वर्णीजी-प्रवचन:रयणसार - गाथा 140
From जैनकोष
कुसलस्स तवो णिवुणस्स संजमो समपरस्स वेरग्गो।
सुदभावणेण तत्तिय तम्हा सुदभावणं कुणह।।140।।
तप संयम वैराग्य के साध श्रुतभावन के कर्तव्य का अनुरोध―तप संयम और वैराग्य से आत्मकल्याण का लाभ होता है। तप मायने इच्छानिरोध, संयम अर्थात् उपयोग का आत्म स्वरूप में संयत हो जाना और वैराग्य मायने परभावों से विरक्त होना, ऐसा तप संयम और वैराग्य इन से आत्महित होता है। तप किसके होता है? जो व्यक्ति साधक कुशल हैं, पदार्थों के स्वरूप से जो अनभिज्ञ है। पुरुषों के तप बनता है तो कुशल पुरुषों के तप बनता है और निपुण पुरुषों के संयम बनता है। जो ज्ञानाभ्यास द्वारा बने हैं, जब चाहे अपने आपके स्वरूप की ओर लग गए, उसमें संयत हो गए ऐसा कोई निपुण पुरुष हो उसके संयम बनता है और जो कषायों का शमन करने में तत्पर हो, जो क्षमाशील हो, शांतिप्रिय हो, कषायों के शमन की ओर वृत्ति जगे उस पुरुष के वैराग्य होता है, तो ये तीनों ही बातें तप, व्रत, संयम और वैराग्य श्रुतभावना से हुआ करता है, अर्थात् श्रुत का अभ्यास, आगम के अभ्यास से ये तीनों बातें मिलती हैं, इस कारण आत्महित के इच्छुक पुरुषों को श्रुताभ्यास की भावना करना चाहिए। श्रुताभ्यास का प्रयत्न करना चाहिए, श्रुताभ्यास में निरंतर रहना चाहिए जीव को शांति है सम्यग्ज्ञान से समस्त पर पदार्थों से निराला विभक्त अपने आप जो सहज स्वरूप है उसमें दृष्टि जिसकी है उस पुरुष को कोई शंका नहीं है उस पुरुष को कहीं भी भय नहीं उस पुरुष को कहीं शल्य नहीं। जहाँ अपने स्वरूप दृष्टि से चिगे वहाँ ही इसको बंधन है, आकुलता है संसार भटकना है, तो यह स्वरूप दृष्टि की दृढ़ता करने के लिए क्या पौरुष करना, वह है श्रुत का अभ्यास, आगम का ज्ञानार्जन।