वर्णीजी-प्रवचन:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 27
From जैनकोष
यदि पापनिरोधोऽन्यसंपदा किं प्रयोजनम् ।
अथ पापास्रवोऽस्त्यन्यसंपदा किं प्रयोजनम् ।।27।।
मिथ्याभाव हटने पर पापनिरोध की संपत्ति की प्राप्ति―यदि पाप का निरोध हो गया है, पापभाव रुक चुका है, नहीं होता है तो अन्य संपत्ति से क्या प्रयोजन है? मायने जरूरत ही क्या रही, वह तो स्वयं शांत हो गया, स्वयं आनंद में आ गया और यदि पाप का आस्रव चल रहा है तो अन्य संपत्ति से क्या प्रयोजन है । पापभाव किये जा रहे हैं, उसका फल तो बड़ा विकट मिलेगा, और वर्तमान में आकुलता ही चल रही है, उसे संपत्ति क्या लाभ दे सकती है? मुख्य बात यह ध्यान में रखना कि मेरे पाप का निरोध हो जाय, पापभाव मेरे में मत हो, पापभाव में पहला तो है मिथ्यात्व फिर लगावो हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह उन सबकी जड़ मिथ्याभाव है । जिसके मिथ्याभाव है उसके पाप का आस्रव हुआ ही करेगा । मिथ्याभाव के मायने क्या? जो मैं नहीं हूँ उसको मानना कि यह मैं हूँ पहली गलती यह है शरीर मैं नहीं हूँ और शरीर को निरखकर माने कि यह मैं हूँ यद्यपि आज की पर्याय यह विभाव पर्याय है यह असमानजातीय द्रव्य व्यंजनपर्याय है । यहाँ जीव को अलग धर दें शरीर को अलग धर दें ऐसा नहीं बनता । यहाँ ही सब संयुक्त हो रहा है फिर भी ज्ञानकला में वह माहात्म्य है कि ऐसी मिली हुई हालत में भी हम ज्ञानबल से ज्ञानमात्र स्वरूप के मनन द्वारा हम आत्मतत्त्व का लक्षण भिन्न पहिचान सकते है और देह अचेतन है, प्रकट है तो देह में आत्मबुद्धि होने की मिथ्यात्व कहते हैं । जहाँ देह में आत्मबुद्धि हो वहाँ पर के देहों में भी ये परभाव ऐसी आत्मबुद्धि हुआ करती है और इन दोनों गलतियों के आधार पर नाते रिश्ते शत्रु मित्र आदिक सारे व्यवहार चल उठते हैं । तो इस मिथ्याभाव के कारण होता क्या है? जब शरीर को माना कि यह मैं हूँ तो शरीर ये है पंचेंद्रिय आदिक । इन इंद्रियों द्वारा होता है विषयों का ज्ञान तो यह विषयों के भोगने में और विषयभोग के साधनों मे एकदम जुटता है । और यह मानता है कि यही तो मेरा काम है । इस ही में तो मेरी महिमा है । इस ही से मेरा बड़प्पन है बस बड़ी कठिनाई से पाया था मनुष्यभव, और जैन शासन का मिलना तो बड़े ऊंचे पुण्योदय की बात थी मगर वह सब बेकार कर दिया एक मिथ्याभाव के कारण । सो पहले यह मनन बनायें कि मैं ज्ञानस्वरूप हूँ देह स्वरूप नहीं हूँ जब इस ज्ञान की भावना बढ़ेगी तब परिपूर्ण एक निर्णय बन जावेगा कि मैं तो वह हूँ जिसे दूसरा कोई नहीं लखता । उस अमूर्त ज्ञानमात्र मुझ आत्मा का दुनिया में क्या रखा है?
दृश्यमान जगत की मायारूपता व अविश्वास्यता―यह दिखने बाला सारा जगत मायाजाल है । माया-माया तो हर एक कोई कहता, पर माया का वास्तविक लक्षण क्या है, इसका उन्हें पता नहीं । अनेक द्रव्यों के संयोग से बना हुआ ढांचा माया है । जो कुछ दिख रहा वह सब अनेक द्रव्यों के संयोग से बना हुआ ढांचा है यह सब माया है, हम आप भी जो देख रहे वह सब भी माया है । यह भी जीव शरीर और कर्म इन तीन चीजों के संयोग से बना हुआ ढांचा है । इस माया का क्या विश्वास करना और मायाजाल के लिए क्यों कमर कसना? मैं ऐसा ही करुंगा, ऐसी ही मिथ्या हठ न करना, अपने आपके स्वरूप की चर्चा करिये अपने आपके स्वरूप की ओर आइये तो अल्प प्रयास भी बने तो वहाँ भी कुछ शांति का अनुभव होता है । और भावना दृढ़ बने, अपने आपके स्वरूप की दृष्टि बने तो उसको विशेष शांति मिलेगी । बाह्य पदार्थों में दृष्टि बांधकर सुख शांति नहीं मिलती । एक बात यहाँ यह समझना कि जिन चीजों से हमें हटना है वे चीजें है क्या? इसका ब्योरा जाने बिना उनसे हटना कठिन होता है । मुझे क्या हटाना है? विकार रागद्वेषादिक जो भाव चलते हैं । क्रोध, मान, माया, लोभ, भाव बनते हैं । अभिलाषा, इच्छा, प्रतीक्षा के भाव बनते हैं, इन विकारों से हमें हटना है । बात तो यह है सीधी । तो पहले यह तो समझें कि ये विकार बनते किस तरह हैं? और ये विकार बनते किसमें हैं? मुझ जीव में बन रहे हैं । तो कोई भी पदार्थ हो, यदि अकेला है, एक है तो उसमें कभी विकार नहीं जगते । आप दुनिया के उदाहरण ले लो बहुत से । यदि किसी वस्तु में विकार जगा तो समझिये कि उसके साथ कोई प्रतिकूल संयोग है उसका निमित्त पाकर विकार जगा है । मेरे स्वभाव में विकार नहीं है, अर्थात् मैं विकार करने का स्वभाव रखता हूँ ऐसी बात नहीं है । जैसे कि मैं जानने का स्वभाव रखता हूँ, विकार का स्वभाव नहीं रखता और इस तरह भी समझ सकते कि ये विकार अस्थिर होते हैं मिटते हैं, विषम हैं, स्वभाव तो ऐसा नहीं होता । मिटेगा, विषम होगा यह स्वभाव का लक्षण नहीं हैं । क्रोध आया, मिटा, मान आया-मिटा, माया आया-मिटा, लोभ, आया-मिटा, यों कितने ही विकार आते और मिटते, मगर ज्ञान सदा साथ चलता है । ज्ञानस्वभाव की बात तो और भी स्वभावरूप से शाश्वत मालूम पड़ेगी ।
जीव में विकार जगने के कारणों का दिग्दर्शन―यहां तीन कारण समझिये―जो हम आप में ये विकार जगते हैं । जिन में खोटी प्रवृत्ति बन रही है वहाँ तीन कारण है । प्रथम तो उपादान कारण, जिसमें विकार परिणाम बना वह है यह जीव, दूसरा निमित्त कारण वह है उस प्रकृति का उदय और जगत के जितने ये पदार्थ है इन्हें निमित्त कहते तो हैं पर ये निमित्त कारण नहीं कहलाते, ये कहलाते है आश्रयभूत कारण । स्पष्ट ज्ञान के लिए ये शब्द रखो । आश्रयभूत कारण के प्रति व्यवहार जरूर है निमित्त कहने का, पर उनमें यदि भेद न समझा तो इस निमित्त कारण का उदाहरण देकर कि वेश्या को देखा मुनिमहाराज ने और उनके विकार के भाव न जगे तो निमित्त कुछ तो न रहा । वह तो आश्रयभूत कारण है । निमित्तकारण तो मुनिमहाराज का उन कषायों का क्षयोपशम है जिसके अनुसार उनके वैराग्यरूप भाव हुए । और वेश्या को निरखकर इसने व्यर्थ ही जीवन खोया, ऐसा भाव बन सकता है पर काम के भाव नहीं बन सकते । और कामी पुरुष देखता है तो उसकी काम के भाव बनते हैं । तो वहाँ पर वेश्या आश्रय भूत है और निमित्त कारण उसके वेद आदिक का तीव्र उदय है । तो निमित्त में और आश्रयभूत कारण में अंतर जानना । निमित्त कारण केवल कर्मप्रकृति का उदय चलेगा विकार में और आश्रय भूत कारण दुनिया भर के ये सारे विषय साधन हैं । तो जीव जब आश्रय भूत कारण पर दृष्टि गड़ाकर उन्हें अपनाकर उनका आश्रय लेकर विकार करता है वहाँ तो तीन कारण आ गये ना, सो वे व्यक्त विकार हैं और कभी ऐसा होता है तो आश्रयभूत कारण का आलंबन नहीं ले रहा । मान लो मंदिर में बैठे, पूजा कर रहे, जाप कर रहे, सामायिक कर रहे, स्वाध्याय कर रहे तो उस समय उन कषायों का उदय तो नहीं चल रहा । मगर सत्ता में बैठे हैं । हमारा उपयोग उन कषाय के आश्रय भूत कारणों मे नहीं हैं इसलिए वे अव्यक्त होकर चले आ रहे हैं, पर फल जरूर मिलता है । तो तीन कारणों की बात जाने ।
विकार मेटने के लिए चरणानुयोग की विधि से आत्मनियंत्रण की उपयोगिता―आप विकार मिटाने के लिए क्या रचेंगे? तो चरणानुयोग के अनुसार आप यह उपाय रचेंगे कि इन आश्रयभूत कारणों को हटावो । यद्यपि इन आश्रयभूत कारणों को त्यागने पर भी यह नियम नहीं है कि भीतर की कषाय दूर हो जाय, किंतु जब तक बहुत समय तक नहीं रहते सामने, त्याग दिये जायें किसी भी प्रकार से तो रही सही कषायों में फर्क आ जाता है एक बात, दूसरी बात―जिसके वैराग्य जगा है वह कैसे यह कर सकेगा कि इन विषयभोग के साधनों को पकड़े रहे? यह ना बन पायगा, वह त्याग देता है । तो आश्रयभूत कारणों का त्याग करने की मुख्यता चरणानुयोग में सब वर्णन है । किस-किस प्रकार से व्रत करना, त्याग करना, कैसे-कैसे प्रतिभावों में बढ़ना । अच्छा तो इतने ही मात्र से अभी मार्ग कल्याण का नहीं बना । वह सहायक रहा, पर उसके लिए क्या करना कि अविकार तो आत्मस्वरूप है उस स्वरूप के ध्यान में अधिक रहना, जिसके प्रताप से इन विकारों में अंतर होगा, कर्म का क्षयोपशम सी होगा, पर इन बाह्य प्रसंगों को त्यागकर अपने को एक मात्र बनाकर, सुरक्षित रखकर अंदर में एक ज्ञानस्वभाव की उपासना करें और ऐसा भाव बने कि यह मैं आत्मा एक चैतन्यमात्र हूँ । स्वरूप दृष्टि करके भीतर में स्वभाव की भावना बने, बढ़े वह है हमारा पौरुष जिसके बल से हम मोक्षमार्ग में आगे बढ़ते हैं । ऐसी बात जानकर ऐसा निर्णय करें कि मेरे में जो विकार जगते हैं सो वे विकार क्या चीज हैं कि कर्मों में अनुभाग पड़ा है । उस कर्म प्रकृति का उदय आया है उसका प्रतिफलन आत्मउपयोग में आया है और इसने अपनी सुध भूलकर उस आक्रमण के समय में उस प्रतिफलन को अपनाया है और तब यह मैं क्रोधी हूँ, मानी हूँ, मायावी हूँ, लोभी हूँ, ऐसा भीतर में अनुभव करता है । भेद विज्ञान करना किसी स्वभाव में और विभाव में रुचि करना, भेद विज्ञान करना । ये धन वैभव मकान आदिक मैं नहीं हूँ ये मेरे नहीं है ये प्रकट भिन्न हैं, जुदे क्षेत्र में पड़े हैं, सब स्पष्ट मालूम होता है । हां मोही जीव ऐसे स्पष्ट भिन्न पदार्थों में भी लगाव रखते हैं कि ये मेरे हैं, इनसे ही मेरी महिमा है । उनके संपर्क में रहकर अपने आप में शान का अनुभव करता है, पर विवेक करना ही होगा । अनंत भव प्राप्त किए विवेक बिना अनंतभव गुजारा और अब तक जन्ममरण करते आये । यह सब भी उसी पुरानी पद्धति में बिता दिया तो इस-इस दुर्लभ मानव जीवन को पाकर क्या लाभ पाया? मान लो यहाँ से मरकर कुत्ता, बिल्ली, गधा, सूकर, मुर्गा-मुर्गी आदि बन गए या कीट पतिंगा बन गए तो फिर आगे उठने का मौका कैसे सिल पायगा? तो इस जीवन को भोग साधनों में बिताने से कुछ हित नहीं है ।
भोगसाथनप्रसंगो की दुःखरूपता―ये भोग साधन साक्षात् दुःखरूप हैं । कोई सा भी भोग साधन का प्रसंग ले लीजिए वहाँ शांति न मिलेगी । किसी भी भोग विषय के प्रसंग में शांति नहीं है, हाँ सुख लिए हुए हैं । शांति और सुख में अंतर है । शब्द के अनुसार देखिये-ख मायने इंद्रिय और सु मायने सुहावना लगना जो बात इंद्रिय को सुहाये वह है सुख और शांति मायने शमन । किसी भी प्रकार के कषाय का क्षोभ! जहाँ उदय में नहीं है ऐसी स्थिति को कहते हैं शांति । तो जैसे दुख हेय है ऐसे ही सुख भी हेय है, यह बात जब तक ध्यान में न आये तब तक इस चलती आ रही चक्र प्रवृतियों में अंतर नहीं आ सकता । हम पाप हिंसा आदिक करते है तो मिथ्यात्व से अज्ञानवश होकर करते हैं और उनमें प्रयोजन बनता है विषय भोगों में । अंदाज़ बनाओ―स्पर्शन इंद्रिय के विषयों को अनेक बार भोगा, संचय किया उस समय वहाँ सुख माना पर आज इस समय इतनी उम्र होने पर भी आपके पास सुख जुड़ पाया है क्या? अरे जुड़ने की बात तो दूर रही, उल्टे तृष्णा बढ़ गई ज्ञान बल खत्म हो गया । मनोबल, वचनबल, कायबल भी न रहा उल्टे हानि पायी अच्छा रसना इंद्रिय के विषय सेवन में बताओ खूब स्वाद के लंपटी होकर, सुख माना वह सुख कुछ अब तक जुड़ सका क्या? विषयों के भोगने में विषयों का बल घटता है । जैसे कि कामसेवन में शरीर का बल जो एक मूल धातु है उसके बरबाद होने में ही सुख मानते हैं शारीरिक शक्ति खतम होती, मनोबल भी बिगड़ता, वचनबल भी बिगड़ता और उनमें मान रहा है यह जीव सुख । बरबादी में सुख मान रहा है मूल बात है संसारी जीव की यह हालत है और ऐसा अज्ञान छाया है कि उससे हटना नहीं चाहते । घ्राणेंद्रिय चक्षुइंद्रिय आदिक सभी की यह बात है । खूब सुगंध में रमते जा रहे हैं पर इतने जीवन में कितना सुगंध का सुख जोड़ लिया सो तो बताओ? रूप को देखकर आँखों को कमजोर किया । सिनेमा देखकर रात-रात जागकर समय गंवाया अर्थात् मानसिक बल खोया कौन सा लाभ मिला? राग रागनी के शब्द, यश प्रतिष्ठा के शब्द सुन-सुन कर कौन सी बड़ी विभूति प्राप्त कर ली?
विषयों में रमणकर दुर्लभ नरजन्म को निरर्थक करने की दुश्चेष्टा―अहो ज्ञानमात्र आत्मन् । कुछ अपने आप पर करुणा करके विचार तो करो कि इन बाह्यइंद्रियों के साधनों में रमकर कौन सी अपनी उन्नति करते हो? कोई किसी का मददगार नहीं है । जो मोह और विश्वास लगाया है कि यह मेरा लड़का है इसको इतना ऊँचा बनाना है, यह मुझे आनंद देगा मेरे बुढ़ापे में यह मेरा मददगार होगा । अरे आपका पुण्योदय है तो लड़के नहीं तो पड़ोसी मददगार बन जायेंगे, या अन्य धर्मात्मा लोग मददगार बन जायेंगे मगर उसमें कारण आपका पुण्य है । देखिये―पाप का उदय और पापभाव, इन दोनों में बहुत अंतर है । पाप का उदय इस जीव का बिगाड़ न करेगा मगर पापभाव में रहना यह जीव का बिगाड़ करेगा । बड़े-बड़े महापुरुष सुकुमाल सुकौशल आदि हुए जिनको गीदड़ी चीथा, आग से जलाये गए शरीर को चाकू से छीला गया, यों बड़े-बड़े कष्ट उन महापुरुषों पर आये पर उस समय उनके पापभाव न था, पापकर्म का उदय था । पापभाव होने के कारण पाप के उदय की स्थिति में उनके विकास में रंच भी बाधा न हुई । इसी तरह पुण्योदय और पुण्य इन दोनों में अंतर है । पुण्योदय होने पर भी कोई पुण्यात्मा रहे यह नियम तो नहीं । किसी के पास बड़ा ठाट बाट है मगर वह मांसभक्षी है, शराबखोर, है पापी है, अन्यायी, दुराचारी है । तो देखिये―है तो वह पापात्मा मगर उसके पुण्य का उदय चल रहा है । तो यह ध्यान में रखें कि जो भी स्थिति आयेगी उसी में अपना गुजारा कर लूंगा पर मैं अपने ज्ञान के बल से सर्वत्र मार्ग निकालूंगा । अपने आपके सम्मुख होकर शांति पाऊंगा, ऐसी मेरे अंदर कला है । उसका प्रयोग मैं कर लूंगा । बाह्य पदार्थों पर मेरा कुछ अधिकार नहीं है ये होते हैं पुण्य पाप के उदय के अनुसार सो जैसा होता हो, बाह्य में अपना उपयोग अधिक नहीं फंसाना है । हां गृहस्थी में रह रहे तो कर्तव्य है दुकान धंधा काम काज आदिक करना, वहाँ तो लाभ हानि की बातें चलती हैं मगर अपनी ज्ञानकला को जागृत करें मैं सर्वत्र सही ढंग से गुजारा कर सकता हूँ । उस पर विश्वास रखें, बाह्य भोग साधन भोगे, इन विषय प्रसंगों में प्रवृति न रखें यह ही अपने आत्मा की दया है, अन्यथा जैसे अनेक जीवन खोये वैसे ही यह जीवन भी खो दिया जायगा तो यह भी उन्हीं अनंत भवों में शामिल हो जायगा । एक-एक करके जुड़-जुड़ कर तो अनंत भव अब तक पाये और अनंतकाल है तो हम किसी न किसी दशा में रहेंगे ही ।
सहज निजस्वरूप के आश्रय से ही शांति का लाभ―अब आप यह बताओ कि आप किस दशा में रहना चाहते? अगर शांति चाहिये तो शांति मिलती है । केवल स्व आत्मा के आश्रय में, पर पदार्थ के आश्रय में शांति नहीं मिलती और सिद्ध भगवान भी क्या हैं? केवल आत्मा ही आत्मा रह गए, शरीर और कर्म का वियोग हो गया, वही सिद्ध भगवान हैं जिनकी हम आराधना करते है । तो यह स्थिति यदि पाना है तो अभी भी अपने में अपने केवल स्वरूप को निरखिये कि मैं क्या हूँ कोई पिंड रूप मैं नहीं हूँ जो किसी के द्वारा कहीं से कहीं उठाया धरा जा सकूं । मैं - ज्ञानस्वरूप हूँ । मेरे ये समस्त प्रदेश ज्ञानमय हैं । इसे बनाया किसने? स्वयं सत् हैं पर अपने स्वरूप को भूलने के कारण, परस्वरूप को अपनाने के कारण इस स्वयं का ज्ञान नहीं । यह विकार स्वयं नहीं हुआ, कर्मोदय का निमित्त पाकर हुआ । अगर यह बात स्वयं हुई होती निमित्त के बिना तो यह फिर कभी मिट ही नहीं सकता । जो बात निमित्तोदयक्षयोपशमादि बिना एक ही पदार्थ के उस केवल से ही बन रहा वह चीज कभी मिटती नहीं । धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाशद्रव्य, सिद्ध भगवान उदाहरण में देख लीजिए-जो केवल रह गया उसके परिणाम विकाररूप नहीं बनते । तो ये मुझ में जो विकार हैं तो ये भी नैमित्तिक हैं । ये भी परभाव हैं, ये मेरे नहीं हैं । निमित्त का परिचय करना निमित्त और नैमित्तिक से हटने के लिए होता है । कहीं उस निमित्त नैमित्तिक को सोचकर चर्चा करना उन पर बंधने के लिए नहीं होता किंतु निमित्त से भी हटने के लिए होता है । कैसे हटना? यह जानकर कि ये मेरे स्वभावभूत नहीं हैं किंतु पर का निमित्त पाकर हुए हैं । परभाव है, ये मेरी वस्तु नहीं । खूब स्पष्ट जानते है लोग कि दर्पण में बाहरी पदार्थो की फोटो आती है । सब कोई समझते है कि ये द्रव्य स्वभाव से ही दर्पण में प्रतिबिंबरूप से दर्पण आने पर नहीं बने, वह तो दर्पण में इस प्रकार की योग्यता होती है कि उन वस्तुओं का प्रतिबिंब दर्पण में आ जाता । वह प्रतिबिंब बाह्य पदार्थो की परिणति नहीं है किंतु दर्पण की उस रूप परिणति है क्योंकि बाह्यपदार्थ तो ज्यों का त्यों बाहर पड़े हैं, पर निमित्त नैमित्तिक भाव हैं ऐसा कि बाह्यपदार्थों का सन्निधान पाकर दर्पण उन रूप परिणम गया । सब लोग जानते हैं और ऐसा बोलते भी हैं कि बाह्यपदार्थों की वह प्रतिबिंबरूप परिणति नहीं है किंतु दर्पण की है तो ऐसे ही हमारे आत्मा के उपयोग में ये कर्मोदय का सन्निधान पाकर विकार बने है । ये विकार मेरे स्वभाव के निकले हुए नहीं है । मेरा परिणमन होने पर भी स्वभाव से हुए नहीं इसलिए उनकी उपेक्षा की जा सकती है । और अपने जाननमात्र ज्ञानस्वरूप स्वभाव की भावना बनाकर उनसे हटकर यहाँ लगा जा सकता है । यह ही तो पौरुष करना है ।
अपने को पर व परभावों से विविक्त परखने का मुख्य कर्तव्य―अपने को धन वैभव आदिक से निराला, शरीर से निराला, कर्मों से निराला और कर्मोदयजनित विकार से निराला ज्ञानमात्र स्वरूप में निरखने का अभ्यास करना चाहिये । यह ही अभ्यास जैसा हमारा सुदृढ़ होगा वैसा हम अंतस्तत्त्व के ध्यान में बढ़ सकेंगे और व्यर्थ का जो ये जंजाल है यह सब छूट जायगा । इसके लगाव में लाभ क्या मिलेगा? यह जीव अकेला ही मरकर जायगा । जैसे पापभाव किया है, जैसा बंध किया है वैसे कर्म भी इसके साथ जायेंगे । और वहाँ यह जीव वैसा फल पायगा । तो हम अनेक उपायों ये प्रभुभक्ति, सामायिक, स्वाध्याय, आत्मचर्चा? सत्संग आदि सर्व कुछ समागम करके अपना सर्वस्व भी समर्पण करके जिसको माना है अपना सर्वस्व उसी को त्यागकर यदि मेरे को इस आत्मस्वरूप का प्रकाश मिलता है तो समझिये कि सब कुछ मिल गया और खोया कुछ नहीं । और एक आत्मस्वरूप का भान नहीं हो पाता है तो चाहे बड़ा राजपाट मिले, बड़े-बड़े वैभव मिलें पर कुछ नहीं पाया समझिये । इससे मिथ्यात्व को दूर कर हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह से विरल होकर आत्मसाधना के लक्ष्य से आपने जीवन को बनायें तो इस जीवन की सफलता है ।