वर्णीजी-प्रवचन:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 64
From जैनकोष
मातंगो धनदेवश्च वारिषेणस्त: पर: ।
नीली जयश्च संप्राप्ता: पूजातिशयमुत्तमं ।। 64 ।।
अहिंसाव्रत में प्रसिद्ध यमपाल चांडाल के व्रत परीक्षण के अवसर की एक घटना―श्रावकों के 5 अणुव्रतों में जो प्रसिद्ध हुए हैं उनका नाम निर्देश इस छंद में किया गया है । अहिंसाणुव्रत में यमपाल नाम का चांडाल प्रसिद्ध हुआ है । पार्श्वनाथ भगवान की जन्मभूमि काशी नगरी में पाकशासन नाम के राजा राज्य करते थे । राज्य व्यवस्था वहाँ भले प्रकार चलती थी । एक समय उनके राज्य में हैजे की बीमारी फैल गई । उस बीमारी के कारण प्रजा के लोगों में बड़ी आकुलता हो गई, तब उस रोग के निवारण के लिए राजा ने व्रत साधना का प्रोग्राम बनाया । सब लोग अहिंसा व्रत का पालन करें । संसार में जितने भी रोगादिक होते हैं वे सब पूर्वजन्म के पाप के कारण होते हैं । सर्वपापों में हिंसा पाप प्रधान है । हिंसा पाप का निवारण हो और अहिंसा धर्म का धारण हो तो यह हैजे का रोग दूर हो जायगा, ऐसा ध्यान रखकर राजा ने अपने राज्य में घोषणा करा दी कि अष्टाह्निका के दिनों में कोई भी पुरुष जीवों की हिंसा न करे । उस नगर में एक सेठ रहता था उसके पुत्र का नाम था धर्म । नाम तो बड़ा अच्छा था पर वह बड़ा अधर्म करता था । जीव हिंसा का उसे बड़ा शौक हो गया था । मांस खाने की उसकी इतनी बुरी आदत हो गई थी कि उसके बिना वह रह न सकता था । अष्टाह्निका के दिनों में ही एक दिन वह राजा के बगीचे में गया और वहाँ से एक मेंढा मार लाया और उस मेढ़े का कच्चा मांस खा गया । अब उसकी जो हडि्डयां बची सो उसने एक गड्ढा खोदकर गाड़ दिया । जब उस मेढ़े की खोज की गई कहीं मिले नहीं तो यह बात राजा के पास पहुंची । तो राजा ने गुप्त रीति से पता लगाने के लिए गुप्तचरों को भेजा । उधर बगीचे में माली ने वह सब कृत्य देख लिया था और वह रात्रि में अपनी स्त्री से सेठ के पुत्र धर्म की सारी करतूत सुना रहा था, इसी बीच गुप्तचर वहाँ से निकले और वह कहानी सुन ली । तब उन गुप्तचरों ने राजा से जाकर कहा कि उस मेढ़े की हत्या सेठ के पुत्र धर्म ने कर दी है । तब राजा ने उसे कोतवाल से बुलवाया और उससे कहा कि देखो सेठ के लड़के ने प्रथम तो जीव हत्या की सो यह महापाप किया, दूसरे मेरी आज्ञा भंग की । जब सारे नगर में घोषणा करा दी कि अष्टाह्निका के दिनों में कोई जीवहत्या न करे फिर भी उसने जीव हत्या की । तो दूसरा कठिन अपराध राजाज्ञा भंग करने का है । इस कारण उसे फांसी लगावो । राजा आज्ञा सुनकर उस कोतवाल ने उस सेठ के पुत्र को तुरंत पकड़वाकर बुलाया और फांसी की आज्ञा सुनायी, फांसी देने का प्रबंध किया, वह दिन था चतुर्दशी का, फिर भी राजाज्ञा है, यह तो शासन की व्यवस्था है ।
चतुर्दशी के दिवस अहिंसाव्रत की प्रतिज्ञा रखनेवाले यमपाल चांडाल पर व्रत विरुद्ध क्रिया करने के लिए सिपाहियों का आक्रमण―चतुर्दशी के दिन उस सेठ के धर्म नामक पुत्र को फांसी की जगह पर ले जाया गया और यमपाल चांडाल को बुलाने के लिए सिपाही भेज दिया क्योंकि फांसी का पूरा प्रबंध यमपाल चांडाल ही किया करता था । सिपाही लोग यमपाल चांडाल के घर पहुंचे । उसने बाहर से ही देख लिया कि आज कुछ सिपाही लोग आ रहे हैं और सुना भी है कि सेठ के लड़के ने मेढ़े की हत्या कर दी है तो उसको फांसी की सजा हुई है, उसके लिये ये सिपाही आ रहे । उस यमपाल चांडाल ने चतुर्दशी को हिंसा न करने का व्रत लिया था । अब वह दुविधा में पड़ गया कि मैं क्या उपाय करूं कि आज इस झंझट से छूट जाऊं । आज मुझे हिंसा न करना पड़े । उसने एक मुनिराज के पास प्रतिज्ञा ली थी कि मैं चतुर्दशी के दिन जीवहिंसा न करुंगा, सो वह अपनी प्रतिज्ञा पर अटल था । तो उसने अपनी स्त्री से कह दिया कि देखो ये सिपाही लोग मुझे लिवाने के लिए आ रहे हैं सो मैं तो घर में कहीं छिप जाऊंगा और जैसे ही सिपाही द्वार पर आवें तो झट कह देना कि आज यमपाल घर पर नहीं हैं, कहीं बाहर गए हैं । आखिर सिपाही लोग जब द्वार पर आये और यमपाल को पूछा तो उसकी स्त्री ने वही कहा जैसा कि यमपाल ने उसे समझाया था । अब वे सिपाही लोग यमपाल चांडाल को न पाकर पछताकर कहने लगे कि यमपाल बड़ा भाग्यहीन है । आज सेठ के पुत्र ‘‘धर्म’’ की फांसी होनी है और आज वह घर पर नहीं है । यदि यमपाल आज घर होता और फांसी लगाने चलता तो सेठ के सब वस्त्र-आभूषण यमपाल को मिल जाते । जैसा ही सिपाहियों ने यह वृतांत बताया तो यमपाल की स्त्री के मन में लालच आ गया और वह इस दुविधा में पड़ गई कि यदि मैं पति को बताये देती हूँ तो पति की आज्ञा का भंग होता है और जो नहीं बतलाती हूँ तो हजारों लाखों का जो माल मिलने को था वह न मिल पायगा, इस दुविधा के बाद उसने यह निर्णय किया कि पति तो पीछे राजी हो जायेंगे और घर धन से भर जाने की बात है सो आज इसलिए बता देना चाहिए, तो स्त्री धन के लोभ में हाथ से पति की ओर इशारा करके सिपाहियों से कहने लगी कि वे तो आज एक गांव गए है । उसने ऐसा इस कारण किया कि पति भी यह जाने कि इसने मेरी आज्ञा का भंग नहीं किया और सिपाही लोग उस इशारे के अनुसार घर के भीतर घुस जाय और यमपाल को पकड़कर ले जायें, फांसी लगाये और लाखों के वस्त्राभूषण हमारे घर आयें । सिपाहियों ने स्त्री का इशारा पाकर चांडाल के घर में प्रवेश किया और यमपाल को पकड़कर फांसी देने की जगह पर ले गए ।
यमपाल चांडाल को अहिंसाव्रत के विरुद्ध क्रिया न करने पर क्रूरमत्स्यों से परिपूर्ण तालाब में डालने का दंड और धर्मप्रभाव से देवों द्वारा यमपाल को सिंहासन पर बैठाना―यमपाल को फांसी की जगह पर पहुंचा दिया गया । यमपाल से राजा कहता है कि इस सेठ पुत्र को फांसी लगावो तो वह वहाँ कहता है कि महाराज आज तो हमारा चतुर्दशी को हिंसा न करने का व्रत है । और यह मुझ से न हो सकेगा कि आज मैं किसी जीव की हिंसा करूं । मैं फांसी नहीं लगा सकता । जैसे ही राजा ने चांडाल का रूखा उत्तर सुना कि वह बड़े क्रोध में आकर बोला कोतवाल से कि ऐ कोतवाल जावो इन दोनों को (सेठ पुत्र को और यमपाल चांडाल को) तालाब में डुबो दो, जिससे कि मगरमच्छ इन दोनों को खा जायें । सो राजा की आज्ञा से कोतवाल ने सेठ पुत्र ‘‘धर्म’’ और यमपाल को बड़े गहरे तालाब में डुबो दिया । उस समय पापी सेठ पुत्र को तो उन क्रूर मगरमच्छों ने खा डाला । मगर यमपाल के पुण्य प्रताप से इसी तालाब के बीच जल देवतावों ने रक्षा की । और स्वर्ण के सिंहासन पर बैठा दिया । आखिर यह दृश्य देखकर सभी ने उसका बड़ा सत्कार किया । सुंदर वस्त्राभूषण पहनायें और गाजेबाजे के साथ उसके गुणों का गान किया । तब नगर के लोगों ने उस यमपाल को धन्यवाद दिया । जब राजा को यह मालूम हुआ कि मैंने उस अहिंसाव्रती यमपाल को व्यर्थ ही दु:खी किया । उसकी तो देवों ने भी सहायता की तो वह अपने इस कृत्य पर बहुत पछताया और शीघ्र ही यमपाल के पास जाकर अपने अपराध की क्षमा मांगी । इस कथानक से यह प्रेरणा मिली कि चाहे कैसी ही परिस्थिति आये अपने अहिंसाव्रत को न छोड़ें । चाहे ऐसी स्थिति में प्राण जाने का भी अवसर आये तो प्राण गए बाद दूसरा भव मिलेगा किंतु धर्म यदि गया तो भव-भव में दुर्गति, होगी इस कारण अहिंसा व्रत को दृढ़ता से पालना चाहिए ।
सत्यव्रती धनदेव के साथ उसके मित्र जिनदेव द्वारा अन्याय―दूसरे सत्याणुव्रत में धनदेव प्रसिद्ध हुए है । ये धनदेव पूर्वविदेह क्षेत्र के पुष्कलावती देश में पुंडरीकनी नगरी में रहते थे । जंबूद्वीप में ठीक बीचोंबीच विदेह क्षेत्र है, जहाँ से सदैव मुनिराज मोक्ष जाते रहते हैं । वहाँ कभी धर्म का अभाव नहीं होता और न वहाँ कुमत का प्रचार हैं, ऐसे जंबूद्वीप में दो विदेह हैं―पूर्वविदेह और पश्चिम विदेह । पूर्वविदेह में 8 नगरी नदी के इस ओर हैं, 8 नगरी नदी के उस ओर हैं, ऐसे ही पश्चिम विदेह में भी 16 नगरी हैं, इन 32 नगरियों में से पुष्कलावती देश में पुंडरीकनी नगरी में धनदेव नाम के एक व्यक्ति रहते थे । उनके एक मित्र का नाम था जिनदेव । ये दोनों सलाह से अपना-अपना व्यापार करते थे । इनमें धनदेव तो था सत्यवादी पर जिनदेव बेईमान था । एक दिन उन्होंने विदेश में व्यापार करने का ठहराव किया । और दोनों में यह तय हो गया कि व्यापार में जो कुछ लाभ होगा उसका आधा-आधा हिस्सा दोनों को मिलेगा । सो वहाँ वे व्यापार करने गये और कुछ ही दिनों में बहुतसा धन कमा लिया । जब बहुत धन का लाभ दिखा तो जिनदेव का चित्त चलायमान हो गया और धनदेव से कहने लगा कि मैंने तो तुम्हें व्यापार में हिस्सेदार नहीं बनाया था, मैने तो यह कह दिया था कि तुम्हारे श्रम के अनुसार तुम को धन दिया जायगा । सो जितना तुम्हारा श्रम है उसके अनुसार थोड़ा सा धन तुम्हें मिलेगा, आधा न दिया जायगा । आखिर जिनदेव कुछ बलवान था वह थोड़ा धन देने लगा तो धनदेव ने उसे लेने से इन्कार कर दिया और नगरी में पंचों के सामने यह झगड़ा रख दिया । वहाँ पंचों ने उस झगड़े को निपटाने का प्रयत्न तो किया पर जिनदेव ने पंचों की बात न मानी ।
धनदेव की सत्यव्रत के प्रताप से विजय और सत्यधर्म की प्रभावना―आखिर धनदेव ने यह मामला राजा के पास भेजा । विनती कि हम दोनों ने यह ठहराव किया था कि व्यापार में जो भी लाभ होगा उसको बराबर-बराबर दो हिस्सों में बांटा जायगा पर इस जिनदेव ने मेरा हिस्सा हड़पना चाहा है, मुझे उसमें से थोड़ा सा ही धन देना चाहता है । सो मैं इसका फैसला चाहता हूँ । अब इस ठहराव में कोई लिखत प्रमाण तो न था सो राजा को इसका निर्णय देने में बड़ी कठिनाई आयी । राजा ने बहुत विचार किया कि कौनसा उपाय किया जाय कि जो सत्य बात विदित हो । तो राजा ने उत्तर दिया कि देखो तुम दोनों के हाथ पर जलते हुए आग के अंगारे रखे जायेंगे और सत्य के प्रताप से जिसके हाथ न जलेंगे उसकी बात सच मानी जायगी और धन उसको दिलाया जायगा । यह बात सुनकर जिनदेव बड़ी चिंता में पड़ गया । वह सोचने लगा कि मैंने धनदेव को आधा धन देने का ठहराव किया था और अब मैं झूठ बोलूँगा तो मेरा हाथ जरूर जल जायगा । उस समय धनदेव के चेहरे पर एक बड़ी प्रसन्नता झलक रही थी । उसे विश्वास था कि मेरे हाथ पर अंगारे रखे जायेंगे तो हाथ जलेंगे नहीं, क्योंकि घटना यथार्थ है । और मैं सत्य पर दृढ़ हूँ । और जो मेरा ठहराव है वही मैं मांगता हूँ । सो प्रभु की कृपा से मेरी ही जीत होगी, मैं न जलूँगा । राजा उन दोनों के चेहरे को ही देखकर सब कुछ समझ गया कि जिनदेव असत्यवादी है और यह धनदेव सही कह रहा है । पर राजा को इतने से संतोष न हुआ, जलते हुए अंगारे मंगाये और दोनों के हाथ पर अंगारे रख दिया । तो जो जिनदेव झूठा था उसने तो झट अग्नि को फैक दिया, उसे वह सह न सका और धनदेव आनंद से उन अंगारों को लिए रहा, उसका मन मलिन न हुआ । यह वृतांत देखकर राजा ने धनदेव के हाथ से अंगारे हटवा दिये और वहाँ सभी ने धनदेव की सत्यता की भूरि-भूरि प्रशंसा की । राजा ने सारा धन धनदेव को दिलाया, पर धनदेव अपना ही हिस्सा लेकर धर्मसाधन में लगे गया । इस प्रकार की परीक्षा में पास होने के बाद यह हाल सुनकर नगर के सब लोग आयें । सभी ने बड़ा आश्चर्य किया और धनदेव की बड़ी प्रशंसा की । तभी से नगर के लोग उस धनदेव को एक महात्मा सारिखे मानने लगे । सत्य की सदा जय होती है । आजकल लोग सत्य पर शंका रखते है और सत्य से विचलित होते है पर जो सत्य पर अडिग रहता है उसके इतना पुण्य बढ़ता है कि उसके प्रताप से सर्व प्रभाव और सुविधायें उसमें जग जाती हैं । जो लोग ऐसा ध्यान रखते है कि धन का अर्जन, सर्व भोगों की प्राप्ति झूठ बोलने से ही होती है उन्हें इस कथानक से यह शिक्षा लेना चाहिए और समझना चाहिए कि यदि ग्राहकों को या लोगों को यह पता पड़ जाय कि यह व्यापार में झूठ बोलता है तो उसका व्यापार नहीं चल सकता । जब लोगों को विश्वास हो जाता कि इसका व्यापार सच्चा है, यह झूठ नहीं बोलता तभी लोग उसके पास पहुँचते और उसका व्यापार चलता । बाहरी बातें कितनी ही कुछ आती हों पर अपने सत्य धर्म से कभी न डिगना चाहिए ।
अचौर्यवत के धारी श्री वारिषेण द्वारा धर्मप्रभाव―अचौर्य व्रत में वारिषेणकुमार प्रसिद्ध हुए । उनका वृतांत इस प्रकार है कि पूर्व समय में राजगृही नगरी में राजा श्रेणिक रहते थे । उनके कई पुत्र थे, उनमें से एक पुत्र का नाम वारिषेण था, और उसी नगर में एक विद्युत चोर रहता था, वह चोर वेश्यागामी था । उस नगर में मगध सुंदरी नाम की एक वेश्या से उसकी प्रीति थी । चतुर्दशी की रात्रि को जब वह चोर वेश्या के घर गया तो वेश्या ने उससे कहा कि श्री कीर्ति नाम के सेठ के यहाँ जो रत्नों का हार है वह लाकर मुझे दीजिए । अब देखिये―प्रीति में आसक्त लोग तो सब कुछ पाप कर डालते हैं, आखिर वह चोर रातों ही रात गया और श्री कीर्ति के यहाँ से वह रत्नों का हार चुरा लाया । रत्नों का हार तो चुरा लिया, पर वह इतना चमकदार था कि उसकी कांति कपड़े में भी न छुप सकी । सो जैसे ही वह चुराकर लिए जा रहा था कि नगर कोतवाल ने चमकता हुआ पदार्थ देखा और उस चोर का पीछा किया । चोर भी उस समय वेश्या के पास न जाकर भागते-भागते एक श्मशान में पहुंच गया । उसी श्मशान में राजा श्रेणिक के पुत्र वारिषेण ध्यान कर रहे थे । चोर ने कोतवाल से अपनी जान बचाने के लिए वह हार वारिषेण के पास फेंक दिया और कहीं दूर जाकर छिप गया । जब वहाँ कोतवाल पहुंचा और वारिषेण के पास वह चमकता हुआ हार देखा तो समझ लिया कि यह वही चोर है जिसने इस हार को चुराया है और अब ध्यान करने बैठ गया है । आखिर वारिषेण की यह घटना राजा श्रेणिक के सामने पेश की । कोतवाल के कहने से राजा श्रेणिक ने वारिषेण का मस्तक काट डालने का दंड सुनाया । कोतवाल को आज्ञा दी । कोतवाल ने चांडाल को हुक्म दिया । तो जैसे ही चांडाल ने हाथ में तलवार लेकर वारिषेण पर प्रहार किया तो वारिषेण के पुण्य प्रताप से वारिषेण के गले में पुष्पमाला बनकर उनके गले में पड़ गई । यह बड़ी अद्भुत घटना थी । उसी समय देवता लोग आये, जय-जय के शब्द बोलने लगे । पुष्पों की वर्षा की, किंतु वहाँ वारिषेण ने अपना ध्यान तनिक भी नहीं छोड़ा । इस घटना का समाचार जब महाराजा श्रेणिक को मिला तो वे कुबुद्धि पर बहुत पछताये । आखिर वारिषेण के पास आकर बोले―मेरे अपराध को क्षमा करो और घर चलो । पर वह तो अब विरक्त की ओर बढ़ रहे थे, उन्होंने संसार का चित्र देखा तो वहीं उन्होंने जिनदीक्षा ले ली और महान् तपश्चरण करके वे मोक्ष सिधारे । तो इस अचौर्य व्रत की कथा से यह प्रेरणा मिलती है कि इस परधन को धूल समान समझकर उसकी रंच भी इच्छा न करें और अपने ज्ञानानंद स्वभाव को निरखकर संतुष्ट रहें । समस्त परभाव से हटकर परमार्थ सहजपरमात्मतत्त्व में मग्न होना परमार्थ अचौर्य है, परमार्थ सत्य है, परमार्थ अहिंसा है ।
ब्रह्मचर्याणुव्रत में सुदृढ़ नीली का धोखे में सागरदत्त के साथ पाणिग्रहण―श्रावक का चौथा अणुव्रत है ब्रह्मचर्याणुव्रत । ब्रह्मचर्य एक परमतप है जिसके कारण मन, वचन, काय का बल प्रकट होता है, भावों में विशुद्धि बढ़ती है और मोक्षमार्ग उसके लिए सुगम हो जाता है । ब्रह्मचर्य व्रत में नीलीबाई की प्रसिद्धि अधिक है । एक नगर में जिनदत्त सेठ रहता था और उन सेठ के इकलौती कन्या का नाम नीली बाई था । नीली बाई बहुत सुंदर गुणवान विद्यावान थी । उसी नगर में एक वैश्य रहता था, जिसका नाम समुद्रदत्त था । यह समुद्रदत्त मिथ्यादृष्टि था, उसके सागरदत्त नाम का एक पुत्र था । एक दिन वह नीली जिन मंदिर में पूजा करके सामायिक कर रही थी । वहाँ अचानक ही सागरदत्त अपने एक मित्र के साथ घूमता हुआ आ गया तो उस नीली की सुंदरता देखकर मुग्ध हो गया । वह सागरदत्त घर तो आया पर उसको चिंता नीली से शादी करने की लग गई उस कामावेश में खानपान भी छोड़ दिया, निद्रा भी उड़ गई । यह बात सागरदत्त के पिता को मालूम हुई तो उसने सागरदत्त को बहुत समझाया कि नीली का पिता जैन धर्मावलंबी है, वह जैन धर्म का अनुयायी किसी अन्य को अपनी पुत्री कैसे दे सकेगा? लेकिन सागरदत्त अपनी हठ पर रहा, तब वहाँ यह विचार किया गया कि हम और यह पुत्र दोनों दिखाऊ रूप से जैन व्रत लें और जिन मंदिर रोज जाने लगें । सो वे जिनमंदिर में जाने लगे, दर्शन पूजा स्वाध्याय आदिक करने लगे । अब सभी लोगों को उनके जैन बन जाने का पूरा विश्वास हो गया । उस समय यह सेठ जिनदत्त ने धोखे में आकर कि यह तो बहुत श्रद्धालु जैन है नीली का विवाह सागरदत्त के साथ कर दिया ।
पतिव्रता धर्मवत्सला नीली पर कुटुंब की ओर से कठिन उपद्रव―नीली के विवाहोपरांत कुछ ही दिनों में समुद्रदत्त पिता और सागरदत्त पुत्र दोनों ने जैन शासन को छोड़कर अन्य धर्म जिसमें थे उसी को मानने लगे । और उस नीली को उसके पिता के घर भी आना-जाना बंद करा दिया । उधर नीली का पिता दोनों की दिखावटी करतूत से बहुत पछताने लगा, पर अब क्या किया जा सकता था? खैर नीली ने अपना धैर्य न छोड़ा । वह जैन धर्म का पालन करती थी । नित्यप्रति अरहंतदेव की भक्ति किया करती थी अब तो उसको और भी श्रद्धा बढ़ गई । और कितने ही उपद्रव आये पर उसने अपने धर्म को नहीं छोड़ा । सागरदत्त ने और उसके पिता नीली को बहुत समझाया कि तुम जैन धर्म को छोड़ दो और हमारे बौद्ध धर्म को अंगीकार कर लो, पर नीली ने रंच भी स्वीकार नहीं किया। एक बार समुद्रदत्त ने सोचा कि यह मेरे समझाने से तो मानती नहीं, इसको अपने बौद्ध साधुवों से समझाने का हमें उपाय करना चाहिए। यह सोचकर कि साधुवों का कहना अवश्य मान जायेगी। तो उसने अपने घर बौद्ध साधुवों को अपने घर आहार कराने के लिए नीली से कहा। अब नीली को श्रद्धा तो उन पर थी नहीं फिर भी उन्हें अपने घर आहार करने के लिए बुलवाया, कमरे में आदर से बैठवाया और क्या किया कि अपनी दासी के द्वारा उन बौद्ध साधुवों की जूती मंगवाया और उनको छिपाकर एक स्थान में रखवा दिया। बाद में भोजनोपरांत उन्होंने पूछा कि मेरी जूती कहा? सो नीली ने कहा―महाराज आप तो अंतर्यामी कहलाते हैं, आप स्वयं अपनी जूती का पता लगा लें । लेकिन वे कहां पता लगा सकते थे? आखिर नीली ने बताया कि आपकी जूती तो आपके ही पीछे के कमरे में है। मुड़कर देखा जूती वहाँ मौजूद थीं । खैर वे साधु लज्जित होकर चले गए लेकिन यह मामला अब तो और भी अधिक बढ़ गया । जब अपने साधुवों का अपमान देखा तो समुद्रदत्त और उसके घर के सब लोग नीली के पूरे शत्रु बन गए । और यहाँ तक कि उसकी ननद ने उसको कुशील का भी दोष लगाया । उस कुशील के दोष का अपयश सुनकर नीली को बड़ा खेद हुआ । वह नीली अपने पर हुए सारे आक्रमणों को तो सहती गई पर कुशील का कलंक उससे न सहा गया ।
शीलव्रत के प्रभाव से नीली का संकटहरण व बड़ी धर्मप्रभावना―दूसरे दिन वह जिनमंदिर गई और प्रभु के समक्ष खड़ी होकर हाथ जोड़कर विनती करने लगी और संकल्प किया कि हे नाथ जब तक यह कलंक मेरा न हटेगा तब तक मैं अन्न जल ग्रहण न करूंगी । उसके उपवास शुरु हो गए । उस नगर की देवी को जब यह हाल विदित हुआ तो उसने स्वयं नीली के पास आकर उसे धैर्य बंधाया और उस ही रात राजा और मंत्री को ऐसा स्वप्न दिया कि शहर के दरवाजे बंद हैं, किसी के खोलने पर नहीं खुल रहे, तो यह वाणी हुई कि ये किवाड़ इस तरह न खुलेंगे । किसी शीलवती स्त्री के पैर लगेंगे तब किवाड़ खुल सकेंगे । सबेरा हुआ और देखा कि मुख्य फाटक बंद है । नगर के बाहर का आना-जाना सब बंद हो गया तब सब लोग दुःखी होने लगे । तब राजा ने रात्रि के स्वप्न को याद किया और शहर की सब स्त्रियों को बुलाया । हर एक से किवाड़ खुलवाया पर वे किवाड़ किसी से न खुले । अंत में नीली के पैर का अंगूठा लगने से सब दरवाजे खुल गए । यह दृश्य देखकर राजा ने व सभी नागरिकों ने नीली की भूरि-भूरि प्रशंसा की और उसका बड़ा सम्मान किया । और इस घटना से पवित्र ब्रह्मचर्य व्रत की बड़ी महिमा प्रकट हुई । जो ब्रह्मचर्य के धारक व्रती पुरुष हैं सो ब्रह्मचर्य के प्रताप से उनके आत्मा का आंतरिक बल वृद्धि को प्राप्त होता है । साथ ही ऐसे दुर्द्धर ब्रह्मचर्य व्रत के धारण के प्रताप से शुभ रागांश के कारण विशिष्ट पुण्य का बंध होता है, पापरस नष्ट होता है । जिससे ऐसा अतिशय और देवों की सहायता उन्हें प्राप्त होती है ।
परिग्रहपरिमाणव्रती संतोषी जयकुमार का वृत्तांत―श्रावक के 5 अणुव्रत में 5वां अणुव्रत है परिग्रह परिमाणअणुव्रत । परिग्रह का परिमाण करना यह श्रावकों का मुख्य कर्त्तव्य है, जिनके परिग्रह का परिमाण नहीं होता उनके लालसा तृष्णा बहुत अधिक बढ़ जाती है और उनका जीवन क्लेश में व्यतीत होता है । इस परिग्रह परिमाण व्रत में जयकुमार की प्रसिद्धि बहुत अधिक है । यह जयकुमार की कथा उस समय की है जबकि हस्तिनापुर में सोमराजा राज्य करते थे । सोमराजा के पुत्र का नाम जयकुमार था वह जयकुमार बहुत संतोषी धर्मात्मा पुरुष था और उसकी स्त्री सुलोचना थी । एक दिन राजपुत्र जयकुमार और उनकी स्त्री सुलोचना इन दोनों ने एक विद्याधर और विद्याधरी को विमान पर बैठकर जाते देखा । उस दृश्य को देखते ही इन दोनों को पूर्वभव का स्मरण हो गया । उस स्मृति में ये दोनों ही बेहोश हो गए । थोड़े समय बाद जब वे सचेत हुए तो पूर्व जन्म की सिद्ध की हुई विद्या उनके पास आयी और प्रकट होकर कहने लगी कि आप जो आज्ञा देंगे सो हम करेंगी जब इसको पूर्वजन्म की विद्या सिद्ध हुई तो ये दोनों जयकुमार और सुलोचना कैलाश पर्वत की वंदना करने गए । वहाँ भरत राजा के बनवाये हुए अनेक जिनमंदिर थे । उनकी पूजा कर रहे थे ।
संतोषप्रिय राजपुत्र जयकुमार की देव द्वारा परीक्षा―उस समय स्वर्ग में इंद्र की सभा में शास्त्र व्याख्यान हो रहा था और इंद्र परिग्रह परिमाण की चर्चा करते हुए जय कुमार की बड़ी प्रशंसा कर रहा था कि इस समय मध्यलोक में राजपुत्र जयकुमार परिग्रह परिमाण के पूरे दृढ़ प्रतिज्ञ हैं । इस वृतांत को सुनकर एक रतिप्रभ नाम के देवता को यह इच्छा हुई कि मैं जयकुमार के इस परिग्रह परिमाणव्रत की परीक्षा करुंगा । सो वह रतिप्रभदेव चला । जिस समय जयकुमार और सुलोचना प्रभु पूजा करके बहुत दूर-दूर बैठे हुए थे, धर्मध्यान के समय बहुत दूर-दूर बैठना उचित होता है उसी नीति के अनुसार वे दूर-दूर बैठे हुए थे तो वहाँ वह रतिप्रभ देव स्त्री का रूप धरकर और साथ ही चार देवांगनायें लेकर जयकुमार के पास पहुंचा और वह देव कहने लगा कि आपकी स्त्री सुलोचना के विवाह के समय जिस नमि विद्याधर ने आप से लड़ाई की थी उसकी मैं स्त्री हूँ, स्वरूपा मेरा नाम है । मुझे अनेक प्रकार की विद्यायें सिद्ध हैं, मैं आपके रूप में मुग्ध होकर आपके पास आयी हूं मैं आपके रूप के सामने अपने पति को भी छोड़कर आयी हूँ । आप मुझे अंगीकार करें तो मैं अपनी सारी विद्यायें और राज्य आपको सौंपने के लिए तैयार हूँ । पहले यह घटना हुई थी । जब सुलोचना का स्वयंवर था तो अनेक राजपुत्र वहाँ आये थे, जिसमें सुलोचना ने जयकुमार को वरण किया था, समय अनेक राजपुत्र रुष्ट होकर लड़ाई ठानने लगे थे। तो वहाँ नमि विद्याधर ने जयकुमार से लड़ाई की थी। उस नमि विद्याधर की स्त्री बनकर वह रतिप्रभदेव कह रहा था, यों वह अनेक विद्यावों का प्रलोभन दे रहा था।
राजपुत्र जयकुमार की संतोष परीक्षा में उत्तीर्णता―उक्त सब बात सुनकर जयकुमार ने उत्तर दिया कि यह तो कभी भी संभव नहीं, और ऐसा रूप व ऐसी विद्या मुझे नहीं चाहिए । मैंने जो ब्रह्मचर्य और परिग्रह परिमाण का व्रत लिया है उस अपने व्रत को मैं कभी भी नहीं छोड़ सकता । और तेरा जैसा सुंदर रूप है यदि तू ऐसी शीलवती होती तो कितना अच्छा था, यह तो स्वर्ण में सुगंध होने जैसी बात होती । तुमने मनुष्य जैसा देह पाया, राज घराने के अच्छे साधन पाये और अपने आत्मा के कल्याण में उपयोग नहीं जाता यह जानकर मुझे दुःख होता है । सो तू अब भी पतिव्रत धर्म को धारण कर । प्रभु की पूजा स्वाध्याय आदिक में लीन हो, ऐसा राजकुमार ने बहुत समझाया, पश्चात् अपनी सामायिक में जुट गया । विधिपूर्वक सामायिक क्रिया करके वह ध्यान में लीन हो गया । उस समय वह बनावटी देव, रतिप्रभ, जिसने स्त्री का रूप धारण किया था जयकुमार को ध्यान से डिगाने के लिए अनेक उपद्रव करने लगा । बड़े सुरीले सुंदर गान तान करने लगा । फिर बड़े अटपट रूप दिखाने लगा । किंतु वह धीर वीर जयकुमार के मन को जरा भी विचलित न कर सका ।
संतोषी राजपुत्र जयकुमार का देव द्वारा सत्कार―अंत में हार मानकर उस रति प्रभ देव ने अपना सही रूप दिखाया और संतुष्ट होकर कहने लगा कि हे जयकुमार धन्य हो तुम्हारा संतोष । तुम्हारे मन की स्थिरता देखकर मुझे बड़ी प्रसन्नता है । मैं मनुष्य नहीं हूँ । मैं स्वर्ग का देव हूँ, मेरा नाम रतिप्रभ है । स्वर्ग में इंद्र महाराज ने आपकी जैसी महिमा थी वैसा ही आप में पाया । इस प्रकार रतिप्रभ ने जयकुमार की बड़ी प्रशंसा की । बड़े आदर के साथ अनेक कपड़े गहने आभूषण आदि भेंट देकर वह स्वर्ग को चला गया । यहाँ ये तृष्णारहित ब्रह्मचर्य के धनी जय कुमार अपनी स्त्री सुलोचना सहित कई दिन तक कैलाश पर्वत पर रहे और प्रतिदिन भगवान की पूजा वंदना की । उसके पश्चात् अपने घर आये और कुछ दिन रहकर वे गृहस्थी की सम्हाल करते रहे। गृहस्थी के सुख भोगे, पश्चात् मुनि हुए। मुनि होकर जयकुमार ने बहुत तप धारण किया धारण किया फिर मोक्ष सिधारे। रानी सुलोचना ने भी श्रावक के व्रत धारण किए और समाधिपूर्वक मरण करके स्वर्ग गई। इस कथा का तात्पर्य यह हे कि जैसे वह जयकुमार विद्या के और राज्य के लोभ में न आया और अपने धर्म में दृढ़ रहा इसी प्रकार हम आपको भी धर्म में दृढ़ रहना चाहिए । जो पुरुष अपना जीवन संतोष से बिताता है और कारण पाकर सर्व से विरक्त होकर आत्मानुभव में अधिक समय लगता है वह अंत में निर्वादपद को प्राप्त होता है। इस कथानक से हम आपको शिक्षा यह लेना है कि हमेशा परिग्रह से विरक्त रहें। तृष्णा से दूर रहें और परिग्रह में संतोष रखें।