वर्णीजी-प्रवचन:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 94
From जैनकोष
सम्वत्सरमृतुरयनं, मासचतुर्मासपक्षमृक्षं च ।
देशावकाशिकस्य, प्राहु: कालावधिं प्राज्ञा: ।। 94 ।।
देशावकाशिक शिक्षाव्रत में काल की मर्यादा रखने की पद्धति―ऊपर के छंद में तो क्षेत्र की मर्यादा बताया था कि क्षेत्र में रहने वाले नदी आदिक का नाम लेकर मर्यादा करना अथवा कोश योजन का परिमाण रखकर मर्यादा बनाना यों क्षेत्र की मर्यादा कहा था, अब इस क्षेत्र में काल की मर्यादा कह रहे है । जो अभीष्ट पुरुष हैं, प्राग हैं, ज्ञानी संत हैं वे काल की मर्यादा इस प्रकार बतलाते हैं देशव्रत में । एक वर्ष की मर्यादा ले लिया, मैं एक वर्ष तक इतने से बाहर संबंध न रखूँगा अथवा 6 महीने की, चार महीने की एक पक्ष की अथवा एक नक्षत्र की इस प्रकार की म्याद लेकर मर्यादा बनाना काल की मर्यादा है, आजकल जैसे दिनों में बात चलती है कि आज इतवार है, सोमवार, मंगलवार है ऐसे ही पहले नक्षत्र की बात बहुत बोली जाती थी, मैं अमुक नक्षत्र से अमुक नक्षत्र तक इस क्षेत्र से बाहर न जाऊंगा । इस प्रकार काल की अवधि लेकर क्षेत्र का परिमाण करना यह देशावकाशिक देशव्रत में काल की मर्यादा बतायी गई है । देखिये―जिसको आत्मस्वभाव का परिचय है और आत्मस्वभाव में मग्न होने की धुन है दूसरा कुछ चित्त में है ही नहीं उनके ये सब व्रत, शील आदि बन जाना सुगम है । और जिन्हें आत्मस्वभाव का परिचय नहीं है वे बनावट कर के जबरदस्ती त्याग करें तो उनकी बात कैसे निभेगी? बाहर से द्रव्य त्याग की बात चाहे निभ भी जाय किंतु मन से नहीं निभ सकती । तो इन सब व्रतों का पालन करने का अधिकारी सम्यग्दृष्टि ज्ञानी पुरुष हुआ करता है ।