वर्णीजी-प्रवचन:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 68
From जैनकोष
दिग्वलयं परिगणितं, कत्वातोऽहं बहिर्न यास्यामि ।
इति संकल्पौ दिग्व्रत-मामृत्यणुपापविनिवृत्त्यै ।। 68 ।।
दिग्व्रत का स्वरूप―दसों दिशावों में प्रमाण करके इससे बाहर मैं न जाऊंगा, ऐसे संकल्प को दिग्व्रत कहते हैं । इस दिग्व्रत के कर लेने से उस सीमा के बाहर रंच भी पाप का दोष नहीं आता । संकल्प ही न रहा, वहाँ का संबंध ही न रखा इसलिए रंच भी पाप की निवृत्ति के लिए यह दिग्व्रत 12 व्रतों में बताया गया है । ये 12 व्रत सद् गृहस्थ के हैं, गृहस्थी का कार्य आजीविका के बिना न चल सकेगा, अनेक कार्य हैं, अवसर हैं, रोग आदिक हों, समाज के कार्य, देश के कार्य, धर्मप्रभावना के कार्य सभी में सद्गृहस्थ को योग देना होगा सो वह धन बिना नहीं बन सकता, अतएव धनार्जन करने की ड्यूटी भी है, व्यापार के लिए यत्र तत्र जाना पड़ता है । तो सारे विश्व के संकल्प का पाप न रहा, इस कारण वह दिशावों की मर्यादा कर लेता है, इससे बाहर न जाऊंगा, इससे बाहर व्यापार भी न करुंगा, पत्र भी न डालूँगा । जितनी दिग्व्रत की सीमा ली है उससे बाहर संबंध न रखूँगा । इस संबंध में एक समस्या जरूर आ खड़ी होती है कि फिर अखबार पढूँ या न पढूँ क्योंकि अखबार में तो रूस, अमेरिका वगैरह सभी देशों के समाचार होते हैं? तो इस प्रश्न का हल जो जिस दृष्टि से करे, पर अखबार पढ़ने में तो एक ज्ञान ही किया । अगर वहाँ के बारें में रागद्वेष का भाव लाये और सोचे कि उसकी हार क्यों हो रही, उसकी जीत होनी चाहिए, इस प्रकार के परिणाम आते है तब तो दिग्व्रत के प्रयोजन का उसने पालन नहीं किया और वृत्तांत जान लिया तो या तो जैन शास्त्र में सारे विश्व का वृतांत लिखा है । स्वर्गो में क्या रचना, अमुक जगह क्या रचना, तो इसका प्रयोजन यह है कि परिणामों में संक्लेश न आये, रागद्वेष न जगे, उस सीमा से बाहर के क्षेत्र का आधार लेकर यह इस दिग्व्रत का प्रयोजन है । हां तो अब यह दिग्व्रती अपनी मर्यादा किए क्षेत्र से बाहर व्यवहार नहीं करता, यह सब किया गया है लोभकषाय के लिए और अहिंसा या धर्म वृद्धि के लिए । यह अब श्रावक मरण पर्यंत दसों दिशावों में मर्यादा किए हुए क्षेत्र से बाहर न जायगा, न किसी को बुलायगा, न किसी को भेजेगा, न वहाँ की कोई वस्तु मंगायगा । एक समस्या यह भी सामने आयी कि वहाँ बाहर की वस्तुवें तो न मंगायेंगे मगर यहाँ जो बाहर की वस्तुवें दिखती हैं उन्हें खरीदेंगे या नहीं? तो इसका उत्तर यह है कि उसमें इस बात का ध्यान रहे कि कहीं बाहर भेजने के उद्देश्य से उन्हें न खरीदे । इस प्रकार का व्यापार वह न कर सकेगा कि किसी भी चीज को अपनी रखी हुई सीमा से बाहर भेजे या बाहर से मंगाये, जिसने एक अपने देश की सीमा रखी । अब दसों दिशाओं का परिमाण किस ढंग से किया जाता है उसके संबंध में कहते है ।