वर्णीजी-प्रवचन:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 66
From जैनकोष
मद्यमांसमधुत्यागै: सहाणुव्रतपंचकं ।
अष्टौ मूलगुणानाहुर्गृहिणां श्रमणोत्तमा: ।। 66 ।।
श्रावक के अष्टमूलगुण―श्रावक के 5 अणुव्रतों का वर्णन करके कहना तो चाहिए गुणवत और शिक्षाव्रत । क्योंकि बारह व्रतों का यह प्रकरण है । फिर भी पंचाणुव्रत के वर्णन के बाद श्रावकों के अष्टमूल गुण का वर्णन इस श्लोक में किया है । इसमें सिर्फ इतना प्रसंग का संबंध है कि श्रावकों के 8 मूल गुणो में तीन तो है मद्य, मांस, मधु का त्याग और 5 हैं अणुव्रत का पालन, इस प्रकार 8 बताये गए हैं । तो चूँकि मूल गुणों में भी अणुव्रत का संबंध रखा है इस कारण बीच में ही 8 मूल गुणों का वर्णन किया है । साथ ही यह भी जान जायें कि अष्टमूल गुणों के पालन बिना पंच अणुव्रत का पालन न बन सकेगा । इस कारण भी 8 मूल गुणों का वर्णन किया जा रहा है । श्रावकों के मूल गुण अर्थात् जिनके बिना श्रावक कहलाने का हकदार नहीं वे मूल गुण 8 हैं । जैन कुल में उत्पन्न हुए और अपने को जैन कहलाने वाले लोग इस तरफ ध्यान दें कि यह तो बहुत साधारण कुल परंपरा का आचरण है । जिसके खिलाफ यदि बच्चे युवक कोई अपनी प्रवृत्ति कर रहे हों तो यह उनके लिए कलंक है ।
मद्यमांस मधु के दोषों का संक्षिप्त परिचय―मद्य पीना, मांस वाले होटल में जाकर आहार करना अथवा मधु सेवन करना, ऐसे प्रवृत्ति अगर आ जाती है तो यह उस घर के लिए कलंक है, क्योंकि इन मूल गुणों के बिना वह घर श्रावक का घर नहीं कहला सकता । मद्य ऐसी गंदी वस्तु है कि जिसका सेवन करने से परिणाम मोहित हो जाते, बेहोश हो जाते हित अहित की सावधानी नहीं रहती और हिंसा उसमें भी चल रही है यह अच्छे कुल वाले के लिए रंच भी शोभा नहीं देता । मांस दो इंद्रिय आदिक जीवों के घात करने से उत्पन्न होता है । कितना गंदा पदार्थ है । एक तो प्राणी का घात हुआ, दूसरे उसका कलेवर शरीर वह खाया जा रहा है । यह बड़े अज्ञान का माहात्म्य है कि जिसके मांस भक्षण के बारे में कुछ भी आकांक्षा जगे । मधु तो मधुमक्खियों की कय है , साथ ही उनकी विष्टा भी रहती है । और उसमें निरंतर जीवों की उत्पत्ति भी चलती है । कोई कहे कि इस तरह से छत्तें बनाये किसी कोठरी में या बक्स में और वे मक्खियां उड़ जायें तब उन्हें निचोड़कर मधु निकाल लें तो उसमें दोष नहीं, ऐसा कोई कहे तो वह अयुक्त बात है । उनका जो उगाल है वह स्वयं मांस सहित है । जीवों की उत्पत्ति होती है । और फिर वह मक्खी का उगाल है । जैसे मनुष्यों का उगाल कफ कहलाता ऐसे ही वह मक्खियों का उगाल है । भले ही वह मीठा हो तो मनुष्यों का कय भी तो कुत्तों के लिए मीठा लगता । उस मीठा लगने से क्या होता? तो मधुभक्षण में भी दोष है ।
अष्ट मूलगुण के पांच अणुव्रतों का संक्षिप्त परिचय―मूलगुण में 5 अणुव्रत निरतिचार नहीं हैं, यहाँ पर सामान्यतया हैं । 8 मूल गुणों में त्रस जीव की हिंसा का त्याग यह अहिंसा है श्रावक के मूलगुण में । किसी को क्लेश उपजाने वाले वचन, सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र का घात करने वाले वचन जिन में दूसरे का या अपना श्रद्धान ज्ञान आचरण बिगड़े ऐसे वचन न बोलना । यह है गृहस्थ के मूल गुणों का सत्य व्रत । बिना दिए हुए किसी की धरी गड़ी भूली चीज को न ग्रहण करना यह है मूल गुण का अचौर्य, परस्त्री में राग का त्याग होना यह है मूल गुण का ब्रह्मचर्य और न्याय से उत्पन्न परिग्रह में ही परिमाण करके अधिक परिमाण का त्याग । श्रावक के गुण के अणुव्रत में और व्रतियों के अणुव्रत में निर्दोष पालन और निर्दोष पालन न होना यह ही अंतर है। तो ये हैं मूल गुण श्रावक के जो बिल्कुल मौलिक बात है, इसके विरुद्ध प्रवृत्ति घर में न हो सके ऐसा विशेष ध्यान देना चाहिए । कोईसा भी ऐब छोटा हो तो वह बड़े ऐबों की जड़ बन जाता है । जैसे एक बीड़ी सिगरेट का ही पीना यह छोटा ऐब माना जाता पर जब अधिकता हो जायगी तब और नशे के लिए इच्छा होती है अन्य वस्तु की और फिर वह आधार के बिना विरुद्ध सी जंचती । भले ही आज के अफसर या नेता लोग, या धनिक लोग ऐसे हो गए जो कि उन बीड़ी सिगरेट वगैरह के पान करने में अपना बड़प्पन सा समझते हैं और कला के साथ पीते हैं परे ये अवगुण है और इन छोटे अवगुणों के आधार पर धीरे-धीरे बड़े अवगुण भी आ जाते हैं, इसलिए छोटे अवगुण भी न हो । बहुत पूर्व समय में जैन बीड़ी सिगरेट वगैरह नशीली चीजों का प्रयोग नहीं करते थे, इस बात को आज के बड़ी अवस्था वाले लोग जानते भी होंगे ।
जघन्यविधि के अष्ट मूलगुण―ग्रंथों में कहीं अष्ट मूलगुण इस प्रकार भी आते हैं कि मद्य मांस मधु का त्याग और 5 उदंबर फलों का त्याग । 5 उदंबर फल मांस में ही गर्भित हो जाते हैं क्योंकि ये जितने भी उदंबर फल हैं इनमें कीड़ा पंखी बहुत अधिक रहते हैं, इनके भक्षण में मांस का दोष है फिर भी साक्षात् ऊपर से मांस नही लगता और कुछ वनस्पति मालूम होती है, इस कारण से छोटे लोगों के लिए 5 उदंबर को अलग से ग्रहण किया है । जो चांडाल हैं । जो कषाय की ही वृत्ति में रहा करते है । ऐसे छोटे लोगों के लिए ये 8 मूल गुण बताये हैं । अब यदि कोई जैन भी छोटा मूलगुण पालन न कर सके तो यह तो एक जैन नाम धराकर लज्जा की बात होनी चाहिए । मद्य पीने लगा तो यह जीव धर्म को बिल्कुल ही भूल जाता है और निशंक होकर हिंसा का आचरण कर लेता है । पागल बना, विषयों में आसक्ति उत्पन्न करे । काम वासना को विशेष जागृत करे, ऐसे मद्य मांस चरस आदिक सभी ये मद्य पान में गर्भित हैं । कैसा एक विषय का संस्कार है कि यदि कोई विषय भोगने के अयोग्य हो गया तो भी लालसा बनी है तो अनेक औषधियां खाकर या भंग आदिक पीकर यह लालसा रखता है कि मैं विषय सेवन के लायक रहूं और विषय भोगूं, इसी आधार पर यह भंग नशा आदिक का प्रसार बढ़ा हुआ है । जिन जीवों का भविष्य खोटा है उनके कुबुद्धियां ही उत्पन्न होगी।
सदाचार संस्कार की प्रथमत: आवश्यकता―जैन शासन की चरणानुयोग प्रक्रिया के अनुसार छोटे बालकों की सप्त व्यसन का त्याग, अष्टमूलगुण का पालन कराने की पद्धति थी, वह बहुत उद्धार वाली पद्धति थी । देव दर्शन करना, थोड़ा सत्संग में बैठना यह बालकों के लिए बहुत जरूरी है, लोग सोचते हैं कि अभी बच्चे हैं । इनके खेलने के दिन हैं, उनकी ओर विशेष ध्यान नहीं देते किंतु बचपन से ही यदि सत्संग देवदर्शन आदिक की आदत रहे तो उसके खोटे कामों में बुद्धि न जायेगी । जब वे धर्म से अलग रहते हैं और उनका संग खोटा रहता है तो उनकी बुद्धि बिगड़ती है और बिगड़ने के बाद बिगड़ बिगड़कर बहुत कठिन हो जाती है । तो यह प्रयत्न करना चाहिए कि छोटे बच्चे भी देवदर्शन करें । सप्त व्यसन छोड़ें, अष्ट मूलगुणों का पालन करें । जैसी कि प्रक्रिया बतायी गई, हेय का त्याग करें, उपादेय का ग्रहण करें तो उनका संस्कार भला रहेगा और वह बड़ी अवस्था तक भी सही रहेगा । बड़े पुरुष तो मदिरा की धार देख लें तो भोजन का भी त्याग कर देते हैं । अगर मदिरा का स्पर्श हो जाय तो पूरा नहाते है, वस्त्र भी धोते है । मद्यपायी उन्मत्त पुरुष स्त्री को कभी माता या पुत्री भी बोल देता या कभी माता या पुत्री को स्त्री बोल देता, तथा और-और भी जितने दोष हैं―हिंसा, क्रोध, मान, माया, लोभ सभी उस मद्य पायी जीव के हो जाया करते हैं इसलिए मद्य का दूर से ही त्याग करना, छूना ही नहीं और मद्य पायी का संग न करना, मद्य का व्यवसाय भी न करना ।
मांस की अपवित्रता, त्रसघातजातता―मांस चाहे वह कच्चा हो चाहे पका हो उसमें निरंतर जीव उत्पन्न होते रहते हैं । और की तो बात क्या, पक रहे की हालत में भी जीव उत्पन्न होते रहते हैं इसलिए कोई लोग इस मांस शब्द को मुख से नहीं बोलते थे । बूढ़े पुराने लोग जान रहे होंगे, अगर कोई मांस खाता था तो उसके संबंध में चर्चा यों करते थे कि वह तो गंदी चीज खाता है, वह तो मिट्टी खाता है । वे मांस शब्द को मुख से बोलने में भी लज्जा मानते थे । अब चूँकि मांस का बहुत प्रसार चल रहा आज इस देश में, कुछ ही परसेन्ट लोग ऐसे मिलेंगे जो मांसभक्षी नहीं होंगे । तो जब इतना प्रसार चल गया और जब बारबार उनको समझाने का या उनके बात करने का अवसर हुआ तो अब तो वक्ता लोग भी उपदेश में मांस शब्द का उच्चारण करने लगे उपदेशों में भी, पर पहले तो यह शब्द बोला ही न जाता था, बोलने में बुरा लगता था । लोगों को अचरज होता था कि ये लोग कैसे मांस को खा लेते हैं । ऐसा यह मांस बहुत निंदनीय वस्तु है । मांसभक्षी के दया नहीं उत्पन्न हो सकती । क्रूर हो जाता है, और शूरता भी नष्ट हो जाती है । जो सेना मांसभक्षी अधिक है उसमें वास्तविक शूरता नहीं रहती, यह आज के लोग मानने लगे और शाकाहारी सेना शूरवीर होती है । आज भारत की सेना का जो लोगों के चित्त में प्रभाव है उसका भी आधार यह ही है कि भले ही वे कोई मांस खाते हों, पर बहुत से लोग ऐसे भी हैं जो नहीं खाते । कुछ लोग सेना में ऐसे भी हैं जो मांस का अधिक प्रयोग नहीं करते तो उनमें शूरता उन सेनाओं की अपेक्षा अधिक है ।
मांसभक्षण की अभिलाषा होते ही दया की निवृत्ति―जो मांसभक्षी है उनके हृदय में जीवों के प्रति दया नहीं होती । जिनके दया नहीं वे चाहे कितना ही धर्म के नाम पर अनेक बातें करें, पर उनको सुगति नहीं मिल सकती । कितने ही लोग मांस के इतने प्रेमी हो गये कि यदि वे बड़े वर्ण के थे, मांस खाने में लाज आती थी, मांस खाने की इच्छा हो गई तो क्या जाल रचा कि उन बड़े लोगों ने कि एक धर्म का रूप दे दिया । यज्ञ हो रहा है, अश्वमेध यज्ञ चल रहा है, नरमेध यज्ञ चल रहा है, जिसका मांस खाने का भाव हो उसी के नाम पर यज्ञ का नाम रख दिया । लोग हाथ जोड़कर घोड़ा लाने लगे, घोड़ों का यज्ञ कराया, मनुष्यों का भी यज्ञ करा दिया । ताजा मांस मिल गया, अच्छी तरह प्रसाद मानकर खाया, यह आधार है पशुवों के होमने की एक रचना निकलने का और आज भी अनेक लोग देवी देवता के नाम पर बलि करते है । यह पाप है, महापाप है, देवता मांस नहीं खाते । देवतावों के कंठ से अमृत झरता, उनका वैक्रियक शरीर है, मगर खुद मांस के लोलुपी हैं और व्यवहार में प्रतिष्ठा भी बनाये रखना है तो एक रूपक दे दिया कि देवताओं को बलि चढ़ावो और वह ऐसा धीरे-धीरे घर कर गया कि कोई कष्ट आये किसी के तो वह देवता को बलि बोल देता है सोचो कितना अधर्म की बात है । ऐसे लोगों के चित्त में आत्मा के सहज चैतन्यस्वरूप का कहां ध्यान बनेगा ।
मधु की अभक्ष्यता―मधु, मक्खियों का कय है, भील चांडालों का जूठा है, वे खाते रहते है और उसी में से बेचने को ले आते हैं । त्रस जीवों की जहा, उत्पत्ति है उस मधु के बारे में जिन लोगों का बहुत बड़प्पन था, जिनके मधु का त्याग था । कैसे खायें, तो प्रारंभ में उस मधु के खाने के लिए एक विधि निकल गई । उसे पंचामृत में से लेने लग गए और अपने माने हुए देवतावों का प्रसाद रूप में लेने लगे । अरे मधु (शहद) का एक कण भी औषधि का नाम लेकर भी ग्रहण करे रोग को दूर करने के लिए भक्षण केर तो वह भी दुर्गति का ही कारण है । उसकी खोटी अवस्था बनेगी । प्रथम तो लोगों को अपने बुखार आदिक रोग होने पर यह विश्वास रखना चाहिए कि यह शरीर मलीन है । इसमें अपथ्य सेवन करने से ये रोग हुए हैं, तो अपथ्य का त्याग कर दें, भोजन का त्याग कर दें रोग का अपने आप शमन हो जायगा । कोई रोग ऐसा हो कि गर्मी बढ़ जाय तो गर्म जल लेते रहें रोग में रोग का अपने आप शमन हो जायगा । बड़े डा᳴क्टरों की दवाइयां करके भी आखिर 10-15 दिन तो ठीक होने में लग ही जाते हैं, और एक दवा भी न करे और अपथ्य का परिहार करे तो भी 1 0- 15 दिन में वह ठीक हो जायगा । दवा न लेगा तो मौलिक ढंग से ठीक हो जायगा । दवा करने से तो वह रोग दब जायगा या उल्टा भी पड़ सकता है । पशु पक्षी बीमार होते हैं, पड़े रहते हैं तो कुछ दिन में ठीक हो जाते है तो पहली बात तो यह है फिर दूसरी बात यदि औषधि सेवन करना पड़े तो थोड़े दिन विशेष भले ही लग जायें मगर शुद्ध निर्दोष आयुर्वेद में बतायी गई जड़ी बूटी आदिकी औषधियों का उपचार करना चाहिए । जो इन जड़ी बूटियों का प्रभाव है वह मांस आदिक का प्रभाव नहीं है । जड़ी बूटी आदि औषधि के सेवन से मौलिक ढंग से रोग ठीक हो जायगा । इतना विरक्ति होनी ही चाहिए कि अपने शरीर को निरोग जल्दी करने के लिए मधुमास का भक्षण न करें ।
आत्मकरुणा करके दुराचार से निवृत्त होकर परमब्रह्मस्वभाव में लगने का अनुरोध―भैया, अपने आपके बारे में अनादि अनंत सत्ता का विचार करना चाहिए । मैं क्या उतना ही हूँ जितना कि मैं मनुष्य रहूंगा? मैं वास्तविक सत् चेतनात्मक पदार्थ हूँ । इस शरीर के छूटने के बाद भी जिसमें मैं हूँ मैं हूँ का बोध चल रहा है वह जीव परमपदार्थ रहेगा । उसका विनाश नहीं होता, फिर अगला भव कैसे बनेगा? कोई बनाने से बनेगा क्या? इस भव में जैसे परिणाम किया उसके अनुसार जैसा कर्मबंध हुआ उसके उदय के अनुसार परिणाम बनेगा । आज मनुष्य हैं, मरने के बाद एकदम कीड़ा बन सकते हैं । भला अन्य जीवों को तो देखिये―बताओ इन पशु पक्षी कीड़ा मकोड़ों का क्या जीवन है? इनको कोई तत्त्वज्ञान का साधन ही नही । अपने मन की बात दूसरे को बता सकते नहीं, ऐसा भव धरना क्या तुम्हें पसंद है? अगर खोटे भव धारण करना खोटी गति में जन्म लेना यदि यह पसंद है तो उसका उपाय तो बहुत सुगम बन रहा । हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह, मधु, मद्य, मांस का भक्षण बस यह ही उसका उपाय है कि दुर्गतियों में जन्म लेता जाय । तो अपने दया की दृष्टि से कुछ अपना चिंतन करना चाहिए । धर्म पर्व इसीलिए आते हैं कि उन दिनों में आत्महित का विशेष चिंतन करना चाहिए । दूसरों के लिए ही जो नाना तरह के पाप किए जाते हैं वे भी निश्चयत: यह खुद अपने लिए करता है । अपने गिरने के लिए गड्ढा खोदता है । तो कितने दिनों का यह जीवन है? समागम में आये हुए लोग कितने दिनों तक साथ देने वाले हैं? आखिर यह जीव अकेला ही है । जीवन में भी कोई साथ नहीं दे सकता ।
अपने को बाह्य जीवादि की ओर से अशरण निहारने में धर्म रुचि की उद्भूति―एक राजा जंगल में जा रहा था तो वहाँ उसे एक जवान, सुंदर, हृष्टपुष्ट, मुनिराज दिखे । राजा मुनिराज के पास बैठ गया । राजा को उनके प्रति करुणा हुई―कैसा सुंदर, कैसा हृष्टपुष्ट, कैसा कांतिमान यह युवक बैठा है । बिल्कुल नंगा है, अकेला बैठा है, इसका कोई रक्षक नहीं, यह सब सोचता हुआ राजा पूछता है―कहो भाई आप कौन हैं? तो वह मुनि बोले―मैं अनाथ मुनि हूँ । तो राजा बोला―अच्छा अब आज से अपने को अनाथ न बोलना, मैं अपना नाथ बनता हूं। अब आपको कोई कष्ट न रहेगा, खूब आराम से, आनंद से जीवन गुजारो, और यहाँ से उठकर हमारे महलों में चलो । तो मुनिराज बोले―आप कौन हैं? तो फिर राजा बोला―आप कुछ चिंता न करें, आप ऐसा न समझें कि कोई मामूली आदमी होगा जो हमको बहका रहा, अरे हम इस नगरी के राजा हैं । हमारे पास बड़ा ठाठ है, बड़े सुख साधन हैं, आपकी सब प्रकार की व्यवस्था हम कर देंगे, आराम से जिंदगी बिताना । चिंता करने की कोई बात नहीं । तो मुनि बोले कि ऐसा ही तो मैं भी था । फिर आप अपने की अनाथ क्यों कहते?... राजन् एक बार मेरे सिर में भयंकर दर्द उत्पन्न हुआ, पर मेरे उस दर्द को क्या तो परिजन, क्या मित्रजन, क्या तो नाते रिश्तेदार, बड़ा-बड़ा प्यार दिखाने वाले लोग कोई, मेरे उस दु:ख को बांट न सके । वहाँ मेरी समझ में आया कि सचमुच मैं अनाथ हूँ, मेरा कोई नाथ नहीं, कोई रक्षक नहीं । बस वहीं से मुझे वैराग्य जग गया कि मेरा कुछ नहीं है । इतनी सी बात सुनकर राजा का ज्ञान जग गया, श्रद्धा से उसके सामने सिर झुक गया और चरणों में लोटकर बोला―महाराज आज तो मेरा जीवन आपके दर्शन पाकर सफल हो गया । वास्तव में मैं भी आप जैसा ही अनाथ हूँ । आपका मेरे लिए बड़ा उपकार हुआ । मैं आपके इस उपकार का बदला चुकाने में असमर्थ हूँ, यह कहकर राजा वापिस हो गया । तो जरा अपने आपके प्रति भी तो कुछ विचार करें कि हम भी इस जगत में अनाथ हैं कि नहीं । यहाँ कौन मदद कर देगा, कौन मेरा नाथ बन सकेगा, जो कुछ भी मुझ पर बीतती है वह खुद को ही भोगना पड़ता है कोई दूसरा किसी का सुख दु:ख बांट नहीं सकता ।
परमार्थ अहिंसा की आस्था में शांतिमार्ग की प्राप्ति―दूसरे प्राणियों का जो घात करते हैं उनके महापाप का उदय है । जो गर्दनों पर हथियार भरा हाथ डालने लगता है वह बड़ी विपत्ति में हैं, और अपने जीवन में भी सोचिये कि यदि आपके किसी विचार से, आपके किसी वचन के बोलने से, आपके किसी काय की चेष्टा से यदि दूसरे के दिल को आघात अथवा दूसरे का अनर्थ हो जाय तो इसमें आपको क्या मिल गया? अपना शुद्ध ध्येय बनावे जीवन में। चाहे कोई भी स्थिति हो, यदि कुछ धन का समागम मिला तो वहाँ भी भावों की सम्हाल बनाये रहें, नहीं तो धोखा हो जायगा । आज अगर कुछ निर्धनता की स्थिति मिलीं तो अपने भाव सम्हाले, नहीं तो और परिस्थिति बिगड़ेगी । भावों में निर्मलता हो यह ही अपना वास्तविक धन है और कोई मेरी रक्षा कर सकने वाला नहीं है, ऐसा अपने अंदर में निर्णय बनाइये, समझिये, निश्चय कीजिए । जीवघात वाले पदार्थों का त्याग करें, अहिंसा में कल्याण समझें । अपने को भी संक्लेश न हो, दूसरे को भी संक्लेश न ही एतदर्थ पापों से बचना और अपने में अंत: प्रकाशमान कारण समयसार स्वरूप परमब्रह्म की उपासना करना । ऐसा जीवन चले तो यह जीवन कृतार्थ होगा ।