वर्णीजी-प्रवचन:रयणसार - गाथा 149
From जैनकोष
पवयणसारव्भासं परमप्पज्झाणकारणं जाण।
कम्मक्खवणणिमित्तं कम्मखवणे हि मोक्ख सुहं।।149।।
सहजात्म स्वरूपोपयोग के अभ्यास का अनुरोध―मोक्षसुख किसे प्राप्त होता है इसका उपाय इस गाथा में बताया है। मोक्ष सुख मिलता है कर्म का क्षय होने पर, उनमें इसका मुख्य बाधक है मोहनीय कर्म और इस आत्मानुभव में बाधक है घातिया कर्म और कर्म पात्र दुःख का बीज है। ऐसा सामान्य स्वरूप देखकर विचारा जाय तो अष्टकर्मों के समूह का नाश होने पर वह परम सुख प्राप्त होता है। और कर्मों का नाश कैसे होता है? कर्मों के क्षय का निमित्त कारण है ज्ञान और ध्यान परमात्मा स्वरूप का ध्यान कर्म क्षय का निमित कारण है ओर परमात्मा के ध्यान के लिए क्या उपाय करना? सो कहा है लक्षण सार का अभ्यास याने आगम में जो सार तत्त्व है उनका अभ्यास करना उनको जानना और उनकी ओर दृष्टि बनाये रहना यह है परमात्मा के ध्यान का कारण। परमात्मा है आत्मा का अविकार सहज ज्ञान मात्र स्वरूप और जब तक इसको दृष्टि में न लिया जाय तब तक ध्यान कैसे बने? और दृष्टि में तब ही लिया जा सकता है जब कि इसका परिचय हो तो इस अंतस्तत्त्व का अभ्यास बनाना परमार्थ ध्यान का कारण है इस प्रकार हे भव्य जीव यदि संसार के संकटों से छूटकर परम सुख प्राप्त करना चाहते हो तो अपने आप के स्वरूप में अंतः प्रकाशमान उस ज्ञान ज्योति के दर्शन का प्रयत्न करें। अपने को एक मात्र ऐसा निरखना कि मैं अविकार ज्ञानमात्र हूँ ऐसा भाव रखना होगा अपने को अविकार ज्ञान ज्योति मात्र निरखने में इस अंतस्तत्त्व का ध्यान बनता है और यह अपना ही सुगम स्वाधीन उपाय है। इस कारण शांति के लिए इस अपने परम ब्रह्म स्वरूप की जानकारी का अभ्यास बढ़ावें। परमात्मध्यान के कारणभूत प्रवचनसाराभ्यास की विशेषता―यह जीव उपयोग स्वरूप है ज्ञान स्वरूप है और इसका कहीं न कहीं उपयोग लगता है तो बस इस उपयोग के लगने के विषय का ही सही निर्णय बनाना है कि कैसा उपयोग लगाया जाय कि यह जीव सुखी रहे? यह जीव उपयोग लगाने के सिवाय अन्य कुछ करता ही नहीं है। हर जगह किसी भी स्थिति में हो भरपूर घर में हो अकेले घर में हो बड़े घर में हो कुटुंब में हो कहीं हो देश प्रदेश सर्वत्र यह जीव अपना उपयोग करता है इसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं करता और इस उपयोग की विशेषता में ही सारा भविष्य आधारित है कहाँ उपयोग लगे कि जीव को शांति मिले और कहाँ उपयोग लगे कि जीव अशांत रहे? यदि अपने अविकार सहज ज्ञान स्वरूप में उपयोग रहता है तो अशांति का कोई कारण नहीं है और यदि बाह्य पदार्थों में कषायादिक परभावों में उपयोग जुड़ता है तो वहाँ शांति का कोई अवकाश भी नहीं। तो इससे यह समझना है कि अपना उपयोग शुद्ध ज्ञान स्वरूप तत्त्व में रहना चाहिए यह ही कहलाता है परमात्मतत्त्व। परमात्मतत्त्व दो तरह से देखा जाता है (1) कार्यरूप परमात्मतत्त्व और (2) कारणरूप परमात्मतत्त्व। कार्यरूप परमात्मतत्त्व तो अरहंत और सिद्ध हैं। जिनके चार घातिया कर्म नष्ट हो चुके और मात्र अपने ही ज्ञानानंद में तृप्त रहा करते हैं वह है कार्य परमात्मा और ऐसा ही स्वभाव है सब जीवों में। अगर एक होने का जीव में स्वभाव न हो स्वरूप से यह केवल न हो तो केवल बन भी नहीं सकता तो जो केवल होने का स्वरूप है वह है कार्य परमात्मा अर्थात सहज ज्ञानमात्र अंतस्तत्त्व। इन दोनों में उपयोग देना है। मुख्य तो हुआ यह निर्विकल्प अंतस्तत्त्व। अभेद अंतस्तत्त्व का उपयोग और इसमें न ठहर सके तो ऐसा फल जिसने पाया है उस कार्य परमात्मतत्त्व में उपयोग जाना यह है आत्म कल्याण का उपाय सो परमात्मतत्त्व के ध्यान का कारण है प्रवचन सार का अभ्यास। प्रवचन मायने आगम जिनेंद्र देव के द्वारा प्रणीत और आचार्य परंपरा से चला आया जो यह प्रवचन है और इसका सारभूत जो अध्यात्मतत्त्व है उसका अभ्यास परमात्मा के ध्यान का कारण है। सर्वत्र सहज अविकार स्वसंवेदन का माहात्म्य―हाँ तो आत्मा के शुद्ध स्वरूप के परिणमन का अभ्यास आगम का अभ्यास यह तो है परमात्मा के ध्यान का कारण और निज परमात्मा का ध्यान अर्थात् स्वसम्वेदन जो निज अनुभव के अभ्यास से अपने आप के शुद्ध स्वरूप का दर्शन हुआ है वह ध्यान कर्मों के क्षय का कारण है ओर कर्मों का क्षय होने पर मोक्ष का सुख प्राप्त होता है। जिसे सकल निर्विकल्प ज्ञानानंद का अनुभव चाहिए उसे तो कर्मक्षय का उपयोग बनाना होगा। कर्मक्षय का उपाय है परमात्मतत्त्व का ध्यान और परमात्मतत्त्व के ध्यान का उपाय है अंतस्तत्त्व के अनुभव का अभ्यास। यह कार्य बहुत सुगम है। स्वाधीन है भला चाहने वालों को रास्ता मिलता है और वैषयिक सुखों में रमने वालों को सही रास्ता नहीं मिलता है। जिसको यह निर्णय हुआ कि संसार सर्वत्र दुःखमय है न इस लोक का कोई क्षेत्र है ऐसा कि जो शांति का कारण हो न कोई भाव है न काल है संसार का सर्वरूप दुःख रूप है इस कारण इस कृत्रिम दुःखरूप इस संग समागम को क्यों उपयोग में बसाना। यह जो मैं आत्मा ज्ञान स्वरूप हूँ जिसका निज स्वरूपास्तित्व है उसका न कोई रिश्तेदार है न कोई पहिचाननहार। किसी का मुझसे कुछ संबंध नहीं फिर किसी को उपयोग में क्यों बसाया जाय? अपना जो सहज ज्ञान स्वरूप है अपने ही सत्व के कारण मेरे में जो स्वयं का स्वरूप स्वभाव है उस रूप ही अपने को अनुभव करना एक ही कार्य पड़ा है जीवन में इसके अतिरिक्त अन्य किसी कार्य को यदि प्रमुखता दें तो वह संसार में रुलेगा। करना सब पड़ता है। सब कुछ करते हुए भी मुख्यता देना चाहिए अपने आप के स्वरूपानुभव की इसी उपाय से संसार से पार हुआ जा सकता बाहरी सब उपाय तो संसार में रुलने के ही कारण हैं।