वर्णीजी-प्रवचन:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 74
From जैनकोष
अभ्यंतरं दिगवधेरपार्थिकेभ्य: सपापयोगेभ्य: ।
विरमणमनर्थदंडव्रतं विदुर्व्रतधराग्रण्य:।। 74 ।।
अनर्थदंडव्रत का स्वरूप―इससे पहले दिग्व्रत का स्वरूप कहा गया था । जीवन पर्यंत दसों दिशावों में जाने-आने व्यवहार करने की सीमा लेकर उससे बाहर न आना, न जाना, न व्यवहार करना सो दिग्व्रत है । दिग्व्रत इसलिए किया गया था कि सारे विश्व के क्षेत्र का पाप न लगे, अब उस दिग्व्रत की मर्यादा के भीतर भी सही प्रवृत्ति होनी चाहिए । किसी भी प्रकार का अनर्थ दंड न होना चाहिए जिसमें अपनी आजीविका का प्रयोजन नहीं और भी कोई उचित व्यवहार का प्रयोजन नहीं फिर भी पाप के कार्य करना यह अनर्थ दंड कहलाता है । ऐसी प्रवृत्ति उस दिग्व्रत की सीमा के भीतर भी न होना चाहिए । इस ही का नाम है अनर्थ दंडव्रत । व्यर्थ मन चलाना, व्यर्थ वचन बोलना, व्यर्थ शरीर की प्रवृत्ति करना यह सब अनर्थ दंड है, उनसे विरक्त होना इसको अनर्थ दंड व्रत कहते हैं । गणधर देव ने अनर्थ दंड का यह स्वरूप कहा, वह दंडधर नहीं है । अर्थात् मन, वचन, काय की बुरी चेष्टा की प्रवृत्ति वाला नहीं है, ऐसा गणधर देव ने अनर्थ दंड से विरक्त होने का उपदेश किया है । गृहस्थ का प्रयोजन क्या है? आजीविका चलाना, धर्म का पालन करना, अधिक से अधिक इसके साथ दो बातें और लगा लीजिए एक तो इंद्रिय के विषय का सेवन होना, चूँकि गृहस्थ इतनी कमजोर हालत में है कि वह इंद्रिय विषय के भोग से अलग नहीं हो पाता । दूसरे लोक में यश कीर्ति रहना, तो अधिक से अधिक इन चार बातों में कोई संबंध नहीं है जिसका, ऐसे व्यर्थ के कार्यों को करना अनर्थ दंड है और इसमें प्रयोजन भी हो फिर भी जिसमें त्रस जीवों की हिंसा हो वह श्रावक करता ही नहीं समस्त अनर्थदंडों का त्याग करना अनर्थदंडव्रत है अब अनर्थ दंड के प्रकार बतलाते हैं ।