वर्णीजी-प्रवचन:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 28
From जैनकोष
संयग्दर्शनसंपन्नमपि मातंगदेहजम् ।
देवा देवं विदुर्भस्मणूढांगारांतरौजसम् ।।28।।
सम्यक्त्व तेज की प्रशंसा―जों जीव सम्यग्दर्शन से संपन्न है वह चाहे चांडाल के देह से भी उत्पन्न हुआ हो तो भी गणधरदेव उसे देव कहते है । यहाँ देव के मायने अरहंत सिद्ध नहीं, देव के मायने स्वर्ग के देव नहीं, किंतु अपने आपके स्वरूप में रमण करने का प्रयत्न करने वाला उच्च आत्मा । यद्यपि वह चांडाल है तो भी आत्मा में स्वरूप का प्रकाश है तो अंत: वह विशुद्ध है । जैसे राख के भीतर अंगारा ऊपर से कुछ नहीं विदित होता, भस्म है, पर उस अंगारे में स्वयं जों तेज है वह तो है ही ऐसे ही चांडाल के शरीर में है वह सम्यग्दृष्टि आत्मा तो भी भीतर में वह तो सही है, सम्यग्दृष्टि है । देह तो सभी मल मूत्रादिक महा अपवित्र चीजों से भरा हुआ है । उच्च कुल का जो देह है सो वह भी मलमूत्रादिक से भरा है और नीचकुल का जो देह है सो वह भी मूत्रादिक से भरा है । पूर्वभव में उत्तम आचरण के प्रताप से एक को उच्चकुल मिला है और नीच आचरण के प्रताप से एक को नीचकुल मिला है सो यद्यपि थोड़ा अंतर है उच्च कुल में और नीच कुल में पर वह अंतर सम्यग्दर्शन के लिए कुछ अंतर नहीं है । उच्च चारित्रपालन के लिए भले ही कुछ अंतर आये पर दोनों के सम्यक्त्व में कोई अंतर नहीं है । चांडाल की तो बात क्या चारों गतियों के जीवों को एक जैसा सम्यक्त्व हो सकता है । नरकगति में तो नीचगोत्र का ही उदय है पर सम्यक्त्व उन जीवों को भी उत्पन्न होता हैं । सम्यक्त्व में अपने सहज स्वरूप की प्रतीति रहती है । मैं स्वयं वास्तव में क्या हूँ, अपने सत्त्व से मैं स्वयं क्या हूँ उस स्वरूप की प्रतीति रहती है । मैं हूँ यह सहज ज्ञानस्वभावमात्र, जिसकी वृत्ति में जानन चला करता है । देखिये जो जानन चल रहा है, पदार्थ जाने जा रहे हैं यह जानना भी इस ज्ञानी के लक्ष्य में नहीं है । इतने मात्र मैं हूँ ऐसी उसकी प्रतीति नहीं है, किंतु जानना कितने ही चलते रहे उन जाननों की जो शक्ति है, स्वभाव है स्वरूप है उस रूप आपने आपको अनुभवता है यह ज्ञानी ।
सम्यग्दृष्टि का प्रथम परिचायक चिह्न संवेग―जिस जीव को सम्यग्दर्शन उत्पन्न हुआ है उसमें 8 गुण ऐसे प्रकट होते हैं जिनसे सम्यग्दृष्टि का परिचय बना करता है । उन 8 गुणों में 1 प्रथम गुण है संवेग । सम्यग्दृष्टि का धर्म में अनुराग रहता है । मिथ्यादृष्टि का अनुराग बाह्य वैभव में, स्त्री, पुत्रादिक परिजनों में, पंचेंद्रिय के विषयसाधनों में विषय भोगों की प्रीति में रहा करता है किंतु सम्यग्दृष्टि का अनुराग धर्म में रहता है । धर्म में अनुराग, धर्म के साधनों में अनुराग, धर्मात्मा जीवों में अनुराग । जो जिसका इच्छुक होता है उसको उससे संबंधित पदार्थों में अनुराग रहा करता है । चूंकि उस ज्ञानी जीव ने आपने आत्मा के धर्म को सहजस्वरूप को अनुभवा है और उसमें अलौकिक आनंद पाया है इसलिए उसकी धुन इस ही धर्म के प्रति रहा करती है । मैं अपने चैतन्यस्वभाव में ही उपयोग रखे रहूं इस ही में संतोष पाऊँ ऐसी भावना सम्यग्दृष्टि जीव के होती है क्योंकि उसे स्वपर का भेद विज्ञान दृढ़ हुआ है । जगत में सभी पदार्थ अपनी-अपनी सत्ता लिए हुए हैं । घर में जितने जीव पाये जाते हैं माता-पिता, स्त्रीपुत्रादिक वे सग आत्मा अपना-अपना सत्त्व लिए हुए है एक के सत्व से दूसरे का सत्त्व अत्यंत पृथक् हैं ।
मुझ आत्मा में अन्य समस्त चेतन व अचेतन द्रव्यों का अत्यंताभाव-चार प्रकार के अभाव बताये गए हैं―(1) प्रागभाव (2) प्रध्वंसाभाव (3) अन्योन्याभाव और (4) अत्यंताभाव । (1) प्रागभाव उसे कहते हैं कि जिसमें काम होना है उस काम के होने से पहले उसका अभाव हो । जैसे कोई घड़ा बना रहा तो घड़ा बनने से पहले उसकी समस्त अवस्थावों में घड़े का अभाव है । और अभाव दूसरे के सद्भाव रूप हुआ करता है । तो घड़े का प्रागभाव कहलाता है जो घड़ा बनने से पूर्व की सारी अवस्थायें हैं । (2) प्रध्वंसाभाव―घड़े के नष्ट होने पर घड़े का अभाव हो गया, खपरियाँ बन गई, फूट गया घड़ा तो खपरियाँ बन गई तो घड़े का विनाश होने पर जो घड़े का अभाव है वह खपरियों रूप पड़ता है इस कारण घड़े का प्रध्वंसाभाव खपरियां है । (3) अन्योन्याभाव―जो पर्यायें आगे पीछे हो सकती हैं उनका एक समय में एक का दूसरे में अभाव है । जैसे पुद्गल स्कंध है, आज यह घड़ा बनता है तो यह पुद्गल स्कंध कभी कपड़ा बन सकता है । घड़ा फूट गया, खपरियां हो गई, चूरा हो गया, खेत में गिर गया, कपास वहाँ बोया हुआ है तो वे चूरा के परमाणु स्कंध उस कपास में आ गए तो वे रूई रूप बन गए, उनसे कपड़ा बन गया, मगर जिस समय घट है उस समय वह कपड़ा नहीं है । घड़े में कपड़े का अभाव है, कपड़े में घड़े का अभाव है, पर कभी कपड़ा घड़ा बन सकता है और घड़ा कभी कपड़ा बन सकता है । कपड़ा सड़ गया मिट्टी में मिल गया और उस मिट्टी का घड़ा बन गया । तो कभी कपड़ा घड़ा बन सकता मगर उस समय याने जिस समय कपड़ा है उस समय घड़े का अभाव है यह कहलाता है अन्योन्याभाव । (4) अत्यंताभाव―-एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य में त्रिकाल में सद्भाव नहीं हो सकना यह कहलाता है अत्यंताभाव । तो अब आप समझ लीजिए कि आपके घर में जितने जीव है वे सब परद्रव्य है । आप अलग द्रव्य हैं आपके घर के जीव अलग द्रव्य हैं । उनका आप से क्या संबंध? जिन जीवों में आपका चित्त बस रहा, जिन्हें आप अपना सर्वस्व समझ रहे, जिनसे आप अपना बड़प्पन मान रहे जिनसे आप भारी मोह कर रहे उनके प्रति जरा विवेक पूर्वक विचार तो करो, वे आपके कैसे क्या लग सकते हैं जबकि अत्यंताभाव है । आपके आत्मा में उनका अत्यंताभाव है । न वे आप में थे न अब हैं और न आप में आगे आयेंगे । बिल्कुल जुदे प्रदेश हैं आपके भिन्न प्रदेश, उनके भिन्न प्रदेश । आपका परिणमन निराला, उनका परिणमन निराला, फिर वे आपके कुछ कैसे हो सकते हैं? कुछ भी नहीं । उनका आप में अत्यंताभाव है । तो ऐसे अत्यंताभाव वाले पदार्थों में मोह न जगे सही ज्ञानप्रकाश बना रहे कि सब बिल्कुल जुदे-जुदे पदार्थ हैं । जैसे जगत के सब जीव मुझ से अत्यंत जुदे हैं ऐसे ही जुदे खुद के घर के जीव हैं ।
स्वपरभेदविज्ञान होने पर मोक्षमार्ग के प्रारंभ की संभवता―देखिये मोक्षमार्ग और संसार का मौज ये दोनों एक साथ नहीं हो सकते । संसार का मौज है विकृत, कर्मोदय से उत्पन्न हुआ, कलंक, आपत्तियों का घर, और आगे भी सदा धोखा, संसार में रुलते रहना उसका फल है । तो संसार विषयों का मौज यह भंयकर संगम है उसकी यथार्थता जानकर मोक्षमार्ग में प्रीति होनी चाहिये । मोक्षमार्ग सर्वप्रथम स्वपर भेदविज्ञान से प्रारंभ होता है । स्व और पर का यथार्थ स्वरूप जानें । स्व मायने क्या? पर मायने क्या? इसमें भी बहुत सावधानी वर्तनी है । वैसे सामान्यतया सीधा अर्थ है―स्व मायने मैं आत्मा और पर मायने ये बाहर में रहने वाले धन वैभव स्त्री पुत्रादिक पदार्थ पर स्व और पर का इतना अर्थ समझ लेने भर से काम नहीं चलता । जो बाह्य पदार्थ हैं, भिन्न प्रदेशी हैं, निराले हैं वे तो तीन काल में भी मेरे हो नहीं सकते । जैसे धन, वैभव, मकान, स्त्री, पुत्रादिक ये सब तो प्रकट भिन्न परपदार्थ हैं ही, इनका मुझ में अत्यंताभाव है । ये सब मेरे न कभी हुए न आज मेरे हैं और न कभी मेरे हो सकेंगे । अब आगे देखिये―जो कर्म पहले बांधे हैं वे यद्यपि भिन्न अस्तित्त्व वाले हैं फिर भी आत्मा के साथ बंधे हैं । यह सब निमित्त नैमित्तिक बंधन है कहीं रस्सी की तरह बंधना नहीं है कि जैसे एक रस्सी से दूसरी रस्सी को बांध दिया जाय ऐसा बंधन नहीं है आत्मा और कर्म का । वे रह रहे हैं आत्मा के ही क्षेत्र में और भव छोड़ने पर ये कर्म आत्मा के साथ जायेंगे । इतने पर भी जीव के साथ कर्म का पुद्गल की तरह बंधन नहीं बना । निमित्त नैमित्तिक की प्रधानता से बंधन बना ।
परभाव से स्व की विविक्तता―कर्म जो बंधे थे उनका जो उदयकाल आया, मायने कर्म में जो अनुभाग है फल शक्ति है वह जब प्रकट हुई जो जीव में प्रतिफलन हुआ, क्रोध प्रकृति का उदय होने पर जीव में क्रोध आया और उस प्रतिबिंब प्रतिफलन क्रोध छाया को इस उपयोग ने अपने में मिला जुला माना मैं यह हूँ । जैसे दर्पण में फोटो आया और दर्पण ही उस फोटो को अपना मान ले यद्यपि वह अचेतन मान नहीं सकता फिर भी एक अंदाजा करा रहे ऐसे ही मुझ में कर्म विपाक का प्रतिफलन हुआ और मैं उसे अपना लूं तो यह हुई कर्मप्रकृति । अब यह भिन्न प्रदेश वाला न रहा । ये आत्मा के प्रदेश में हैं रागद्वेष लेकिन ये रागद्वेष परभाव है क्योंकि ये रागद्वेष के भाव मेरे में मेरे स्वभाव से नहीं प्रकट हो पाते, ये कर्मोदय का सान्निध्य पाकर बना करते हैं । जैसे दर्पण में हाथ का फोटो आया तो जो दर्पण में फोटो आया है वह तो दर्पण की चीज है, दर्पण की परिणति है मगर दर्पण में अपने आप अपने ही स्वभाव से नहीं आयी है उसकी परिणति । उसकी योग्यता से फोटो आयी मगर सामने हाथ का निमित्त पाकर आयी, इस करण फोटो परभाव है इस बात को हर एक कोई जानता है और यह भी निर्दोष दर्पण में से यदि फोटो को मिटाना है तो हाथ को हटा दीजिए, वह फोटो मिट जायगी, ऐसे ही दर्पण की तरह समझिये अपने आत्मा और हाथ आदिक की तरह समझिये उदय में आये हुए कर्म । सो जैसा हाथ में आकार है उस अनुरूप दर्पण में फोटो आ रही है । तो ऐसे ही उदय में आये हुए कर्म का जैसा विपाक है वैसा ही जीव में वह विपाक झलका और जीव ने मान लिया कि यह मैं हूँ तो यह जो विभाव परिणति है यह यद्यपि भिन्न प्रदेश नहीं है तो भी औपाधिक होने से निमित्त पाकर होने से, ये परभाव कहलाते हैं । परभावों को पर में शामिल करें, यह मैं स्व नहीं हूँ ।
ज्ञानवृत्तियाँ और स्वभाव का विवेक―अच्छा अब इससे और भीतर चलो रागद्वेषमोह ये तो परभाव है, कलंक है, मगर जो भीतर ज्ञान जगता है, सब कुछ जानना होता है यह तो पर न होगा । यह तो मेरे ज्ञान की परिणति है । सो यहाँ भी विचारें कि जो कुछ छुटपुट ज्ञान वहाँ बन रहा वह है यद्यपि आत्मा के ज्ञान का परिणमन, किंतु यह भी नैमित्तिक है । क्षायोपशमिक है । इस ज्ञान का आवरण करने वाले जो कर्म हैं उन कर्मों का क्षयोपशम जैसा होता है उस अनुकूल थोड़ा प्रकट होता है । तो जो हम लोगों में ज्ञान बन रहा है वह ज्ञान क्षायोपशमिक है इसलिए वह मैं स्व नहीं हूँ । अब और भीतर चलो―यदि ये छुटपुट ज्ञान क्षायोपशमिक है और मैं स्व नहीं हूँ तो जब केवलज्ञान जगेगा, पूरा ज्ञान बनेगा तो वह पूरा ज्ञान तो कहलायगा, उसकी भी बात सोचिये―यदि केवलज्ञान स्व है तो केवलज्ञान होने से पहले स्व नहीं है यह समझना चाहिये, याने मेरी सत्ता ही न रही, मैं कुछ रहा ही नहीं तो केवलज्ञान भी स्व नहीं है, किंतु केवलज्ञान एक स्वाभाविक पर्याय है । जैसा मैं स्व हूँ उसके अनुरूप परिणमन है । तो मैं स्व क्या हूँ कि जिस धातु से, जिस तत्त्व से ये सब ज्ञान प्रकट होते रहते हैं वह चैतन्यस्वभाव मैं हूँ । वह चैतन्यस्वरूप स्व है और उसके अतिरिक्त सभी पर्यायें गुण भेद सभी कल्पनायें ये सब पर हैं इस स्व का अनुभव किया है ज्ञानी जीव ने । धन्य हैं वे क्षण जबकि बाहरी पर और परभावों के विकल्प से हटकर जीव परम विश्राम में आकर अपने में अपने सहज स्वभाव की अनुभूति करता है । यह है आत्मा का असली धन जो कि इस जीव को संसार के संकटों से छुटायगा । तो सम्यक्त्व एक महान वैभव है ।
स्व में स्व की घटना के दर्शन का प्रभाव―भजनों में सम्यग्दर्शन की महिमा बहुत गायी जाती है । वह सम्यग्दर्शन प्राप्त कैसे होता? वह कहीं खरीदने से न मिलेगा, शास्त्र ज्ञान करने मात्र से भी नहीं मिलता । यद्यपि ज्ञान किये बिना ज्ञान नहीं आता, यह बात सही है मगर जो हम पढ़ते लिखते है, जो जानकारी बनाते हैं इतने मात्र से सम्यक्त्व नहीं होता, किंतु कुछ भीतरी प्रयोग करना पड़ता है तब सम्यक्त्व हुआ करता है । वह प्रयोग क्या है? जैसा का तैसा अपने में निरखने का पौरुष करना, यह है वह पुरुषार्थ कि जिसके प्रताप से सम्यक्त्व होता है । थोड़ा भी ज्ञान होने पर अपने आप पर घटित किया जा रहा हो तो उस ज्ञान से सम्यक्त्व जग जायगा । बहुत भी ज्ञान कर लिया हो व्याकरण, न्याय, साहित्य, छंद, ज्योतिष आदिक, अनेक विद्यायें जान लिया हो, पर अपने आपके स्वरूप को, अपने आपकी बात को अपने आप पर घटित नहीं किया जा सक रहा हो तो उस ज्ञान से सम्यक्त्व नहीं होता । थोड़ा भी ज्ञान हो मगर छल रहित हो, आत्मकल्याण की भावना सहित हो तो वह कार्यकारी है । बहुत भी ज्ञान हो लेकिन छल सहित हो, दुनिया का मैं जानकार हूँ, पंडित हूँ ऐसा बताने के भाव से ही वह ज्ञान किया गया हो तो ऐसे ज्ञान से सम्यक्त्व उत्पन्न न होगा । जैसे किसी बुढ़िया माँ के दो बेटे थे, उनमें से एक बेटे को कम दिखता था पर सही दिखता था और दूसरे को अधिक दिखता था पर पीला । अब बुढ़िया माँ ने एक ही वैद्य से अपने दोनों बेटों का इलाज कराया । तो वैद्य ने दोनों को एक ही औषधि पीने के लिए बताया । चाँदी के गिलास में मोतीभस्म दूध में मिलाकर पीने के लिए बताया । तो जिस बेटे को थोड़ा दिखता था पर सही दिखता था उसने वह दवा पी लिया और अच्छा भी हो गया, पर अधिक और पीला-पीला, दिखने वाले बेटे ने वह दवा नहीं पिया । वह अपनी माँ पर बहुत चिल्लाया, ऐ माँ क्या मैं ही तेरा दुश्मन मिला वह क्या पीतल के गिलास में हड़ताल डालकर गाय के मूत्र में दवा पिला रही, इसे मैं नही पीता, ऐसा कहकर उसने दवा पीने से इन्कार कर दिया । फल यह हुआ कि उसका रोग ठीक न हो सका । तो ऐसे ही समझलो कि किसी को चाहे थोड़ा ज्ञान हो पर सही हो अपने आप पर घटित किये जाने की विधि से हो तो वह सम्यक्त्व उत्पन्न होने में कारण बनता है और किसी को अधिक ज्ञान हो, पर उसका प्रयोजन मात्र बाहरी-बाहरी बातों के लिए हो तो वह सम्यक्त्व उत्पन्न होने में कारण नहीं बनता । तो भाई जो कुछ हम सुनते हैं उसे अपने आप पर घटित करते जायें । एक अपने आप पर ही दृष्टि रहे । ज्ञानी जीव की बाहरी अनेक दृष्टियां हटी इस कारण उसे शांति का अनुभव होता है और बाहरी दृष्टि सब मिट जाये तो अपना आत्मा कहीं न भगेगा । स्वदृष्टि ही बनेगी और इस स्वदृष्टि के प्रताप से अपने आपके सहजस्वरूप का अनुभव बनेगा । यह है सम्यक्त्व उत्पन्न होने की विधि । जिसके सम्यग्दर्शन हुआ है उस पुरुष को धर्म में अनुराग रहता है । उसे अन्य कुछ नहीं सुहाता । ज्ञानी जीव के देह में प्रीति नहीं होती, अन्य बाह्य समागमों में प्रीति नहीं होती, पर मेरा स्वभाव मेरे को दिखे, मेरा वह सामान्यप्रतिभास चैतन्यस्वरूप मेरे उपयोग में सदा बना रहे, यह धुन रहा करती है ज्ञानी जीव की । तो सम्यग्दृष्टि की पहिचान का प्रथम चिह्न है संवेग याने धर्म में अनुराग ।
ज्ञानी का परिचायक द्वितीय चिह्न निर्वेद―दूसरा चिह्न है निर्वेद अर्थात् वैराग्य इस संसार से उसे वैराग्य रहता है । अरे यह संसार क्या है? चतुर्गति में परिभ्रमण करना, जन्ममरण करना, दुःखी होना, रागद्वेष करके आकुल व्याकुल होना, यह है संसार । ऐसे विकट संसार में ज्ञानी जीव को वैराग्य रहता है । वह चाहता है कि इस संसार में अब मैं रुलूँ नहीं, मैं अपने स्वरूप में ही ठहर आज यों उसे इस शरीर से भी वैराग्य है । यह शरीर कृतघ्न है, इसका हम चाव से पालन पोषण करें और यह अपवित्रता फैलाये, दुःख का कारण बने, तो यह शरीर प्रीति के लायक नहीं, इससे विरक्त रहते हैं ज्ञानी सम्यग्दृष्टि जीव । इसी प्रकार भोगों से विरक्त रहते हैं ज्ञानी जीव । पंचेंद्रिय विषय स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, शब्द इनके भोगने में उसे ग्लानि है इनके भोगने में समय व्यर्थ खोया जा रहा । इससे आत्मा को कोई लाभ नहीं मिलता बल्कि दुर्गतियों में उत्पन्न होना होता है । तो ज्ञानी जीव को संसार, शरीर भोगों से विरक्ति रहती है यह है इसकी दूसरी पहिचान ।
सम्यग्दृष्टि का तृतीय परिचायक चिह्न आत्मनिंदा―ज्ञानी की तीसरी पहिचान है कि ज्ञानी जीव आत्मनिंदा करता है, अपनी कमियाँ निरखता है । मेरे में कलंक है यह रागद्वेष यह परपदार्थों का लगाव, यह मेरे लिए अहितकारी है मेरे में क्यों ये कषायें जगती, मेरा स्वरूप तो अविकार है । मेरे में स्वयं अपने आप ये विकार नहीं हो सकते पर ये विकार बन रहे हैं । नैमित्तिक हैं, ये क्यों हो रहे हैं, ऐसी आत्मनिंदा करता है, ज्ञानी । इस आत्मनिंदा के प्रसंग में उन कषायभावों से जुदा होकर उपयोग में केवल सहजज्ञानस्वभाव को ही लिया तो इस जीव को वहाँ अलौकिक आनंद जगता है । ज्ञानी जीव के गर्व नहीं रहता । जो ज्ञान पाया है वह कुछ नहीं पाया, क्योंकि वह जानता है कि केवल ज्ञान कितना विशाल ज्ञान है । उस केवलज्ञान के सामने यह मेरा आज का प्राप्त ज्ञान क्या कीमत रखता । ज्ञानी पुरुष जानता है कि द्वादशांग का ज्ञान कितना अद्भुत अलौकिक, अचिंत्य ज्ञान है, उसके आगे मेरे इस थोड़े से ज्ञान की क्या कीमत । मन:पर्ययज्ञान भी यद्यपि केवलज्ञान की अपेक्षा बहुत कम ज्ञान है फिर भी उस मन:पर्ययज्ञान के आगे मेरा ज्ञान कुछ नहीं है । अवधिज्ञान का कितना बड़ा विषय है, उसके आगे मेरा ज्ञान कुछ नहीं है । मैने जो कुछ पाया है शरीर का रूप बल आदिक ये सब अत्यंत बाहरी बातें हैं, पर उनका जो ज्ञान बनता है वह भी अत्यंत अल्प है यों अपने दोष देखता है ज्ञानी, उन दोषों को दूर करने का प्रयास करता है इस कारण सदैव वह अपनी निंदा में रहता है । मैं कुछ नहीं हूँ, कैसे मैं आगे बढूं, यों वह आत्मनिंदा करता है, यह है सम्यग्दृष्टि की पहिचान । जिसको सम्यक्त्व होता वह नियम से मोक्ष जायगा, सो भाई हर एक उपाय से सम्यक्त्व की प्राप्ति करो जिससे अपने आत्मा का उद्धार हो ।
सम्यग्दृष्टि के वर्णित तीन चिह्नों पुन: स्मरण―सम्यग्दृष्टि जीव का कैसे परिचय हमें मिले उस प्रसंग की बात चल रही है । अभी तक यह बताया गया कि सम्यग्दृष्टि को धर्म में अनुराग होता है । सम्यग्दृष्टि को संसार, शरीर, भोगों से वैराग्य होता है और वह अपनी निंदा बनाये रहता है, जानता है अपने अवगुणों को देखता है । अपने में जो गुण प्रकट हुए उनपर दृष्टि नहीं रखता किंतु जो अवगुण रह गए उनको निरख-निरखकर जैसे धुनिया छोटी-छोटी पूनी को लेकर धुनता है ऐसे ही ज्ञानी जीव सूक्ष्म से सूक्ष्म विकारों को निरख करके धुनता है । लोक में जो धनिक जन हैं उनको जितना जो कुछ मिला है उस पर वे दृष्टि नहीं रखते, किंतु जो नहीं मिला है या जितना कि मिलने की आशा है उस पर ही दृष्टि रखते हैं और यही कारण है कि उनको संतोष नहीं होता । जो धन मिला हुआ है उस पर दृष्टि डालें कि मेरे पास तो लाखों की अपेक्षा अधिक धन है, आजीविका ठीक-ठीक चल रही है पर जो मिला है उस पर उनकी दृष्टि नहीं जाती जो धन नहीं मिला है उस पर दृष्टि जाती है । ऐसी ही बात परिजनों के संबंध में है । किसी के मानो 4-6 लड़के हैं उनमें मानो एक लड़का गुजर जाय तो जो 5 अभी जीवित हैं उन पर दृष्टि नहीं रहती, एक उस मर जाने वाले पर दृष्टि रहती है । तो ऐसे ही जिसको जिसकी रुचि है उस ढंग से ही उसकी दृष्टि बनती है । सम्यग्ज्ञानी जीव को अपने आत्मा को निर्दोष बनाने की ओर दृष्टि है सो जितने गुण प्रकट हुए हैं वे तो हुए हैं । उनको निरख करके वे संतोष पाले कि मैंने इतना विकास कर लिया । मेरे इतना ज्ञान जग गया, ऐसी दृष्टि नहीं रखते । जो हुआ सो हुआ पर जो दोष रह गए उन दोषों पर दृष्टि है । मुझ में अन्य जीवों के प्रति ईर्ष्या का क्यों भाव हुआ? दूसरे जीवों के किसी काम में विघ्न डालने का मेरे में क्यों भाव होता? मैं दूसरे जीवों को अपने स्वरूप के समान क्यों नहीं समझ पाता? घर के लोगों पर क्यों मेरी अधिक दृष्टि है? जबकि सर्व जीव समान है । या अपने अहिंसा सत्य आदिक व्रतों में दोष लगने पर उस दोष पर दृष्टि होती है । तो यह ज्ञानी जीव आत्मनिंदा करता है, यह सम्यग्दृष्टि की पहिचान है ।
सम्यग्दृष्टि का चतुर्थ चिह्न गर्हा―चौथा चिह्न है गर्हा । गुरु के समक्ष, ज्ञानी के समक्ष अपने दोष प्रकट करना, उनके समक्ष अपनी निंदा करना गर्हा कहलाता है । आत्मनिंदा से गर्हा करना कठिन है । वह तो अपने आप में निरखें कि मुझ में यह दोष है, यह कमी है, उस कमी, को दोष को किसी ज्ञानी के समक्ष कहना, तो उसको अपने दोषों को वचनों से बोलकर जाहिर करना इसमें अधिक साहस की जरूरत है । और साहस क्या? ज्ञानी की धुन । अगर ज्ञानस्वरूप की धुन है तो यह साहस कोई बड़ी चीज नहीं है । वह सब कुछ करने को तैयार है मुक्ति के प्रसंग में । तो सम्यग्दृष्टि का चौथा चिह्न है गर्हा प्रथम तो दूसरे के समक्ष बड़े विनयपूर्वक बैठना ही बहुत कठिन हो गया है । जो ज्ञानी पुरुष है, जिसको अपने ज्ञानस्वरूप की धुन लगी है उस ही में इतनी नम्रता आ सकती है कि विनय करने में संकोच न करें अन्यथा अक्सर थोड़ी भी कला आ जाय, थोड़ा भी ज्ञान जगे तो अज्ञान के कारण, मोह, राग के कारण, वह अपने की बहुत बड़ा मानने लगता है और जहाँ अपने में बड़प्पन का ख्याल आया वहाँ नम्रता, विनय हो ही नहीं सकती है पर नम्रता, विनय के भाव न रहें और अपने पाये हुए ज्ञान पर गर्व हो, बड़प्पन का विकल्प रहता हो तो इसमें बिगाड़ किसका है? किसी दूसरे का बिगाड़ नहीं है । खुद की ही प्रगति रुक गई । जैसे धन का लोभी धन अर्जन के लिए न जाने क्या-क्या कर डालता ऐसे ही ज्ञान का लोभी, ज्ञान का इच्छुक, ज्ञान का धुनिया तत्त्वज्ञानी अपने स्वरूप विकास के लिए क्या-क्या नहीं कर सकता? सो नम्रता, विनय आना और गुरु के समक्ष बैठकर विधिपूर्वक अपने दोषों को जाहिर करना यह है गर्हा ।
सम्यग्दृष्टि का पंचम चिह्न उपशम―सम्यग्दृष्टि का 5वां चिह्न है उपशम । इसे प्रशम भी कहते है ज्ञानी जीव ने अपने आपके सहज ज्ञानस्वरूप का परिचय किया है । मैं यह हूँ, मुझ में विकार नहीं है । स्वभावदृष्टि कह रहे है सब । स्वभाव को निरखकर ज्ञानी सोच रहा है । इस मुझ सहजस्वभाव में विकार का क्या काम? यह अपने सत्त्व के कारण जो कुछ स्वभाव रख रहा है उसमें अन्य तत्व का प्रवेश नहीं है, ऐसा यह मैं अविकार स्वरूप हूँ । इसका मनन करने वाले ज्ञानी के कर्मविपाकवश कुछ विवशता है तो भी क्रोध, मान, माया, लोभ कषाय उसके मंद रहती है । कषाय के मंद होने का मुख्य परीक्षण धर्मप्रसंग में बताया गया है । क्रोध तो सभी जगह लोग करते है मगर धर्मप्रसंग में, धर्मव्यवस्था में, धर्मस्थान में, धार्मिक व्यवस्थावों में यदि क्रोध तेज जगता है तो उसे बताया है कि उसके अनंतानुबंधी क्रोध है । मान लो कोई रथयात्रा का प्रबंध कर रहे तो उसमें पद-पद पर क्रोध करने की क्या बात? महावीर स्वामी की परंपरा से चला आया है यह काम ठीक है कर लीजिए । जितना सहयोग बने सहयोग दीजिए, पर उनके प्रति पद-पद पर क्रोध करने की क्या बात? धर्म प्रसंग में क्रोध आये तो उसे अनंतानुबंधी क्रोध कहा है । घमंड भी प्राय: मनुष्यों के कुछ-कुछ अंशों में पाया जाता है । मगर धर्म के प्रसंगो में मान करना, लोग जाने कि यह बड़े तपस्वी है, लोग समझें कि यह बड़े ज्ञानी हैं, बहुत धर्मात्मा हैं, इस तरह की आकांक्षायें रहें और धर्म के प्रसंगों में पद-पद पर मान जगा करे तो वह अनंतानुबंधी मान कहलाता है । जैसे मानो सभी लोग पूजा में खड़े होते हैं । कोई मान लो अभी तक रोज-रोज आगे खड़ा होता था, आज उसे किसी कारण से पीछे खड़ा होना पड़ गया तो वह इसमें अपना अपमान महसूस करता है। कितने ही प्रसंग ऐसे होते हैं कि जहाँ मान उमड़ आया करता है । तो धार्मिक प्रसंगों में मान उत्पन्न होना यह बहुत तेज कषाय बतायी गई । मायाचार माया भी प्राय: मनुष्यों से नहीं छूटती है । घर में, दुकान में, किसी भी जगह मायाचारी की बातें चलती है । मगर धर्म के प्रसंग में कोई मायाचारी करे तो वह बड़ी तेज माया कषाय कहलाती है । वे मायाचार क्या-क्या हैं, उसके कई रूपक बनते हैं । मानो कोई नहीं देख रहा तो उस समय तो जैसे चाहे टेढ़े-मेढ़े खड़े-खड़े धीरे-धीरे पूजा कर रहे थे या जाप, सामायिक आदि कर रहें थे । अब आ गया वहाँ कोई दर्शक तो उसे देखकर झट अटेन्सन में आ गए, बड़ी शांत मुद्रा बना लिया, बताओ यह मायाचारी भरी बात है कि नहीं? इस संबंध में एक कथानक है कि किसी एक मुनिमहाराज ने किसी मगर में चातुर्मास किया और चातुर्मास भर उपवास किया और चातुर्मास व्यतीत होते ही वहाँ से प्रस्थान कर गए । उनके चार माह के उपवास की प्रशंसा चारों और फैल चुकी थी । उन्हीं दिनों उसी नगर में कोई दूसरे मुनिराज पधारे । उनके दर्शनार्थ लोग आये, लोगों ने यह जाना कि यह वही मुनिराज हैं जिन्होंने चार माह का उपवास किया, सो लोग उन मुनिराज की बड़ी-बड़ी प्रशंसा करने लगे, धन्य है इन मुनिराज को जिन्होंने चार माह का उपवास किया । अब इस प्रकार की झूठी प्रशंसा सुनकर उन मुनिराज ने अपने मन में हर्ष माना और उसे सुनकर चुप रह गए, सोचा कि मुफ्त ही प्रशंसा मिल रही है, ठीक है, मिलने दो । अरे उन्हें तो उस समय कुछ खेद होना चाहिये था और लोगों से स्पष्ट बता देना चाहिए था कि हम वह मुनि नहीं हैं, हम दूसरे हैं, पर मुफ्त की प्रशंसा लूटना चाहा । उसके फल में उन मुनि को दुर्गति मिली । यह है धर्म के प्रसंग में मान करने का फल । ऐसे ही धर्म के प्रसंग में लोभ करना यह तीव्र लोभ का स्थान है । लोभ से भी यहाँ कोई बचा नहीं है । घर के अथवा किसी भी धार्मिक काम में खर्च करने की सामर्थ्य होते हुए भी खर्च न कर सकना, उसे जोड़ने का भाव रखना यह तीव्र लोभ कषाय है । ज्ञानी जीव के तीव्र कषाय तो होती नहीं, उसकी चारों कषायों मंद रहती हैं । वह जानता है कि कषाय मेरी बैरी है । रागद्वेष भाव उठे, वह मेरे चैतन्यप्राण को मल-मलकर नष्ट कर देता हैं, मर्दन करता, ऐसा निर्णय होने के कारण ज्ञानी जीव के कषायें मंद होती हैं, यह ही उपशम गुण हैं और इसी कै प्रताप से कोई दूसरा पुरुष कैसी ही गाली दे जाय, कितना ही वह अपराध करे तो भी उस पर क्रोध भाव नहीं जगता ।
सम्यग्दृष्टि का छठा चिह्न भक्ति―सम्यग्दृष्टि का छठा चिह्न है भक्ति। पंचपरमेष्ठी में भक्ति होना। जो जिस मार्ग में है वह उस मार्ग में चलने वाले या उस मार्ग के अग्रगामी लोगों के प्रति प्रेम रखता। जैसे आप जिस रास्ते से चलकर जा रहे हों उस रास्ते से चलने वाला कोई मुसाफिर आपको मिल जाय तो आपको उसके प्रति प्रेम उमड़ता है, आप उससे दोस्ती करके भली प्रकार बातचीत करते हुए जाते हैं ऐसे ही जो मार्ग में चल रहे या उस मार्ग से चलकर जो अरहंत सिद्ध हुए उनके प्रति ज्ञानी जीव को भक्ति उमड़ती है, वह भक्ति उन परमेष्ठियों के प्रति नहीं है किंतु धर्म के प्रति है। दशलक्षण धर्म के धारकों में भक्ति, धर्मात्माजनों में, तपस्वीजनों में, उनके गुणों के स्मरण के प्रसाद से भक्ति रहना, यह है सम्यग्दृष्टि का भक्ति नाम का गुण। ज्ञानी जीव के अटपट क्रियायें नहीं होती। विषयों में प्रवृत्ति, स्वच्छंदता, गप्प बाजी में लगना आदिक बातें ज्ञानी पुरुषों में नहीं होती । जब उसने अपने ज्ञानस्वरूप की उपलब्धि का लक्ष्य बनाया है तो उस लक्ष्य के अनुसार ही उसकी वृत्ति बनेगी । ज्ञानी जीव का यह छठा चिह्न है भक्ति ।
सम्यग्दृष्टि का सप्तम चिह्न वात्सल्य―ज्ञानी का 7वां चिह्न है वात्सल्य प्रेम । देखिये―धर्म का नाता एक बहुत बड़ा नाता होता है । घर गृहस्थी के नाते को ही जो नाता मानते है और धर्म नाते को गौण करते है उन पुरुषों के अज्ञान है रुचि नहीं है । ज्ञानी जीव को धर्म का नाता मुख्य रहता है और परिजनों का नाता गौण रहता है । यदि ऐसा नहीं है तो वह ज्ञानी नहीं है, सम्यग्दृष्टि नहीं है, धर्म का धुनिया नहीं है । तो सम्यग्दृष्टि पुरुष धर्म के धारक धर्मात्माजनों में प्रीति करते है । जैसे दरिद्री पुरुष की धन देखकर बड़ा आनंद उत्पन्न होता है ऐसे ही सम्यग्दृष्टि धर्मात्माजनों को देखकर अथवा धर्म के व्याख्यान को सुनकर ज्ञानी पुरुष को अत्यंत आनंद प्रकट होता है ऐसे ही सम्यग्दृष्टि, धर्मात्माजनों को देखकर अथवा धर्म के व्याख्यान को सुनकर ज्ञानी पुरुष को अत्यंत आनंद प्रकट होता है । ज्ञानी को चाहिए स्वरूपविकास, ज्ञानविकास । उस स्वरूपविकास में जो चलना चाहता है, जो चल रहे है, उन पुरुषों को देखकर उसे अत्यंत वात्सल्य होता है । एक केवल धर्म का नाता है । अन्य बातों में वह सब एक गुजारे का साधन समझता और धर्म के नाते से धर्म के धारण को वह अपना कर्तव्य समझता है । यह ही करना है, इसके अतिरिक्त अन्य कोई शरण नहीं है, यह बुद्धि होती है ज्ञानी की धर्म के प्रति और परिजनों के प्रति ज्ञानी की बुद्धि होती है कि यह एक मात्र साधन है । देखिये कितना अंतर है ज्ञानी के मनन में । तो यह ज्ञानी पुरुष का चिन्ह है कि धर्मात्माजनों के प्रति उसके वात्सल्य होता है ।
सम्यग्दृष्टि का अष्टम चिह्न अनुकंपा―ज्ञानी का 8वां चिह्न है अनुकंपा । 6 काय के जीवों के प्रति दया करना अनुकंपा है । दुःखी जीवों को देखकर अपने परिणाम कंप जाना अनुकंपा है । अनुकंपा शब्द का अर्थ क्या है? उसमें अनु तो उपसर्ग है और कंप धातु है । कंप धातु का अर्थ है कंपना । और अनु का अर्थ है अनुसार । दुःखी जीवों को देखकर उनके दु:ख के अनुसार अपने आपका हृदय कंप जाना अनुकंपा कहलाता है । देखा होगा कि कभी कोई दु:खी जीव कठिन दु:खी को देखता है तो उसका हृदय कंप जाता है, शरीर पर एक रोमांच सा हो जाता है, यह है अनुकंपा । ऐसा क्यों होता है? तो बात यह है कि वास्तव में एक जीव किसी दूसरे जीव पर दया नहीं कर सकता । जितनी दया बनती है वह अपने आप में सद्भावना को निरखकर अपने पर दया बनती है । दु:खी जीव को देखा तो उस दु:खी को निरखकर खुद में एक क्लेश का अनुभव होता हैं । ओह । कितने कष्ट में है यह । और जब कोई श्रावक उस दु:खी को कपड़ा या भोजन देता है तो क्या वह दूसरे दु:खी का दु:ख मिटाने के लिए दे रहा है या अपना दुःख मिटाने के लिए? अरे एक जीव दूसरे जीव पर कोई प्रयोग ही नहीं कर सकता । उसने दूसरे की दुःखी देखकर जो अपने में दु:ख, उत्पन्न कर लिया था सो अब उसको अपना दु:ख नहीं सहा जाता सो दुःख को दूर करने के लिए वह भोजन, वस्त्रादिक देता है । वास्तविकता तो यह है और इसी प्रयोग से वह अपना दुःख दूर कर पाता है । तो इस दया का नाम अनुकंपा रखा गया है, जिसका अर्थ है अनुसार कंप जाना । दूसरे जीव को दुःखी देखकर अपने परिणाम कंपायमान होना, उसे देखकर जो अपने में दुःख उत्पन्न होता उसका शांति के लिए उस दूसरे का दुःख जैसे मिटे उस प्रकार का परिणाम होना यह अनुकंपा गुण कहलाता है ।
ज्ञानी के उपलब्ध सहज कला का प्रभाव―जिसके ज्ञान जगा, सम्यक्त्व हुआ उसके लिए सारा लोक कुटुंब बन गया । अब उस ज्ञानी के यह छटनी नहीं रहती कि मेरे घर के जितने लोग हैं वे मेरे कुटुंब के हैं, बाकी गैर हैं । वसुधैव कुटुंबकं । उसने आत्मस्वरूप को सर्वत्र देखा है और वस्तु के स्वरूप का उसे पूर्ण निर्णय है । वह पुरुष कैसे किसी दूसरे जीव को अपना मान लेगा? हां गुजारे के लिए आवश्यक है श्रावक को इसलिए वह प्रीति व्यवहार करता है किंतु धुन उसकी है धर्म में । तो ऐसी धर्म की प्रीति के कारण सम्यग्दृष्टि ज्ञानी जीव के ये 8 लक्षण प्रकट होते है । ज्ञानी जीव को एक कला ऐसी मिली है कि जिसके प्रसाद से अनेक कलायें स्वयमेव बन जाया करती हैं । किसी को कोई बहुत-बहुत सिखाये कि क्रोध करना बहुत बुरी चीज है, क्रोध न करना चाहिए तो बताओ उसके यह बात निभ जायगी क्या? कि क्रोध न करें, ऐसे ही मान, माया, लोभ, अनर्थ, पाप आदि के त्याग का कोई बहुत-बहुत उपदेश दें कि तुम्हें ऐसा अनर्थ न करना चाहिए तो बताओ उससे अनर्थ रुक जायगा क्या? अरे वह बड़ी जबरदस्ती करके दबायेगा भी उस अनर्थ को तो थोड़े समय को तो निभ जायगा, मगर भीतर में अज्ञान बसा होने से किसी समय वह फिर अनर्थ कार्य करने के लिए स्वच्छंद बन जाता है । जिस ज्ञानी के यह कला प्रकट हो जाय कि मेरे आत्मा का सहज ज्ञानस्वरूप अविकार है, मैं यह हूँ, ऐसी दृष्टि करके, ऐसे मनन के द्वारा जो अपने आप में आत्मबल प्रकट हुआ है वह सहज कला ऐसी प्रकट हुई है कि उसको सिखाना न पड़ेगा कि तुम क्रोध न करो, घमंड न करो । सभी कलायें उसमें स्वयमेव आ जायेंगी । उपदेश है किसलिए? ज्ञानी को भी उपदेश चलता है कि यह ज्ञान इस ज्ञानस्वभाव की दृष्टि में न रह सके, लौकिक प्रयोजन से बाह्य पदार्थो में लगाना पड़ता है तो वहाँ उसके विकार जगता है । तो उस बाध को मिटाने के लिए ज्ञानी को उपदेश है, मगर उसमें एक कला ऐसी प्रकट हुई कि उसको अनेक समस्यावों का समाधान स्वयमेव हो जाता है ।
प्रतिभालाभ होने पर बुद्धिगति के दृष्टांतपूर्वक सहजज्ञानस्वभावप्रतीतिकला होने पर अनेक समस्यावों के समाधान की सिद्धि―बुंदेलखंड में छतरपुर रियासत की एक घटना है कि वहाँ का राजा गुजर गया । उसका बेटा अभी छोटा था, तो उसके राज्य को अंग्रेजों के समय में उनके एजेन्ट चलाते थे (जिस राज्य को चलाने वाला कोई न रहता था उसको अंग्रेजों के एजेन्ट चलाते थे) जब वह राजा का बेटा 20-21 वर्ष का हुआ तो उस राजमाता ने एजेन्टों को लिखा कि मेरा बेटा बालिग हो चुका है मेरा राज्य उसे सौंप दिया जाय । तो एजेन्टों ने एक तिथि निश्चित किया कि पहले हम अमुक दिन उसके बेटे की बुद्धिमानी की परीक्षा लेंगे तब उसे राज्य दिया जा सकेगा । सो परीक्षा लेने की तिथि से पूर्व राजमाता ने अपने बेटे को दसों बातें सिखाया―बेटे अगर वे एजेन्ट तुम से यों पूछें तो यों उत्तर देना... वहाँ वह राजपुत्र बोला―मां तुमने तो ये दसों बातें हमें सिखाया, पर इनमें से कोई भी बात न पूछा तो क्या करेंगे? तो वहाँ वह राजमाता अपने बेटे की तर्कणा युक्त बात सुनकर अति प्रसन्न हुई और बोली―बेटे अब मैं समझ गई कि तुम से जो चाहे पूछा जाय सबका उत्तर कुशलतापूर्वक देकर आवोगे । आखिर हुआ क्या कि जब वह राजपुत्र परीक्षा देने पहुँचा तो एक एजेन्ट ने उससे पूछा तो कुछ नहीं और तेजी से उसके दोनों हाथ अपने हाथों से पकड़ लिया, फिर पूछा―बोलो बेटे तुम अब मेरे अधीन बन गए, क्या करोगे? तो वहाँ वह राजपुत्र बोला―अरे आप यह क्या कहते है मैं आपके अधीन बना या आप मेरे अधीन हो गए? कैसे मैं आपके आधीन? हाथ तो मैंने पकड़ रखा, पराधीन तो तुम हो ।... नहीं, नहीं, आप मेरे आधीन बने ।...कैसे?...ऐसे कि देखो जब किसी कन्या का विवाह होता है तो भांवर पड़ते समय कन्या उस लड़के का एक हाथ पकड़ लेती है तो वह पति सारे जीवन भर कन्या के आधीन रहता है, आपने तो मेरे दोनों ही हाथ पकड़ लिए फिर क्यों न आप मेरे आधीन कहलाये...। राजपुत्र की इस प्रकार की तर्कणा भरी बात सुनकर वह एजेन्ट अति प्रसन्न हुआ और समझ लिया कि वास्तव में वह राजपुत्र बुद्धिमान है । राज्य चलाने योग्य है । आखिर उस राजपुत्र को राज्य मिल गया । तो बात यहाँ यह कह रहे थे कि जिसके एक प्रतिभा होती है उसे अधिक नहीं समझाना पड़ता । ज्ञानी जीव में सहज ही एक ऐसी कला प्रकट होती है कि जिससे अपने हित के बारे में उसके ऐसा समर्थ पौरुष होता है कि क्रोधादिक कषायों से हटना, खोटे भावों से हटना आदि ये सब बातें उसके लिए अत्यंत सुगम हो जाती है । तो सबसे बड़ा काम है जीवन में यह कि अपने आपके अविकार सहज स्वभाव का अनुभव कर लेना । बाकी सब काम बेकार है । हां परिस्थितिवश कार्य सभी करने होते हैं, पर वे सब बेकार समझिये । कोई लोग तो ये सब काम गुजारने के लिए करते हैं कोई अज्ञानतावश लोक में अपनी मान, प्रतिष्ठा, इज्जत के लिए, पर काम ये सब बेकार हैं । बाहरी काम हैं । एक अपने आपके अंत: स्वरूप का निर्णय कर लेना यही वास्तविक काम है, जिसके प्रताप से संसार के संकटों से सदा के लिए छूट जायेंगे ।