वर्णीजी-प्रवचन:रयणसार - गाथा 148
From जैनकोष
मिच्छंधयार रहियं हियय मज्झम्मिय सम्मरयणदीवकलावं।
जो पज्जलइ स दीसह सम्मं लोयत्तयं जिणुद्दिठ्ठं।।148।।
मिथ्यांधकार रहित हृदय में सम्यक्त्वरत्नदीप को प्रज्वलित करने वाले की सर्वलोक प्रकाशकता―जो भव्य जीव अपने हृदय के मध्य में सम्यक्त्व रत्न रूपी दीपक को जलाता है, जैसे दीप प्रकाश में अंधकार नहीं रहता, ऐसे ही सम्यक्त्व रत्न रूपी दीप समूह को जो अपने अंदर प्रकाशित करता है वह पुरुष तीनों लोकों को भली भाँति देखता है, ऐसा जिनेंद्र देव ने कहा है दर्पण पर यदि प्रकाश नहीं है, उजेला नहीं है तो दर्पण में सामने वाली चीज प्रतिबिंबित नहीं होती, ऐसे ही अपने आत्मा में यदि सम्यक्त्व प्रकाश नहीं है तो यहाँ तीन लोक तीन काल के पदार्थ भी प्रतिबिंबित नहीं हो सकते। आत्मा के विकास में दो बातें हुआ करती हैं (1) परिपूर्ण ज्ञान और आत्मीय सहज स्वाधीन आनंद। एक बार कोई यह कह सकता है कि मुझे परिपूर्ण ज्ञान की कुछ आवश्यकता नहीं। ज्ञान चाहे मुझमें मत जगे, सारे विश्व को जानने से मुझे मिलेगा क्या? मैं आनंद जरूर चाहता हूँ ऐसा कह सकने वाले कुछ लोग हो सकते हैं और इसमें कोई बुराई की बात नहीं है ऐसा भी चाहो तो चाहो कि मुझे इस सारे विश्व के ज्ञान से कुछ प्रयोजन नहीं, पर सही आनंद का अनुभव मेरे को रहे, मुझे कल्पित मौज न चाहिए ऐसा सोचना विवेकियों के बन सकता है, किंतु ऐसा कोई नहीं सोच सकता कि मेरे को आनंद चाहे मत मिले मेरे को चाहे कितना ही कष्ट हो, पर मैं तो सारे लोक का ज्ञाता होना चाहता हूँ। कोई पुरुष भावुक जोश वाला पुरुष कोई ऐसा भी कह सकता कि मैं तो सारे कष्ट सहलूँगा मगर मैं तो इस विज्ञान को, इस समस्या को मैं जानकर ही रहूँगा। चाहे मुझे कितना ही कष्ट हो मगर भीतर का प्रयोजन देखो तो यह तो उसके कहने की ही बात है, किंतु किसी तथ्य के प्रयोग जानने की बात सुख प्राप्त करने के प्रयोजन से ही है। कोई जानकर ही सुखी होता है ऐसी ही उसकी दशा है तो आनंद पाने का प्रयोजन सब जीवों के उपयोग में होता है। आनंद विलास की ज्ञान विलासा विनाभाविता―आनंद की जो परिपूर्ण स्थिति है जो कभी मिटे नहीं, जिसमें रंच भी असारता नहीं। शुद्ध आत्मीय अध्रुवता से रहित जैसा है वैसा ही सदैव रहने वाला उत्कृष्ट यह आनंद विलास, ज्ञान विलास के जगे बिना होता नहीं है। ऐसा ज्ञान का और आनंद का योग है, साफ ही जो पुरुष ज्ञान की वृद्धि को ललचाता रहेगा उसके न आनंद जगेगा और न ज्ञान विकास होगा, और जो पुरुष आत्म तत्त्व को जानकर केवल आत्मस्वरूप के ज्ञान में मग्न रहेगा, बाहरी पदार्थ के जानने का विकल्प ही नहीं है। मात्र निज सहज स्वभाव में उपयुक्त है तो उसका ऐसे अपने केंद्र में मग्न होने का फल यह होगा कि वह सारे विश्व को जान लेगा। जन्य में बहुत ऊंची कूद वह पुरुष करता है जो जमीन पर जितना अधिक गड़कर उठाता है ज्ञान का विलास भी उस पुरुष के इतना महान होता है जो अपनी इस आत्मभूमि में नियंत्रित होता, गड़ जाता है, मग्न होता है और जहाँ ऐसा उत्कृष्ट ज्ञान विलास है वहाँ ही आत्मा का अनुपम सहज आनंद का विलास है। तो अनंत ज्ञान, अनंत आनंद, ये दोनों सहचर हैं। सो इनके प्राप्त करने का उपाय अपने आत्मा में सम्यक्त्व रत्न दीपक का प्रकाश पा लेना है। उत्तम समाधि एक चेतन का उत्तम विलास है। ज्ञान में ज्ञान स्वरूप ही समाया हो, ऐसी समता की स्थिति जिनके होती है उनके प्राणायाम धारणा आसन आदिक जो-जो भी नियम समाधि के बताये हैं वे सहज होते हैं और जिनको इस ज्ञान बीज का परिचय नहीं है वे प्राणायाम कर करके सारी जिंदगी हैरान होवे फिर भी उनको समाधि प्राप्त नहीं होती। अपने में सम्यक्त्व का प्रकाश लायें। मैं सहज ज्ञानमात्र हूँ यह ही मेरा सर्वस्व है। मैं इस प्रतीति से कभी भी चलित न होऊंगा।