वर्णीजी-प्रवचन:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 67
From जैनकोष
दिग्ब्रतमनर्थदंडव्रतं च, भोगोपभोगपरिमाणं ।
अनुवृंहणाद् गुणाना―माख्यांति गुणव्रतान्यार्या: ।। 67 ।।
गुणव्रत के भेद―इस ग्रंथ में पहले तो सम्यग्दर्शन का वृतांत चला था क्योंकि सम्यग्दृष्टि हुए बिना व्रत पालन वास्तविक व्रतपालन नहीं कहलाता । सम्यग्दर्शन एक स्वरूप फल आदिक के वर्णन के बाद सम्यग्ज्ञान का वर्णन चला । यद्यपि ज्ञान सभी सम्यक्त्व से पहले भी रहते हैं, पर अनुभवरहित होने के कारण उसे सम्यग्ज्ञान न कहा करते थे । सम्यक्त्व बाद वही ज्ञान सम्यग्ज्ञान कहलाता है । इसके पश्चात् सम्यक्चारित्र का वर्णन किया गया, जिसके भेद हैं―(1) देशचारित्र और (2) सकल चारित्र । देशचारित्र में 5 अणुव्रत का वर्णन चल रहा था और अभी बीच में इससे पूर्व ही श्रावक के अष्टमूल गुणों का वर्णन हुआ, अब बारह व्रत रूप देश चारित्र में से 5 अणुव्रत के वर्णन के बाद गुणव्रत का वर्णन किया जा रहा है । आदि पुरुष गणधरदेव गुणव्रत तीन प्रकार के बतलाते हैं―(1) दिग्व्रत (2) अनर्थ दंडव्रत और (3) भोगोपभोग परिणाम। यहां देशव्रत न कहकर भोगोपभोग परिणाम व्रत कहा है। अनेक ग्रंथों में दिग्व्रत, देशव्रत अनर्थदंडव्रत ऐसे तीन भेद किए गए। दिग्व्रत, अनर्थदंडव्रत और भोगोपभोग परिणाम―ये तीन प्रकार बताये गए। परस्पर कोई विरोध की बात नहीं है। सबका ध्येय यह है कि अणुव्रत की दृढ़ता रहे इस कारण ये गुणव्रत कहे जा रहे हैं। दिग्व्रत नाम है दसों दिशाओं में गमन करने की मर्यादा कर लेने का, देशव्रत जो यहाँ नहीं कहा गया वह दिग्व्रत की मर्यादा के भीतर और भी मर्यादा कर लेना यह दिग्व्रत का और पूरक ही है । विरोधक नहीं है, अतएव वह दिग्व्रत का ही एक अंग समझिये । अनर्थदंड उसे कहते हैं कि बिना प्रयोजन पापकार्यों का आरंभ करना उसका त्याग अनर्थदंडव्रत में होता है । भोगोपभोग परिमाण―भोग और उपभोग की वस्तुवों का परिमाण कर लेना भोगोपभोग परिमाण है । अब इसके आगे स्वयं आचार्यदेव वर्णन करेंगे, पर यहाँ इतना समझ लेना कि यह अणुव्रत के भावों को बढ़ाता है, गुणित कर देता है, इस कारण इसे गुणव्रत कहते हैं । अब इन तीन गुणव्रतों में प्रथम गुणव्रत का स्वरूप कह रहे हैं ।