वर्णीजी-प्रवचन:रयणसार - गाथा 139
From जैनकोष
णाणेण झाणसिज्झी झाणा दो सव्वकम्मणिज्जरणं।
णिज्जरणफलं मोक्खं णाणब्भासं तदो कुज्जा।।139।।
मोक्षोपाय में ज्ञान का मौलिक महत्त्व एवं ज्ञानाभ्यास के लिये प्रेरणा―ज्ञानाभ्यास कितना आवश्यक है यह बात इस गाथा में बतायी गई है संसार के समस्त दुःखों से दूर होना है याने मोक्ष पाना है तो निर्जरा चाहिए पहले, तब कर्मों का निर्जरण होता रहेगा और वह भी संबर पूर्वक कर्म झड़ते-झड़ते कभी सभी कर्म नष्ट हो जायेंगे और जब सब कर्म नष्ट हुए तो मोक्ष मिला। तो मोक्ष पाने के लिए निर्जरा आवश्यक है। निर्जरा के बिना मुक्ति नहीं मिलती और निर्जरा होती है ध्यान से, याने पहले तो यह मन आत्मस्वरूप की ओर सुगमता से लग जाय और फिर जहाँ अनुभूति होती है वहाँ मन की वृत्ति नहीं रहती। केवल उपयोग ही अपने आपके स्वरूप में स्थिर हो जाय ऐसी स्थिति से निर्जरा होती है, सो यह स्थिति ध्यान की ही तो है, तो ध्यानसिद्धि चाहिए और ध्यान की सिद्धि होती है ज्ञान से। जब स्वरूप का ज्ञान हो, जिस ओर अपना उपयोग रमाना हो उस तत्व का ज्ञान हो तब ही तो उपयोग रमेगा। तो ध्यान की सिद्धि ज्ञान से हुई और निर्जरा की सिद्धि ध्यान से हुई और मोक्ष की सिद्धि निर्जरा से हुई। तब मूल में कर्तव्य क्या रहा? ज्ञानाभ्यास, द्रव्य, गुण पर्याय। इस विधि से ज्ञान बढ़ावें और फिर अपने में द्रव्य गुण पर्याय की विधि से अपने में निरखिये यह सर्व सिद्धि का कारण है ज्ञानाभ्यास। इस कारण मुक्ति के अभिलाषियों को अर्थात् आत्मकल्याण चाहने वालों को ज्ञान में अभ्यास अपना बढ़ाना चाहिए।