वर्णीजी-प्रवचन:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 56
From जैनकोष
परिवादरहोभ्याख्या पैशून्यं कुटलेखकरणं च ।
न्यासापहारितापि च व्यतिक्रमा: पंच सत्यस्य ।। 56 ।।
सत्याणुव्रत का प्रथम अतिचार परिवाद―सत्याणुव्रत के 5 अतिचार हैं । (1) पहला अतिचार है परिवाद, मिथ्या उपदेश करना । स्वर्ग और मोक्ष का कारणभूत जो चारित्र है उसका अन्य प्रकार उपदेश देने लगना, यह है परिवाद नाम का दोष । ऐसा भी होता है कि यह भी निभेगा, शिथिलता की बात बताना अथवा जैसे जीवदया करना है तो यह आत्मा का विकारभाव, मगर हिंसा, झूठ आदिक जितने बड़े विकार होते हैं उनसे हटे और जीव के स्वरूप पर दृष्टि गई और उस समय दया का भाव आया तो यह तो इस भूमिका में कर्तव्य है लेकिन चूँकि जीवों की दया करना, इसमें यह आत्मा स्वभाव में मग्न नहीं होता अतएव वह आत्मधर्म नहीं कहलाता है उसके बाबत एक साधारणतया ऐसा एकांतत: प्रसिद्ध करना जिससे कि लोग विचलित भी हो जायेंगे तो ऐसे कोई जीवदया की उपयोगिता न बताकर एकांत से यह अधर्म है, पाप है, संसार है, विकार है... वर्णन करना यह तो एक परिवाद का ढंग है । वहाँ तो दृष्टि की अपेक्षा देकर समझाइये कि भाई इस भूमिका में ऐसा जीवदया का भाव होना भला है और यह परंपरया उन्नति का साधन है, पर जीव के जो स्वभाव मग्नता की दशा है उसमें जीवदया का भी विकल्प नहीं रहता है । वह शांत निराकुल निर्विकल्प रहता है इसलिए निर्विकल्प की स्थिति अत्यंत उपादेय है । यों न समझाकर उसे किसी कषायवश जानकर बोलना यह परिवाद का ढंग है । और ऐसे वचन जो कि संयम चारित्र में बाधा डालें वे सब सत्याणुव्रत में दोष हैं ।
सत्याणुव्रत के रहोभ्याख्यान व पैशून्य नाम के द्वितीय व तृतीय अतिचार―सत्याणुव्रत का दूसरा अतिचार है रहोभ्याख्यान । कोई भी स्त्री पुरुष एकांत में किसी रहस्य की बात कर रहे हों, जिस बात को वे छिपाकर बोल रहे हों उसे किसीने कदाचित सुन लिया और यह फिर दुनिया में प्रकट करे तो यह सद्गृहस्थ का कर्तव्य नहीं है । प्रथम बात तो यह समझिये कि धर्म करना और अपनी आजीविका गुजारे के लिए बनाये रहना, इन दो के अतिरिक्त आपको तीसरी बात की क्या जरूरत पड़ी है? व्यर्थ की कलह करना, अथवा यहाँ वहाँ की बातें सुनना, इन बातों में कोई लाभ नहीं है । ऐसा जिसका हृदय बन गया उसे कुछ नहीं समझाना पड़ता । उसका वचन व्यवहार सही ढंग से ही निकलेगा । तीसरा अतिचार है पैशून्य, जिसे कहते है चुगली करना । दूसरे का दोष जानकर उसका बिगाड़ करने के अर्थ किससे छुपकर कह देना यह पैशून्य अतिचार है । अरे एक की बात दूसरे से बोल दिया तो इसमें खुद को भी हैरान किया और दूसरों को भी हैरान किया, बताओ उसमें फायदा क्या निकला? तो यह पैशून्य सत्याणुव्रत का अतिचार है । चाहे दूसरे की सही बात ही क्यों न हो पर उसको किसी दूसरे से कहने का प्रयोजन ही क्या पड़ा था । साथ ही यह भी कह देते कि देखो हमारी यह बात किसी से कहना नहीं । पर यह तो बताओ कि जो बात आपके पेट में नहीं रुक सकी उस बात को वह दूसरा अपने पेट में रोक सके इसका आप ठेका ले सकते क्या? तो यह सत्याणुव्रत का अतिचार है ।
सत्याणुव्रत के कुटलेखकरण व न्यासापहारिता नाम के चतुर्थ व पंचम अतिचार―सत्याणुव्रत का चौथा अतिचार है कूटलेखकरण । दूसरे का बिना ही आचरण किया हुआ झूठा लेख लिख देना । देखिये है तो यह बहुत बड़ा दोष, मगर वह ऐसा सोच ही तो रहा, ओंठ से तो नहीं बोल रहा, मन में ही तो बोल रहा, अरे यह तो बहुत बड़ा दोष है । अथवा कोई कुत्सित बात लिख देना कूटलेखकरण है । पांचवां अतिचार है न्यासापहारिता कोई मनुष्य किसी के पास धरोहर रख जाय मान लो 4 रत्न रख गया था और कुछ दिन बाद आकर कहे―भैया हमने जो तीन रत्न आपके पास धरोहर रखे थे उन्हें दे देना, और वह कहे हां हां, खुशी से ले जाइये, अब यदि एक रत्न को वह न बतावे, याने यह न कहे कि आपने तो चार रत्न धरे थे और तीन ही रत्न उसे दे-दे तो वह न्यासापहारिता दोष है । अब कोई कहे कि उसने वहाँ कोई अपशब्द तो नहीं बोला किसी का दिल दु:खाने वाला शब्द नहीं बोला, फिर भी उसे दोष कैसे लगा? सो बात नहीं है । वहाँ भी दोष है । उस दोष का नाम है न्यासापहारिता दोष ।
जिह्वा सदुपयोग की मस्ती आवश्यकता का सयुक्तिक कथन―देखिये―यहां इस जीव की पहली स्थिति पर आप विचार करें यह जीव सबसे पहले अनंतकाल तक निगोद में रहा जैसे छहढाला में कहा है ना―‘‘एक श्वांस में अठदश बार जन्म्यो मर्यो भर्यो दुख भार ।’’ निगोद जीव क्या होते हैं? एकेंद्रिय और साधारण वनस्पति । जो पकाने खाने में हरी आये वह वनस्पति है, उनमें भी किसी-किसी में निगोद जीव भरे रहते हैं, पर निगोद जीव का शरीर सूक्ष्म होता है, और न कुछ जैसी उनकी दशा समझिये । उनको काहे का ज्ञान? निगोद में रहकर हम आपका अनंतकाल व्यतीत हुआ, और वहाँ से निकले तो पृथ्वीकाय, जलकाय, अग्निकाय, वायुकाय और प्रत्येक वनस्पति हुआ । वहाँ जिह्वा का संयोग न मिला । एकेंद्रिय जीव उसे कहते हैं जिसमें सिर्फ एक ही इंद्रिय हो, रसना न हो । और इंद्रिय तो होगी ही क्या? बिना जिह्वा के इस जीव का एकेंद्रिय स्थावरों में जन्म मरण चलता रहा । सुयोग से दो इंद्रिय जीव हुए, शंख कोड़ी इनमें रहने वाले जीव ये दो इंद्रिय कहलाते हैं । तो दो इंद्रिय के जीभ तो मिली मगर उस जीभ से लाभ क्या? फिर कुछ और विकास किया तो तीन इंद्रिय जीव हुए, फिर चार इंद्रिय हुए, फिर असंज्ञी पंचेंद्रिय हुए वहाँ भी जीभ तो मिली मगर उससे फायदा क्या? आपने देखा ही होगा कि ये गाय, बैल, भैंस या सिंह, व्याघ्र, हस्ती आदिक, पशु अनेक प्रकार की बोलियां बोलते है मगर वे चें-चें बांय-बांय करते रहते, कोई भाषा रूप में उसका बोल नहीं निकलता । तो उनकी उस वचन वर्गणा से बोल तो निकला मगर उसका कोई अर्थ नहीं निकलता । जब कुछ और विकास किया तो बड़ी मुश्किल में यह मनुष्यपर्याय मिली । इसमें हम आप वचन बोलें, अपने हृदय की बात दूसरे से बता सकते, दूसरे के हृदय की बात खुद समझ सकते, इसका साधन है वचन । ये वचन हम आपको बड़ी दुर्लभता से प्राप्त हुए । यदि ऐसे दुर्लभ वचनों को यों ही गमा दिया जाय बुरे वचन बोलकर, दूसरे की पीड़ा वाले वचन बोलकर यदि इनको यों ही खो दिया जाय तो यह समझ लीजिए कि मानों ये कर्म यह कहते कि मैंने तुझे ऐसी जिह्वा दी, पर तुझे उसकी जरूरत न थी, तूने उस जिह्वा को पाकर उसका दुरुपयोग किया । तुझे उसकी जरूरत नहीं है तो अब आगे तुझे जिह्वा न मिलेगी, मायने फिर से वही दुर्गति होगी ।
अपनी रक्षा व स्वानुभव की पात्रता बनाये रहने में सद्गृहस्थ का वचन विषयक कर्तव्य―देखिये अपना शुद्ध मन करें, अच्छे वचन बोलें जिसमें अपने को प्रसन्नता हो, हित मिले, यह तो जीवन में लाभदायक है और मानो गुस्सा रहकर मन बिगाड़ लिया, ऐसी ही आदत बना ली तो उस समय या तो खोटे वचन बोलेगा या दूसरे से मुख फेर लेगा, तो उसकी इस चेष्टा से न तो उसे खुद आनंद मिलेगा और न उसके द्वारा किसी दूसरे को आनंद मिलेगा । तो अपना वचन व्यवहार ऐसा रखिये कि जिससे खुद को भी आनंद मिले और दूसरों को भी । यह सद्गृहस्थ का कर्तव्य है । एक नीति में कहा है―वचने का दरिद्रता, याने वचन बोलने में क्यों दरिद्रता की जाय? क्या प्रयोजन है । अरे भाई यदि कुछ धन खर्च करने की बात आ जाय तो उसमें तो कुछ सोचा विचारी भी करना, मगर मुफ्त में मिले हुए इस वचन धन का तो सदुपयोग कर ही लेना चाहिए । अपना वचन व्यवहार ऐसा ही होना चाहिए कि जिसको सुनकर किसी दूसरे की पीड़ा न पहुंचे । खुद को भी आनंद मिले और दूसरे भी आनंद पावें, ऐसा अपना वचन व्यवहार रहे तो इसमें अपनी रक्षा है और निकट समय स्वानुभव पास के यह इसकी पात्रता रहती है ।
सत्य व्रत के पालन के लिये कषाय के यथोचित परिहार की आवश्यकता―सत्याणुव्रत के विरुद्ध जो अपनी चर्या रखता है, झूठ बोलने की आदत, दूसरों को सताये जाने वाले वचन बोलने की आदत । जिनके निंद्य वचन निकलते हैं उनका परभव बहुत खोटा होता है । मनुष्य हो तो नीच चांडाल, कषायी, गूंगा, बहिरा आदिक अनेक प्रकार की दुर्दशायें पाता है, और जिनको सत्य का आदर है वे सत्य वचन के प्रभाव से इस भव में भी आदर पाते हैं । उनका ज्ञान बढ़ता है और वे निकट काल में ऋषि मुनि होकर भगवान भी होते हैं । तो सत्य का आदर रखना सदैव सुखकारी होता है । असत्य वचन बोलने का कारण है प्रमत्तयोग, कषायभाव । जैसे जिस घड़े में दुर्गंध की चीज बसी है उस घड़े के मुख से क्या निकलेगा? दुर्गंध । ऐसे ही जिसके चित्त में कषाय बसी है उसके मुख से क्या निकलेगा? खोटे वचन । तो असत्य का कारण कषाय है और कषाय ही जीव को दुःखदायी है । सो मूल से यह ही प्रयत्न करें कि ये कषायभाव न रहें । किसी पर क्रोध क्यों जगता? कोई चीज का लाभ होना या न होना यह तो कर्म के अधीन है पर दूसरे पर क्रोध क्यों किया जा रहा? क्रोध करके वर्तमान में पाप बढ़ाया जा रहा । घमंड किस बात पर बगराया जा रहा जिससे कि खोटे वचन निकलें? इस जगत में कौनसी ऐसी पदवी है जो इस जीव के लिए सारभूत हो? राजा महाराजा बन गए तो क्या, पंडित बन गए तो क्या, नेता भी हो गए तो क्या? करोड़पति हो गए तो क्या? यहाँ की कोई बात सारभूत नहीं । ये सब दुःखरूप हैं । फिर किस बात पर घमंड करना जिससे कि दुर्वचन निकलें । मायाचार की बात जब चित्त में होती है तो दूसरे का चाहे घात हो, चाहे अपमान हो, ऐसे वचन निकला करते हैं । किसलिए मायाचारी की जाय? कौन सी वस्तु ऐसी है जो पाने योग्य हो, जिससे भला हो, समस्त परवस्तुवें अत्यंत भिन्न हैं । किसी भी अन्य वस्तु का मेरे से कोई संबंध नहीं, फिर क्यों मायाचार करना? लोभ कषाय भी क्यों की जाय? जो आज परिग्रह जुड़ा है, अव्वल तो वह अनर्थ है । जुड़ा है तो पुण्योदय से जुड़ा है । आपने जो कभी पुण्य कार्य किया था, परोपकार में धन लगाया था, उससे बंधा हुआ पुण्यकर्म का जो एक खजाना है उससे पता नहीं कब कहां से किस बहाने से वह धन आ जायगा फिर लोभ किस बात पर करना? किसी दूसरे से व्यापारादिक में असत्य वचन का किसलिए प्रयोग करना? क्यों लोभ किया जाय? उदय है तो होगा, नहीं है तो कितना ही प्रयत्न करें नहीं होगा । तो कषायभाव चित्त में न रहें तो असत्य वचन हटेंगे और सद्वचन निकलेंगे ।
सत्यव्रत पालन के लिये क्रोध त्याग नाम की प्रथम भावना―गृहस्थ के चूँकि भोगोपभोग आजीविका साथ लगी है इसलिए सदोष वचन होते हैं फिर भी वह न्यायमार्ग के विरुद्ध दूसरों को पीड़ा करने वाले वचन नहीं बोलता । उसके सत्याणुव्रत है । सत्यव्रत का सही पालन हो इसकी 5 भावनायें तत्त्वार्थ सूत्र में कही गई हैं । उनमें (1) पहली भावना है क्रोध त्याग । जिसके क्रोध पर नियंत्रण है, त्याग है वह पुरुष सत्य वचन बोल पाता है । क्रोध में कुछ न कुछ असत्य वचन निकल जायेंगे, क्योंकि दूसरे का बिगाड़ करने का भाव है क्रोध में । तो बिगाड़ वाले वचन बोलने के लिए असत्य का भी प्रयोग होता है इसलिए मेरे क्रोध न जगे ऐसी भावना होना चाहिए । और ऐसा प्रयोग करे कि चित्त में क्रोध न आये तो सत्यव्रत का निर्वाह हो सकता है । (2) दूसरी भावना है लोभ त्याग । लोभ के वश असत्य वचन बोले जाते हैं । तो भेदविज्ञान करके स्वरूप की समझ बनाकर चिंतन करें किस वस्तु का लोभ करना? प्रत्येक पदार्थ मुझ से अत्यंत जुदे हैं । और किसी भी परपदार्थ से मेरा कुछ भी हित नहीं है । किसका लोभ करना जिससे कि असत्य वचन निकलें? तो लोभ त्याग की भावना रहेगी तो सत्य वचन निकलेंगे । ये क्रोध और लोभ दो कषायें हैं असत्य वचन में लगाने में कारण । कभी कोई बाहरी ऐसा प्रसंग मिल जाय कि क्रोध उत्पन्न होने लगे तो वहाँ यह विचार करना चाहिए कि क्रोध करना मेरे स्वरूप में तो नहीं है । पर परिणाम में आ रहा है । पर्याय में क्रोध की बात आने का प्रसंग बन रहा है । तो इस समय मौन ही रहना श्रेष्ठ है । किसी का आपको पत्र मिले और जिसमें ऐसी बात लिखी हो कि आपको क्रोध जगे और उस समय आप उसका उत्तर लिखने लगें तो वहाँ आप अच्छे वचन न लिख सकेंगे । और उसका परिणाम यह होता है कि पीछे पछताना होता है । तो जो बुद्धिमान लोग हैं वे ऐसे पत्र का उत्तर तुरंत नहीं देते, समय टाल देते हैं । तो ऐसे ही सामने कोई क्रोध का प्रसंग आ जाय, दुर्वचन बोले तो उस समय तो मौन रहना ही श्रेष्ठ है, या आपका साहस हो तो उसके विपरीत अच्छे वचन बोलियेगा । गाली के अनुकूल उसके प्रतिकारात्मक वचन न बोलें । तो उस समय मौन रहना श्रेष्ठ है, क्योंकि मौन हो जायेंगे तो कलह न बढ़ेगी और कलह न बढ़ेगी तो उसका क्षमाभाव सही बना रहेगा । सो जब तक भीतर क्रोधभाव जगने को है, जग रहा है तब तक मेरे को मौन रहना ही श्रेष्ठ है ऐसा सद्गृहस्थ अपने में भावना रख रहा है ।
सत्यव्रत पालन के लिए लोभत्याग, भीरुत्वत्याग व हास्यत्याग नाम की द्वितीय, तृतीय व चतुर्थ भावना―लोभवश असत्य वचन निकला करते हैं जिसका परिणाम उसके लिए बुरा है । जगत में उसके प्रति लोगों की प्रतीति बिगड़ती है, फिर सारे जीवन संताप सहना पड़ता है, ऐसे लोभ का उसके त्याग है ताकि उसके सत्य व्रत में बाधा न हो । ऐसा सद्गृहस्थ क्रोध त्याग और लोभ त्याग की भावना रखता है । (3) तीसरा भाव गृहस्थ का रहता है भावना रूप में भीरुत्वत्याग, कायर न होना किसी से भय न खाना, क्योंकि भय होने पर असत्य वचन निकलते हैं, और असत्य वचन से यह भव और परभव बिगड़ता है । यहाँ किस बातपर भयशील होना? जो न्याय की बात है, सही बात है सर्व हितकारी है उसको निडर होकर बोल देना या उसमें बोलना न सही, पर भीतर में भयशील तो न होना । क्योंकि उस भय में जो वचन बोले जायेंगे वे असत्य हो सकते हैं । तो जो सत्य वचन बोला करते है वे भय के त्याग की भावना रखते हैं । (4) चौथी भावना है हास्य त्याग । हंसी मजाक न करना । जैसे अनेक लोगों की आदत होती है दूसरी की मजाक करने की, हंसी दिल्लगी करने की । उन्हें आखिर बाद में बड़ा पछतावा करना पड़ता है, भले पुरुषों के लिए यह बात योग्य नहीं है । तो वचन ऐसे बोलना कि जिसमें दूसरी का भी हित हो और अपना भी । तो चूँकि हास्य में सत्य वचन नहीं निकलते, भंग हो जाता है सत्य का । अतएव सत्याणुव्रती हास्य को दूर से ही त्यागता है ।
सत्यव्रत पालन के लिए अनुवीचिभाषणनामक पंचमी भावना―सत्यव्रत की 5वीं भावना है अनुवीचि भाष्य । शास्त्र आगम के अनुसार ही बोलना आगम विरुद्ध बात न कहना । जैसे अनेक लोग कहते―अजी जमाना कैसा है देख लो विषयों का लोभ है, अमुक है, तमुक है, नाना प्रकार की बातें करते हैं, जैसे―क्या आलू प्याज आदि छोड़ने का पचड़ा लगा रखा है? क्या रखा है रात्रि में न खाने में? दुनिया बुद्धु ऊपर से कहती है, ऐसी दलील देकर आगम विरुद्ध बात बोलना इसका पाप है, ऐसा आगम विरुद्ध वचन कभी न बोलना चाहिए । जैसे अनेक लोग कह बैठते हैं कि जब तत्त्वार्थ सूत्र के तीसरे अध्याय पर चर्चा होती है तो उसमें अश्रद्धा जाहिर करते अजी कहां इतने असंख्यात द्वीप समुद्र? दुनिया तो इतनी सी है गेंद जैसी गोल..., इससे बाहर तो कुछ है ही नहीं, ऐसी चीज तो अब न रखना चाहिए । निकाल देना चाहिए । यों झट जीभ चला देते हैं, पर कोई यहाँ सर्वज्ञ है क्या जिसने सारी दुनिया छान ली है? ज्यों-ज्यों मिलते जाते त्यों-त्यों कहते जाते कि ये भी मिल गए, ये भी मिल गए । कभी जो पहले टापू न थे और आज मिले हुए हैं, उनको आज मान रहे है कि ये भी हैं, पहले न मानते थे । देखिये―आज हुंडावर्पिणीकाल है, यह पंचमकाल चल रहा । भरत क्षेत्र के आर्य खंड में जमीन पर मलबा पड़ जाता है । और वह हजारों कोश का मलबा हो जायगा । तो उठता है ऐसा मैल जो एक पतली कील जैसा हो गया । सारी दुनिया कितनी है? मानो जैसे कील पर होने वाली मुट्ठी, इतनी सारी दुनिया है । सारे लोक के आगे बस एक मुट्ठी बराबर दुनिया है । अब उसको चारों ओर से घूम आवो वहीं पहुंच जावोगे । मगर यह उठे हुए मैल के ऊपर दुनियां है और उसके अतिरिक्त कितना विस्तार है वहाँ तक तो किसी की गति ही नहीं है । तो मतलब यह है कि आगम के विरुद्ध कुछ भी वचन बोलना योग्य नहीं । वे यह नहीं महसूस करते कि अभी हमारी समझ में ठीक-ठीक आया नहीं है, जिनेंद्र देव अन्यथा नहीं बोल सकते । ऋषि संतों की वाणी मिथ्या नहीं होती । इस रूप में कोई प्रतीति तो करे नहीं और यथा तथा वचन बोलना यह है आगम विरुद्ध वचन । आगम विरुद्ध वचन बोलने से सत्याणुव्रत का पालन नहीं होता है ।
असत्य वचन से हानि और सत्यवचन के लाभ―सत्य वचन से चिगे इससे इस लोक में इस समय भी उसका बड़ा अनर्थ है, उस पर किसको विश्वास नहीं रहता । झूठ बोलने बाले के पास कोई बैठने भी नहीं आता, लेन-देन का व्यवहार भी नहीं करना चाहता । घर के लोग माता-पिता, स्त्री-पुत्र तक भी इसका विश्वास नहीं करते । और उससे डरते रहते हैं कि पता नहीं यह कब कैसा झूठ बोल दे । सो जिसने अपने वचन बिगाड़ा उसने सब कुछ बिगाड़ा । मनुष्य का धन क्या है जिससे दूसरों को प्रतीति बने? वह है वचन । और वचन ही जिसका बिगड़ गया उसका सब कुछ बिगड़ गया । तो असत्य भाषण का बहुत बुरा फल यहाँ प्राप्त होता है । लोग घृणा करते, जीभ काट देते, दंड देते, लोग पिटाई कर देते । तो उसका जीवन एक व्यर्थ सा होता है और उसे खुद अपने अंदर संतोष नहीं मिलता । असत्य वचन के कारण उसका दिल इतना कमजोर हो जाता है कि वह कभी अपने आप में निराकुलता नही पा सकता । तो जिसमें इतना अनर्थ है, परभव में भी दुर्गति है ऐसे असत्य बचन का त्याग करना और सत्यव्रत का संकल्प रखना जिसके फल में इस भव में भी यश, परभव में भी स्वर्ग देवपना मिलेगा । अहिमिंद्र बनेगा और मनुष्यभव पाकर मुक्त हो जायगा । तो सत्य वचन का आदर करना, उसमें मुख्य यह ध्यान रखना कि मेरे वचन के द्वारा किसी जीव का अहित न हो, बध न हो, पीड़ा न पहुंचे, ऐसे जो वचन बोलेगा वह जगत में मान्य होता है जो गृहस्थ के पंचाणुव्रत में यह दूसरा अणुव्रत है सत्याणुव्रत ।