हां उनमें से दो को (नकुल और सहदेव को) थोड़ा उसके प्रति विकल्प चला जिससे वे दो तो मरण कर सर्वार्थ सिद्धि गए और तीन पांडव (अर्जुन, भीम, युधिष्ठिर) मोक्ष सिधारे । तो ऐसे बड़े-बड़े कठिन उपसर्गों को ऐसे-ऐसे महापुरुषों ने जीता तो उनकें सामने हम आपको कौनसी वेदना है? इस सल्लेखनाधारी के बाह्य वस्तुओं में ममता का तो नाम न रहा । जो ज्ञानी होता उसके मरण समय पर किसी भी चेतन या अचेतन पदार्थ में कर्मत्व नहीं रहता । एक तो उसका तत्त्वज्ञान, दूसरे मरण समय की स्थिति का ऐसा ही प्रभाव होता है, कुछ देह की वेदनाएँ ऐसी हो जाती हैं कि जिनसे विकल्प बन सकता है । सो यह श्रावक उन देह वेदना संबंधी विकल्पों से हटने के लिए पुरुषो के उन उपसर्गों की घटनाएँ याद कर रहा । ऐसे अनेक उपसर्गों में समता रस का स्वाद करने वाले धर्मात्मा हुए हैं ।
साम्यभावरूप शकुन के साथ ज्ञानी का देह से प्रयाण―मेरा शरण अन्य कुछ नहीं है । सम्यक्त्व ज्ञान, चारित्र और तप की आराधना ही मेरा शरण है । इस दुष्ट देह को मैं क्या निरखूँ, इसमें जो कुछ होता है सो होने दो । ऐसी दुष्ट कृतघ्नता ऐसी ही दशा में हुआ करती है । मैं अपने आपके स्वरूप में ही अविचल रहूंगा । यह तो मरण समय उन व्याधियों का मुकाबला करने की होड़ कर रहा है । जिसको एक रास्ता मिल गया अपने आपके स्वरूप में प्रवेश करने का उसके लिए सब मार्ग खुला हुआ है । ये तो सब शकुन की बातें हैं । असगुन तो रागद्वेष मोह है । असगुन तो कुटुंबीजनों का राग, स्नेह, रोना, खेद यह है । रोग आया तो क्या, जहाँ जिन वचन अमृत कर्ण को सुनने को मिल रहे हैं, जिसमें चिदानंदस्वरूप भगवान परमात्मा की सुध हो रही है वह वातावरण तो सगुन है । कोई जीव कुछ दिन को ही विलायत जाए या थोड़ा परदेश जाए, बाहर जाए तो लोग सगुन करके भेजा करते हैं । तो जो इस शरीर से सदा के लिए प्रयाण कर रहा है उसको सगुन के साथ भेजना चाहिए, वह सगुन है धर्मध्यान का वातावरण । धर्मध्यान वही तो सगुन है जिसके प्रताप से अगली यात्रा बहुत अच्छी होगी ही, इसमें कोई संदेह नहीं । परिणाम आत्मतत्त्व की ओर रहे, शुभ ध्यान रहे, ज्ञायकस्वरूप ही जिसके ज्ञान में बसे, इस तरह से मेरा मरण हो समझो ऐसे मरण का जो साथी बने वह है मेरा असली मित्र । तो कोई कुटुंबीजन विषाद करते हैं तो वे मेरे इस समय दुश्मन बन रहे हैं, सदा के लिए मेरा भविष्य बिगाड़ रहे हैं । इस ज्ञानी श्रावक सल्लेखनाधारी को किसी भी परतत्त्व में ममता न रही । अब मैं नि:शल्य होकर एक ज्ञानानंदस्वरूप आत्मा का ही ध्यान करता हूँ और इस मृत्यु मित्र का बड़ा उपकार मानता हूँ, जो इस अवसर पर मेरी आंतरिक भावना भी निर्मल हो रही है और भविष्य में मैं धर्म का वातावरण पाऊँगा, ऐसा उपाय बन रहा है । यों सल्लेखना व्रतधारी श्रावक अपने आत्मतत्त्व की दृष्टि रखता हुआ प्रसन्न बना हुआ है ।
स्वभावदृष्टि रखनेवाले ज्ञानी की दृष्टि में विकारचेष्टावों का मिथ्यापरा―सल्लेखना धारण करने वाला यह ज्ञानी अपनी पूर्वकृत चेष्टावों का और स्वभाव का चिंतन कर रहा है । जो चेष्टाएँ हुई मन, वचन, काय की वे सब मेरा स्वरूप न थी, स्वभाव न थी । वह सब कर्म का प्रतिफलन था और वास्तविक में मैं सहज ज्ञानानंद स्वरूप उन सब चेष्टावों से निराला हूँ । स्वरूपदृष्टि से देखने पर यही विदित होता है कि वे सब चेष्टाएँ मिथ्या थी, मायारूप थी, परमार्थ न थी, सो वे सब पाप मेरे मिथ्या हों । स्वभावदृष्टि मेरी दृढ़ हो । जो कुछ भी अब तक अनादि से संसार में भ्रमण करते हुए चेष्टाएँ हुई हैं वे सब गुप्ति के बिना हुई हैं । मैं मन, वचन, काय को वश न कर सका । वश करने का उपाय सहज आत्मस्वरूप में आत्मत्व मानना था । वह उपाय न बन सका तो मन, वचन, काय की चेष्टा में स्वच्छंद बना, वे सब मेरे स्वरूप की चीज न थी । वे सब मिथ्या हुई अर्थात् मायामय थीं । उनसे हटकर अब मैं अपने स्वरूप की ओर लगता हूँ । अब तक जो चेष्टाएँ हुई हैं सो क्रोध, मान, माया, लोभ के वश होकर सारी चेष्टाएँ हुई । भला जगत में कौनसा जीव मेरा विरोधी है, कौनसा जीव मेरा शत्रु है? लेकिन अज्ञान से क्रोध, मान, माया, लोभ के वश होकर मैं कल्पना क्र रहा कि यह पुरुष मेरा विरोधी है । यह मेरा शत्रु है, ये सब कल्पनाएँ कर रहा, ये सब पापकर्म ही किया । जो मेरे स्वभाव में न था, विभावरूप हैं उनका कर्ता रहा । अब दृष्टि में आया अंतस्तत्व, इसके प्रसाद से, इसकी इष्टि के प्रसाद से सब मिथ्या हो रहे है । अब उनके करने की मेरे भावना नहीं है । कभी भी इन विकार चेष्टावों को न करूंगा ।
पूर्वभूत दुष्कृत पर विषाद और दुष्कृत से हटकर स्वभाव मग्न होने की भावना―यह सल्लेखना व्रतधारी अपने किए हुए अज्ञान चेष्टावों पर विषाद कर रहा है और अंत: स्वरूप को निरखकर उस समस्या को सुलझा रहा है, वह मेरा कुछ न था । अज्ञान में क्या-क्या चेष्टाएँ हुई? कहीं ऐसी क्रूरता आयी किसी भव में कि जीवों की हिंसा जान-जानकर कर रहा । कितनी बेहोशी थी? वह बेहोशी भी मेरे स्वभाव का काम न था, वह भी कर्म का प्रतिफलन था । जब तक कर्मविपाक में और अपने स्वभाव में भेद न जान पाया था तब तक मैं अन्य कुछ बनता रहा । और इस तरह संसार में भ्रमण करता रहा । हे प्रभु, हे वीतराग सर्वज्ञदेव, तुम्हारी आराधना के प्रसाद से बड़े-बड़े पापी तिर गए, अंजन चोर जैसा जो कि वेश्यागामी था, चोर था वह भी आपकी आराधना के प्रसाद से न भी शुद्ध णमोकार मंत्र जप सका, अशुद्ध जपा लेकिन लगन होने से वह भी धीरे-धीरे मार्ग पाकर तिर गया, सभी जीव पापी ही रहें तो रहें संसार में । जो सिद्ध बने है वे भी पापी ही थे, संसार में रुलने वाले थे, उन्होंने आत्मदृष्टि पायी, सन्मार्ग पाया और आत्ममार्ग में लग गए । सिद्ध हो गए, तो हे प्रभु, तुम्हारी आराधना के प्रसाद से मेरी यह आत्मदृष्टि इतनी दृढ़ रहे, जिसके कारण संसार संकटों से सदा के लिए छूट जाएँगे । यह देह तो बंधन है । देह को मैं रंच भी नहीं चाह रहा हूँ मुझे शरीर आगे मत मिले । यह शरीर मेरा मिटे । अन्य किसी पदार्थ के संबंध से मेरे को प्रयोजन नहीं ।
अपराध से हटकर निरपराध रहने की भावना―समाधिमरण के अवसर पर जिसको अब विवेक मिला है उसका विवेक बढ़ता जा रहा है, उसकी विरक्ति वृद्धिगत हो रही है, वह आत्मस्वरूप में ही रमना चाह रहा है । जो अपराध किया है अब तक, वह सब अपराध क्या था? अपनी दृष्टि से चिग जाना । अपराध शब्द में दो शब्द है, अप व राध । राध धातु सिद्धि अर्थ में है । अप उपसर्ग विलगाव अर्थ में है । जहाँ सिद्धि न रहे उसे अपराध कहते है । समस्त पाप क्यों अपराध हैं? क्योंकि उन पाप प्रवृत्तियों में इस जीव को अपने स्वरूप की सुध नहीं रहती । सो जो-जो प्रमादवश मुझ से पाप हुए, घने पाप हुए सो अब प्रभु के गुणस्मरण के प्रताप से अपने सहज आत्मस्वरूप के स्वभाव की आराधना से सब मिथ्या हो वो यह जीव कुछ नहीं चाह रहा । जो समाधिमरण की विधि में चल रहा है, केवल आत्मस्वरूप का दर्शन, अपने आपका ऐसा अनुभव कि यह मैं ज्ञानमात्र हूँ । अपने स्वरूप को भूलकर नाना तरह के विकल्प किया, मैं उसकी निंदा करता हूँ । मैने भला नहीं किया । यह निंदा और प्रायश्चित भी धर्म है, जब तक स्वरूपदृष्टि नहीं आती है जब तक अपने कसूर नहीं मालूम होते । तब तक अपराध अपने आपको विदित नहीं होता जब तक अपनी चेष्टा की निंदा नहीं करता । मैं उन सब अपराधों की निंदा करता हूँ और उन सब से हटकर धर्म उपार्जन करके अब मैं स्वरूप में मग्न होऊँगा ।
आत्मतत्त्व की उपासना से प्राप्त सुयोग की सफलता―आज जो दुर्लभ समागम पाया है मनुष्यभव, उच्चकुल, इंद्रिय की पूर्णता, गुजारे की सुविधा, सत्संगति, जिनधर्म की श्रद्धा, जिन वचन का पढ़ना, सुनना, ये दुर्लभ समागम पाए हैं । यदि इन समागमों को पाकर भी मैं अपने आपके स्वरूप को न सम्हाल सका तो वह जीवन धिक्कार है, यह जीवन व्यर्थ है । जैसे किसी कार्य के सारे साधन जुटाने के बाद भी उस कार्य के साधन के फल से मुख मोड लें तो वह उसकी मूढ़ता है । परदेश में जाकर खूब धन कमाकर धन के साथ घर के लिए चले और गांव के निकट कहीं भी योंही फेंक दिया या लुट गया तो उसका सारा कमाना व्यर्थ रहा, ऐसे ही आज जो सर्वसमागम पाए हैं उन समागमों को पाकर यदि हम आत्मदृष्टि में न बढ़ सके तो ये सब साधन पाना व्यर्थ ही तो रहा । इंद्रिय में आसक्त होकर विषयों की प्रीति ही बढ़ायी, तो मैंने जो कुछ निधि पायी, सत्संगति समागम पाया वह सब हमने खो दिया । ऐसा दुर्लभ अवसर क्या बारबार मिलता है? केवल एक ही दृष्टि होनी चाहिए कि मुझे आत्मधर्म जानना है और आत्मस्वभाव रूप ही अपने को मानना है, यह मैं हूँ विशुद्ध ज्ञानानंद स्वरूप, अब उपयोग ऐसा ही बना रहे तो इसके प्रसाद से सर्वकल्याण होगा । विशेष जानकारी नहीं है, नहीं जानते हैकि किन गुणस्थानों में किस तरह कर्म खिरते है लेकिन इसके तो खिरने ही लगेंगे । नहीं जाना मगर काम तो बना । जो अपने को अपने ही सत्त्व के कारण सहज स्वरूप ही उस रूप ही अपने को मान ले तो उसके वे सारे कार्य बनते हैं । कर्म बिगड़ना, विशुद्धि बढ़ना, वीतरागता प्रकट हो जाये सारे कार्य स्वयं होते हैं, जिनका वर्णन ग्रंथों में लिखा है, और बड़े-बड़े पंडितजन जिसका व्याख्यान किया करते है । वह स्वयं यहाँ प्रयोगात्मक बन जाएगा । उपाय केवल एक ही करना है कि मैं अपने सहज स्वरूप को जानूँ और इसही जानन में संतुष्ट रहूं ।
सल्लेखनाधारी की समता व क्षमा―मैं निज स्वरूप को देखता हूं तो यही स्वरूप सब जीवों में है । सब जीव अपने हैं अर्थात् स्वरूप के समान हैं । इन जीवों में कोई ऐसी छांट नहीं है स्वरूप में कि ये मेरे कहलाएँ और ये पराये कहलाएँ। ये विरोधी कहलाएँ और ये मित्र कहलाएँ । ऐसी जीवों के स्वरूप में छांट नहीं है । सब जीव मेरे स्वरूप के समान हैं । सब जीवों के प्रति समता भाव जगा है । मैं अपने समताभाव में ही बढूँ और समता की वृद्धि के लिए संयमाचरण करूं । जितना बाह्य पदार्थों से हटकर अपने आपकी ओर ही नियंत्रित होऊंगा समता के भाव वहां ही विशेष बढ़ते चले जाएँगे । किसी जीव को मेरे द्वारा कभी कष्ट पहुंचा हो, किसी जीव के प्रति कषाय भी की हो वह सब अज्ञान चेष्टा थी । जो कष्ट पहुंचा हो जगत के सर्वजीव मुझे क्षमा करें । स्वरूपदृष्टि से यह सल्लेखनाधारी सर्व जीवों में एक समान बुद्धि रख रहा है । जगत के समस्त बाह्यपदार्थ सब एक समान हैं, जीव-जीव सब एक समान हैं । पुद्गल में स्वर्ण हो, तृण हो ये एक समान हैं । जो मरण कर रहा है उसके लिए स्वर्ण क्या मददगार है? क्या करणहार है? साथ जाएगा क्या? न तृण साथ जाता न स्वर्ण साथ जाता । कंचन कांच बराबर है । जगत के जीव कोई मेरी निंदा करें, कोई प्रशंसा करें । प्रशंसक से मुझे कुछ मिलेगा नहीं, निंदक से मेरा कुछ जाएगा नहीं, वे सब मेरे लिए एक समान हैं । स्थान चाहे सुंदर हो, चाहे श्मशान हो, चाहे बेहूदा हो, उस स्थान से मेरा क्या प्रयोजन? यह मैं आत्मा निश्चय से अपने प्रदेशों में रहता हूँ । व्यवहारत: मैं इस देह में रहता हूँ, उपचारत: मैं इस क्षेत्र में रहता हूँ । तो वस्तुत: मैं अपने आत्मप्रदेशों में ही रह रहा हूँ । बाह्य क्षेत्र कैसा ही हो मुझे सर्व प्रकार के क्षेत्रों में समताभाव है ।
सल्लेखनाधारी का चतुर्विंशतिस्तवन―इस काल में जो चतुर्विंशति तीर्थंकर हुए हैं जिस तीर्थ परंपरा में रहकर आज हम धर्मसाधना से उद्यमी हुए वे चतुर्विंशति तीर्थंकर मेरे आराध्य देव हैं । उनको मेरा प्रणाम हो । वृषभदेव चतुर्थकाल के प्रारंभ में तीर्थंकर हुए हैं । उन समस्त तीर्थंकरों ने अपने आपका कल्याण करके जगत के इन सब जीवों को उपदेश किया कि आप अपने स्वरूप को जानें और उसही में रमें, यहीं संतुष्ट रहें तो संसार के संकटों से छूटने का उपाय न बनेगा । उन्हीं के जिन वचन को अमृत समझकर मैं उनका पान कर रहा हूँ, उसी उपदेश के अनुसार मैं चलूँगा । मुझे बाह्यपदार्थों से कुछ प्रयोजन नहीं है । वृषभदेव के बाद श्री अजितनाथ स्वामी संभवनाथ, अभिनंदननाथ, सुमतिनाथ, पद्मप्रभु, सुपार्श्वनाथ, चंद्रप्रभु, पुष्पदंत, शीतलनाथ, श्रेयांसनाथ, वासुपूज्य, विमलनाथ, अनंतनाथ, धर्मनाथ, शांतिनाथ, कुंथुनाथ, अरनाथ, मल्लिनाथ, मुनिसुव्रतनाथ, नमिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और वर्द्धमान प्रभु को मन, वचन, काय से नमस्कार हो । जिनकी तीर्थपरंपरा से आज तक यह धर्मप्रसंग चला आ रहा है । जगत में सब चीजें सुलभ हैं, जहाँ चाहे जन्में । जहाँ जन्मेंगे वहीं पौद्गलिक ढेर मिलेगा । पुण्यबंध हुआ है तो उसके विपाककाल में कुछ सुहावना ढेर हुआ है, सारी चीजें सुलभ हैं । किंतु आत्मज्ञान दुर्लभ है । कोई आत्मज्ञान की तुलना करे कि तीन लोक के वैभव के बराबर तो होगा आत्मज्ञान तो उसकी तुलना नहीं की जा सकती । तीन लोक के पुद्गल का ढेर मेरे इस आत्मा के किस काम आएगा? यह सद्बुद्धि तीर्थंकरों के उपदेश से प्राप्त हुई है । सो जिनके प्रसाद से यह उज्ज्वल ज्ञानप्रकाश पाया है उनका बारबार स्मरण करते हैं । उनका आभार मानते हैं ।
सल्लेखनाधारी ज्ञानी का कायोत्सर्ग व साम्यभाव―मैं अब प्रभु के बताए हुए उपदेश के अनुसार समस्त पदार्थो से ममत्व तजता हूँ । कायोत्सर्ग का अर्थ है शरीर से ममत्व का त्याग कर देना । जब यह कहा जाता है कि पूजा पढ़कर, पाठ पढ़कर कायोत्सर्ग करो तो उसका ठीक अर्थ यह हैकि अब आप अपने शरीर में ममत्व छोड़ दीजिए । सो ममत्व छोड़ने के प्रसंग में कुछ न कुछ तो शुरुआत चाहिए । कैसे ध्यान का प्रारंभ करे कि मेरा इस समय शरीर से भी ममत्व छूटे, विकल्प छूटे तो वह प्रारंभ किया जाता है णमोकार मंत्र से । अर्थात् जिन्होंने इस देह से ममत्व छोड़ा, देह से जो रहित हुए उन आत्मावों का स्मरण किया जाता है । जो पुरुष जिस कार्य को करना चाहता है उस कार्य में जो सफल हैं उनका संबंध बनाना चाहते हैं । यह एक लोकनीति है । तो ये कल्याणार्थी पुरुष समस्त पदार्थों से ममत्व तजकर अविकार ज्ञानस्वभाव में रमना चाहते हैं, तो जिन्होंने इस कार्य में सफलता पायी है उन आत्मावों को नमस्कार कर रहे हैं कायोत्सर्ग के लिए, जिनमें से अरहंत सिद्ध साधु इन तीन का ध्यान है । आचार्य उपाध्याय साधु ये तीनों ही साधु कहलाते । उन साधुवों को नमस्कार और उनके गुणस्मरण यह हो रहा है णमोकार मंत्र में और उस साधना के प्रसाद से चार घातिया कर्मों का नाश करते हुए सकल परमात्मा हुए । उनके वीतराग भाव का और इस उज्ज्वल ज्ञानप्रकाश का स्मरण कर रहा है, और अरहंत अवस्था के बाद चार अघातिया कर्मों के विनाश से देहरहित अवस्था हुई है, सिद्ध भगवान हुए हैं उनका स्मरण कर रहा है । तो णमोकार मंत्र के ध्यान से प्रारंभ करके यह जीव काय से ममत्व को त्याग रहा है । किसी भी एक कार्य को करने के लिए उसकी विधि और मुद्रा बनती है, सो यह मैं कायोत्सर्ग के लिए पहले अपने आपकी दिशावों को नियंत्रित करता हूँ । मेरा इतने ही क्षेत्र का परिमाण है, इस क्षेत्र से बाहर मेरा इस समय ममत्व का त्याग है । और यह क्षेत्र भी चूँकि रहना पड़ रहा है इसलिए संबंध है, वस्तुत: मैं अपने आत्मप्रदेशों में ही रह रहा हूँ । समताभाव, रागद्वेष नहीं है वहाँ किसी परवस्तु में उपयोग नहीं गड़ाया जा रहा है । तो जान जानकर बाह्य पदार्थों का मैं त्याग करता हूँ ताकि उनके आश्रय छूटे और मेरे विकल्प न बढ़े, और मैं अपने इस ज्ञानानंदमय स्वभाव में ही बसकर पूर्ण समतारस से पूरित रहूं ।
स्वभावदृष्टि से अद्भुत समता की महिमा और शरण्यता―सामायिक के समान जगत में दूसरा कुछ भी मेरा उपकारी नहीं है । समताभाव ही मेरा उपकारी तत्त्व है । इस प्रकार यह श्रावक सल्लेखना के समय अपने स्वभाव की दृष्टि को पुष्ट कर रहा है । धर्मपालन वही है, धर्मपालन दूसरा नहीं है, चाहे कोई अपवित्र हो, पवित्र हो, प्राय: करके मरण समय में लौकिक दृष्टि से शरीर अपवित्र ही रहता है । थूक मलमूत्र आदिक कैसी ही दशाएँ रहती हैं । तो चाहे अपवित्र हो, चाहे पवित्र हो, शरीर की बात शरीर में चल रही, धर्म तो आत्मा का आत्मा में है । और आत्मा को ही धर्म की दृष्टि करना है । सो धर्मपालन की बात अंदर चल रही है । कदाचित इंद्रिय के शिथिल होने से यह बेहोश भी हो जाए तो इंद्रियां ही तो बेहोश हुई है । आत्मा भीतर सावधान बना रह सकता है । बेहोशी का भी क्या डर? बेहोशी आए तो आए, बेहोशी का प्रभाव बाहर में पड़ता है, अंदर में नहीं पड़ता । अंदर तो जैसा संस्कार है, जैसी भावना है वैसाही प्रकाश रहता है, इस तथ्य को कोई बाहरी लोग नहीं जानते अतएव कहा करते कि यह तो बेहोश हो गया । बेहोश होने से मरण नहीं बिगड़ता । वह तो देह की चीज है, उस प्रकार से होगी ही । पर जो ज्ञानी हैं जिनके धार्मिक संस्कार है वे अंत: प्रकाशमान ही रहते हैं । सो यह मैं सर्व बाह्य पदार्थों से हटकर अपनी इस स्वभावदृष्टि में ही रहूं और स्वभावदृष्टि करता हुआ इस शरीर से पयान करूं ।