वर्णीजी-प्रवचन:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 57
From जैनकोष
निहितवा पतितवा सुविस्मृतं वा परस्वमविसृष्टं ।
न हरति यन्न च दत्ते तदकृशचौर्याद्रपापारमणं ।। 57 ।।
ज्ञानी गृहस्थ के अचौर्याणुव्रत का परिचय―गृहस्थ के अचौर्यव्रत का इस छंद में कथन किया गया । किसी पुरुष का जमीन में गड़ा हुआ धन या मंदिर में घर में किसी जगह रखा हुआ या कहीं भूल गया हो अथवा किसी दूसरे की अमानत सौंप गया हो, ऐसे किसी भी धन को जो न हरण करता है और न किसी दूसरे को देता है उसे कहते हैं अचौर्यव्रत का धारी श्रावक । पर का धन उसके लिए विष है, त्याज्य है, आग्राह्य है । उसे उठाने को जी नहीं चाहता ज्ञानी गृहस्थ का । वह स्वयं अपने ही धन को छोड़ने की फिकर में रहता है अपने ही धन का त्याग करना चाहता है, क्योंकि उसे वह अपने लिए कलंक समझता है और आत्मसाधना में बाधक जानता है । तो जो स्वयं ही परिग्रह को छोड़ने की भावना रख रहा वह दूसरे के धन पर क्या अभिलाषा करेगा? कितनी ही घटनायें ऐसी होती हैं कि जिन में दिखावट ईमानदारी के हिसाब से सच्चाई लगेगी । मगर भावो में खोटापन होने से वह सब चोरी में शामिल होता है । मान लो कोई लेनदेन हो रहा है और वह हिसाब में लिखने में चूक गया है मानो वापिस करने तो थे अधिक दाम और लिख दिया कम, अब इस बात को उसने समझ भी लिया कि हमने भूल कर दिया है फिर भी ग्राहक से कहना―हां ठीक है, आपको पैसे पूरे मिल गए । आप जाइये तो उसकी यह बात चोरी में शामिल हो गई । यों ही एक क्या, अनेकों घटनायें होती हैं । ऐसी कि जिन में लगता है कि यह तो बड़ी ईमानदारी का काम कर रहा मगर लग रही वहाँ चोरी वह जान भी रहा कि यह मैं गलत काम कर रहा, फिर भी उसके अंदर खोटा भाव होने से वह उस गलती को प्रकट नहीं करता इससे उसमें चोरी का दोष लगता है । सद्गृहस्थ किसी भी प्रकार के धन का अपहरण नहीं करता ।
ज्ञानी के आशय में परधन धूल समान―एक बार दो व्रती दंपती पुरुष स्त्री दोनों कहीं पैदल जा रहे थे । तो चलते हुए में उनकी चाल में कुछ ऐसा फर्क आया कि स्त्री कुछ पीछे रह गई, पुरुष आगे बढ़ गया । एक जगह उस पुरुष ने क्या देखा कि रास्ते में 20-25 मोहरें पड़ी हुई थीं, गिर गई होंगी किसी की । तो उन्हें देखकर उस पुरुष के मन में आया कि देखो यह धन पड़ा है, मेरी स्त्री पीछे आ रही है उसे कहीं ऐसा न हो कि इन स्वर्ण की मोहरों को देखकर लालच आ जाय, क्योंकि स्त्रियों को स्वर्ण के आभूषण प्रिय होते हैं, सो यह सोचकर उसने उन मोहरों पर धूल झोंकना शुरू किया, इतने में उसकी स्त्री भी आ गई और पूछा कि यह क्या कर रहे हैं आप? तो यहाँ वह पुरुष बोला―यहां पर कुछ स्वर्ण की मोहरें पड़ी हैं । इन पर मैं धूल झोंक रहा हूँ इसलिए कि कहीं इन्हें देखकर तुम्हें लालच न आ जाय ।। सो वह स्त्री बोली―अरे चलो आगे बढ़ो, यह क्या धूल में धूल झोंक रहे । देखो उस पुरुष के मन में तो आया कि यह धन है और स्त्री के मन में आया कि यह धूल है । तो ऐसे ही यहाँ के समस्त बाह्य पदार्थों को धूल समझे, उनसे इस आत्मा का कुछ लाभ नहीं है हां गुजारा चलाने के लिए जरूरी हैं सो उसका व्यवहार करना पड़ता है मगर इनके पीछे अपने चित्त को न डिगाना चाहिए ।
अचौर्य के पालन में प्रसन्नता का लाभ―आजकल लोग कितनी ही चीजों में मिलावट करके बेचते । या ब्लेक मार्केट का काम करते तो यह सब चोरी है । जिनका मन स्वच्छ है वे यह समझ लेते हैं कि यह बात उचित है या अनुचित । मनुष्य की तो बात क्या, पशु भी जानते है कि यह चोरी का बर्ताव है । जैसे देखा होगा कि, कभी कोई कुत्ता रसोई में घुसकर रोटी उठा लाता तो कैसा वह छिपकर, पूँछ दुबकाकर धीरे से छिप छिपकर चलकर एकांत में बैठकर उस रोटी को खाता है । वह जानता है कि यह चोरी का काम है, और जब कभी आप उसको अपने हाथ से रोटी खिलायें तो कैसा खुश होकर पूंछ हिलाकर बड़ी विनय दिखाता हुआ, आपको नमस्कार सा करता हुआ या पीछे के दोनों पैरों के पंजों के बल पर खड़ा होकर आगे के दोनों पंजों से रोटी छीनता है, बड़ी किलोले करता है, खुश होता है, वहाँ उसको इतनी समझ है कि यह तो ईमानदारी का काम है और वह चोरी का काम है । तो जो सद्गृहस्थ है ज्ञानी है वह खोटे परिणाम नहीं करता क्योंकि खोटे परिणाम का फल है पापबंध और उसके उदयकाल में इसकी दुर्गति है । तो सद्गृहस्थ का व्यवहार चोरी के अंशों से भी रहित होता है ।