वर्णीजी-प्रवचन:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 95
From जैनकोष
देशावकाशिकेन च महाव्रतानि प्रसाध्यंते ।
सीमांतानां परत: स्थूलेतरपंचपापसंत्यागात् ।। 95 ।।
देशावकाशिक व्रत से सीमा के बाह्यक्षेत्र में महाव्रतकल्पता―इस देशावकाशिक व्रत के समय क्षेत्र की जो मर्यादा रखी है और उस क्षेत्र से बाहर आने-जाने व्यवहार आदिक का परित्याग किया है सो इस व्रत के प्रसाद से उस क्षेत्र के बाहर उन सूक्ष्म स्थूल पापों का पूर्णतया त्याग हो गया है । जैसे मानो मुनि के पाप का स्थूल और सूक्ष्म रीति से सर्व त्याग रहता है तो ऐसे ही उस मर्यादा के बाहर में तो पूर्णतया त्याग है और इसही कारण इस देशावकाशिक व्रत के द्वारा महाव्रत सिद्ध होता है और इसी कारण यह शिक्षाव्रत कहा गया है, क्योंकि अहिंसा का पालन विशेष है । हिंसा का परिहार तो ऐसी ही वृत्ति में उनका महाव्रत जैसा ही पालन हुआ । प्रयोजन यह है कि वह उपाय करना जिस उपाय से बाह्य पदार्थों के विकल्प हटें और अपने आपके स्वरूप में मग्नता का अवसर आये । धन्य है वह जीव धन्य हैं उसके क्षण कि जो सहज चैतन्यस्वरूपमात्र अंतस्तत्व की अनुभूति खूब रख रहा है । उसके लिए बस महत्त्व है धर्म का, अन्य बातों का महत्त्व उसके चित्त में है ही नहीं । चाहे करोड़पति हो, बड़ा राजपाट हो, चाहे दुनिया में बड़ा यश चल रहा हो मगर उस संत की दृष्टि में अन्य किसी का कुछ महत्त्व नहीं । महत्त्व है सिर्फ स्वानुभव का । तब आत्मा का जो सहज चैतन्यस्वरूप है उसकी अनुभूति बराबर हो, वही दृष्टि में रहे तो तत्व का महत्त्व है ज्ञानी की दृष्टि में।